भूगोल

कार्स्ट स्थलाकृति | कार्स्ट प्रदेश के विभिन्न स्थलरूपों की विवेचना | कार्स्ट प्रदेश में निर्मित विभिन्न अपरदनात्मक तथा निक्षेपजानित स्वलरूपों का विवरण

कार्स्ट स्थलाकृति | कार्स्ट प्रदेश के विभिन्न स्थलरूपों की विवेचना | कार्स्ट प्रदेश में निर्मित विभिन्न अपरदनात्मक तथा निक्षेपजानित स्वलरूपों का विवरण | Karst topography in Hindi | Discussion of various landforms of Karst region in Hindi |  Description of various erosional and depositional forms formed in karst region in Hindi

चूना पत्थर या कार्स्ट स्थलाकृति

सतही एवं भूमिगत जल (surface and subsurface water) के द्वारा शैलों (चूनायुक्त शैल, कैलसियम कार्बोनेट चूना पत्थर, मैग्नेसियम कार्बोनेट डोलोमाइट आदि) के रासायनिक अपक्षय (रासायनिक अपरदन) द्वारा उत्पन्न स्वलाकृति को चूनापत्थर स्थलाकृति कहते हैं। पूर्वीवती यूगोस्लाविया के कार्स्ट प्रदेश के चुनापत्थर पर रासायनिक अपरदन द्वारा उत्पन्न स्थतरूपों को सामूहिक रूप से कार्स्ट स्थलाकृति कहते हैं।

चूने के पत्थर वाली चट्टानों के क्षेत्र में भूमिगत जल के द्वारा सतह के ऊपर तथा नीचे विचित्र प्रकार के स्थलरूपों का निर्माण घोलन द्वारा होता है। ये स्थलरूप अन्य प्रकार की चट्टानों पर अपरदन के अन्य कारकों द्वारा उत्पन्न स्थलरूपों से सर्वथा भिन्न होते हैं। इस तरह लाइमस्टोन शैल पर निर्मित स्थलरूप को कार्स्ट स्थलाकृति कहा जाता है। कार्स्ट शब्द पूर्ववर्ती यूगोस्लाविया देश के पश्चिमी तट पर पूर्वी एड्रियाटिक सागर तट के सहारे स्थित कार्स्ट प्रदेश से लिया गया  है। यहाँ पर लाइमस्टोन शैल अत्यधिक वलित अवस्था में है। इस लाइगस्टोन वाले कार्स्ट प्रदेश  की ऊपरी सतह पर जल ने घोल द्वारा तथा निचले भाग में भूमिगत जल ने अपने अपरदनात्मक (मुख्य रूप से घुलन क्रिया) तथा निक्षेपात्मक कार्य द्वारा विचित्र प्रकार की स्थलाकृति का विकास कर रखा है। यह कार्स्ट प्रदेश लगभग 480 किमी. की लम्बाई तथा 80 किलोमीटर की चौड़ाई में विस्तृत है। कार्स्ट प्रदेश सागर तल से 2,600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। सतह के ऊपर जल की घुलन क्रिया ने असंख्य रंध्र (holes), बीहड़ या खड्ड (ravines), अवनलिकाओं (gullics) तथा छोटी-छोटी घाटियों का निर्माण कर रखा है। इस कारण ऊपरी सतह इतनी ऊबड़-खाबड़ तथा असमान हो गई है कि उस पर नंगे पांव चलना निहायत कठिन कार्य हो जाता है।

सतह के नीचे अनेक कन्दराओं तथा निक्षेपातमक स्थलरूपों का विकास हो गया है। इस तरह से कार्स्ट प्रदेश में अन्य स्थलाकृतियों से बिल्कुल अलग इन विचित्र स्थलाकृतियों को कार्स्ट स्थलाकृति की संज्ञा प्रदान की गई है। भूपटल के उन सभी भागों के लाइमस्टोन तथा डोलोमाइट क्षेत्रों में निर्मित स्थलाकृतियों को कार्स्ट स्थलाकृति कहा जाता है, जिनमें पूर्ववर्ती यूगोस्लाविया के कार्स्ट के (लगभग) समान स्थलरूप मिलते हैं। यद्यपि प्रत्येक देश के लाइमस्टोन या डोलोमाइट क्षेत्र में स्थलरूप सम्बन्धी कुछ विभिन्नताएँ अवश्य मिलती हैं, परन्तु कुछ ऐसी मूलभूत उभयनिष्ठ विशेषताएँ अवश्य होती हैं, जो प्रायः प्रत्येक कार्स्ट क्षेत्र में मिलती हैं। प्रत्येक देश के कार्स्ट क्षेत्र में विकसित स्थलरूपों का नामकरण प्रायः वहाँ की क्षेत्रीय भाषा के शब्दों में किया गया है, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ये स्थलरूप एक दूसरे से अलग होते हैं।

कार्स्ट क्षेत्रों का वितरण

पूर्ववर्ती यूगोस्लाविया के वास्तविक कार्स्ट प्रदेश के अलावा विश्व में कार्स्ट स्थलाकृति का विकास दक्षिणी फ्रांस के कासेस क्षेत्र (Causes Region), ग्रीस, स्पेनिश अण्डालूसिया, उत्तरी पोर्टोरिको, जमैका, पश्चिमी क्यूबा तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी इण्डियाना, पश्चिमी-मध्य केन्टुकी, वर्जीनिया, टेनेसी तथा मध्यवर्ती फ्लोरिडा प्रान्तों में हुआ है। उपर्युक्त क्षेत्रों को प्रमुख कार्स्ट क्षेत्र कहते हैं, क्योंकि इन क्षेत्रों में कार्स्ट स्थलाकृति का पूर्णतया विकास हुआ है। इनके अलावा कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं, जहाँ पर कार्स्ट स्थलाकृति के सृदश कुछ स्थलरूपों का विकास हुआ है। इस क्षेत्र को गौण कार्स्ट क्षेत्र कहा जाता है। इनमें से प्रमुख कार्स्ट क्षेत्र हैं-संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यू मेक्सिको का कार्ल्सवाद क्षेत्र, इंग्लैण्ड का चाक क्षेत्र, फ्रांस के चाक क्षेत्र, जरा पर्वत के भाग, आल्पस् तथा एपीनाइन्स पर्वतों के कुछ भाग आदि।

भारत में हिमालय क्षेत्र (खासकर जम्मू तथा काश्मीर, देहरादून के पास सहस्त्रधारा, राबर्ट कन्दरा, टपकेश्वर कन्दरा अदि), पूर्वी हिमालय, बिहार के रोहतास पठार (गुप्त धाम कन्दरा), मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ (पंचमढ़ी तथा बस्तर जिले), पूर्वी घाट (विशाखापटनम के पास) आदि में चूना पत्थर पर निर्मित स्थलाकृति पायी जाती है।

कार्स्ट स्थालाकृति के विकास के लिए आवश्यक दशाएं

कार्स्ट स्थलाकृति के निर्माण तथा विकास के लिए एकमात्र जाइमस्टोन शैल की उपस्थिति ही आवश्यक नहीं है वरन् कई ऐसी आवश्यक दशाएं हैं, जिनके होने पर ही वास्तविक कार्स्ट स्थलाकृति के विकास हो पाता है। यहाँ तक कि लाइमस्टोन शैल की स्थिति भी विशेष प्रकार की। होनी चाहिए। साधारण तौर पर अग्रलिखित दशाएँ कार्स्ट के लिए अधिक आवश्यक होती हैं:

कार्स्ट स्थलाकृति के आविर्भाव के लिए विस्तृत किन्तु शुद्ध लाइमस्टोन शैल होनी चाहिए। वास्तव में इस स्थलाकृति के लिए सतह के नीचे घुलनशील चट्टान होनी चाहिए जिसमें जल अपने रासायनिक कार्य द्वारा विभिन्न स्थलरूपों का विकास कर सके। लाइमस्टोन के अलावा डोलोमाइट शैल भी कुछ सीमा तक सहायक हो सकती है। लाइमस्टोन शैल ऊपरी सतह के नीचे (करीब) ही रहनी चाहिए। अधिक गहराई पर होने से घुलन क्रिया अधिक सक्रिय नहीं हो पाती है। लाइमस्टोन शैल की परत या स्तर किसी भी रूप में हो सकते हैं परन्तु वलित स्तर अधिक अनुकूल होते हैं।

घुलनशील चट्टान में संधियों का विकास अच्छी तरह होना चाहिए। इस कारण जल शैल की संधियों तथा छिद्रों से होकर चट्टानों को शीघ्र घुलाने लग जाता है। चट्टानों की पारगम्यता उसी सीमा तक अनुकूल मानी जाती है, जब तक की जल उनकी संधियों में अधिक मात्रा में समाविष्ट हो जाय परन्तु जल का सामूहिक स्थानान्तरण न हो सके। यदि शैल अधिक पारगम्य होती है तो जल शीघ्रता से उसे पार करके नीचे आधार में पहुंच जाता है। इस स्थिति में चट्टानों में घुलन क्रिया ठीक ढंग से नहीं हो पाती है।

कार्स्ट क्षेत्र में विस्तृत तथा गहरी घाटियाँ होनी चाहिए तथा उनके समीप ऐसे उच्च स्थलखण्ड हों, जिनमें ऊपरी सतह के नीचे अधिक विस्तृत रूप में लाइमस्टोन शैल की स्थिति हो। इस दशा में उच्च भाग की ऊपरी सतह से जल रिस कर लाइमस्टोन में पहुंचता है तथा वहाँ से नीचे उतर कर ढाल के अनुसार नदी की घाटी में पहुँचने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया के दौरान जल रासायनिक कार्य द्वारा लाइमस्टोन में घुलन क्रिया के कारण तरह-तरह के छिद्रों तथा कन्दराओं का निर्माण करता है।

चूँकि कार्स्ट स्थलाकृति का निर्माण जल की रासायनिक क्रिया द्वारा होता है, अतः क्षेत्र में भूमिगत जल की पूर्ति के लिए पर्याप्त जल होना चाहिए। भूमिगत जल की पूर्ति मुख्य रूप से वर्षा द्वारा होती है। अतः कार्स्ट क्षेत्र पर्याप्त वर्षा वाले प्रदेशों में स्थित होना चाहिए। साधारण रूप में सामान्य वर्षा कार्स्ट स्थलाकृति के विकास के लिए अधिक अनुकूल होती है। यदि भूपटल के समस्त कार्स्ट प्रदेशों का अवलोकन किया जाय तो अधिकांश कार्स्ट प्रदेश सामान्य वर्षा वाले क्षेत्रों में ही स्थित हैं।

घोल रन्ध्र तथा उससे सम्बन्धित रूप

(Solution holes and associated forms)

चूने की चट्टान वाले प्रदेश में ऊपरी सतह पर जब वर्षा का जल आता है तो कार्बन डाईआक्साइड गैस के साथ मिलकर वह सक्रिय घोलकर बन जाता है। चट्टान की सन्धियों में जल घुल करके उसके घुलनशील तत्त्वों को घुलाकर निकाल लेता है। इस घुलन क्रिया के कारण सन्धियों का विस्तार हो जाने से असंख्य छिद्रों का विकास हो जाता है। छोटे-छोटे को घोल रंध्र (sink holes) कहा जाता है। किसी भी विस्तृत कार्स्ट क्षेत्र में घोल रंध्र कई सौ से लेकर हजारों की संख्या में मिलते हैं। मैलाट महोदय के अनुसार दक्षिण इण्डियाना प्रान्त के कार्स्ट क्षेत्र में  लगभग 3,00,000 की संख्या में घोल रंध्र मिलते हैं। वास्तव में घोल रंध्र चूने की चट्टान की ऊपरी सतह पर निर्मित गड्ढे होते हैं, जिनकी गहराई कुछ मीटर से लेकर 20 मीटर तक होती है। परन्तु सामान्य तौर पर इनकी गहराई 3 से 10 मीटर तक होती है। क्षेत्रफल कुछ वर्ग मीटर से लेकर कई एकड़ तक होता है। आकार की दृष्टि से घोल रंध्र (sink holes) को दो वर्गों में रखा जाता है – 1. कीपाकार घोल रंध्र (funnel shaped shink holes) तथा 2. बेलनाकार घोल रंध्र (cylindrical sink holes ) ।

घोल द्वारा जब छिद्रों का विस्तार होता है तो घोल रंध्र आकार में अधिक बड़े हो जाते हैं। इस तरह के विस्तृत घोल रंध्र को विलयन छिद्र (swallow holes) कहते हैं। निर्माण की प्रक्रिया के आधार पर विलयन रंध्रों को दो वर्गों में रखा जाता है- 1. घुलन क्रिया के कारण विस्तृत रंध्र इस प्रकार के छिद्रों के विकास तथा सम्वर्द्धन में चष्टान की भौतिक अव्यवस्था (चट्टान का ध्वस्त होना, मुड़ना, भ्रंशित होना आदि) का हाथ कदापि नहीं होता है। घोलीकरण के फलस्वरूप इनका नीचे की ओर निरन्तर विकास होता जाता है। इस तरह के विलयन रंध्र को घोल द्वारा निर्मित छिद्र कहते हैं। जब इन छिद्रों का अत्यधिक विस्तार हो जाता है तो उन्हें डोलाइन कहते हैं।

पूर्ववर्ती यूगोस्लाविया के कार्स्ट क्षेत्र में इन विस्तृत छिद्रों को डोलाइन तथा सर्बिया में डोलिनास कहते हैं।

  1. ऊपरी सतह के नीचे रिक्त स्थान के कारण सतह के कुछ भाग के धंसक जाने या ध्वस्त हो जाने से निर्मित विलयन रंध्र को ध्वस्त रंध्र (collapse sinks) कहते हैं। इनका निर्माण ऊपरी सतह के अकस्मात् ध्वस्त हो जाने से होता है। इन ध्वस्त छिद्रों के किनारे खड़े हुआ करते हैं।

डोलाइन से कुछ भिन्न छिद्र भी होता है, जिसे घोल पटल (solution pan) कहा जाता है। डोलाइन की अपेक्षा घोलपटल उथला (कम गहरा) परन्तु आकार में अधिक विस्तृत होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के इण्डियाना प्रान्त के लास्ट नदी क्षेत्र का एक घोलपटल इतना अधिक विस्तृत है कि उसका क्षेत्रफल 30 एकड़ तक है। कभी-कभी मृत्तिका (clay) द्वारा डोलादन का निचला छिद्र बन्द हो जाता है, जिससे जल रिस कर नीचे नहीं जा पाता है। इस कारण डोलाइन में जल का संचयन हो जाने से छोटी-छोटी झीलों का निर्माण हो जाता है। इन झीलों को कार्स्टझील की संज्ञा प्रदान की जाती है। कुछ समय बाद छिद्र को बन्द करने वाला मलवा हट जाता है, जिस कारण झील का जल नीचे चला जाता है और झील लुप्त हो जाती है।

कार्स्ट खिड़की (Karst window)

जब डोलाइन या विलयन रंध्र के ऊपरी सतह के ध्वस्त हो जाने से बृहद् छिद्र का निर्माण होता है तथा जब उसका ऊपरी भाग खुला होता है तो उसे कार्स्ट खिड़की कहते हैं, क्योंकि इसके द्वारा भूमिगत जल प्रवाह तथा अन्य स्थलरूपों का अवलोकन किया जा सकता है। इन खिड़कियों का आकार छोओ रूप से बृहद् रूप तक होता है।

युवाला (Uvalas) –  युवाला के लिए हिन्दी में प्रायः सकुण्ड शब्दावली का प्रयोग किया जाता है। युवाला का निर्माझ कई रूपों में होता है। निरन्तर घोलीकरण के फलस्वरूप कई डोलाइन मिलकर एक बृहदाकार गर्त का निर्माझ करते हैं। इस विस्तृत गर्त को युवाला कहा जाता है। इसका निर्माण ऊपरी छत के ण्वस्त हो जाने पर भी होता है। असंख्य घोल रंध्र-भी विस्तार के कारण परस्पर मिलकर युवाला का निर्माण करते हैं। इन्हें संयुक्त या मिश्रित घोल रंध्र (compound sink holes) भी कहा जाता है। युवाला की व्यास एक किलोमीटर तक भी  मिलती है। युवाला इतने विस्तृत होते हैं कि इनमें धरातलीय नदियाँ लुप्त हो जाती हैं, जिनसे उनकी धरातलीय घाटियाँ सूख जाती हैं। छोटे-छोटे युवाला को जामा की संज्ञा प्रदान की जाती है। जाता की गहराई 100 मीटर तक मिलती है। युवाला की दीवालें प्रायः खड़ी होती हैं जो कि ऊपरी सतह से संलग्न होती हैं। युवाला की तली में प्रायः काँप मिट्टी का निक्षेप मिलता है। परन्तु तली या फर्श समतल होता है।

पोलियो (Polic) – पोलिये को हिन्दी में राजकुण्ड के नाम से अभिहित किया जाता है। युवाला से अधिक विस्तृत गर्त को पोलिये कहते हैं। इनके निर्माण के विषय में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। इसकी  तली या फर्श समतल होती है तथा दीवालें खड़ी होती हैं। इसके निर्माण के विषय में  ऐसा बताया जाता है कि लाइमस्टोन शैल वाले क्षेत्र में नीचे की ओर भ्रंशित (downfaulted) तथा अववलित (down folded) भागों में घुलन क्रिया द्वारा कुछ परिवर्तन हो जाने पर पोलिये का निर्माण हो जाता है। देखने में एक युवाला तथा  पोलिये समान लगते हैं, परन्तु उत्पति  तथा आकार की दृष्टि से इसमें पर्याप्त  अन्तर होता है। युवाला का क्षेत्र कुछ एकड़ तक ही होता है, परन्तु पोलिये का क्षेत्रफल कई वर्ग किलोमीटर तक होता है। पश्चिम बालकन क्षेत्र (यूरोप) का सर्वाधिक विस्तृत पोलिये ‘लिवनो पोलिये’ है, जिसकी लम्बाई 64 किलोमीटर तथा चौड़ाई 5 किलोमीटर से 11 किलोमीटर तक है।

कार्स्ट प्रदेश की घाटियाँ

क्षैतिज स्तर वाले या झुके हुए स्तर वाले चूने के क्षेत्र में ऊपरी सतह पर निर्मित विभिन्न प्रकार के रंध्र या छिद्र वाले स्थलखण्ड को कार्स्ट मैदान कहा जाता है। इस कार्स्ट मैदान पर धरातलीय अपवाह प्रतिरूप द्वारा तरह-तरह की गौण घाटियों तथा स्थलरूपों का विकास होता है। परन्तु इन सभी घटियों का सम्बन्ध घोलरंध्र (sink holes) या विलयन छिद्र (swallow holes) से अवश्य होता है। इनमें से निम्न स्थलरूप अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं:

(अ) धँसती निवेशिका (sinking crack) – कार्स्ट मैदान की ऊपरी सतह पर इतने अधिक घोल छिद्र (sink holes) होते है कि समूची सतह एक छलनी के समान दीखती है, जिसके घोल छिद्र कीप का कार्य करते हैं अर्थात् इन्हीं छिद्रों से होकर ऊपरी सतह की सरिताओं का जल नीचे जाकर भूमिगत जल का कार्य करता है। इस तरह कार्स्ट मैदान के छिद्रों का भूमिगत जल तथा उसके द्वारा उत्पन्न स्थलरूपों के लिए अधिक महत्त्व है। यदि छोटी-छोटी सरिताओं का जन्म कार्स्ट मैदान के ऊपर ही होता है तो इन छिद्रों के कारण ये अधिक दूरी तक सतह के ऊपर प्रवाहित नहीं हो पाती है। क्योंकि छिद्रों से होकर उनका जल के नीचे चला जाता  है। इसके विपरीत दूसरे भागों से निकलकर आने वाली कार्स्ट मैदान की बड़ी नदियां कुछ दूरी तक सतह पर अवश्य प्रवाहित होती हैं। इनके प्रवाह मार्ग की लम्बाई छिद्रों से रिसने वाले जल तथा नदी के जल के अनुपात पर आधारित होती है। जब छिद्रों या विदरों से होकर नदी का जल नीचे चला जाता है तो उसे धँसती निवेशिका कहते हैं तथा जिस बिन्दु पर जल नीचे प्रविष्ट होता है उसे सिन्क (sink) कहते हैं। नदी का जल प्रायः विलयन छिद्र (swallow holes) से ही अदृश्य होता है तथा यह सिन्क बिन्दु दिखाई नहीं पड़ता है। परन्तु कुछ सरिताओं का जल उनकी तली में स्थित कांप से होकर अदृश्य हो जाता है, जिससे सिन्क दिखायी नहीं पड़ता है। छोटी नदियों का जल एक ही विलयन छिद्र द्वारा अदृश्य हो सकता है जबकि लम्बी नदियों का जल कई विलयन छिद्रों से होकर नीचे प्रविष्ट होता है। इन धँसती निवेशिकाओं का अधिक महत्त्व इस बात में है कि उनके द्वारा सतह का जल सतह के नीचे पहुँच कर विभिन्न प्रकार की कन्दराओं का निर्माण करता है। धँसती निवेशिका का जल सतह के नीचे कुछ दूरी तक प्रवाहित होता है तथा कुछ दूरी के बाद पुनः प्रकट हो जाता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी इण्डियाना प्रान्त की लास्ट नदी सतह के नीचे 13 किलोमीटर की दूरी तक प्रवाहित होती है।

कार्स्ट मैदान पर विलयन रंध्र (sink holes), घोल रंध्र युवाला, धँसती निवेशिका (sinking creek), अन्धी घाटी (blind valley) तथा कार्स्ट घाटी (karst valley) का विकास।

अन्धी घाटी (Blind valley)

जिस स्थान पर (सिन्क-sink) नदी का जल सतह के नीचे चला जाता है, उसके आगे- सतह पर नदी की घाटी शुष्क रहती है, क्योंकि इसका उपयोग नदी अपने प्रवाह मार्ग के लिये इसलिये नहीं करती है कि इसका जल सतह के नीचे प्रवाहित होने लगता है। अतः ऊपरी शुष्क भाग को नदी का शुष्क नदी तल (dry river bed) कहते हैं। बाढ़ के समय में जब जल अधिक हो जाता है तथा जब विलयन छिद्र का समस्त जल सतह के नीचे पहुँचाने में समर्थ नहीं हो पाता है तो इस शुष्क तल पर अल्पकारिक प्रवाह होने लगता है, अन्यथा यह शुष्क ही रहता है। जब नदी एक विलयन छिद्र पर समाप्त हो जाती है तथा यह स्थिति जब एक लम्बे समय तक रहती है तो सिन्क के ऊपर (अर्थात् सिन्क बिन्दु से उद्गम की ओर) नदी अपनी घाटी को कार्स्ट मैदान से अधिक नीचा कर लेती है। इस अवस्था में नदी की घाटी का अन्त एक विलयन छिद्र पर  समाप्त हो जाता है। इस घाटी को अन्धी घाटी (blind valley) कहते हैं। दूसरे शब्दों में अन्धी घाटी उस घाटी को कहते हैं जिसका जल विलयन छिद्र (swallow hole) में समाप्त हो जाता है। तथा घाटी शुष्क नजर आती है। अधिक जलपूर्ति के समय जब विलयन छिद्र समस्त पानी को समाविष्ट नहीं कर पाते हैं तो अंधी घाटी में थोड़े समय तक जल भर जाने के कारण अल्पकालिक झील का निर्माण हो जाता है। इन झीलों का जीवन काल कुछ दिनों से कई हफ्ते तक होता है। कुछ लोगों के अनुसार अन्धी घाटी का निर्माण पोलिये की तली पर होता है।

(स) कार्स्ट घाटी (Karst valley): अधिक वर्षा के समय पृष्ठीय नदियाँ (Surface streams) कुछ दूरी तक प्रवाहित होती हैं तथा अपनी चौड़ी तथा U आकार की घाटी का निर्माण कर लेती हैं। इन घाटियों को घोल घाटी (Solution Valley) या कार्स्ट घाटी कहते हैं। इनका रूप अस्थायी होता है क्योंकि जैसे ही जल का आयतन कम हो जाता है, शेष जल विलयन रंध्रो द्वारा नीचे चला जाता है।

अपदन अवशेष (Erosional Remnants) : कार्स्ट क्षेत्र में अधिक घोल द्वारा चूने की चट्टान के विनाश के समय अधिकांश भाग कट जाता है परन्तु कुछ भाग अवशिष्ट रह जाता है। ये सामान्य सतह से कुछ ऊपर उठे रहते हैं। ये उठे भाग अवशिष्ट पहाड़ी टीले (residual hills or mounds) के रूप में होते हैं। इनकी समता सतह पर नदी द्वारा उत्पन्न मोनाडनाक से की जा सकती है। पूर्ववर्ती युगोस्लाविया के कार्स्ट क्षेत्र में पोलिये के फर्श पर इस तरह के अवशिष्ट भाग को हम्स या पूर्णकूट (hums) कहते हैं। पोटींरिका में इसे पेपिनों पहाड़ी (pepino hills), क्यूबा में ‘mogotes” तथा फ्रांस में (buttes termonies) कहते हैं।

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Pankaja Singh

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