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पुरुषार्थ क्या है? | पुरुषार्थ का अर्थ | पुरुषार्थ के प्रकार | पुरुषार्थ का महत्व

पुरुषार्थ क्या है? | पुरुषार्थ का अर्थ | पुरुषार्थ के प्रकार | पुरुषार्थ का महत्व

पुरुषार्थ (पुरुषार्थ क्या है?)

मानव जीवन के स्वरूप और लक्ष्य के संबंध में दो विचारधाराएँ देखने को मिलती हैं। एक विचारधारा के अनुसार मनुष्य का जीवन ‘नश्वर’ है, इसलिए उसके पीछे भागना व्यर्थ है। ‘जीवन’  के लिए ही ‘जीना उचित नहीं बतलाया गया है। इसके विपरीत दूसरी बिचारधारा यथा पश्चिमी विचारधारा ‘भोगवाद’ पर आधारित है। भारतीय संस्कृति में इन दोनों विचारधाराओं का अपूर्व समन्वय किया गया है। भारतीय विचारधारा सिर्फ परलोक चिन्तन में ही रत रहने का उपदेश देता है। उसमें जीवन के सुखों का महत्व है लेकिन उन सभी सुखों को भोगने और अपनाने के बाद भी उनका उद्देश्य ‘मोक्ष’ प्राप्त करना होता है जिसे वे अन्य तीन पुरुषार्थों का पालन करके पाते हैं। पुरुषार्थ का सिद्धान्त इस समन्वयात्मक दृष्टिकोण (अध्यात्मवाद और भौतिकवाद) की स्पष्ट अभिव्यक्ति है।

पुरुषार्थ का अर्थ

पुरुषार्थ दो शब्दों से बना है- ‘पुरुष’ और ‘अर्थ’ पुरुष का अर्थ ‘विवेकशील प्राणी’ तथा अर्थ का तात्पर्य ‘लक्ष्य’ है। अतः पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ हुआ-‘विवेकशील प्राणी का लक्ष्या पुरुषार्थ जहाँ एक और सांसारिक और पारलौकिक लक्ष्य और कर्तव्य है, वहीं दूसरी तरफ इससे नैतिक, आर्थिक एवं मनो-शारीरिक मूल्यों का बोध होता है।

पुरुषार्थ के चार आधार हैं जो मानव जीवन के प्रमुख उद्देश्यों को व्यक्त करते हैं। ये चारों आधार हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इनमें से मोक्ष मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है। ‘मोक्ष’ मानव जीवन के चरम उद्देश्य एवं मानव की आंतरिक आध्यात्मिक अनुभूति का प्रतीक है। ‘अर्थ’ मनुष्य में वस्तुओं को प्राप्त करने एवं संग्रह करने की जो सहज प्रवृत्ति होती है, उसकी ओर संकेत करता है। ‘काम’ मानव के सहज स्वभाव और भावुक जीवन को व्यक्त करता है तथा उसकी काम भावना और सौन्दर्याप्रियता की प्रवृत्ति की तुष्टि की ओर संकेत करता है। ‘धर्म’ मानव की पाशविक और दैवी प्रकृति के बीच की श्रृंखला है।

पुरुषार्थ के प्रकार

ऋग्वैदिक ऋचाओं में मनुष्य की शतायु के लिये कामना की गई है. यथा मनुष्य की पूर्ण आय् सौ वर्ष की मानी गयी है। सौ वर्ष के इस जीवन को सुखी बनाने और सुचारु रूप से चलाने के लिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में विभक्त कर धर्म, अर्थ, काम का साधन इस ढंग से करना चाहिए कि तीनों में परस्पर विरोधाभास न हो और वे एक दूसरे के पूरक बन कर मोक्ष प्राप्त करने में सहायक बनें। पुरुषार्थ चार प्रकार के बताये गये हैं-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।

(1) धर्म- धर्म शब्द का अर्थ ‘धारण करना’ है। श्रुति और स्मृति में बताया गया है कि सदाचार ही परम धर्म है। धर्म भारतीय संस्कृति का मूल मन्त्र है। हमारी आध्यात्मिकता, उद्देश्य तथा आदर्श धर्म पर ही अवलम्बित है। धर्म आध्यात्मिकता तथा नैतिकता का समन्वय है। वह परमार्थ का सम्पादन करता है। धर्म का मात्र उद्देश्य है विषयों से चित्तवृत्तियों का निरोध कर आत्मज्ञान प्राप्त करना है। यज्ञ, सदाचार, इन्द्रिय-संयम, अहिंसा, दान आदि को परम धर्म माना गया है।

धर्म व्यक्ति को कर्तव्यों, सत्कर्मों एवं गुणों की ओर ले जाता है। यह व्यक्ति की विविध रुचियों, इच्छाओं, आकांक्षाओं, आवश्यकताओं आदि के बीच एक संतुलन बनाये रखता है और परिणामस्वरूप मानवीय व्यवहार का उचित नियमन एवं नियंत्रण करता है।

(2) अर्थ- अर्थ का क्षेत्र धर्म की अपेक्षा अधिक व्यापक माना गया है। जिस प्रकार आत्मा के लिये मोक्ष, बुद्धि के लिये धर्म और मन के लिये काम की आवश्यकता है, उसी प्रकार शरीर के लिये अर्थ की आवश्यकता है। चाणक्य के अनुसार धर्म का मूल अर्थ है। अर्थ सांसारिक जीवन का मूल है। अर्थ के अभाव में जीवन व्यर्थ हो जाता है। अर्थ मनुष्य की शक्ति एवं ऐश्वर्य प्राप्त करने की इच्छा, के लिए प्रयुक्त हुआ है। हिन्दू विचारकों ने धन को भी पुरुषार्थ जीवन में स्थान देकर इरो उचित मानवीय आकांक्षा माना है। जिसके जीवन में अर्थ नहीं वह अपने कर्तव्यों का उचित ढंग से पालन करने में सफल नहीं हो सकता। कौटिल्य के अनुसार दान व अभिलाषाओं की तुष्टि अर्थ पर ही निर्भर करती है। पंचमहायज्ञों को सम्पन्न करने के लिए भी अर्थ का होना आवश्यक है। समाज के उत्थान तथा स्वाभिमानपूर्वक जीवन-यापन के लिए भी अर्थ के महत्व को स्वीकार किया गया है। मोक्ष प्राप्ति के लिए भी ‘अर्थ’ जरूरी है। महाभारत तथा स्मृतियों के अनुसार अर्थ का पुरुषार्थ पूरा किये बिना वानप्रस्थ और संन्यास ग्रहण करने वाले व्यक्ति को मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता।

(3) काम- भारतीय धर्म-दर्शन के अनुसार काम का मुख्य उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति तथा वंश वृद्धि करना है। काम का सर्वोत्तम और आध्यात्मिक उद्देश्य पति-पत्नी में आध्यात्मिकता, मानव प्रेम, परोपकार तथा सहयोग की भावनाओं का विकास करना है। इस उद्देश्य का ज्ञान पशु-पक्षियों कीट-पतङ्गों को नहीं हो सकता। काम शब्द से कला-सम्बन्धी भाव-विलास, ऐश्वर्य तथा कामनाओं का भी बोध होता है। काम जीवन का एक प्रमुख अंग है लेकिन इसका प्रयोग धर्मानुकूल होना चाहिए।

काम व्यक्ति और समाज के लिए महत्वपूर्ण है। काम से सर्वप्रथम यौन और संतानोत्पत्ति की इच्छा की पूर्ति होती है। काम-पूर्ति के बिना मोक्ष नहीं मिल सकता। काम मोक्ष प्राप्ति में काफी सहायक होता है। गीता में तो श्रीकृष्ण ने कहा है कि “मैं वही काम हूँ जो धर्म के विरुद्ध नहीं है।”

(4) मोक्ष- भारतीय जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति है। सांसारिक तथा भौतिक बंधनों से छुटकारा पाना ही मोक्ष कहलाता है। हमारे शास्त्रकारों का यह सिद्धान्त है कि चूँकि मनुष्य बौद्धिक प्राणी है, इसलिए पिंड-ब्रह्माण्ड के तत्व को पहचानना ही उसका मुख्य कार्य या पुरुषार्थ है। इसी को ‘मोक्ष’ कहा गया है। डा० ए० के० लैण्ड ने कहा है कि ‘मोक्ष का तात्पर्य जीवन-मरण चक्र से परे होना है और परिणामस्वरूप दुनियाँ के सभी कष्टों से मुक्त होना है।’ गीता के अनुसार मानसिक द्वन्द्व का समाप्त होना तथा यह जान लेना कि सभी स्थान पर एक ही परमेश्वर है, मोक्ष की अवस्था है। माक्ष-प्राप्ति के तीन मार्ग बताये गये हैं-

(1) कर्म-मार्ग- फल की प्राप्ति की आशा किये बगैर अनासक्त भाव से कर्म करना कर्म-मार्ग कहलाता है।

(ii) ज्ञान-मार्ग- ज्ञान मार्ग को मोक्ष प्राप्ति का सबसे सरल मार्ग माना गया है।

(iii) भक्ति-मार्ग- यह आराधना का मार्ग है। भगवान की प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति के हेतु भक्ति मार्ग ही उत्तम है।

उपयुक्त विवेचना से स्पष्ट है कि हिन्दू जीवन एक प्रकार की साधना है जो मोक्ष-प्राप्ति पर ही पूर्ण होती है। पुरुषार्थ व्यवस्था का यह अंतिम साधन है और साध्य भी। मोक्ष-प्राप्ति का अर्थ है अनन्त आनन्द की प्राप्ति और सांसारिक आवागमन से मुक्ति।

पुरुषार्थ का महत्व

भारतीय जीवन और दर्शन में पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को अपनी एक विशेष महत्ता है। पुरुषार्थ संस्था निर्दिष्ट जीवन को प्राप्त करने की एक साधन-व्यवस्था है। यह व्यक्ति को वाणित कार्य करने की प्रेरणा देती है, तथा भौतिक एवं आध्यात्मिक जगत के बीच सन्तुलन स्थापित करती है। पुरुषार्थ की अवधारणा जीवन के उच्चतर आदर्शों की प्राप्ति की परियोजना है। पुरुषार्थ के माध्यम से ही मानवी जीवन का सर्वांगीण विकास हो सकता है। पुरुषार्थ भारतीय सामाजिक जीवन का मनोवैज्ञानिक तथा नैतिक आधार भी है। पुरुषार्थ का सिद्धान्त भारतीय संस्कृति की आत्मा है।

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Pankaja Singh

1 Comment

  • बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति – पुरुषार्थ + धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ।
    बहुत बहुत धन्यवाद ।

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