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अपरदन चक्र के व्यवधान | ज्वालामुखी क्रिया एवं जलवायु परिवर्तन द्वारा व्यवधान | आधारतल में परिवर्तन द्वारा व्यवधान

अपरदन चक्र के व्यवधान | ज्वालामुखी क्रिया एवं जलवायु परिवर्तन द्वारा व्यवधान | आधारतल में परिवर्तन द्वारा व्यवधान | Disruption of the Erosion Cycle in Hindi | Disruption by Volcanic Action and Climate Change in Hindi | disturbance by change in baseline in Hindi

अपरदन चक्र के व्यवधान

डेविस के अपरदन चक्र की संकल्पना के अनुसार उत्थित स्थलखण्ड में तरुण, प्रौढ़ एवं जीर्ण अवस्थाओं से होकर प्रगामी क्रमिक परिवर्तन (progressive sequential changes) होता है तथा अन्नतः उत्थित स्थलखण्ड अपरदित होकर आकृतिविहीन मैदान-सम्प्राय (पेनीप्लेन) में परिवर्तित हो जाता है। इस तरह का आदर्श अपरदनचक्र अपनी तीनों अवस्थाओं से होकर तभी पूर्ण हो सकता है जबकि स्थलखण्ड दीर्घकाल तक स्थिर दशा में रहे परन्तु यह सम्भव नहीं हो पाता है क्योंकि पृथ्वी अत्यन्त अस्थिर है। अतः अपरदनचक्र में व्यवधान होता रहता है जिस कारण चक्रीय मॉडल में असंतुलन की दशा आ जाती है। अपरदन चक्र के क्रियान्वयन में किसी तरह की बाधा को चक्र का व्यवधान कहा जाता है। चक्र में व्यवधान के आधारभूत कारण या तो जलवायु परिवर्तन या विर्वतनिक (उत्थान, अवतलन) घटनायें या दोनों हो सकते हैं। विर्वतनिक कारकों का प्रभाव अपरदन के आधार तल में धनात्मक या ऋणात्मक संचलन से होता है। आधारतल में धनात्मक परिवर्तन धरातलीय भाग के अवतलन या सागरंतल में उभार के कारण होता है। आधारतल के इस धनातमक परिवर्तन द्वारा अपरदन चक्र में व्यवधान होने से चक्र का समय घट जाता है क्योंकि चक्र अगली अवस्था (तरुणावस्था से प्रौढ़ावस्था या प्रौढ़ावस्था से जीर्णावस्था में) में चला जाता है। इसके विपरीत यदि आधारतल मे ऋणात्मक परिवर्तन (स्थलखण्ड में उत्थान द्वारा या सागरतल में गिरावट होने से) होता है तो अपरदन चक्र में व्यवधान होने से चक्र का समय बढ़ जाता है क्योंकि चक्र पुनः पिछली अवस्था में चला आता है। उदाहरण के लिए यदि चक्र अन्तिम प्रौढ़ावस्था में है तो सागर तल के नीचे जाने या स्थलखण्ड में उत्थान होने से अपरदन का आधार तल नीचा हो जाता है। परिणामस्वरूप नदियों में नवोन्मेष हो जाने से निम्नवर्ती अपरदन (घाटी का अधः कर्तन) तेज हो जाता है तथा अपरदन चक्र पुनः तरुणावस्था में पहुंच जाता है। इस तरह से व्यवधान होने के कारण विक्षुब्ध चक्र को बाधित चक्र (interrupted cycle) कहते हैं। जब किसी क्षेत्र में इस तरह अपरदन चक्र में बार- बार व्यवधान होता है तो कई चक्र घटित होते हैं। इस तरह के चक्रों को क्रमिक या उत्तरोत्तर चक्र या बहुचक्र (successive or polycycles) कहते हैं। उत्तरोत्तर या बहु अपरदनचक्रों के दौरान  उत्पन्न स्थलाकृति को बहुचक्रीय स्थलाकृति (poly of multicyclic landscape) कहते हैं। अप्लेशियन में चार उत्तरोत्तर अपरदन चक्र के उदाहरण मिले हैं। छोटा नागपुर पठार पर भी कई अपरदनचक पूर्ण हो चुके हैं। हजारी बाग पठार पर राजरप्पा के पास दामोदर नहीं की पुरानी विस्तृत तथा चौड़ी घाटी के अन्दर नवीन संकरी तथा तंग घाटी अपरदन चक्र के व्यवधान तथा नवोन्मेष का स्पष्ट उदाहरण है। इसी तरह जबलपुर के पास नर्मदा नदी विस्तृत घाटी में धुंआधार प्रभात के नीचे भेड़ाघाट का लम्बा गार्ज नवोन्मेष तथा चक्र में व्यवधान का परिचायक है। चक्र में बाधा उपस्थित होने का प्रमुख कारण स्थलखण्ड में उत्थान तथा प्रक्रम (process) में  पुनर्नवीकरण (rejuvenation) का होना है तथा यह नवोन्मेष कई कारणों से होता है।

अपरदन चक्र में व्यवधान को सामान्यतः दो श्रेणियों में रखा जाता है – (1) यदि अपरदन चक्र में इस तरह का व्यवधान होता है कि उससे अपरदन चक्र की अवधि या तो बढ़ जाती है। (आधार तल के नीचा होने से नवोन्मेष के कारण) या छोटी हो जाती है (अवतलन द्वारा) तो उसे ‘अपरदन चक्र का व्यवधान’ कहते हैं। इसे ‘आधारतल परिवर्तन व्यवधान’ (Base Level change Interception) भी कहते हैं, (2) यदि अपरदन चक्र में इस तरह का व्यवधान होता है कि चक्र समाप्त हो जाता है (जलवायु में अचानक परिवर्तन या ज्वालामुखी उद्भेदन के समय लावा की मोटी चादर का विस्तृत क्षेत्र में विस्तार होने से) तथा दीर्घ अवधि के अन्तराल के बाद नया अपरदनचक्र प्रारम्भ होता है तो उसे आकस्मिक घटना या ‘एक्सीडेन्ट’ कहते हैं। मान लीजिए कि किसी क्षेत्र में जलीय अपरदन चक्र प्रौढ़ावस्था में है, उसी समय विस्तृत दरारी ज्वालामुखी उद्गार होता है जिस कारण भारी मात्रा में बेसाल्ट लावा प्रवाह के कारण सभी नदियाँ तिरोहित जाती हैं, तो अपरदन चक्र का अध्याय समाप्त हो जायेगा। लावा के शीतल होने से नयी सतह के निर्माण हो जाने के बाद ही नया अरदन चक्र प्रारम्भ होगा।

ज्वालामुखी क्रिया एवं जलवायु परिवर्तन द्वारा व्यवधान

किसी भी प्रदेश में अपरदन चक्र की ज्वालामुखी उद्गार या जलवायु में अचानक परिवर्तन के कारण स्थायी व्यवधान के कारण समाप्ति हो जाती है। ज्वालामुखी के दरारी उद्गार fissure eruption) के समय बेसाल्ट लावा का सतह पर उद्वेलन होता है जिस कारण उसका विस्तृत सतह पर विस्तार हो जाता है। यह मोटी लावा की चादर उच्चावच्च तथा धरातलीय अपवाह को ढक लेती है जिसकारण क्रियाशील अपरदन चक्र में स्थायी व्यवधान हो जाता है। नया अपरदन चक्र तभी प्रारम्भ हो सकता है जब लावा प्रवाह का स्थगन हो जाय, गर्म लावा शीतल होकर ठोस हो जाय, नयी सतह का निर्माण हो जाय तथा नयी सरिताओं का आविर्भाव होने लगे। प्रायद्वीपीय भारत में इस तरह का अपरदन चक्र में स्थायी व्यवधान (एक्सीडेण्ट) क्रीटैसियस युग में हुआ था जिस समय दकन लावा प्रवाह के कारण छोटानागपुर एंव दक्षिणी विन्ध्यन उच्चभाग सहित दकन पठार पर लावा की मोटी चादर का विस्तार हो गया था जिस समय कारण जुरैसिक अपरदन चक्र की बीच में ही समाप्ति हो गयी थी। लावा के शीतलन एवं घनीभवन (solidification) तथा मानसून जलवायु के आगमन के साथ ही नया टर्शियरी अपरदन चक्र प्रारम्भ हो पाया था।

जलवायुजनित व्यवधान Climatic interruption क्षेत्र (प्रदेश) विशेष की जलवायु में भारी परिवर्तन के कारण होता है। उदाहरण के लिए यदि किसी प्रदेश में जलीय अपरदन चक्र प्रौढ़ावस्था में चल रहा हो तो जलवायु में अचानक परिवर्तन के कारण शुष्क जलवायु हो जाये तो अपरदन चक्र में इतना व्यवधान हो जायेगा कि अपरदन चक्र प्रौढ़ावस्था में ही समाप्त हो  जायेगा। यदि जलवायु अति उष्ण एवं शुष्क हो जाती है तो नया शुष्क अपरदन चक्र प्रारम्भ होगा। यदि जलवायु में परिवर्तन इस तरह का हो कि हिमानी या परिहिमानी जलवायु हो जाती हैं। तो नये हिमानी या परिहिमानी अपरदन चक्र की शुरुआत हो जायेगी। ज्ञातव्य है कि यदि जलवायु में बड़ा परिवर्तन न होकर मामूली परिवर्त होता है तो अपरदन चक्र पूर्णतया समाप्त नहीं होगा, बल्कि उसकी गति या तो तेज या मन्द हो जायेगी। मान लीजिए यदि जलवायु पहले की तुलना में अधिक आर्द्र हो जाती है तो वाही जल (runnoff) तथा सरिता विसर्जन (discharge) में वृद्धि होने से अपरदन की दर में वृद्धि होने से (स्थानीय नवोन्मेष) अपरदन चक्र में स्थानीय स्तर पर व्यवधान होगा जिसका प्रभाव सारे क्षेत्र पर पड़ सकता है।

आधारतल में परिवर्तन द्वारा व्यवधान

सागरतल के संदर्भ में अपरदन के आधार तल (भ्वाकृतिक अपरदन द्वारा लम्बवत् अपरदन की अधिकतम सीमा) में किसी तरह के परिवर्तन होने पर (या तो आधार तल ऊंचा हो जाय या नीचा) अपरदन चक्र में व्यवधान हो जाता है या नया अपरदन चक्र प्रारम्भ हो जाता है। आधारतल में परिवर्तन दो तरह का होता है – धनातमक परिवर्तन (सागरतल में वृद्धि  होने पर) तथा ऋणातमक परिवर्तन (सागरतल में गिरावट के कारण)। सागरतल में परिर्वतन के कारण अपरदन के आधार तल में होने वाला परिवर्तन व्यापक (eustatic) होता है। विवर्तनिक घटनाओं द्वारा भी आधारतल में परिवर्तन होता है – यथा, स्थलखण्ड में अवतलन होने से आधारतल में धनात्मक तथा स्थलखण्ड में उत्थान के कारण ऋणात्मक परिवर्तन होता है। सागरतल में परिवर्तन दो कारणों (विवर्तनिक तथा जलवायु परिवर्तन) से होता है। विवर्तनिक घटनाओं के तहत जल सागरीय तली का अवतलन सा सागर तटीय स्थलीय भाग का सागरतल के संदर्भ में उत्थान होता है तो सागरतल में ऋणात्मक परिवर्तन होता है (सागर तल नीचे जाता है)। इसके विपरीत जब सागर तली में उत्थान या सागर तटीय स्थलीय भाग में सागरतल के संदर्भ में अवतलन होता है तो सागरतल में धनात्मक परिवर्तन (सागरतल ऊपर उठता है) होता है। जलवायु परिवर्तन के अन्तर्गत हिमकाल के समय हिमानी जलवायु होने पर सागरतल में ऋणात्मक परिवर्तन तथा हिमकाल के अवसान के बाद गर्म जलवायु होने पर सागर तल में धनात्मक परिवर्तन होता है। किसी भी कारण से जनित आधार तल में धनात्मक परिवर्तन के कारण अपरदन चक्र की अवधि बढ़ जाती है। आधार तल में धनात्मक परिवर्तन यानी वृद्धि होने पर निक्षेपण की क्रिया अधिक होती है जबकि ऋणात्मक परिवर्तन होने पर अपरदन की क्रिया तेज हो जाती है (नवोन्मेष)। नवोन्मेष का अगली पंक्तियों में विस्तार से विवरण दिया जा रहा है।

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Pankaja Singh

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