इतिहास

प्राचीन भारत में नारी का महत्व | वैदिकयुग में नारी | रामायणकालीन समाज में नारी | महाभारतकालीन समाज में नारी | मौर्यकालीन समाज में नारी | गुप्तकालीन समाज में नारी | राजपूत युग में नारी | प्राचीन भारत में स्त्रियों की दशा | प्राचीन भारत में स्त्रियों की सामाजिक परिस्थिति

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प्राचीन भारत में नारी का महत्व

प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियों को अत्यन्त गोरवशाली स्थान प्राप्त था। कालान्तर में स्त्री कभी भोग-विलास की बस्तु समझी गई, कभी घर की बहारदीवारी में बन्द की गई और कभी उसकी भावनाओं को पूर्ण अवज्ञा करके पुरुष ने उसे मात्र खिलोना समझा। किन्तु प्राचीन भारत ने उसके सच्चे एवं गरिमामण्डित रूप के दर्शन किये थे और समाज में उसे सचित स्थान प्रदान किया था। स्त्री व पुरुष को जीवन गाड़ी के दो पहिये मानकर दोनों को समान अधिकार दिया था। इसलिए स्त्री को पुरुष की अर्धागिनी कहा गया था।

प्राचीन भारत में स्त्री विवाह के समय ही अपने महत्वपूर्ण दायित्व समझ जाती थी। उसे भली- भाँति अवगत हो जाता था विवाह का अर्थ केवल वासनापूर्ति ही नहीं है, अपितु उसे गृहिणी, माता एवं सहचरी के दायित्व भी वहन करते हैं। इन दायित्वों को पूरा करने में वह अपना गर्व समझती थी और परिवार को ग्वर्ग सदृश बनाने में प्रयत्नशील रहती थी। जिस कुल में स्त्री से पति तथा पति से स्त्री सन्तुष्ट रहती है, उस कुल में अवश्य ही सर्वदा कल्याण होता है। इस प्रकार मनु ने स्त्री के महत्व और उसके प्रति पुरुष के किये जाने योग्य व्यवहार का अच्छा विवेवन किया है।

प्राचीन भारत में स्त्री का कार्य-क्षेत्र परिवार तक ही सीमित न रहकर समाज से सम्बद्ध भी था। स्त्री-शिक्षा का यथोचित प्रबन्ध था। वेद पढ़ने तथा उपनयन आदि संस्कारों द्वारा सुसंस्कृत बनने का स्त्रियों को पूर्ण अधिकार था। पुरुष के साथ उसे तीन ऋण चुकाने पड़ते थे तथा अपनी शारीरिक, मानसिक व आत्मिक शक्तियों के सम्यक् विकास के लिए वह पूर्ण स्वतन्त्र थी।

प्राचीन भारतीय समाज में स्त्री का गृहिणी, माता एवं सहचरी रूप में महत्व देखा जा सकता था। गृहिणी रूप में वह परिवार के सब छोर्ट-बड़े सदस्यों की सुख-सुविधा का ध्यान रखती थी, घर की सफाई करती थी, भोजन की व्यवस्था करती थी और अतिथि सत्कार जैसे कार्यों को करती थी। सन्तान का पालन-पोषण करके उसे योग्य बनाना भी गृहिणी का उत्तरदायित्व था। इसीलिए वह गृहिणी पद पर आसीन थी और उसका यह पद अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता था।

गृहिणी रूप के अतिरिक्त प्राचीन भारत में नारी का दूसरा महिमामय रूप माता का था। इस रूप में वह अपने परिवार के लिए त्याग, ममता और तप जैसी पावन भावनाओं से ओत-प्रोत रहती थीं।

प्राचीन भारत में गृहिणी एवं माता के अतिरिक्त नारी का सहचरी रूप भी अति महत्वपूर्ण माना गया था। परिवार के अन्तर्बाह्य उत्तरदायित्वों का वहन करते-करते उसका और उसके पति का जीवन नीरस न हो जाय, इसलिए वह पति की सहचरी बनकर जीवन के सुखों का उपभोग करती थी। प्रकृति प्रदत्त सौन्दर्य, माधुर्य एवं कलाप्रेम आदि गुणों के द्वारा वह सुख की सृष्टि करती थी। उसके मधुर प्रेम की शीतल छाया में पुरुष अपने दिन भर के संघर्षों की थकान मिटा लेता था।

वैदिकयुग में नारी

इस काल में भारत में नारियों की स्थिति सम्माननीय थी। वैदिक आर्य कमनीय कन्या की प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रार्थना करते देखे जाते हैं। इस काल में यथाविधि विवाहित, सती और शुद्ध आचरण वाली नारी की प्रशंसा की जाती थी। स्त्री-पुरुष दोनों ही परस्पर पति-पत्नी के चुनाव के लिए स्वतन्त्र थे। ऋग्वेद में लिखा है कि कितनी ऐसी स्त्रियाँ हैं, जो केवल द्रव्य से प्रसन्न होकर स्त्री चाहने वाले पुरुष के ऊपर आसक्त होती है।

वैदिक भारत में विवाह के नाना रूप प्रचलित थे, कभी-कभी कन्या का विक्रय भी हो जाता था।

ऋग्वेद में कन्या का बलात् अपहरण कर ले जाने का भी उल्लेख है, किन्तु यह वीरता का कार्य समझा जाता था।

ऋग्वेद में सेवा या पुरस्कार के रूप में भी कन्या देने का उल्लेख है। जैमिनी ब्राह्मण में च्यवन ऋषि की कथा इसका उदाहरण माना जा सकता है।

ऋग्वेद में भाई-बहिन का विवाह वर्जित था, यद्यपि सांकेतिक रूप में इसका उल्लेख यम-यमी सूक्त में मिलता है, जहाँ बहिन भाई से विवाह की इच्छुक है किन्तु भाई इसका निषेध कर देता है।

ऋग्वेद में एक विवाह आदर्श माना जाता था किन्तु सौतिया डाह का उल्लेख भी मिलता है, जो इस बात का प्रमाण है कि पुरुष एक से अधिक विवाह भी कर लेता था।

निःसन्तान होने पर नारी पुनर्विवाह कर सकती थी, विशेष कर विधवा अपने देवर से विवाह कर लेती थी।

वेद कालीन भारत में नारियों की स्थिति बहुत अच्छी थी, उन्हें समाज में सम्मान प्राप्त था, वे विद्या और बुद्धि से सम्पन्न थीं, देव रमणियाँ यज्ञ में आती थीं, इला धर्म का उपदेश देती थी। घोषा नामक नारी ब्रह्मवादिनी थी, उसने अनेक सूक्तों का स्मरण किया था। इसी प्रकार का उल्लेखनीय स्त्रियों में अपाला, शची, अदिति, विश्ववारा, आत्रेयी, श्रद्धा, वैवश्वती, यमी और वाग्देवी के नाम लिए जा सकते हैं।

विदुषी नारियों में गार्गो और मैत्रेयी के नाम से कौन परिचित नहीं है, इनकी ज्ञान गरिमा की परिचायक वृहदारण्यक उपनिषद् है, गार्गी ने जनक की सभा में याज्ञवल्क्य के समक्ष जो तत्व ज्ञान विषयक प्रश्न उपस्थित किये थे, वे उसे आज भी अमर बनाये हुए हैं।

रामायणकालीन समाज में नारी

रामायणकालीन समाज में कन्याओं को शिक्षा दी जाती थी, कौशल्या, कैकेयी, सीता आदि सभी को विवाह से पूर्व अध्यपन की सुविधा थी, कौशल्या अग्नि में मंत्रों सहित आहुति दे रही थी, सीता संध्योपासना भी करती थी, तारा भी मंत्रविद् थी, ये नरियाँ कर्मकाण्ड और शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करती थीं, व्यावहारिक और नैतिक शिक्षा भी इन्हें दी जाती थी, राजधर्म की शिक्षा भी दी जाती थी, इस काल की नारियाँ संगीत, नृत्य और नृत्यकला का भी अध्ययन करती थीं, रावण की अन्तःपुर की स्त्रियाँ वाद्ययन्त्रों में प्रवीण थीं। कैकेयी ने सैनिक शिक्षा भी प्राप्त की थी, इसीलिए वह युद्ध में पति के साथ गयी थी, उसने वहाँ पति के प्राण बचाये थे।

रामायण काल में पर्दे का प्रयोग अधिक नहीं था, फिर भी उसका प्रयोग होता था, साथ ही विशेष परिस्थितियों में पर्दाप्रथा तोड़ भी दी जाती थी-विपत्ति काल में, युद्ध में; स्वयम्बर और यज्ञ तथा विवाहों में स्त्रियों को देखना दोषपूर्ण नहीं है।

‘राक्षस समाज में भी पर्दा प्रथा थी, रावण की मृत्यु पर मन्दोदरी बिलाप करते हुए कहती है कि- “मैं पर्दा छोड़कर नगर द्वार से पैदल चलकर आपके पास आई हूँ मुझे देखकर आप क्रुद्ध क्यों नहीं होते। किन्तु पर्दे की अपेक्षा नारियों से सदाचार की अपेक्षा अधिक की जाती थी।

रामायण काल के समाज में विवाहित स्त्रियाँ अपने परिवार में सम्मान प्राप्त करती थीं, सास- ससुर पुत्रवधू के साथ स्नेह का व्यवहार करती थीं, दशरथ कौशल्या का प्रेम राम-सीता के प्रति वन जाते समय पता चलता है।

समाज में पत्नी से कठोर अनुशासन और त्याग की अपेक्षा की जाती थी, पति कैसा भी हो, नारी के द्वारा वह वरेण्य है।

रामायण में पुत्री के विवाह पर धन देने की प्रथा मिलती है, कौशल्या को अपने विवाह में एक हजार गाँव मिले थे, पति की मृत्तु होने पर भी पली अपनी इस सम्पत्ति पर अपना अधिकार रखती थी।

नारी जीवन की चरम सार्थकता उसके मातृत्व में मानी जाती थी, तभी वह जननी कहलाती थी। निःसन्तान नारी की स्थिति दयनीय थी, पत्ली का बंध्यात्व पति के लिए अपार मनोवेदना प्रदान करता था।

रामायण काल में भारत में सती प्रथा नहीं थी। दशरथ के साथ उसकी कोई रानी सती नहीं हुई थी, रावण की रानियों में से भी कोई सती नहीं हुई थी।

विधवा के पुनर्विवाह का उल्लेख भी रामायण में नहीं है, वे अपने जीवन को वैधव्य के रूप में ही व्यतीत करती थीं, किन्तु ये नारियाँ समाज और परिवार में सम्मान से देखी जाती थीं। मांगलिक अवसरों पर उनकी उपस्थिति को भी अशुभ नहीं माना जाता था।

रामायणकालीन समाज में वेश्याओं को राजकीय संरक्षण प्राप्त था, वे राजकाज के कार्यों में सहयोग देती थी, किसी अतिधि के स्वागत और मनोरंजन में उनका प्रयोग किया जाता था। इस प्रकार कहा जा सकता है कि उस काल में वेश्या और नर्तकियाँ राजकीय शिथचार की साधक थीं।

निश्चय ही रामायण में नारी जीवन का व्यापक दर्शन है, नारी के स्वभाव और उसके गुण-दोषों का विस्तृत वर्णन है। उसकी समाज में अच्छी स्थिति थी।

“कुल मिलाकर उस युग में स्त्रियों की स्थिति सामान्यतः सुखद थी। कम से कम तत्कालीन परिस्थितियों में नारी को एक कन्या, पली, माता और विधवा के रूप में समस्त सम्भव सुविधाएँ और अधिकार प्राप्त थे।

महाभारतकालीन समाज में नारी

रामायण काल के समाज की तरह महाभारतकालीन पिता कन्या के जन्म को कष्टकारी नहीं मानते थे, पुत्र एवं कन्या में बहुत अन्तर नहीं माना जाता था। पुत्र की भाँति कन्या के भी नानाविध संस्कार किये जाते थे। लड़कियों के अपने माता-पिता के गृह में नाना प्रकार की शिक्षा दी जाती थी, यद्यपि इन लड़कियों को शिक्षा-संस्था में जाते हुए नहीं देखा जाता है फिर भी उनकी विद्वता, ज्ञान, तर्कशक्ति, व्यावहारिक ज्ञान, राजनीति तथा अन्य शास्त्रों से उनका परिचय जगह-जगह प्रतिबिम्बित होता है। इस काल की नारियों में शकुन्तला, सावित्री, शिवा, विदुला, गौतमी, आचार्या, अरुन्धती, दमयन्ती आदि जितनी भी नारियाँ हैं और इनसे सम्बद्ध उपाख्यान हैं, उनसे यही प्रतिध्वनित होता है कि ये सभी विदुषी थीं, इन्होंने शास्त्रज्ञान के साथ धर्म और राजनीति में विशेष दक्षता प्राप्त की थी। गंगा, सत्यवती, गांधारी, कुन्ती भी शिक्षिता थीं, उनका चरित्र महान था। द्रौपदी ने विधिवत बृहस्पति से राजनीति की शिक्षा ली थी।

इस काल में दत्तक पुत्र की तरह कन्यायें भी गोद ले ली जाती थीं, यदुश्रेष्ठ शूर ने अपनी कन्या ‘प्रथा’ अपने भाई कुन्ती भोज को दे दी थी, कुन्ती भोज ने उसका धूमधाम से स्वयंवर कराकर विवाह किया था।

पितृगृह में कन्यायें अपने माता-पिता के कार्य में सहयोग देती थीं, धीवर कन्या सत्यवती इसका उदाहरण है।

कन्या संन्यासिनी नहीं हो सकती थी, विवाहिता नारी ही संन्यास ले सकती थी।

महाभारत काल की नारी पूर्ण स्वतन्त्र और स्वच्छन्द नहीं थी। उस पर नियन्त्रण रखा जाता था-बाल्यावस्था में उसे पिता के, यौवन में पति के एवं वृद्धावस्था में पुत्र की देखरेख में रहना पड़ता था।

किन्तु जो कन्यायें चिर कौमार्य व्रत लेती थीं, उनके लिए यह नियम नहीं था। महाभारत काल में विवाहिता स्त्री का पिता के घर में रहना निन्दित माना जाता था। लोग उसे अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे किन्तु सन्तानहीन विधवा पिता के यहाँ रह सकती थी।

इस काल में पातिव्रत्य और सतीत्व पर बहुत जोर दिया जाता था, इसीलिए महाभारत में सतीत्व धर्म का व्यापक वर्णन किया गया है। इस व्रत का पालन करते हुए सावित्री, दमयन्ती, शकुन्तला, गांधारी, द्रौपदी, सत्यभामा, सुभद्रा आदि के चरित्र देखे जा सकते हैं।

महाभारत में नारी के भार्या रूप की अत्यन्त प्रशंसा की गयी है-भार्या ही मनुष्य का आधा अंग है, भार्या श्रेष्ठ सखी है, भार्या ही धर्म, अर्थ और काम का मूल है। जिसकी भार्या साध्वी एवं पतिव्रता हो, वे धन्य होते हैं। धर्म,अर्थ एवं काम ये तीनों भार्या के अधीन है, हर कार्य में भार्या पुरुष की परम सहायक है।

महाभारत काल की नारी रामायण काल की तरह युद्धभूमि में नहीं जाती है। वह कहीं योद्धा- वेश में दृष्टिगत नहीं होती है, वह तो केवल परिवार अधिक से अधिक शिविर के अन्तःपुर तक ही दृष्टिगत होती है।

महाभारत काल में स्त्री जाति पूज्या मानी जाती थी, यह भी विश्वास था कि जहाँ नारियों का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं, जहाँ वे सम्मानित नहीं होती, वहाँ कोई आयोजन सफल नहीं होता है :-

स्त्रियो यत्र च पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।

अपूजिताश्च यत्रैता सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।

महाभारत काल में स्त्रियों को सम्पत्ति की तरह विवाह के दहेज में, श्राद्ध में दिये जाने वाले धन के रूप में, सम्मानार्थ उपहार में दान दिया जाता था। राजसूय यज्ञ में निमन्त्रित ब्राह्मणों को दक्षिणा में, स्वर्ण के साथ स्त्रियाँ भी दी गई थीं।

महाभारत काल में नारियों के अपहरण भी हो जाते थे, वृष्णि और अन्धक कुल की विधवा स्त्रियों को अर्जुन जब हस्तिनापुर ला रहे थे, लुटेरों ने आक्रमण कर उनका अपहरण किया था।

इस काल में विधवा स्त्रियाँ सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करती थीं, सत्यवती, कुन्ती, उत्तरा आदि इसका उदाहरण हैं किन्तु साधारण व्यक्तियों की विधवा स्त्रियाँ सम्मानपूर्वक समाज में नहीं रह सकती थीं।

महाभारत में सती धर्म और सहमरण की पर्याप्त प्रशंसा मिलती है किन्तु समाज में यह प्रथा व्यापक रूप में प्रचलित नहीं थी, पाण्डु की मृत्यु पर माद्री सती हुई थी, वसुदेव की पत्नी देवकी, भद्रा रोहिणी, मदिरा एक साथ चारों सती हुई थी, कृष्ण की मृत्यु पर रुक्मिणी ने सती धर्म का पालन किया था, किन्तु कुन्ती, सत्यवती, सत्यभामा ने विधवाओं की भाँति ब्रह्मचर्य का पालन भी किया था, इस प्रकार सह-मरण के पक्ष-विपक्ष में पर्याप्त उदाहरण उपलब्ध है।

आज की तरह महाभारत काल में साध्वी स्त्री की यह कामना रहती थी  कि वह पति और पुत्र के रहते हुए मृत्यु को प्राप्त हो, आज भी सधवा पुत्रवती की मृत्यु को सौभाग्य का फल माना जाता है।

कुल मिलाकर महाभारत काल में नारी की स्थिति सम्मानजनक, परिवार की गृहलक्ष्मी और समाज के कल्याण की आधारशिला के रूप में थी।

मौर्यकालीन समाज में नारी

मौर्ययुगीन भारत में नारी की स्थिति सम्मानजनक नहीं रह गयी थी, स्त्रियाँ बन्धनों में बाँध दी गयी थीं, उस काल में शिक्षा का अभाव-सा हो गया था, घर की चहार दीवारी ही उनका क्षेत्र था। मेगास्थनीज ने लिखा है कि स्त्रियाँ बेची जाती थी, वे पर्दे में रहती थीं, सती प्रथा का प्रचुर प्रचार हो गया था। कौटिल्य के अनुसार समाज में स्त्रियों के प्रति दुर्व्यवहार तथा अनुचित व्यवहार दण्ड का कारण बनता था।

मौर्यकाल में बहु-विवाह की प्रथा प्रचलित थी, मेगास्थनीज ने लिखा है कि “वे बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करते थे, विवाहित स्त्रियों के अतिरिक्त अनेक स्त्रियों को आमोद-प्रमोद के लिए भी घर में रखा जाता था।”

मौर्य युग में दहेज प्रथा जोरों से प्रचलित थी। किन्तु गरीब माता-पिता आज की तरह दहेज को बुरा मानते थे। इस युग में पुनर्विवाह भी प्रचलित था।

पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी दूसरा विवाह कर सकती थीं। पति की मृत्यु होने पर स्त्री पर परिवार वालों की सहमति से अपना दूसरा विवाह कर लेती थी, यदि श्वसुर इसके लिए सहमत नहीं होता था, उस समय श्वसुर से प्राप्त धन को लौटाकर वह दूसरा विवाह कर लेती थी।

इस काल में अपने वंश की रक्षा के लिये नियोग प्रथा का प्रचलन था। पति यदि असमर्थ है, तो नारी अन्य पुरुष का समागम कर सन्तान प्राप्त कर लेती थी। इस कार्य को समाज में निन्दित नहीं माना जाता था।

इस युग में तलाक प्रथा का भी प्रचार था, इसे कौटिल्य ने ‘मोक्ष’ कहा है। इसके लिए कौटिल्य ने कुछ नियमों का भी विधान किया है, इस ‘मोक्ष’ का अधिकार पति-पली दोनों को था-व्यभिचारी, प्रवासी, पतित, राजद्रोही, खूनी, नपुंसक पतियों का स्त्री परित्याग कर सकती थी।

मौर्यकाल में विवाह के आठ प्रकार-

ब्राह्म, प्राजापत्य, दैव, आर्ष, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच प्रचलित थे, किन्तु ब्राह्म, प्राजापत्य, दैव और आर्ष नामक धर्मानुकूल विवाहों में तलाक प्रथा मान्य नहीं थी। शेष में तलाक की प्रथा मान्य थी।

विवाह इस काल में अपनी ही जाति में होता था, कभी-कभी अन्तर्जातीय विवाह हो जाया करते थे। गोत्र विवाह और सपिण्ड विवाह निन्दित थे।

कौटिल्य ने कन्या के विवाह की अवस्था बारह वर्ष और युवक के विवाह की अवस्था सोलह वर्ष बतलायी है और प्रायः इस अवस्था में सभी के विवाह हो जाया करते थे।

गुप्तकालीन समाज में नारी

गुप्तकाल में नारी वैदिक काल के समाज की तरह प्रतिष्ठित न होकर भी वे समाज में महत्वपूर्ण थीं। स्त्री, पुरुष की अर्धागिनी मानी जाती थी, वह धार्मिक कृत्यों में पति के साथ अनिवार्य रूप से उपस्थित रहती थी।

गुप्तकाल में नारी की शिक्षा का प्रचार था, यद्यपि स्मृतियाँ इसका विरोध करती हैं, फिर भी समाज में अनेक शिक्षित नारियाँ थीं। ‘अमरकोष’ में वेदमन्त्रों की शिक्षा प्रदान करने वाली स्त्रियों का वर्णन है। ऋषियों के आश्रमों में रहने वाली स्त्रियाँ नाना विषयों का अध्ययन करती थीं। इस काल में शीलाभट्टारिका एक योग्य और विद्वान महिला थी।

मृच्छकटिकम् नाटक में शूद्रक ने अनेक शिक्षित और वाद्य संगीत में निपुण नारियों का उल्लेख किया है। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की पुत्री प्रभावती शिक्षित थी।

गुप्तकालीन समाज में पर्दा प्रथा नहीं थी, ये सार्वजनिक कार्यों में भाग लेती थीं। कालिदास ने इन्दुमती के स्वयंवर का वर्णन किया है, वह इस बात का प्रमाण है कि उस काल में कुछ स्वतन्त्रता थी, स्त्रियाँ पर्दे से बाहर भी आ जाती थी।

गुप्त काल में विवाह की आठों पद्धतियाँ प्रचलित थीं, किन्तु ब्राह्म, दैव, प्राजापत्य और आर्ष विवाह को श्रेष्ठ माना जाता था। कालिदास के दुष्यन्त ने गान्धर्व विवाह किया था। स्वयंचर प्रथा को भी प्रचार था, कालिदास ने इन्दुपती के स्वयंवर का रघुवंश में विस्तृत वर्णन किया है।

विधवा विवाह प्रचलित था। चन्द्रगुप्त ने भाई रामगुप्त की मृत्यु के बाद उसकी विधवा ध्रुवदेवी से विवाह किया था।

गुप्तकाल में सती प्रथा का भी विधान मिलता है। बृहस्पति ने विधवा स्त्री के सती होने का आग्रह किया है। एरण के शिलालेख में भानुगुप्त के सेनापति गोपराज की मृत्यु के बाद उसकी स्त्री के सती होने का उल्लेख है।

गुप्तकालीन समाज में गणिकाएँ भी थीं। ये गणिकाएँ नृत्य, और गान आदि ललित कलाओं में पारंगत होती थीं, ये कामशास्त्र में भी निपुण हुआ करती थीं, किन्तु समाज इन्हें बहुत अच्छी दृष्टि से नहीं देखता था। जिस गंधर्वशाला में गणिकाएँ और उनकी कन्याएँ शिक्षा ग्रहण करती थीं, वहाँ समाज के उच्च वर्ग के व्यक्ति अपनी कन्याओं को नहीं भेजते थे। शूद्रक ने गणिका वसन्तसेना की एकनिष्ठा का विशद वर्णन किया है, जिसके लिए चारुदत्त नामक वैश्य प्राणोत्सर्ग करने के लिए उद्यत हो जाता है। चारुदत्त वसन्तसेना की पर्याप्त प्रशंसा करता है।

निष्कर्ष रूप में हम यह कहना चाहते हैं कि इस काल में स्त्रियों की दशा भले ही रामायण- महाभारत काल जैसी उन्नत न हो, फिर भी उसके अधिकार सुरक्षित थे, परिवार में उसे विशष सम्मान प्राप्त था।

राजपूत युग में नारी

राजपूत युग में स्त्रियों की दशा अच्छी थी, वेदाध्ययन से वंचित हो जाने पर भी वे शास्त्रों और विभिन्न कलाओं का अध्ययन कर सकती थीं। मण्डन मिश्र की पत्नी शास्त्रार्थ की निर्णायिका बनी थी, हर्ष की बहिन राज्यश्री भी शिक्षित थी। कवि राजशेखर की पत्नी अवन्ति सुन्दरी, गणितज्ञ भास्कराचार्य की पुत्री लीलावती शिक्षित थी। इस युग में अनेक स्त्रियाँ संस्कृत में काव्य सृजन भी करती थीं जैसे इन्दुलेखा, विज़िका, शीला भट्टारिका आदि। कवि राजशेखर ने लिखा है कि “पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी कवि हो सकती हैं। ज्ञान का संस्कार आत्मा से सम्बन्ध रखता है। उसमें स्त्री या पुरुष का भेदभाव नहीं है। राजशेखर ने विशिष्ट कवि प्रशस्ति-प्रकरण में विकट नितम्बा, शीलाभट्टारिका, सुभद्रा एवं प्रभुदेवी आदि कवियत्रियों की प्रशंसा भी की है।”

इस युग की नाटक रचना रत्नावली में स्त्रियाँ नृत्य, संगीत, चित्र में पटु हैं, ऐसा वर्णित है। इस युग की स्त्रियाँ राजनीति में भी योगदान देती हैं। घुड़सवारी भी करती हैं-सोलंकी नरेश विक्रमादित्य की बहिन दक्षिण की अल्कादेवी वीर नारी थी। उसने चार प्रदेशों का शासन संभाला हुआ था। यह स्थिति प्रायः उच्च वर्ग की थी।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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Pankaja Singh

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