अर्थशास्त्र

बेरोजगारी | अर्द्ध-बेरोजगारी का अर्थ | बेरोजगारी के कारण | भारत में बेरोजगारी की समस्या के समाधान के उपाय

बेरोजगारी | अर्द्ध-बेरोजगारी का अर्थ | बेरोजगारी के कारण | भारत में बेरोजगारी की समस्या के समाधान के उपाय

बेरोजगारी एवं अर्द्ध-बेरोजगारी का अर्थ

(Meaning of Unemployment and Under-employment)

साधारण शब्दों में बेरोजगारी का अभिप्राय किसी व्यक्ति को रोजगार के अवसर प्राप्त न होने से लिया जाता है। लेकिन अर्थशास्त्र की भाषा में बेरोजगारी का अर्थ अलग है क्योंकि साधारण विचारधारा के अनुसार प्रत्येक आलसी व्यक्ति जो काम करना पसन्द नहीं करता है वह भी बेरोजगार कहलाता है जबकि अर्थशास्त्र की भाषा में हम उसे बेरोजगार नहीं कह सकते हैं।

बी० एल० ओझा के अनुसार, “बेरोजगारी का अर्थ उन व्यक्तियों को काम नहीं मिलने से है जो इच्छुक तथा योग्य हैं पर उनकी योग्यता एवं इच्छा के बावजूद भी काम नहीं मिल पाता।” जबकि “अर्द्ध-बेरोजगारी उस स्थिति को कहा जाता है जबकि व्यक्ति को काम मिला हुआ है पर उस काम में उस व्यक्ति के पूरे समय, शक्ति तथा योग्यता का उपयोग नहीं हो पाता।”

इस प्रकार बेरोजगारी की स्थिति में जहाँ श्रमिकों की पूर्ति माँग से अधिक होती है वहाँ अल्प बेरोजगारी में देखने में तो लोग रोजगार प्राप्त किये हुए रहते हैं किन्तु आर्थिक दृष्टि से उत्पादन में इनका योगदान अपेक्षाकृत बहुत थोड़ा होता है।

बेरोजगारी के कारण

(Causes of Un-employment)

भारत में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

  1. जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि- भारत की जनसंख्या अति तीव्र गति से बढ़ रही है। जिस गति से भारत की जनसंख्या बढ़ रही है, उस गति से देश में रोजगार के नये अवसर उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। उपयुक्त मात्रा में बचतें होकर पूँजी निर्माण नहीं हो पा रहा है, जिससे विनियोग बढ़कर उत्पादन बढ़े साथ-साथ रोजगार के अवसर भी बढ़ें। इसी कारण से देश में प्रतिवर्ष बेरोजगार व्यक्तियों की संख्या बढ़ती ही जाती है।
  2. शिक्षा का प्रसार- भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा का प्रसार बहुत ही तीब्र गति से हुआ है। शिक्षित व्यक्तियों की संख्या भी बहुत बढ़ी है। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् युवक नौकरी तलाश करने लगता है। भारत में शिक्षा के प्रसार के अनुपात में रोजगार के अवसरों में वृद्धि नहीं हुई है। इस प्रकार शिक्षा के प्रसार से भी बेरोजगारी फैली है। अशिक्षित व्यक्ति तो सम्भवतः अपने आपको किसी भी रोजगार में लगा लें, परन्तु शिक्षित व्यक्ति कोई शारीरिक कार्य अनिच्छा से ही करने को तैयार होता है।
  3. दोषयुक्त शिक्षा पद्धति- शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना होता है। सर्वांगीण विकास के अन्तर्गत यह बात भी आ जाती है कि शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् बालक, जो कि व्यक्ति बन जायेगा, अपनी रोटी-रोजी कमाने में समर्थ में हो सके। जो अपनी रोजी-रोटी कमा सकेगा, वह कभी बेरोजगार नहीं हो सकता। परन्तु आज की शिक्षा केवल किताबी ज्ञान ही देती है, बालक को अपने पेट भर सकने के योग्य नहीं बनाती। वर्तमान शिक्षा पद्धति में व्यावसायिक तथा प्राविधिक प्रशिक्षण का अभाव ही सबसे बड़ा दोष है। आज की दोषयुक्त शिक्षा पद्धति बेरोजगारी फैलाने का एक प्रमुख कारण बन गई है।
  4. कृषि का पिछड़ापन- भारत एक कृषि प्रधान देश है परन्तु दुर्भाग्य से हमारे देश की कृषि भी पिछड़ी हुई अवस्था में है। कृषि भूमि सीमित हो गई है और अब अधिक व्यक्तियों की रोजी का भार कृषि पर नहीं डाला जा सकता। कृषि के पिछड़ेपन के कारण उत्पादन भी कम होता है। उत्पादन कम होने के कारण अधिक व्यक्तियों की न तो खाद्य आवश्यकता की ही पूर्ति की जा सकती है और न कृषि पर आधारित उद्योग ही पर्याप्त मात्रा में लगाए जाकर रोजगार के अवसर बढ़ाये जा सकते हैं। इस प्रकार कृषि के पिछड़ेपन के कारण से भी बेरोजगारी की समस्या बढ़ी है।
  5. शिक्षित वर्ग श्रम के महत्व के प्रति सजग नहीं- भारत में शिक्षित वर्ग शारीरिक श्रम करने से घबराता है। यही कारण है कि प्रायः सभी व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् कुर्सी पर बैठकर काम करने वाली नौकरी की तलाश में निकलते हैं। वे किसी ऐसे कार्य को करने को तैयार नहीं रहते, जिससे उनको शारीरिक श्रम करना पड़े। फिर कुसी पर बैठकर काम करने वाली नौकरियों की संख्या तो सीमित है, इससे बेरोजगारी फैलती है। हमारे शिक्षित नवयुवकों को श्रम के महत्त्व को समझते हुए श्रम का आदर करना चाहिए।
  6. दोषयुक्त रोजगार नीति- पहली पंचवर्षीय योजना में तो सरकार ने बेरोजगारी समाप्त करने की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। बाद में जब सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया गया, तब सरकार ने इस दिशा में कुछ कार्य किया। देश के विकास के लिए सरकार ने उद्योगों की स्थापना पर बल दिया। लेकिन ये उद्योग पूंजी प्रधान थे, न कि श्रम प्रधान। यदि ऐसे उद्योग काफी संख्या में खुल जाते, जिनमें कि श्रमिकों के अधिकाधिक खपने की गुंजाइश होती, तो सम्भवतः बेरोजगारी की समस्या काफी हद तक हल हो जाती। आज बेरोजगारी की समस्या अपने भयानक रूप में है। समय रहते यदि सरकार इस समस्या का ठीक निदान करके उपचार कर लेती, तो आज यह समस्या इस रूप में न होती।
  7. सामाजिक दृष्टिकोण- आज प्रायः सभी लोग अपने व्यवसाय के लिए परावलम्बी प्रकृति के बन गए हैं। कोई भी अपना स्वतन्त्र व्यवसाय अपनाने की हिम्मत नहीं रखता। लगभग सभी व्यक्ति नौकरी करना चाहते हैं और नौकरी में भी सरकारी नौकरी की अधिक चाह रखते हैं। श्रम के प्रति उनका आदरभाव लगभग समाप्त हो गया है। अधिकांश लोग कम वेतन पर कुर्सी पर बैठकर काम करने को तैयार हो जाते हैं, परन्तु शारीरिक श्रम करने को तैयार नहीं। शारीरिक श्रम करना अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ है, ऐसी धारणा लोगों में बन गई है। यही धारणा या सामाजिक दृष्टिकोण व्यक्ति को अपना स्वतन्त्र व्यवसाय अपनाने से रोकता है। समाज के इस प्रकार के दृष्टिकोण ने भी बेरोजगारी को बढ़ावा दिया है।
  8. रोजगार मार्गदर्शन का अभाव- छात्र प्रायः अपने भावी जीवन का लक्ष्य निर्धारित किए बिना ही अपनी शिक्षा को जिस प्रकार से भी चले, चलने देते हैं। काफी संख्या में छात्र अपनी रुचि तथा योग्यता के अनुसार विषय न लेने के कारण या तो उस शिक्षा को बीच में ही छोड़ देते हैं या फिर उसमें ठीक प्रकार से सफलता प्राप्त नहीं कर पाते।
  9. शरणार्थियों का आगमन- भारत के विभाजन के समय तथा बाद में काफी संख्या में शरणार्थी भारत में आ गए और सरकार के लिए उनको रोजगार देना मुश्किल हो गया। ये शरणार्थी बेरोजगारी रहे तथा इन्होंने ही बेरोजगारी की समस्या को और भी गम्भीर बना दिया।

भारत में बेरोजगारी की समस्या के समाधान के उपाय

(Solutions to Solve the Problem of Un-employment in India)

योजनाबद्ध विकास में उपलब्ध मानव शक्ति के समुचित उपयोग तथा पूर्ण रोजगार की स्थिति तक पहुँचने का लक्ष्य होता है। भारत में प्राकृतिक साधनों की प्रचुरता है। अतः इन साधनों के समुचित विकास में मानव शक्ति का उपयोग दुहरा लाभ पहुँचायेगा- एक ओर आर्थिक समृद्धि तथा दूसरी ओर पूर्ण रोजगार की व्यवस्था। बेरोजगारी समस्या के समाधान के निम्नलिखित सुझाव उपयोगी हैं-

(1‍) जनसंख्या पर प्रभावी नियंत्रण- आर्थिक विकास की गति तेज करने तथा “अधिकतम आय के स्तर पर अधिकतम रोजगार” की स्थिति प्राप्त करने के लिए तेज रफ्तार से बढ़ती हुई जनसंख्या पर नियंत्रण आवश्यक है।

(2) औद्योगीकरण व लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास पर अधिक बल- कृषि पर रोजगार के दबाव को कम करने तथा वैकल्पिक रोजगार के अवसरों की वृद्धि के लिए देश में तीव्र औद्योगीकरण की जरूरत है। वर्तमान पूंजी उद्योगों के स्थान पर श्रमप्रधान योजनाओं को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। लघु व कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना चाहिए। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की अर्द्ध-बेरोजगारी समाप्त होगी तथा कई को पूरे समय काम मिल सकेगा।

(3) सामाजिक सेवाओं का विस्तार- देश में चिकित्सा, शिक्षा, कल्याण कार्य तथा अन्य सामाजिक सेवाओं के विस्तार से रोजगार के अवसरों में वृद्धि की जा सकती है।

(4) राष्ट्रीय निर्माण कार्यों में वृद्धि- देश में आर्थिक विकास के साथ-साथ अधिक लोगों को रोजगार प्रदान करने के लिए सड़क, बांध, पुल तथा नहर निर्माण कार्यों को प्रधानता देनी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में गृह-निर्माण, भू-संरक्षण आदि कार्यक्रमों की ओर भी ध्यान देना चाहिए।

 (5) गहन कृषि को प्रोत्साहन तथा कृषि सहायक उद्योगों का विकास- वर्तमान परिस्थिति में तो उत्तम खाद, उत्तम बीज, सिंचाई व्यवस्था तथा बहु-फसल कार्यक्रमों से प्रति एकड़ उपज बढ़ाने की सघन कृषि को प्रोत्साहन देना ही श्रेष्ठ है। इससे कम भूमि पर भी अधिक लोगों के आर्थिक रोजगार की व्यवस्था सम्भव होगी।

इसी प्रकार कृषि सहायक उद्योग- पशु-पालन, मुर्गी-पालन, भेड़-पालन आदि कृषि सहायक कार्यों से अर्द्ध-बेरोजगारी दूर होने के साथ-साथ अनेक बेकारों को पूरे समय काम मिल सकेगा।

(6) गाँवों में रोजगार प्रधान नियोजन- ग्रामीण क्षेत्रों में श्रम-प्रधान निर्माण कार्यों जैसे सड़क निर्माण, भू-संरक्षण, बाढ़ नियन्त्रण आदि को प्राथमिकता देकर रोजगार के अवसरों में वृद्धि की जा सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में इन कार्यों के अलावा ग्रामीण औद्योगीकरण तथा विद्युतीकरण योजनाओं के क्रियान्वयन से भी शिक्षित बेकारों को काम मिला है।

(7) गतिशीलता में वृद्धि- बेरोजगारी के निराकरण के लिए समाज में श्रम के प्रति श्रद्धा तथा रुचि उत्पन्न करने के लिए सामाजिक मनोवृत्ति में परिवर्तन आवश्यक है। सामाजिक दोष जैसे- जाति प्रथा, परिवार का मोह आदि का निराकरण करने, यातायात साधनों के विकास तथा आवश्यक प्रशिक्षण की सुविधाओं के विस्तार से बेरोजगारी के आकार में कमी की जा सकती है।

(8) बेरोजगारी बीमा- बेरोजगारी से सुरक्षा प्रदान करने में “बेरोजगारी बीमा’ योजना लागू करनी चाहिए। इससे सरकार भी अपना उत्तरदायित्व निभाने के लिए बाध्य होगी तथा रोजगार प्राप्त करने वालों को भी सुरक्षा मिल सकेगी।

(9) रोजगार दफ्तरों तथा सहायक सेवाओं का विस्तार- रोजगार दफ्तरों तथा सहायक सेवाओं जैसे- रोजगार की सूचना एवं मार्गदर्शन ब्यूरो, मानव शक्ति अनुसंधान केन्द्र, कैरियर पेम्फलेट्स, व्यावसायिक रोजगार समीक्षा आदि का विस्तार किया जाना चाहिए। इन सब कार्यों के विस्तार करने से बेरोजगारी के समाधान में अधिक सहयोग मिलेगा।

(10) शिक्षा प्रणाली में सुधार एवं व्यावसायिक दृष्टिकोण- हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली साहित्यिक एवं बौद्धिक है। इसमें व्यावसायिक एवं प्राविधिक शिक्षा का अभाव है। अतः शिक्षा पद्धति में सुधार कर कार्योन्मुखी बनाया जाना चाहिए।

(11) मानव शक्ति सदुपयोग के लिए उचित नियोजन- योजनाबद्ध विकास में मानव शक्ति के समुचित उपयोग की भावना निहित है और विकास कार्यों के प्रत्येक क्षेत्र में कुशल एवं अकुशल श्रमिक की मांग और पूर्ति में सन्तुलन बैठना, उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करना तथा उनकी गतिशीलता में वृद्धि कर सही काम के लिए सही आदमी की व्यवस्था ही मानव-शक्ति के उचित नियोजन का परिचायक है। अगर पिछले 58 वर्षों में मानव शक्ति का कुशल नियोजन किया जाता तो आज इन्जीनियरों में बेकारी की नौबत नहीं आती और न शिक्षितों में बेकारी की यह स्थिति आती। मानव शक्ति नियोजन के लिए उचित प्रयास सरकार द्वारा किये जाने चाहिए।

(12) राष्ट्रीय विकास परिषद् के सुझाव- राष्ट्रीय विकास परिषद् की रोजगार से सम्बद्ध समिति ने बेरोजगारी से निपटने के लिए तथा सन् 2002 तक सबके लिए रोजगार का लक्ष्य हासिल करने के लिए तीन सुझाव दिये हैं-

(i) शिक्षित युवकों को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करना।

(ii) शिक्षा एवं प्रशिक्षण की प्रणालियों को बाजार की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालना।

(iii) सरकार के नीतिगत समर्थन से श्रम-प्रधान रोजगार प्रधान उद्योगों, क्षेत्रों का तेजी से विकास करना।

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Pankaja Singh

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