अर्थशास्त्र

समष्टिभावी आर्थिक नीति | समष्टिभावी आर्थिक नीति के उद्देश्य

समष्टिभावी आर्थिक नीति | समष्टिभावी आर्थिक नीति के उद्देश्य

समष्टिभावी आर्थिक नीति

(Macro-Economic Policy)

राष्ट्र के समष्टिभावी संघटकों एवं अवयवों में सन्तुलन बनाए रखना राष्ट्रीय नियोजन का एक प्रमुख उद्देश्य होता है। इसलिए राष्ट्र की सरकारें इस सन्तुलन को प्राप्त करने के लिए एक बहुमुखी समष्टिभावी नीति का निर्माण करती हैं। यह नीति उन साधनों से सम्बन्ध रखती है जिनसे सरकार निश्चित उद्देश्यों के अनुरूप देश की आर्थिक संरचना एवं प्ररचना अथवा संशोधन करती हैं। प्रो0 जी0 के0 शॉ ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “An Introduction to the theory of Macro Economic Policy” में यह परिभाषित किया है कि, “यह समस्त अर्थव्यवस्था के सुधार किया जा सके।” इसके दो प्रमुख साधन हैं- मौद्रिक तथा राजकोषीय नीति। इसके चार प्रमुख उद्देश्य हैं : पूर्ण रोजगार, कीमत स्थिरता, आर्थिक वृद्धि और भुगतान-शेष संतुलन। प्रस्तुत अध्याय में हम समष्टि अर्थनीति के उद्देश्यों का अध्ययन करेंगे और उन समस्याओं पर विचार करेंगे जो इन उद्देश्यों के आपस में टकराने पर उत्पन्न होती है।

समष्टिभावी आर्थिक नीति के उद्देश्य

(Objectives of Macro Economic Policy)

  1. पूर्ण रोजगार (Full Employment)

पूर्ण रोजगार को आर्थिक नीति के प्रमुख उद्देश्यों में रखा गया है। परन्तु पूर्ण रोजगार के अर्थ के सम्बन्ध में एक मत नहीं है। प्रोफेसर एवले इसे ‘अनिश्चित संकल्पना’ (Slippery Concept) मानता है। परन्तु इसे लोकप्रिय बनाने का श्रेय केन्ज को जाता है और दूसरे विश्व- युद्ध के बाद इसे समष्टि अर्थनीति का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य मान लिया गया है।

क्लासिकी अर्थशास्त्री मानते थे कि अर्थव्यवस्था में सदैव पूर्ण रोजगार रहता है। उनकी धारणा थी कि पूर्ण रोजगार की स्थिति सामान्य स्थिति है, और इसके विचलन को वे एक असामान्य स्थिति समझते थे। पीगू का मत है कि आर्थिक प्रणाली की प्रवृत्ति श्रम बाजार में अपने आप पूर्ण रोजगार प्रदान करने की होती है। मजदूरी ढांचे की दृढ़ता, और ट्रेड यूनियन कानून, न्यूनतम मजदूरी कानून इत्यादि के रूप में बाजार प्रणाली के कार्यकरण में हस्तक्षेप के कारण ही बेरोजगारी आती है। पूर रोजगार तब होता है जब “हर ऐसा व्यक्ति रोजगार युक्त हो जो मजदूरी की चालू दरों पर काम करने को तैयार हो” वर्तमान दुसरी दरों पर काम करने को तैयार नहीं है, वे पीगू की दृष्टि में बेरोजगार नहीं है क्योंकि वे स्वेच्छा से बेरोजगार हैं। पर, इस अर्थ में, कि लोग काम करने को तैयार हैं पर उन्हें काम नहीं मिलता, अनैच्छिक बेरोजगारी की कोई संभावना नहीं है। पीगू का कहना है, “जब पूर्ण रूप से स्वतंत्र प्रतियोगिता होगी- तो यह प्रवृत्ति प्रबल रूप से कार्यशील रहेगी कि मजदूरी दरें मांग से इस तरह सम्बद्ध रहें कि हर व्यक्ति रोजगार युक्त हो।” पर पूर्ण रोजगार के सम्बन्ध में यह क्लासिकी दृष्टिकोण अस्थायी (Frictional) ऐच्छिक, मौसमी अथवा संरचनात्मक बेरोजगारी से मेल खाता है।

केन्ज के मतानुसार, पूर्ण रोजगार का मतलब है कि अनैच्छिक बेरोजगारी का अभाव। दूसरे शब्दों में पूर्ण रोजगार का मतलब ऐसी स्थिति से है जिसमें हर उस व्यक्ति को काम मिलता है, जो काम करना चाहता है। पूर्ण रोजगार की यह परिभाषा अस्थायी तथा ऐच्छिक बेरोजगार के अनुरूप है। केन्ज की मान्यता यह है कि “संगठन, उपकरण और तकनीक के दिए हुए होने पर वास्तविक मजदूरी तथा उत्पादन का परिमाण (और इसलिए रोजगार का परिमाण) अपूर्व रुप से इस तरह से सह-सम्बन्धित होते हैं कि सामान्य तौर से मजदूरी की दर गिरने पर ही रोजगार बढ़ सकता है।” पूर्ण रोजगार उपलब्ध करने के लिए, केन्ज ने वास्तविक मजदूरी घटाने के लिए प्रभावी मांग बढ़ाने का समर्थन किया। इस प्रकार पूर्ण रोजगार की समस्या वास्तव में पर्याप्त प्रभावी मांग बनाए रखने की समस्या है। केन्ज ने अपनी General Theory में एक और स्थान पर पूर्ण रोजगार की दूसरी परिभाषा इस प्रकार दी है, “यह ऐसी स्थिति है जिसमें समस्त रोजगार अपने उत्पादन की मांग में वृद्धि के प्रति बेलोच रहता है। इसका मतलब है कि पूर्ण रोजगार की कसौटी यह है कि जब प्रभावी मांग कुछ और बढ़े तो उसके साथ उत्पादन बिल्कुल न बढ़े। क्योंकि पूर्ण रोजगार स्तर पर उत्पादन की पूर्ति बेलोच हो जाती है, इसलिए यदि प्रभावी मांग और बढ़ेगी तो अर्थव्यवस्था में स्फीति आएगी। इस प्रकार पूर्ण रोजगार विषयक केन्जीय दृष्टिकोण में तीन शर्ते पाई जाती हैं-(i) वास्तविक मजदूरी दर गिरना, (ii) प्रभावी मांग में वृद्धि और (iii) पूर्ण रोजगार के स्तर पर उत्पादन की बेलोच पूर्ति।

प्रोफेसर डब्ल्यू0 डब्ल्यू0 हार्ट का कहना है कि पूर्ण रोजगार को परिभाषित करने के प्रयत्न में बहुत लोगों का रक्त चाप बढ़ जाता है। बात भी ठीक है क्योंकि शायद ही कोई ऐसा अर्थशास्त्री हो जिसने पूर्ण रोजगार को अपने ढंग से परिभाषित न किया हो। लार्ड बेवरिज ने अपनी Full Employment in a Free Society नामक पुस्तक में पूर्ण रोजगार को ऐसी स्थिति कहा है जिसमें बेरोजगारी की अपेक्षा रिक्त स्थान अधिक होते हैं, इसलिए एक नौकरी छूटने और दूसरी नौकरी मिलने में बहुत कम समय का अन्तराल रहेगा। पूर्ण रोजगार से उसका तात्पर्य शून्य बेरोजगार नहीं है जिसका अर्थ है कि पूर्ण रोजगार हमेशा पूर्ण नहीं होता। अर्थव्यवस्था में जब पूर्ण रोजगार होता है तब भी कुछ मात्रा में अस्थायी बेरोजगारी हमेशा रहती ही है। उसने इंग्लैण्ड के बारे में हिसाब लगाया था कि वहां पूर्ण रोजगार की स्थिति में 3 प्रतिशत अस्थायी बेरोजगारी रहती है। परन्तु उसका यह तर्क स्वीकार नहीं किया जा सकता कि पूर्ण रोजगार स्तर वह है जिस पर बेरोजगारों की अपेक्षा रिक्त स्थान अधिक होते हैं।

ए0 ई० ए० कमेटी के अनुसार, “पूर्ण रोजगार का मतलब है कि जो योग्यता प्राप्त व्यक्ति चालू दरों पर नौकरी चाहते हैं, उन्हें उत्पादक क्रियाओं काम मिलने में बहुत देर नहीं लगती। इसका मतलब है कि जो लोग ‘फुल-टाइम’ नौकरी चाहते हैं, उन्हें फुल-टाइम नौकरी मिल जाती है। इसका यह मतलब नहीं कि जो लोग नौकरी नहीं चाहते जैसे गृहणियां और विद्यार्थी, उन पर यह दबाव रहता है कि वे अवश्य नौकरी करें अथवा कि वर्करों पर अवांछित ओवर-टाईम लगाने का दबाव रहता है। इसका यह मतलब नहीं कि बेरोजगारी कभी शून्य भी होती है।” यह परिभाषा नहीं है बल्कि पूर्ण रोजगार की स्थिति का विवरण है जिसमें चालू मजदूरी पर काम करने के इच्छुक योग्यता प्राप्त व्यक्तियों को फुल-टाइम काम मिल जाता है। यहां भी बेवरिज की भांति, कमेटी समझती है कि पूर्ण रोजगार में थोड़ी बहुत बेरोजगारी भी रहती है।

यद्यपि पूर्ण रोजगार की परिभाषा के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों में व्यक्तिगत मतभेद बना हुआ है, फिर भी अधिकांश उस मत को स्वीकार करने लगे हैं जो संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने पूर्ण रोजगार के राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय उपायों (National and International Measures for Full Employment) के सम्बन्ध में व्यक्त किए हैं कि “पूर्ण रोजगार को ऐसी स्थिति माना जा सकता है, जिसमें प्रभावी मांग बढ़ा कर रोजगार बढ़ाया नहीं जा सकता और बेरोजगारी उन न्यूनतम गुंजाइशों से नहीं बढ़ायी जो अस्थायी तथा मौसमी कारणों के प्रभावों के लिए निकालनी उ है।” यह परिभाषा केन्ज तथा बेवरिज के पूर्ण रोजगार विषयक विचारों से मेल खाती है। अब यह बात स्वीकार कर ली गई है कि पूर्ण रोजगार का मतलब है 96 से 97 प्रतिशत रोजगार, जबकि अस्थायी कारणों से अर्थव्यवस्था में 3 से 4 प्रतिशत बेरोजगारी विद्यमान रहती है।

  1. मुद्रा के आन्तरिक मूल्य में स्थायित्व

(Stability in the internal value of Money)

मौद्रिक एवं राजकोषीय नीति का एक प्रमुख उद्देश्य है। अर्थशास्त्री तथा साधारण व्यक्ति इस नीति के पक्ष में हैं क्योकि यदि कीमतों में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं तो वे अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता एवं अस्थिरता उत्पन्न करते हैं। कीमतों का बढ़ना भी बुरा है और गिरना भी, क्योंकि वे कुछ को अनावश्यक हानि और कुछ को अनुचित लाभ पहुंचाते हैं। वे व्यापार चक्रों से भी सम्बद्ध रहते हैं। इसलिए कीमत स्थिरता की नीति मुद्रा के मूल्य को स्थिर रखती है चक्रीय उतार- चढ़ावों को समाप्त करती है, आर्थिक स्थिरता लाती है, आय तथा धन की असमानताएं दूर करने में सहायक होती हैं, सामाजिक न्याय उपलब्ध कराती है और आर्थिक कल्याण को बढ़ावा देती है।

परन्तु स्थिर कीमत स्तर की नीति का अनुसरण करने में कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पहली समस्या तो यह है कि किस प्रकार का कीमत स्तर स्थिर बनाया जाए। क्या सापेक्ष कीमत-स्तर को स्थिर बनाया जाए, या सामान्य कीमत-स्तर को, अथवा थोक या परचून कीमत-स्तर को या उपभोक्ता वस्तुओं अथवा उत्पादक वस्तुओं के कीमत-स्तर को स्थिर बनाया जाए? कीमत-स्तर के चुनाव के सम्बन्ध में कोई विशिष्ट कसौटी नहीं है। हॉम (Halm) का कहना है कि “समझौता इस समाधान पर हो सकता है कि ऐसे कीमत स्तर को स्थिर बनाने का प्रयत्न किया जाए जिसमें उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें भी शामिल हों और मजदूरी भी।”. परन्तु इसके लिए मुद्रा का परिमाण बढ़ाना जरूरी हो जाएगा, पर उतना नहीं जितना उपभोक्ता वस्तु कीमतों को स्थिर करने में चाहिए। दूसरे, जब नवप्रवर्तन (innovations) होते हैं, तो उत्पादन को लागत कम हो जाती है, इसलिए कीमत स्थिरता की नीति से उत्पादकों को उपभोक्ताओं और मजदूरी पानेलों की लागत पर अधिक लाभ प्राप्त होंगे। फिर, खुली अर्थव्यवस्था, जो ऊँची कीमतों पर कच्चा माल और मध्यवर्ती वस्तुएं आयात करती हैं, उससे घरेलू वस्तुओं के उत्पादन की लागत बढ़ जाती है। परन्तु कीमत स्थिरता की नीति से लाभ कम हो जाएंगे और आगे निवेश धीमा पड़ जाएगा। ऐसी परिस्थितियों में स्थिर कीमतों की नीति केवल अनुचित ही नहीं, अपितु आर्थिक प्रगति से भी विरोध रखती हैं।

इन कमियों के बावजूद, अधिकांश अर्थशास्त्री स्थिर कीमतों की नीति के पक्ष में हैं। परन्तु समस्या यह है कि कीमत स्थिरता की परिभाषा क्या है। कीमत स्थिरता का यह मतलब नहीं कि कीमतें अनिश्चित काल तक परिवर्तित ही न हों। जब “घटते-बढ़ते परीक्षण मांग की संरचना को परिवर्तित करेंगे, जब नई वस्तुओं का विकास होगा और जब लागत घटाने वाली प्रौद्योगिकियों का प्रचलन होगा, तो तुलनात्मक कीमतें परिवर्ति होंगी। बाजार अर्थव्यवस्था में संसाधनों का बंटवारा करने के लिए विभेदक कीमत परिवर्तन आवश्यक है। क्योंकि आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में यह प्रबल प्रवृति देखने में आती है कि उनमें कीमतें घटती नहीं, इसलिए दीर्घकालीन में समस्त कीमत स्तर को धीरे-धीरे बढ़ाकर ही विभेदक कीमत परिवर्तन लाए जा सकते हैं। फिर, यदि आयातित वस्तुओं की लागतें बढ़ जाएं या कराधान नीति के परिणामस्वरूप उत्पादन की घरेलू लागत बढ़ जाए, तो कीमतों में परिवर्तन करना पड़ सकता है।’

  1. आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth)

हाल के वर्षों में ‘समष्टि अर्थनीति’ के अत्यन्त महत्वपूर्ण उद्देश्यों में एक उद्देश्य यह रहा है कि अर्थव्यवस्था की तेजी से आर्थिक वृद्धि हो। आर्थिक वृद्धि की यही परिभाषा है “यह वह प्रक्रिया है जिससे एक लम्बी अवधि में किसी देश की प्रतिव्यक्ति वास्तविक आय बढ़ती है।” किसी देश में उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं की मात्रा में होने वाली वृद्धि द्वारा आर्थिक वृद्धि को मापा जाता है। वृद्धिशील अर्थव्यवस्था प्रत्येक क्रमिक कालावधि में अधिक वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन करती है। इस प्रकार वृद्धि तब होती है जब अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमता बढ़ती है और जो, आगे अधिक वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन के लिए काम में लाई जाती है। व्यापक अर्थ में आर्थिक वृद्धि का मतलब है, लोगों का जीवन स्तर उठाना और आय वितरण की असमाताएं दूर करना। सभी इस बात पर सहमत हैं कि आर्थिक वृद्धि किसी देश का वांछित लक्ष्य है। परन्तु “जादुई संख्या के बारे में सहमति नहीं है अर्थात् इस बारे में कोई एक मत नहीं है कि अर्थव्यवस्था कितनी वार्षिक वृद्धि-दर उपलब्ध करे।

प्रमुख समस्या यह है कि मौद्रिक एवं राजकोषीय नीति से अर्थव्यवस्था में किस सीमा तक वृद्धि लाई जा सकती है। सामान्यतः, अर्थशास्त्री जानते हैं कि वृद्धि लगातार होती रह सकती है। इस विश्वास का आधार की यह मान्यता है कि नवपरिवर्तनों से काल पर्यन्त, श्रम तथा पूंजी की उत्पादक प्रौद्योगिकियां बढ़ती हैं। परन्तु इस बात की भी पूरी संभावना है कि प्रौद्योगिकी नवप्रवर्तनों के बावजूद अर्थव्यवस्था वृद्धि न कर सके। मांग की कमी के कारण उत्पादन और न बढ़े, जो अर्थव्यवस्था की उत्पादक क्षमता की वृद्धि को रोक दे। यदि नई प्रौद्योगिकियों के अनुरूप श्रम की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं होता, तो हो सकता है कि अर्थव्यवस्था की और वृद्धि न हो।

पर, नीति बनाने वाले वृद्धि की लागतों पर ध्यान नहीं देते। वृद्धि असीम नहीं होती, क्योंकि प्रत्येक अर्थव्यवस्था में संसाधन दुर्लभ होते हैं। सब साधनों की अवसर-लागत होती है। किसी एक विशिष्ट वस्तु का अधिक उत्पादन करने का मतलब होगा किसी अन्य वस्तु का उत्पादन घटाना। नई प्रौद्योगिकियों के परिणामस्वरूप पुरानी मशीनें बदल दी जाती हैं जो कि बेकार हो जाती हैं। वर्कर भी हटा दिये जाते हैं, क्योंकि वे तुरन्त नए प्रौद्योगिक ढांचे में ‘फिट’ नहीं हो सकते। फिर, जब तेजी से वृद्धि होती है तो नगरीकरण और औद्योगीकरण होता है जिनका जीवन के ढांचे और वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

लोगों की झुग्गी झोपड़ियों में रहना पड़ता है। वातावरण दूषित हो जाता है। सामाजिक तनाव पैदा हो जाते हैं। “परन्तु हमारे वातावरण पर वृद्धि के अन्य अधिक आधारभूत प्रभाव पड़ते हैं और आज लोग निश्चय से यह नहीं कह सकते कि बेरोकटोक वृद्धि के लिए इतनी मुसीबत उठानी चाहिए या नहीं, क्योंकि अभी तक यह भी ज्ञात नहीं है कि वातावरण को बदलने, बिगाड़ने या तबाह करने की कितनी कीमत चुकानी होगी। पर, एक बात जो बहुत स्पष्ट दिखाई देती है, यह है कि वातावरण विषयक समस्याओं के कारण वृद्धि रुकने वाली नहीं है और कि मानव जाति को या तो यह सीखना होगा कि समस्याओं का सामना कैसे करें, या फिर परिणाम भुगतने होंगे।

  1. मुद्रा के बाह्य मूल्य में स्थायित्व

(Stability in the External Value of Money)

1950 के दशक के समष्टि अर्थ-नीति का एक अन्य उद्देश्य यह रहा है कि भुगतान शेष में संतुलन बनाए रखा जाए। अन्तर्राष्ट्रीय तरलता की वृद्धि के मुकाबले विश्व व्यापार में जो आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है, उसने इस उद्देश्य की पूर्ति की आवश्यक बना दिया है। यह भी मान लिया गया है कि भुगतान शेष में घाटे से अन्य उद्देश्यों के पूरा होने में बाधा आएगी। इसका कारण यह है कि भुगतान शेष में घाटे से काफी सोना बाहर के देशों को चला जाता है। परन्तु “यह स्पष्ट नहीं है कि संतोषजनक भुगतान शेष स्थिति किसे समझा जाए। इतना तो स्पष्ट है कि जो देश निवल कर्जे में है उसे समय की समुचित अल्पावधि में अधिशेष (Surplus) की स्थिति में पहुंचना होगा ताकि वह कर्जा चुक सके। यदि एक बार किसी कर्जे का पुनर्भुगतान कर दिया जाए और पर्याप्त रिजर्व जमाकर लिए जाएं, तो कालपर्यन्त शून्य शेष बनाए रखने से नीति का उद्देश्य पूरा हो जाएगा। परन्तु व्यापार लेखा में अथवा पूंजी लेखा में संतोषजनक शेष कैसे उपलब्ध किया जाए? पूंजी लेखा को तो इतना ही समझना चाहिए कि वह तो संकट की स्थिति में अल्पावधि आपातकालीन कार्य ही पूरा करता है।

फिर, दूसरी समस्या इस प्रश्न से सबंध रखती हो है- किसी देश का भुगतान शेष लक्ष्य क्या है? वह लक्ष्य है, जहाँ आयात-निर्यातों के बराबर जाएं। परन्तु व्यवहार में, यह होगा कि जिस देश के विदेशी विनिमय के चालू रिजर्व अपर्याप्त होंगे उसका भुगतान-शेष लक्ष्य थोड़ा सा निर्यात अधिशेष होगा। परन्तु जब उसका भुगतान शेष सन्तोषजनक हो जाएगा, तो उसका लक्ष्य होगा कि आयातों को निर्यातों के बराबर लाया जाए। इसका कारम यह है कि निर्यात अधिशेष का मतलब होता है कि वह देश विदेशी विनिमय का संचय कर रहा है और कि वह जितना उपभोग कर रहा है उससे अधिक उत्पादन कर रहा है। इससे लोगों का जीवन स्तर गिरेगा। परन्तु ऐसा बहुत समय तक नहीं चल सकता क्योंकि किसी अन्य देश में आयात अधिशेष हो जाएंगे और वह देश निर्यात-अधिशेष देश पर व्यापार प्रतिबंध लगा देगा। इसलिए भुगतान-शेष संतुलन उपलब्ध करना किसी देश की आर्थिक नीति का अनिवार्य लक्ष्य बन जाता है।

  1. धन का समान वितरण (Equal Distribution of Wealth)

किसी भी अर्द्धविकसित राष्ट्र की समष्टिभावी आर्थिक नीति का एक समकक्ष उद्देश्य यह भी होता है कि उसके माध्यम से राष्ट्रीय लाभांश अथवा धन का समान वितरण सम्पन्न किया जा सके. अर्थात् धनी वर्ग के पास धन का अधिक संकेद्रण न होने पावे तथा निर्धन वर्ग में आबंटन का अनुपात बढ़ाया जा सके जिससे कि अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्थाओं में एक ओर तो सामाजिक कल्याण का इष्ट प्राप्त हो सके तथा दूसरी ओर समाजवादी मूल्यों के आधार पर आर्थिक समानता की ओर अर्थव्यवस्था अग्रसर हो सके।

  1. आर्थिक संसाधनों का अधिकतम विदोहन

(Maximum Utilization of Economic Resources)

किसी भी अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था में मानवीय तथा गैर मानवीय साधनों के पूर्ण विदोहन न हो पाने की समस्या विद्यमान रहती है। अतः राष्ट्र की समष्टिभावी आर्थिक नीति का यह परम कर्तव्य है कि उसके माध्यम से अर्थव्यवस्था में अविदोहित संसाधनों के विदोहन का अधिकतम अवसर प्राप्त हो सके।

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Pankaja Singh

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