अर्थशास्त्र

पियरे जोसेफ प्रोधों | पियरे जोसेफ प्रोधों के मुख आर्थिक विचार

पियरे जोसेफ प्रोधों | पियरे जोसेफ प्रोधों के मुख आर्थिक विचार

पियरे जोसेफ प्रोधों ( 1809-1865)

(Pierre Joseph Proudhon)

सन्त साइमन, चार्ल्स फूरिये और रॉबर्ट ओवन को कल्पनावादी समाजवाद के लेखकों में और सिसमण्डी को ‘मध्यवर्गीय समाजवादियों’ में गिना गया है। प्रोधों पर आकर समाजवाद सर्वहारा वर्ग का समाजवाद बनने की दिशा में कदम बढ़ा देता है। इस तरह प्रोधों काल्पनिक और वैज्ञानिक समाजवाद के मिलन-स्थल पर स्थित है।

इनका जन्म 1809 मे फ्रांस के एक गरीब परिवार में हुआ। इन्होंने अपने ही पुरुषार्थ से शिक्षा पाई और एक छापेखाने में प्रूफरीडर बन गये। अपने कर्तव्य-पालन के सिलसिले में उनको अनेक विषयों की पुस्तकें पढ़ने का मौका मिला। इसी काल में इन्होंने अर्थशास्त्र का विधिवत् अध्ययन किया। उन्होंने लिखा भी बहुत। इनके प्रधान ग्रन्थ What is Property, The philosophy of Misery तथा Justice हैं। इन्होंने एक पत्र भी निकाला। वे असेम्बली के सदस्य रहे। पत्र के सिलसिले में जेल गये और फिर भाग कर बेल्जियम चले गये। इनकी मृत्यु पेरिस में 1865 में हुई।

पियरे जोसेफ प्रोधों के प्रमुख आर्थिक विचार

(Main Economic Ideas)

(1) व्यक्तिगत सम्पत्ति- इनका नारा था ‘सम्पत्ति चोरी की वस्तु है।’ वह लिखते हैं, ‘श्रम विभाजन के प्रभाव के अधीन सम्पत्ति प्रवाह चक्र की एक कड़ी मात्र बन गई है और सम्पत्ति स्वामी एक चुंगी संग्रहक की भांति है जो कि चुंगी घर से गुजरने वाली प्रत्येक वस्तु से चुंगी वसूल करता है। वह वास्तव में चोर है।’

इन्होंने व्यक्तिगत सम्पत्ति के पक्ष में दिये जाने वाले सभी तक का खण्डन किया। जे० बी० से के सीमित भूमि के तर्क के सम्बन्ध में इन्होंने कहा कि इससे व्यक्तिगत स्वामित्व का औचित्य सिद्ध नहीं होता वरन् यह निष्कर्ष निकलता है कि वह सबके प्रयोग के लिए होनी चाहिए। विनोबा भावे का भूदान सिद्धान्त भी प्रौधों के मत को मानता है। प्रौधों भूमि पर किसी का भी स्वामित्व नहीं चाहते थे, श्रम का भी नहीं। उनका कहना था कि समाज की सभी आर्थिक पीड़ाएँ व्यक्तिगत सम्पत्ति के कारण हैं किन्तु स्मरण रहे कि सम्पत्ति के स्वामित्व के विरोधी अवश्य थे, किन्तु, उसे रखने (possession) के विरोधी नहीं।

(2) व्यक्तिगत स्वाधीनता- व्यक्तिगत सम्पत्ति से ही जुड़ा हुआ प्रश्न है व्यक्तिगतbस्वतन्त्रता का। सम्पत्ति पर राज्य का स्वामित्व होने का अर्थ व्यक्ति की स्वतन्त्रता का अपहरण होना है किन्तु प्रौधों व्यक्ति की स्वाधीनता के कट्टर समर्थक थे। वह समाज की सम्पत्ति के स्वामित्व को तो बदलना चाहते थे किन्तु स्वाधीनता को कम नहीं करना चाहते थे। उन्हें ऐसी स्वतन्त्रता चाहिए जो कि पूर्ण, शाश्वत और सर्वसुलभ हो। इस विषय से उनके विचार अराजकतावादी प्रिन्स क्रोपाटकिन, बाकूनिन और मैलटैस्टा आदि से मिलते हैं।

(3) अन्य समाजवादी विचारों की आलोचना-  समाजवादी नहीं थे। समाजवाद को वह व्यर्थ समझते थे। वे साम्यवादी भी न थे, क्योंकि साम्यवाद में कमजोर के द्वारा ताकतवर का शोषण उसी प्रकार किया जाता है जिस प्रकार कि पूँजीवाद में कमजोर का ताकतवर द्वारा। साम्यवाद में विषमता इसलिए उत्पन्न होती है, क्योंकि वहाँ साधारण और श्रेष्ठ सभी चीजें एक स्तर पर रख दी जाती हैं। उन्होंने यह भी कहा कि साम्यवाद में व्यक्तिगत सम्पत्ति समाप्त नहीं होती, वरन् उसका हस्तान्तरण (transfer) मात्र हो जाता है। सम्पत्ति पर अधिकार होना ही खराब है। वे चाहते थे कि सम्पत्ति का उपयोग हो किन्तु इसके उपयोग के बदले कोई कुछ लेने काbअधिकार न रखे। वे श्रमिकों के संगठन का समर्थन नहीं करते थे क्योंकि इससे उनकी स्वतन्त्रता नष्ट होती है। शौकिया समाजवादियों की आलोचना करते हुए वह लिखते हैं कि इनका गरीब जनता से सम्पर्क नहीं होता। कल्पनावादियों सम्बन्ध में यह कहते हैं कि उन्होंने मानव प्रकृति की उपेक्षा कर दी है और मानव स्वतन्त्रता के अपहरण की बात सोचते हैं।

(4) अराजकतावाद और सामाजिक न्याय- न्याय को वे उतना ही आवश्यक मानते हैं जितना कि स्वतन्त्रता को। न्याय के सम्बन्ध में उनकी धारणा यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के प्रति सहज सम्मान की भावना होनी चाहिये, चाहे वह कोई भी हो और किसी भी परिस्थिति में हो। मनुष्य मनुष्य का स्वामी न हो, स्वयं समाजिक व्यवस्था में भी मनुष्य पर शासन न करे।

(5) मूल्य श्रम का सिद्धान्त- प्रौधों के अनुसार किसी वस्तु का मूल्य उसके निर्माण में लगे (श्रम के) समय और व्यय के बराबर है। यह लागत के बराबर होना चाहिये, उपयोगिता के बराबर नहीं। उन्होंने अतिरिक्त मूल्य का भी संकेत किया। वह लिखते हैं कि विभिन्न मजदूरों का संयुक्त उत्पादन सम्मिलित प्रयास (श्रम विभाजन) के कारण बढ़ जाता है, जिसके लिये पूँजीपति कुछ नहीं देता। उनका कहना था कि उत्पत्ति के साधन भूमि, पूँजी और श्रम है। भूमि तो प्रकृति का मुक्त उपहार है और पूँजी पर से स्वामित्व समाप्त होना चाहिये, जिस कारण श्रम ही रह जाता हैnऔर इसका अर्थ हुआ कि समाप्त धन केवल श्रम की उपज है।

(6) विनिमय की प्रधानता- न्याय की स्थापना के लिये उन्होंने विनिमय व्यवस्था के सुधार का सुझाव दिया। उन्होंने विनिमय बैंक की योजना प्रस्तुत की, इसके अनुसार बैंक को कागजnके नोट जारी करने चाहिये किन्तु इनका प्रयोग ऋण देने में ही करे। ब्याज कुछ नहीं। ऋण लौटाये जाने पर मुद्रा रद्द कर दी जाय। ऋण के धरोहर के रूप में उत्पन्न वस्तुएं रखी जायं। 1849 में उन्होंने इस योजना के अनुसार एक ‘Peoples Bank’ स्थापित किया किन्तु यह शीघ्र ही असफल हो गया, क्योंकि इसके लिये पर्याप्त पूँजी इकट्ठी नही हो सकी।

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Pankaja Singh

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