इतिहास

जाति व्यवस्था | जातिगत भावना तथा पारस्परिक विषमता का विकास | जाति का अर्थ | जाति की परिभाषा | भारतीय जाति प्रथा की उत्पत्ति के सिद्धान्त | जाति प्रथा का विकास | जाति प्रथा की विशेषतायें

जाति व्यवस्था | जातिगत भावना तथा पारस्परिक विषमता का विकास | जाति का अर्थ | जाति की परिभाषा | भारतीय जाति प्रथा की उत्पत्ति के सिद्धान्त | जाति प्रथा का विकास | जाति प्रथा की विशेषतायें

जाति व्यवस्था

जातिगत भावना तथा पारस्परिक विषमता का विकास

जब पृथ्वी अस्तित्व में आई, जीवन ने अठखेलियाँ शुरू की और फिर मानव की उत्पत्ति हुई। फिर मानव ने विकास करना प्रारम्भ किया। उसकी संख्या में वृद्धि हुई तथा प्राकृतिक वातावरण के साथ समन्वय करके उसने जीवन की कला में निपुणता प्राप्त कर ली। विश्व में सभ्यता के कई केन्द्र बने और लोगों ने पृथ्वी पर दूर-दूर की यात्रा शुरू कर दी। जहाँ अधिक सुविधायें प्राप्त हुई- वहीं पर लोग बसने लगे और शीघ्र ही वह समय आ गया जब कि विभिन्न प्रदेशीय लोग अलग-अलग नामों से पुकारे जाने लगे। मानव के बीच भेद उत्पन्न होने का यह सर्वप्रथम अवसर था और शायद यहीं कहीं जाति की भावना ने जन्म लिया।

विकास की लम्बी श्रृंखला को पार करते हुए जब मनुष्य पूरी तरह से सभ्य हो गया तो उसका मस्तिष्क अपने साथियों के प्रति, दूसरे मनुष्यों के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण से सोचने लगा। वह जिस परिवार, समूह तथा कबीले में रहता था-उसके प्रति उसके मन में अपनत्व की भावना उपजी और दूसरे समूह को उसने अपने समूह से अलग समझना शुरू कर दिया। यह जातिगत विषमता का जन्म होने की अवस्था थी।

हमारे विचार है कि मानव विकास की उपरोक्त दोनों अवस्थाओं ने जाति को जन्म दिया।

जाति का अर्थ

‘जाति’ शब्द अंग्रेजी के ‘कास्ट’ (Caste) का हिन्दी अनुवाद है। अंग्रेजी भाषा के ‘कास्ट’ शब्द की व्युत्पत्ति पुर्तगाली भाषा के ‘कास्टा’ (Casta) शब्द से हुई है।

जाति की परिभाषा

हर्बर्ट रिजले महोदय ने जाति को मानवीय अथथा दैविक उत्पत्ति से सम्बन्धित बताकर, उसे एक ही व्यवसाय में लगे हुए समान विचार वाले लोगों का समूह बनाया है। डा० स्मिथ ने जाति की परिभाषा करते हुए इसे उन परिवारों का समूह बताया है जो धार्मिक संस्कारों तथा विशेष तौर पर खान-पान और वैवाहिक सम्बन्धों की रीतियों में समान व्यवहार तथा निकटता अनुभव करते हैं। डा० शाम शास्त्री के अनुसार ”आहार तथा विवाह सम्बन्धी सामाजिक अलगाव को ही जाति कहते हैं। इसमें जन्म तथा संस्कार को नगण्य स्थान प्राप्त है।’ मैकाईवर तथा पेज महोदय का कथन है कि “When status is wholly predominated, so that men are born to their lot in life without any hope of changing it, then class tekes the form of caste.” इन विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि समान सामाजिक व्यवहार, परम्पराएँ, धार्मिक विश्वास, रक्त सम्बन्ध तथा समान जीवन की एकता वाले मानव वर्ग समूह को जाति कहा जाता है।

जाति तथा उपजाति

मानव और मानव के बीच मानवकृत विषमता की एक और कड़ी उपजाति भी है। केतकर महोदय का विचार है कि जाति तथा उपजाति सापेक्ष शब्द हैं अर्थात् ये एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। लीच महोदय ने उपजाति के रूप को स्पष्ट करते हुए इसे एक ही जाति के बीच के वर्षों में वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा घनिष्ठता या रिश्तेदारी माना है। हमारा विश्वास है कि जब कोई जाति संख्या में काफी बड़ी हो जाती है तथा उसका विस्तार दूर-दूर तक हो जाता है तो जाति के एक स्थान पर रहने वाले पारस्परिक रक्त सम्बन्धों में घनिष्ट सदस्यों को उपजाति कहा जाता है। उपजाति का जन्म होने में रिश्तेदारी का भी प्रमुख योगदान रहा होगा।

‘जाति’ तथा ‘वर्ण’

प्रायः जाति तथा वर्ण को समान समझा जाता है। परन्तु यह ठीक नहीं है ! डा० गोखले का विचार है कि जाति का निर्धारण जन्म के आधार पर तथा वर्ण का निर्धारण शरीर के रंग के आधार पर किया जाता है। वर्ण का अर्थ रंग ही है। उदाहरण के लिए, हम कह सकते हैं कि आर्य तथा अनार्य दो जातियाँ थीं। आर्यों ने समस्त अनार्यों को किसी वर्ण के रूप में स्वीकार नहीं किया। जिन अनार्यों को दास बनाया गया उन्हें उनके रंग के अनुसार वर्ण व्यवस्था में निम्न स्थान दिया। इस समय अनेक वे भी अनार्य थे जो आर्यों के प्रभाव में नहीं आये तथा दक्षिणी भारत को ओर चले गये। आर्यो ने उनको पृथक जाति मान कर ‘दस्यु’ तथा द्रविड़ कहा ! जिन अनार्यों का समाजीकरण हो गया वे अनार्य के रूप में पृथक जाति के नहीं माने गये, अपितु वे वर्णानुसार वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत रखे गये। भारतीय जाति तथा वर्ण में यही अन्तर है।

भारतीय जाति प्रथा की उत्पत्ति के सिद्धान्त

जाति प्रथा की उत्पत्ति के विषय में प्रतिपादित सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(1) वैदिक उत्पत्ति का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त का प्रतिवादन ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में किया गया है। इसके अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा चरणों से शूद्र उत्पन्न हुए। परन्तु यह सिद्धान्त जाति की उत्पत्ति का सिद्धान्त नहीं माना जा सकता। ये चारों वर्ण तो आर्य जाति के अंग थे। एक ही आर्य जाति को विभिन्न वर्गों में विभाजित करने वाले इस सिद्धान्त में जाति की उत्पत्ति का लेशमात्र भी संकेत नहीं है।

(2) राजनैतिक उत्पत्ति का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के प्रतिवादकों का कथन हैं कि जाति प्रथा को उत्पत्ति ब्राह्मणों ने अपनी प्रभुता बनाये रखने के लिये की। डा० घुरिये ने का है कि ‘जाति प्रथा इण्डोआर्यन संस्कृति के ब्राह्मणों का शिशु है, जो गंगा यमुना के मैदान में पला और वहाँ से देश के अन्य भागों में ले जाया गया।” परन्तु हमें प्रतीत होता है कि ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिये जाति प्रथा की उत्पत्ति नहीं की, वरन् वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति की। वे आर्य जाति के सिरमौर बने, अनार्य जाति के नहीं। ब्राह्मणों ने अनार्यों को ‘दस्यु’ कहा, न कि अपना दास। हाँयह अवश्य माना जा सकता है कि वर्ण-व्यवस्था के प्रतिपादकों ने ‘दस्यु’ अनार्यों को वर्ण व्यवस्था से बाहर रखकर उनको पृथक जाति के रूप में मूक मान्यता दे दी।

(3) आर्थिक सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार आर्थिक संघों तथा श्रेणियों द्वारा जाति की उत्पत्ति हुई है। परन्तु प्रश्न उठता है कि आर्थिक संघ तो विश्व के अन्य भागों में भी थे। फिर भारत में ही जाति व्यवस्था की उत्पत्ति क्यों हुई ?

(4) व्यावसायिक सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार जाति प्रथा की उत्पत्ति का कारण व्यावसायिक कार्य हैं। क्योंकि ऊँच नीच का भेदभाव व्यवसाय के नाम पर निर्भर करता है, अतः व्यवसाय करने वालों ने अपने को उच्च माना तथा नीचे व्यवसाय करने वालों को नीचा माना। इस भेदभाव ने जाति-व्यवस्था को जन्म दिया। यदि इस सिद्धान्त को सही मान लिया जाये तो हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि तब विभिन्न व्यवसायों को करने वाले वर्ण आर्य जाति के अंग कैसे हो गये?

(5) प्रजातीय सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार आर्य तथा अनार्यों के सम्मिश्रण से जातियों की उत्पत्ति हुई। परन्तु इस सिद्धान्त की बड़ी आलोचना की गई है।

(6) धार्मिक सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार जाति प्रथा की उत्पत्ति एक ही देवता की उपासना, समान धर्म में आस्था तथा समान धार्मिक कृत्य करने वालों के पारस्परिक घनिष्ट सम्बन्धों द्वारा हुई है। परन्तु इस सिद्धान्त को स्वीकार करने पर जाति और गोत्र के सम्बन्ध में भ्रम उत्पन्न होता है।

(7) ‘माना’ सिद्धान्त – ‘माना’ एक प्रकार की आकर्षण शक्ति है जो एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति पर गहरा प्रभाव डालती है। हट्टन महोदय का विचार है कि आर्यों ने अपने को माना के प्रभाव से बचाने के लिये अनेक प्रतिबन्ध लगा दिये तथा अपने सदस्यों को भारत के आदिम निवासियों से अलग कर दिया। यहीं से जाति प्रथा का प्रारम्भ हुआ। इस सिद्धान्त के विषय में यह कहा जा सकता है ‘माना’ आकर्षण की शक्ति विश्व की अन्य जातियों में भी है परन्तु वहाँ पर जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति नहीं हुई। ऐसा क्यों ?

निष्कर्ष- जाति प्रथा की उत्पत्ति के उपरोक्त सिद्धान्तों के वर्णन तथा उनकी समालोचना द्वारा हमें इस निष्कर्ष की प्राप्ति होती है कि जाति प्रथा की उत्पत्ति के विषय में किसी सर्वसम्मत सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता।

जाति प्रथा का विकास

भारत में जाति प्रथा के विकास के विषय में अनेक बातें कही गई हैं। इसकी उत्पत्ति का स्रोत प्रायः प्राचीन भारतीय इतिहास में खोजा गया है तथा उसके आधार इसके विकास की विभिन्न दशाएँ बताई गई हैं। परन्तु हम इसके विकास को आधुनिक समय से लेकर प्राचीन समय की ओर जाते हुए खोजने का प्रयत्न करेंगे।

आज यदि हमसे कोई यह प्रश्न करता है कि तुम किस जाति के हो, तो हम अपनी जाति को अपने धर्मानुसार हिन्दू या मुसलमान या पारसी या सिख या ईसाई बताते हैं। यदि कोई हिन्दू का हिन्दू जानकर यह पूछता है कि तुम किस जाति के हो तो वह उत्तर देता है ब्राह्मण या क्षत्रिय या वैश्य या हरिजन। इस प्रकार एक तो हुई हिन्दू जाति और दूसरी हुई स्वयं हिन्दू की ही ब्राह्मण या क्षत्रिय या वैश्य या हरिजन जाति। अब यदि ब्राह्मण से पूछा जाये कि तुम कौन ब्राह्मण हो, तो वह कहता है गौड़ या कान्यकुब्ज या अमुक ब्राह्मण। इस प्रकार जाति प्रथा एक गड़बड़ घोटाला सा प्रतीत होती है। यह गड़बड़ आज से नहीं, वरन् लगभग मुसलमानों के भारत आगमन काल से चली आ रही है।

मुसलमानों के आगमन के कुछ समय पूर्व भारतीय जाति प्रथा का एक दूसरा रूप था। इस समय वर्ण-व्यवस्था अपना गौरबकाल व्यतीत कर चुकी थी तथा उसे अनेक विदेशी तत्वों का सामना करना पड़ रहा था। वास्तविक रूप में इस समय वर्ण जैसी चीज कम रह गई थी तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र अपने को जाति मान चुके थे। उनका धर्म हिन्दू था तथा हिन्दू होते हुए भी वे अपने को ब्राह्मण जाति या क्षत्रिय जाति या वैश्य जाति कहते थे। इसका अर्थ यह हुआ कि अब वर्ण ने जाति का रूप धारण कर लिया था।

वैदिक युग में जाति प्रथा की स्थिति बड़ी स्पष्ट थी। एक आर्य जाति थी और दूसरी अनार्य जाति। आर्यों के मध्य कार्य-विभाजन करने के लिए वर्ण-व्यवस्था का नियमन किया गया। वर्ण व्यवस्था का निर्धारण विशुद्धतः रंग के आधार पर नहीं किया गया-क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तो लगभग एक ही रंग के थे। वर्ण व्यवस्था का मुख्य आधार कार्य क्षमता तथा कुशलता ही था। अनार्य वर्ण व्यवस्था से बाहर थे। हमें लगता है कि आर्य पहले ही दृष्टि में अनार्यों से घृणा करने लगे थे-(Hate a first sight)| अतः उन्होंने अनार्यों को अपने से अलगाव देने के लिए उन्हें अलग जाति का कहा।

इस प्रकार जाति प्रथा का विकास आर्य तथा अनार्य जाति से प्रारम्भ हुआ। आर्यों के चारों वर्ण आर्य जाति थे। भले ही शूद्र अपवित्र माने गये परन्तु आर्यों ने उन्हें अपनी वर्ण-व्यवस्था में स्थान तो दिया। अनेक शूद्रों ने तो कर्म द्वारा ब्राह्मणत्व भी प्राप्त किया था। बाद में जब जनसंख्या बढ़ी और वर्णों को पहचानना मुश्किल होने लगा तो अपनी श्रेष्ठता या अस्तित्व बनाये रखने के लिए प्रत्येक वर्ण अपने को जाति मान बैठा जाति प्रथा का विकास इसी तरह होता रहा और आज भारत विभिन्न जातियों का अजायबघर बन गया।

जाति प्रथा की विशेषतायें

जाति प्रथा की विशेषताओं को दो प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है :-

(I) संरचनात्मक विशेषतायें- इस विशेषता का सम्बन्ध जाति का निर्धारण तथा रचना से है। इस विशेषता को पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है

(1) जन्मानुसार जाति की सदस्यता का निर्धारण होना । मनु तथा प्रमुख सूत्रकारों ने जन्म को जाति निर्धारण माना है।

(2) जाति के भीतर ही विवाह किया जाना चाहिए। जन्म से जिस जाति की सदस्यता प्राप्त होती है, विवाह भी उसी जाति में करना चाहिए।

(3) मनुष्य की पूर्ण श्रद्धा तथा आज्ञाकारिता अपनी जाति के प्रति ही होती है, सम्पूर्ण मानव समुदाय के प्रति नहीं। इस विशेषता को खण्डात्मक विभाजन तथा उसके प्रति श्रद्धा होमा भी कहा जाता है।

(4) जाति में प्रत्येक सदस्य का स्थान निश्चित तथा सुरक्षित रहता है।

(5) जाति का प्रत्येक सदस्य अपनी जाति के अन्य सदस्यों से घनिष्ट सम्बन्ध रखता है। जाति के बाहर उसका सामाजिक अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। इसे उदग्र सम्बन्ध भी कहा जाता है।

(II) सांस्कृतिक विशेषताएँ- इस शीर्षक के अन्तर्गत जाति-व्यवस्था की वि ा भावात्मक है। इस धर्म की विशेषताएँ तीन हैं :-

(1) जातिगत स्तर की भावना- प्रत्येक जाति का अपना सामाजिक जीवन होता है तथा इस भावना के अनुरूप प्रत्येक जाति अपना सामाजिक स्तर बनाये रखने के लिए अनेकानेक प्रयत्न करती है।

(2) खान पान तथा आचरण सम्बन्धी भावना-किसी जाति का सदस्य अन्य जाति के साथ खान-पान तथा आचरण के मुक्त सम्बन्ध नहीं रखता ! प्रायः एक ही जाति के विभिन्न सदस्य जातिगत स्तर के अनुरूप ही ऐसे सम्बन्ध निर्धारित करते हैं।

(3) परम्परा सम्बन्धी भावना- प्रत्येक जाति के निश्चित रीति-रिवाज तथा परम्पराएँ होती हैं। जाति के प्रत्येक सदस्य में यह भावना रहती है कि अपनी जाति के स्थायित्व के लिए परम्परा तथा रीति-रिवाजों का पालन करना आवश्यक है।

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Pankaja Singh

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