जाति प्रथा के गुण तथा दोष | जाति प्रथा के गुण | जाति प्रथा के दोष
जाति प्रथा के गुण तथा दोष
भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जाति प्रथा को प्रमुख स्थान प्राप्त है। मैकाईवर महोदय के अनुसार किसी भी व्यक्ति की जाति उसके जीवन के कार्यों का निर्धारण करती है। समस्त भारतीय जन अपनी जाति के प्रति किसी न किसी रूप में सदैव से जागरूक रहे हैं। भारतीय जाति प्रथा के गुण-दोषों का विवेचन निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है-
गुण
(1) जाति प्रथा ने भारतीयों के सामाजिक जीवन को संगठित किया है। सी०ई० एम० जोड के अनुसार जाति प्रथा अपने सर्वोकृष्ट रूप में इस विशाल देश में निवास करने वाले विभिन्न विचार, विभिन्न धार्मिक विश्वास, रीति रिवाज और परम्पराएँ रखने वाले विविध वर्गों का एक सूत्र में पिरोने का सफलतम प्रयास था।”
(2) सामाजिक और राजनैतिक स्थिरता- भारतीय समाज को जाति प्रथा द्वारा सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिरता की प्राप्ति हुई है। गिलबर्ट महोदय के अनुसार ‘भारतीय जाति व्यवस्था सामाजिक समन्वय की योजना के रूप में संघर्षरत प्रादेशिक राष्ट्रों की योरोपीय अवस्था की तुलना में खरी उतरती है।”
(3) सुप्रजनन की विशुद्धता- भारतीय जाति प्रथा ने रक्त शुद्धता बनाये रखने के लिये अन्तर्जातीय विवाह का निषेध किया। इसके परिणामस्वरूप सुप्रजनन की शुद्ध रेखा बनी रही।
(4) सफल वैवाहिक जीवन- भारतीय जाति प्रथा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही जाति में विवाह करना होता है। यह बात अलग है कि आजकल अन्तर्जातीय विवाह होने लगे हैं। अपनी ही जाति में विवाह करने का लाभ यह है कि इससे जीवन साथियों में कोई उलझन अथवा सामाजिक समस्या पैदा नहीं होती। उनकी सन्तान का भी सामाजिक जीवन सुरक्षित रहता है।
(5) संस्कृति की रक्षा- प्रत्येक जाति की अपनी संस्कृति होती है तथा प्रत्येक जाति इस धरोहर की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझती है। इस प्रकार जाति प्रथा द्वारा संस्कृति की रक्षा होती है।
(6) सामाजिक स्तर का निर्धारण- सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक जाति का स्तर निर्धारित है तथा प्रत्येक जाति अपने स्तर के अनुसार ही अपने उत्थान तथा परिष्कृति का प्रयल करती है।
(7) सामाजिक सुरक्षा- प्रत्येक जाति अपने सदस्यों के लिये हितकारी कार्य करती है तथा आपदा में अपने सदस्यों को सुरक्षा तथा सहायता प्रदान करती है।
(8) मानसिक सन्तोष- जाति प्रथा के अन्तर्गत जाति अपने विभिन्न सदस्यों की विवाह, व्यवसाय, गृह आदि समस्याओं का समाधान करने का प्रयत्न करती है। इस कारण व्यक्ति में आत्मबल पैदा होता है तथा उसको मानसिक सन्तोष की प्राप्ति होती है।
(9) व्यावसायिक हितों की रक्षा- प्रत्येक जाति अपने कर्म और व्यवसायों की रक्षा करती है तथा अपने सदस्यों को उन्नति करने के लिये प्रोत्साहन देती है।
(10) श्रम विभाजन का निश्चितीकरण- जाति प्रथा के कारण समाज के सभी आवश्यक कार्यों को विभिन्न जातियों में बाँट दिये जाने से श्रम का उचित विभाजन तथा निश्चितीकरण कर दिया गया है।
(11) सहयोग और भ्रातृत्व की भावना- जातियों में पारस्परिक सहयोग तथा भ्रातृत्व की भावना रहती है। समाज को इससे काफी लाभ मिलता है।
(12) धर्म का निर्धारण- जाति द्वारा उसके सदस्यों का धार्मिक जीवन निर्धारित होता है। प्रत्येक जाति अपने धार्मिक आचरण पर बल देती है।
(13) राजनैतिक सुदृढ़ता- आजकल अनेक जातियों ने राजनैतिक संगठन बना लिया है। इन संगठनों द्वारा जातियों के सदस्यों के हितों की रक्षा होती है।
निष्कर्ष- जाति प्रथा के उपरोक्त गुणों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता के संरक्षण और विकास में जाति प्रथा ने बड़ा योग दिया है।
जाति प्रथा की दोष अथवा जाति प्रथा से हानियाँ
(1) राष्ट्रीयता की भावना का नाश- यह पूर्णतया सत्य है कि भारतीय जाति प्रथा ने राष्ट्रीयता की भावना को बड़ी ठेस पहुँचाई है। जातिगत भावना के वशीभूत होकर भारतीयों ने संकट की घड़ियों में एकता का परिचय नहीं दिया।
(2) सामाजिक असमानता- छुआछूत, ऊँच-नीच आदि की भावना से युक्त भारतीय जाति प्रथा ने सामाजिक असमानता तथा असन्तुलन को जन्म दिया।
(3) सामाजिक एकता में बाधा- प्रत्येक नाति का अपनी ही जाति की स्वार्थ पूर्ति के लिये प्रयत्नशील रहने के कारण सामाजिक एकता का विनाश हुआ है।
(4) निष्क्रियता- भारतीय जाति प्रथा में श्रम करने वाले को निम्न स्थान दिया गया है। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज का उच्चजातीय वर्ग निष्क्रिय हो गया।
(5) आर्थिक विकास में बाधा- भारतीय जाति प्रथा के अनुसार समाज की एक ही जाति को आर्थिक प्रगति करने का कार्य सौंपा गया। इससे अन्य जातियों को आर्थिक प्रगति का अवसर नहीं मिला।
(6) स्त्रियों की दुर्दशा- जाति प्रथा का सर्वाधिक दुष्परिणाम स्त्रियों को भुगतना पड़ा। योग्य स्त्री को यदि अपनी जाति में योग्य पति न मिल पाये तो भी उसे विवाह अपनी ही जाति में करना पड़ेगा। अन्तर्जातीय विवाहों का निषेध होने के कारण स्त्रियों के वैवाहिक स्वातन्त्र्य पर कुठाराघात किया गया। जाति प्रथा के कारण स्त्रियों की दशा दासियों के समान हो गई।
(7) धार्मिक स्वतन्त्रता का हनन- प्रत्येक जाति का अपना धर्म है तथा प्रत्येक सदस्य को अपनी जाति के धर्म में ही मान्यता रखने का नियम है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति की धार्मिक स्वतन्त्रता का हनन हो गया।
निष्कर्ष- जाति प्रथा के उपरोक्त दोषों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि इसने लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक पहुँचाई है। डा० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार, “दुर्भाग्यवश वही जाति प्रथा जिसे सामाजिक संगठन की रक्षा करने के लिये बनाया गया था, आज उसी की प्रगति में बाधक हो रही है।
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