अर्थशास्त्र

नियोजन एवं रोजगार नीति | दसवीं योजना में रोजगार (2002-2007) | स्वतंत्रता के बाद सरकार द्वारा अपनायी गयी नियोजन एवं रोजगार नीति

नियोजन एवं रोजगार नीति | दसवीं योजना में रोजगार (2002-2007) | स्वतंत्रता के बाद सरकार द्वारा अपनायी गयी नियोजन एवं रोजगार नीति

नियोजन एवं रोजगार नीति

(Planning and Employment Policy)-

योजना आयोग के 1950 में गठित होने के पश्चात् भारत सरकार ने देश में बेरोजगारी की समस्या के विषय में सोच विचार शुरू कर दिया था। लेकिन नियोजन के प्रारंभिक दिनों में देश में द्वितीय विश्वयुद्ध एवं विभाजन के पश्चात् उत्पन्न हुए असन्तुलन को सन्तुलन की स्थिति में लाने पर ध्यान दिया गया। इन सब के बावजूद खाद्यान्न एवं आवश्यक वस्तुओं की कमी और विभिन्न उद्योगों की क्षमता का उपयोग न होना समस्याएँ थीं। इस प्रकार योजना आयोग विभिन्न ज्वलन्त और प्रभावशाली आर्थिक समस्याओं में उलझा रहा, इसलिए बेरोजगारी की समस्या की ओर पर्याप्त एवं उचित ध्यान नदीं दे सका। प्रथम योजना का 1951 में जब ड्राफ्ट तैयार किया गया तो उस समय रोजगार की समस्या गम्भीर समस्या के रूप में नहीं समझी गयी, यद्यपि रोजगार कार्यालयों के रजिस्टरों में रोजगार चाहने वालो की संख्या लगभग 3 लाख थी।

प्रथम योजना काल में रोजगार के अवसरों को अधिकतम किये जाने को वरीयता नहीं प्रदान की गयी। रोजगार अवसरों की उपलब्धि आर्थिक विकास का उप-उत्पाद समझा गया। प्रथम योजना अवधि में यह विश्वास किया गया कि सिंचाई एवं पावर तथा उद्योग एवं परिवहन का विकास रोजगार की नयी सम्भावनाएँ उत्पन्न करेंगे। इसके साथ ही साथ यह भी सोचा गया था कि रोजगार अवसरों के बढ़ने के साथ वास्तविक आय में भी वद्धि होगी। लेकिन ये सभी आशाएं धूमिल हो गयी। प्रथम योजना के प्रकाशन के एक वर्ष पश्चात् ही नगरों के बेरोजगारों की संख्या में तेजी से वृद्धि होने लगी, रोजगार कार्यालय में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या इस समस्या की पुष्टि करती थी, जो कि नीति-निर्धारकों के लिए एक समस्या हो गयी थी। तब योजना आयोग ने इस बात पर विचार व्यक्त किया कि बढ़ती हुई बेरोजगारी की समस्या पर लगातार ध्यान दिया जाना चाहिए। इस कार्य हेतु कुछ क्षेत्रों को रोजगार अवसरों के विस्तार के लिए चुना गया।

रोजगार की बिगड़ती हुई दशा को सुधारने के लिए राज्य सरकारों को यह सुझाव दिए गये कि वे ग्यारह सूत्री कार्यक्रम की जाँच करें जो क्रमशः हैं- (1) लघु उद्योगों को पर्याप्त सहायता देना, (2) श्रमिक प्रशिक्षकों को सुविधाएँ प्रदान करना, (3) देशी उत्पादन के प्रति सरकार की क्रय नीति, (4) प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों की स्थापना, (5) राष्ट्रीय सेवा का विस्तार, (6) सड़क परिवहन का विकास, (7) सफाई कार्य, (8) निजी निर्माण को प्रोत्साहन, (9) विद्युत की कमी को दूर करना, (10) कार्य एवं परीक्षण शिविरों की स्थापना और (11) ग्रामीण क्षेत्रों में एक अध्यापक, एक स्कूल की स्थापना करना।

द्वितीय योजना के प्रारम्भ में बेरोजगारों की संख्या 5.3 मिलयन हो गयी थी। तीव्र एवं संचयी विकास दर पर्याप्त रोजगार अवसर प्रदान करने में असफल रही। जिस गति से श्रमशक्ति में वृद्धि हो रही थी, उस गति से राज्य सरकारें रोजगार अवसरों को प्रदान करने में असफल रही हैं। प्रथम योजना की नीति द्वितीय योजना में भी अपनायी गयी। द्वितीय योजना की रिपोर्ट में यह व्यक्त किया गया कि भारत जैसे देश में बेरोजगारी की समस्या गहन विकास के बाद ही हल की जा सकती है। इस योजना में भी रोजगार को उच्च प्राथमिकता नहीं प्रदान की गयी। उत्पादकता और पूँजी वृद्धि पर रोजगार अवसरों की तुलना में अधिक ध्यान दिया गया। दूसरे शब्दों में, यह योजना भारी उद्योग प्रधान योजना थी। इस योजना अवधि में जो अतिरिक्त रोजगार के अवसर उपलब्ध हुए, वे केवल गैर-कृषि क्षेत्रों में ही थे। बेरोजगारी एवं अल्परोजगारी की सीमा कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती चली गयी और योजना के अन्त तक कुल बेरोजगारों की संख्या 9 लाख हो गयी। अतः द्वितीय योजना में गैर-कृषि क्षेत्रों में आशानुसार रोजगार के अवसर नहीं उपलब्ध हो सके। बढ़ती हुई जनसंख्या तथा श्रम पर आधारित तकनीक के अपर्याप्त विकास के कारण बेरोजगारी की समस्या और गम्भीर होती चली गयी।

तीसरी योजना अवधि में ग्रामीण क्षेत्रों की अल्परोजगार श्रम शक्ति का प्रयोग आर्थिक विकास के लिए सुझाया गया। ग्रामीण श्रम-शक्ति के उपयोग के लिए 2.50 मिलियन श्रम दिवस तीसरी योजना में उपलब्ध कराये गये विशेष रूप में अल्परोजगार की व्यवस्था खाली मौसम में की जाय। यह भारत की रोजगार नीति में एक महत्वपूर्ण पहलू है। तीसरी योजना में 34 ‘पाइलेट’ ग्रामीण कार्यक्रम परियोजनाओं को चालू किया गया जिसमें लघु सिंचाई, भूमि संरक्षण, जल निकासी, वानिकी, भूमि पुनर्गहण एवं संहवन में सुधार आदि सम्मिलित थे। परन्तु ग्रामीण परियोजनाएँ कुशलतापूर्वक लागू नहीं की जा सकी। कुछ राज्यों में तो आवश्यक संगठनात्मक आधार पर उचित स्थानीय संस्थाएँ अपेक्षित पैमाने पर नहीं बनाई जा सकीं और कुछ क्षेत्रों में तो इस कार्यक्रम को निजी ठेकेदारों के ऊपर छोड़ दिया गया। इस प्रकार ग्रामीण कार्यक्रमों का ग्रामीण बेरोजगारी एवं अल्प रोजगारी पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ा।

चतुर्थ योजना अवधि में ग्रामीण परियोजनाओं के लिए एक सुनियोजित विधि राज्यों एवं जिलों द्वारा अपनाई गयी। देश के 54 बुरी तरह सूखे से प्रभावित जिलों को ग्रामीण कार्यक्रम के लिए चुना गया। प्रत्येक जिले के लिए 2 करोड़ रुपये का प्राविधान किया गया। पांचवीं योजना में भी इस कार्यक्रमको आगे बढ़ाया गया। अनुभव से यह महसूस किया गया कि ग्रामीण कार्यक्रमों को आशानुसार सहायता नहीं प्राप्त हो सकी। भूमिहीन श्रमिकों, सीमान्त एवं लघु कृषकों तथा सूखे से प्रभावित क्षेत्रों के ग्रामीणों की कुछ बेहतर स्थिति के किसानों की तुलना में बेरोजगारी एवं अल्प बेरोजगारी की समस्या अधिक जटिल है। वर्ष 1970-71 में केन्द्र सरकार ने ग्रामीण गरीबों की ओर पुनः जागरूकता दिखाई। चौथी एवं पाँचवीं योजना में ग्रामीण क्षेत्रों को बेरोजगारी एव अल्परोजगारी की समस्या को सुलझाने के लिए केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों एवं स्थानीय सरकारों के सहयोग से गहनं कार्यक्रमों को लागू किया।

ग्रामीण क्षेत्रों में लाभदायक रोजगार की सम्भावनाओं के लिए बहुत से ‘ऊस कार्यक्रम चलाये गये। जैसे-लघु कृषक विकास अभिकरण (एस० एफ० डी० ए०), सीमान्त कृषक एवं कृषि श्रमिक (एम0 एफ० ए० एल०), सूखा उन्मुख क्षेत्र कार्यक्रम (डी0 पी0 ए0) आदि। ये प्रत्येक कार्यक्रम किसी विशेष ग्रामीण वर्ग की जनसंख्या के लिए लागू किये गये हैं। इनमें से एस0 एफ0 डी0 ए0 और एम0 एफ0 ए0 एल0 प्रत्यक्ष रूप से नहीं, परोक्ष रूप से रोजगार प्रदान करते हैं।

भारत सरकार के श्रम, रोजगार एवं पुनर्वास मंत्रालय ने बेरोजगारी की समस्या का अध्ययन करने के लिये चतुर्थ योजना में एक उच्चस्तरीय समिति गठित की जो कि भगवती समिति के नाम से जानी जाती है। समिति को जिन बातों की ओर ध्यान देना था, वे हैं-(1) बेरोजगारी एवं अल्पबेरोजगारी की सीमा का, उसके सभी पहलुओं पर यानी दाँत वाला समिति की सिफारिशों को ध्यान रखते हुए विचार व्यक्त करना, (2) चतुर्थ योजना के कार्यक्रमों को ध्यान में रखते हुए आर्थिक विकास एवं बेरोजगारी की समस्या पर सुझाव देना, (3) दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन रोजगार के अवसरों को बढ़ाने की युक्ति पर सुझाव देना, (4) उत्पादक रोजगार और शिक्षितों के लिये स्वरोजगार के विषय में सुझाव देना और (5) केन्द्रों एवं राज्य स्तर पर सतत रोजगार एवं श्रमशक्ति स्थिति की माँग एवं पूर्ति के संबंध में आकलन पर सुझाव देना।

भगवती समिति ने अपना अन्तरिम प्रतिवेदन 1972 में और अन्तिम प्रतिवेदन 1973 में प्रस्तुत किया। समिति ने अपने अन्तरिम प्रतिवेदन में बेरोजगारी के अल्पकालीन पहलुओं पर विचार व्यक्त किया था और अन्तिम प्रतिवेदन में रोजगार बढ़ाने के दीर्घकालीन पहलुओं पर विचार व्यक्त किया। समिति ने मुख्य रूप से ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों की श्रम-बहुल तकनीकों पर जोर दिया। समिति ने लघु सिंचाई, ग्रामीण विद्युतीकरण, सड़क एवं आन्तरिक जल परिवहन, एवं ग्रामीण आवास आदि पर अधिक परिव्यय करने का सुझाव दिया था। इसके साथ ही साथ प्रौढ़ शिक्षा एवं प्राइमरी शिक्षा पर भी बल दिया। बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं से यह भी कहा कि वे स्वरोजगार के लिए वित्त प्रदत्त करें एवं उन्हें प्रोत्साहित करें। अतः समिति ने श्रमप्रधान तकनीक के लिए परिव्यय निर्धारित करने की सिफारिश की।

पाँचवीं योजना अवधि में चौथी योजना के निर्धारित कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया गया। इस योजना में, जोकि निर्धनता निवारण एवं आत्मनिर्भरता प्राप्ति के लिए थी, प्रक्रिया में उत्पादक रोजगार अवसरों के प्रसार पर अधिक बल दिया गया। परन्तु बेरोजगारी के आकार एवं व्यापकता में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ।

छठी योजना के अन्तर्गत रोजगार में वृद्धि करने के प्रमुख क्षेत्र कृषि, ग्रामीण विकास, ग्रामीण एवं लघु उद्योग, भवन निर्माण, सार्वजनिक प्रशासन एवं सेवाएँ रहे हैं। रोजगार वृद्धि के कार्यक्रमों को सामुदायिक रूप में चलाया गया। शिक्षित बेरोजगारी को कम करने के लिए विशेष कार्यक्रम चलाये गये। ग्रामीण युवा वर्ग को प्रशिक्षण, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम आदि के माध्यम से रोजगार अवसरों का विस्तार किया गया। परन्तु स्थिति खराब होती ही गयी। रोजगार कार्यालयों में नाम दर्ज कराने वालों की संख्या 1985 में बढ़कर 239 लाख हो गयी जबकि 1980 में यह 162 लाख थी।

सातवीं योजना (1985-90) का मुख्य उद्देश्य रोजगार की आवश्यकता वाले लोगों की संख्या में वृद्धि की अपेक्षा रोजगार अवसरों का अधिक तेजी से विस्तार किया जाए। इस योजना में रोजगार अवसरों में वृद्धि करने के प्रयास मुख्यतः कृषि, ग्रामीण विकास, ग्रामों तथा लघु उद्योग, भवन निर्माण, प्रशासन एवं अन्य सेवाओं में करने है। आवश्यक साख तथा विपणन सुविधाओं में और अधिक वृद्धि करके स्वतः रोजगार कार्यक्रम और त्वरित किया जा रहा है।

आठवीं योजना में निश्चित रूप से विकास को गति मिली। वर्ष 1992-97 के बीच कुल श्रमशक्ति 374.2 मि० एवं रोजगार 367.2 मिo था। इस प्रकार बेरोजगारों की संख्या 7 मि० रही तथा बेरोजगारी दर 1.87 थी। यद्यपि आठवीं योजना में बेरोजगारी को कम करने के काफी प्रयास किए गये परन्तु आशानुकूल सफलता नहीं मिल सकी।

दसवीं योजना (2002-2007) में रोजगार

दसवीं योजना के दौरान रोजगार अवसरों के सृजन की ओर अधिक ध्यान केन्द्रित किया गया है। इसलिए विगत योजनाओं के रोजगार सृजन कार्यक्रमों में संशोधन एवं सुधार भी किया जा रहा है। नवीं योजना की तुलना में दसवीं योजना में बेरोजगारी की औसत दर में कमी अनुमानित की गयी है। दसवीं योजना के दौरान अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार अवसरों के सृजन को तालिका में दर्शाया गया है।

कार्य अवसरों का प्रक्षेप 2002-2007

सुझाव एवं प्रयास

(Suggestions and Efforts)

अब तक आर्थिक विकास एवं बेरोजगारी की समस्या के समाधान के लिए बनायी जाने वाली महत्वाकांक्षी योजनाओं का दुःखद परिणाम हमारे सामने है। इन योजनाओं से एक ओर देश में क्षेत्रीय असंतुलन पैदा हुआ और दूसरी ओर दिन-प्रतिदिन बेरोजगारी बढ़ती गयी। एक सम्पन्न वर्ग सम्पन्न होता गया और गरीब गरीबी रेखा से नीचे होता गया। इस प्रकार बेरोजगारी की समस्या ने अति विकराल रूप धारण कर लिया। भारत जैसे देश में रोजगार की कमी और इस सन्दर्भ में अपनायी गयी विभिन्न नीतियों की असफलता से यह बात सिद्ध हो गयी कि अब सभी को रोजगार उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी अतीत की अपेक्षा आज अधिक बुनियादी ढंग से पूरी करनी होगी। बेरोजगारों एवं अल्परोजगारों की एक बहुत बड़ी संख्या ऐसी है जिन्हें न तो शिक्षा मिली है और न कौशल ही। शिक्षा की भावी नीतियों में भी इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर ध्यान दिया जाना अति आवश्यक है। आँकड़ों से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि प्रारम्भिक अथवा माध्यमिक शिक्षा-प्राप्त युवक एवं युवतियों के लिए रोजगार के जो अवसर उपलब्ध हैं तथा जिन अवसरों की वे अधिकाधिक खोज करते हैं, उनके बीच असन्तुलन बढ़ता जा रहा है। केरल एवं पश्चिम बंगाल तथा देश के अन्य अनेक भागों में इस प्रकार के शिक्षित वर्गों में बेरोजगारी की निरन्तर बढ़ती हुई समस्या उग्र रूप धारण करती जा रही है।

एक ऐसी ग्रामीण व्यवस्था जो कमजोर है, जिसमें छोटी-छोटी एवं अलाभकारी जोतों की अधिकता है जैसे जिसमें कृषितर गतिविधि नगण्य हैं, उन लोगों को अधिक संख्या में नहीं खपा सकती, जिनको जरा भी शिक्षा नहीं मिली है। ग्रामीण बेरोजगारी की समस्या का आकलन बेरोजगारी के एक कठोर यथार्थ को दर्शाता है जिसका सामना देश को करना पड़ रहा है। इसमें होने वाली निरन्तर वृद्धि और उसके कारण होने वाली कठिनाइयों के प्रमाण के लिए किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। बेरोजगारी के उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समस्या की जड़े जनसंख्या वृद्धि, कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की नीची उत्पादकता दर और व्यापक अल्परोजगार से धनात्मक सहसम्बन्ध रखे हुए हैं। इसलिए अकुशल शिक्षित व्यक्तियों तथा महिलाओं के लिए रोजगार के अवसरों का तीव्र गति से विस्तार किया जाना चाहिए।

जनता की आवश्यकताओं पर वर्तमान समय में ध्यान देना और उसे पूरा करने के लिए सक्रिय कदम उठाना होगा। इसकी पूर्ति के लिए बचत और विनियोग की क्षमता का उपयोग करना अति आवश्यक है। जन साधारण के जीवन तथा उनके उत्पादकता स्तर को ऊँचा उठाना, सबके लिए काम की व्यवस्था करना, खाद्य सामग्री, पूँजी निर्माण और विदशी मुद्रा में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना, परस्पर आश्रित लक्ष्य हैं। लक्ष्यों की पूर्ति के लिए बचत एवं विनियोग की क्षमता का बुनियादी महत्व है। आर्थिक संगठन और संस्थागत तथा प्रशासनिक व्यवस्थाओं में दूरगामी परिवर्तन अनिवार्य है। भारतीय अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत असंगठित क्षेत्रों में बेरोजगारी एवं गरीबी अपने उच्च शिखर पर है। आज आर्थिक संवृद्धि तथा विकास की प्रक्रियाएँ और संगठन की गतिविधियाँ बहुत बड़ी संकीर्ण पगडण्डी से गुजर रही हैं। सही विचार से इसका अभिप्राय यह है कि हमारा एक बहुत बड़ा भाग विकास के दायरे से अभी बहुत दूर खड़ा है। आज सभी सीमाओं पर दूरगामी परिवर्तनों की आवश्यकता है। इस परिवर्तन के लिए शिक्षा और सामाजिक आधार को शक्तिशाली बनाना आवश्यक हो गया है।

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Pankaja Singh

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