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नवोन्मेष | नवोन्मेष के कारण | नवोन्मेष की स्थलाकृतिक अभिव्यक्ति | बहुचक्रीय स्थलाकृति

नवोन्मेष | नवोन्मेष के कारण | नवोन्मेष की स्थलाकृतिक अभिव्यक्ति | बहुचक्रीय स्थलाकृति | Rejuvenation in Hindi

नवोन्मेष (Rejuvenation)

जलीय प्रक्रमों (सरिता) के अपरदन की शक्ति में अपरदन के आधार तल में ऋणातमक परिवर्तन के फलस्वरूप त्वरित गति से वृद्धि को नवोन्मेष (पुनर्युवन) कहते हैं। नवोन्मेष के कारण नदियाँ अपनी घाटी को निम्नवर्ती अपरदन (down cutting) द्वारा पुनः गहरा करने लगती हैं। नवोन्मेष की स्थिति में अपरदन चक्र की अवधि बढ़ जाती है। उदाहरण के लिय यदि जलीय अपरदन चक्र अपनी अन्तिम अवस्था अर्थात् जीर्णावस्था में पहुँच चुका है तथा मन्द जलधारा प्रवणता (gentile channel grandient), मन्द सरिता प्रवाह तथा उथली एवं चौड़ी जलोढ़ घाटियों का विकास हो गया है (ये जीर्णावस्था के लक्षण हैं) तो उसमें नवोन्मेष के कारण व्यवधान हो जायेगा तथा नदियाँ पुनः लम्बवत अपरदन द्वारा अपनी घाटी को गहरा करना प्रारम्भ कर देती हैं और इस तरह अपरदन चक्र पुनः तरुणावस्था में पहुँच जाता है जिस कारण जलधारा  प्रवणता तेज (steep) हो जाती है, जीर्णावस्था वाली चौड़ी घाटी के अन्दर तंग, संकरी एवं गहरी घाटी का निर्माण होता है आदि।

  1. गतिक (dynamic) नवोन्मेष

कारण :

* स्थलखण्ड में उत्थान

* स्थलभाग में झुकाव

सरिताओं के निकास (जिस झील से नदियाँ निकलती हैं) का नीचा होना

  1. सुस्थैतिक (custatic) नवोन्मेष

कारण :

सागरतल में परिवर्तन

(अ) पटलविरूपणी घटनाओं (diastrophic events) द्वारा (सागरनितल का अवतलन या तटीय स्थलखण्ड में उत्थान के कारण) ।

(ब) हिमानीकरण के कारण सागरतल में गिरावट के कारण।

  1. स्थैतिक (static) नवोन्मेष

कारण :

* नदी के अवसाद भार (sediment land) में कमी,

* जलवर्षा या हिमद्रवित जल में वृद्धि के कारण सरिता के जल के आयतन में जल विसर्जन में वृद्धि,

* सरिता अपहरण के कारण मुख्य सरिता के जल के आयतन में वृद्धि।

नवोन्मेष के कारण

जैसा कि ऊपर व्यक्त किया गया है कि जलीय अपरदन चक्र में नवोन्मेष (सरिता की अपरदन शक्ति में वृद्धि) का आधारभूत कारण अपरदन के आधारतल (जो सागरतल के बराबर होता है) में ऋणात्मक परिवर्तन है। अपरदन के आधारतल में परिवर्तन कई कारकों के फलस्वरूप होता है। अपरदन के आधारतल में ऋणात्मक परिवर्तन सदा सागरतल में ऋणात्मक परिवर्तन से सम्बन्धित होता है। सागरतल में गिरावट होने से अपरदन का आधारतल भी नीचा हो जाता है जिस कारण सरिता की जलधारा प्रवणता (channel gradient) बढ़ जाती है, परिणामस्वरूप सरिता की गतिज ऊर्जा (kinetic energy) में वृद्धि हो जाती है जिस कारण सरिता बढ़ी शक्ति से अपनी घाटी को निम्नवर्ती अपरदन (downard cutting) द्वारा गहरा करती है।

सागरतल में सुस्थैतिक ऋणात्मक परिवर्तन (custatic negative changes) हिम काल के समय होता है जिस समय सागरीय जल का अधिकांश महाद्वीपों पर हिमचादर के रूप में रुका रहता है। इस कारण सागर तल नीचा हो जाता है, परिणामस्वरूप सरिताओं की जलधारा प्रवणता तेज हो जाती है और सरिता में नवोन्मेष हो जाता है और वह अपनी घाटी को गहरा करने लग जाती है। प्लीस्टोसीन हिमकाल के समय उत्तरी अमेरिका तथा यूरेशिया का अधिकांश भाग हिमाच्छादित हो गया था। परिणामस्वरूप सागरतल में भूमण्डलीय स्तर पर गिरावट हो जाने से शीतोष्ण एवं उष्ण प्रदेशों की नदियों में नवोन्मेष हो गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका की रेड नदी की चार वेदिकाओं को प्लीस्टोसीन हिमकाल में चार बार हिमचादरों (नेब्रास्कन, कन्सान, इलीनोइन, विसंकासिन) के प्रसार से सम्बन्धित किया गया है।

विवर्तनिक कारकों के फलस्वरूप तटीय भाग के सम्बन्ध में सागरनितल के अवतलन के कारण सागरतल के नीचा होने (ऋणात्मक परिवर्तन) से स्थानीय एवं प्रादेशिक स्तर पर नवोन्मेष होता है।

स्थानीय या प्रादेशिक स्तर पर स्थलखण्ड में उत्थान (विवर्तनिक कारण) के फलस्वरूप जलीय अपरदन चक्र में व्यवधान एवं नवोन्मेष होता है। इस तरह के स्थलीय उत्थान के कारण छोटानागपुर पठार (झारखण्ड) के कई भागों में नवोन्मेष की घटनायें हुई बतायी गयी हैं। यहाँ पर टर्शियरी युग में हिमालय पर्वतीकरण के समय उत्थान की तीन घटनाओं के प्रत्युत्तर (response) में उत्थान की तीन घटनायें हुयी थीं। राँची एवं पलामू (झारखण्ड) के पाटलैण्ड में 305 मीटर का उत्थान हुआ जिस कारण टर्शियरी अपरदनचक्र में व्यवधान हो गया तथा उत्तरी कोयल नदी एवं उसकी सहायक नदियों में नवोन्मेष हो गया। परिणामस्वरूप निकप्वाइण्ट एवं जलप्रपातों का निर्माण हुआ जो नवोन्मेष के परिचायक हैं यथा बूढ़ाघाघ प्रपात 142 मी० गौतमघाघ प्रपात 36.57 मी., तथा घराघुघरा प्रपात 7.62 मीटर (उत्तरी कायल की सहायक बूढ़ा नदी पर), घगरी प्रपात 43 मी. (पण्डारा नदी पर), सदनीघाघ प्रपात (संख नदी पर), जालिमाघाघ प्रपात (जोरी नदी पर), निन्दीघाघ प्रपात (घाघरा नदी पर) आदि।

नदियों के निकाय (outlet) के नीचा होने के कारण नदियों में अतिरिक्त जल की आपूर्ति बढ़ जाने (से नवोन्मेष हो जाता है। सरिता अपहरण (river capture) द्वारा मुख्य नदी में जल की आपूर्ति बढ़ जाने से भी नदी में नवोन्मेष हो जाता है।

नवोन्मेष की स्थलाकृतिक अभिव्यक्ति तथा बहुचक्रीय स्थलाकृति

जलीय अपरदन चक्र में व्यवधान तथा नवोन्मेष के कारण एवं किसी प्रदेश में कई अपरदन चक्रों के क्रियान्वयन के फलस्वरूप उस प्रदेश की स्थलाकृति में कई नवीन स्थलरूपों के निर्माण द्वारा जटिलता आ जाती है। इस तरह की स्थलाकृति को बहुचक्रीय (poly or multi- cyelic topography) कहते हैं। इनमें प्रमुख हैं-स्थलाकृतिक विसंगति, घाटी के अन्दर घाटी या बहुमंजिली घाटी, युगल वेदिकायें, उत्थित समप्राय मैदान, अधः कर्तित विसर्प, निकप्वाइण्ट आदि।

  1. स्थलाकृति विसंगति: जब किसी स्थलखण्ड विशेष पर अपरदनचक्र में नवोन्मेष द्वारा विघ्न पड़ता है तो कई प्रकार की विषम स्थलाकृतियों का आविर्भाव होता है। इस प्रकार की स्थलाकृति को ‘स्थलाकृतिक विसंगति’ (topographic discordance) कहते हैं। दूसरे शब्दों में नवोन्मेष के कारण घाटी के ऊपरी भाग में तथा समीपस्थ भागों एवं घाटी के निचले भागों में स्थलाकृति समानता नहीं पायी जाती है। घाटी का ऊपरी भाग या तो प्रौढ़ावस्था की दशा प्रस्तुत करता है या जीर्णावस्था की परन्तु घाटी के निचले भाग में युवावस्था के लक्षण मिलते हैं। यदि प्रारम्भिक चक्र में नदी अपनी प्रौढ़ावस्था को पार करके जीर्णावस्था में पहुँच गयी थी तो क्षैतिज कटाव द्वारा उसकी घाटी पर्याप्त रूप में चौड़ी हो गयी होगी परन्तु नवोन्मेष के कारण चक्र में परिवर्तन हो जाता है तथा उसका निम्न कटाव बढ़ जाता है, जिस कारण प्रारम्भिक चौड़ी घाटी में छोटी तंग एवं गहरी घाटी का निर्माण हो जाता है। इस प्रकार की स्थलाकृति को ‘घाटी के अन्दर घाटी’ (velley in valley) या ‘दो तल्ले वाली घाटी’ (two-story valley), ‘दो चक्रीय घाटी) (two-cycle valley) आदि कहते हैं। इन दो घाटियों अर्थात् ऊपर पुरानी तथा नीचे नवीन घाटी का अलगाव ढाल में असम्बद्धता द्वारा होता है। हजारी बाग पठार पर राजरप्पा के पास दामोदार नदी की घाटी स्थलाकृतिक विसंगति की परिचायिका है। यहाँ पर दो तल्ले वाली घाटी का खूबसूरत उदाहरण मिलता है। टर्शियरी युग में उत्थान के पूर्व दामोदर नदी ने अपनी चौड़ी, विस्तृत तथा उथली घाटी का निर्माण कर लिया था। टर्शियरी युग में हिमालय पर्वतीकरण के परिणामस्वरूप इस भाग में उत्थान के कारण दामोदर नदी में नवोन्मेष हो गया जिस कारण दामोदर नदी ने अपनी पुरानी घाटी के अन्दर नवीन संकरी तथा तंग घाओं का निर्माण किया है। भेड़ा नदी जलप्रपात बनाती दामोदर नदी में गिरती है। इस प्रकार भेड़ा नदी की घाटी लटकती घाटी का उदाहरण है। इस तरह की स्थलाकृतिक विसंगति तथा घाटी के अन्दर घाटी का उदाहरण जबलपुर के पास धुँआधार प्रपात के नीचे नर्मदा नदी की घाटी में भी मिलता है। यहाँ पर स्मरणीय है कि कई बार नवोन्मेष के कारण घाटी के अन्दर घाटी का क्रमशः विकास हो जाता है तथा इनका आकार सोपानाकार होता है। इन सोपानाकार घाटियों के सोपानाकार किनारों को चट्टानी संरचना द्वारा निर्मित नदी की ‘सोपानाकार वेदिकाओं’ (bench like terraces) से अलग ही समझना चाहिये। नवोन्मेष द्वारा निर्मित वेदिकाओं को ‘शैल संस्तर वेदिकायें’ (bed- rock torraceus) कहते हैं। जबकि प्रतिरोधी चट्टानों द्वारा निर्मित वेदिकाओं को ‘संरचनात्मक सोपान (structural benches) कहते हैं। नवोन्मेष द्वारा अन्य स्थलाकृतियों को निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है।
  2. उल्थित समगम मैदान: यदि किसी स्थान विशेष पर वर्तमान समय के समप्राय मैदान (peneplain) के ऊपर प्राचीन समप्राय मैदान परिलक्षित होते हैं तो उनमें उस भाग का नवोन्मेष साफ स्पष्ट हो जाता है। प्रायः ऐसा होता है कि एक स्थलखण्ड विशेष पर प्रथम चक्र की समाप्ति के समय निर्मित समप्राय मैदान का उत्थान हो जाता है तथा नदियों में नवोन्मेष आ जाता है, जिस कारण द्वितीय चक्र प्रारम्भ हो जाता है तथा प्रथम पेनीप्लन से नीचे द्वितीय पेनीप्लेन का निर्माण होता है। इस प्रकार उपर्युक्त क्रिया की पुनरावृत्ति के कारण कई समप्राय मैदानों का निर्माण हो जाता है, जो कि निश्चय ही एक दूसरे से अलग किये जा सकते हैं। वास्तव में यह ‘उत्तरोत्तर अपरदन चक्र’ (successive cycles) का उदाहरण है, जिसके अंतर्गत एक चक्र के समापन के बाद उत्थान हो जाता है तथा पुनः द्वितीय चक्र प्रारम्भ हो जाता है। इस प्रकार क्रम से एक चक्र के बाद दूसरे चक्र के चलने की क्रिया को उत्तरोत्तर अपरदन चक्र कहा जाता है। इस प्रकार के चक्र के लिये वे सभी दशायें आवश्यक हैं, जिनका उल्लेख नवोन्मेष के कारण के समय किया जा चुका हैं उत्तरोत्तर अपरदन चक्र द्वारा उत्थित कई समप्राय मैदानों के उदाहरण प्रायः हर महाद्वीप में मिलते हैं। उदाहरण के लिए उत्तरी अमेरिका के अप्लेशियन क्षेत्र में ऊपर से नीचे अथवा प्राचीन से वर्तमान समय के निम्न पेनीप्लेन पाये जाते हैं सकूली पेनीप्लेन, हैरिसबर्ग पेनीप्लेन, सामरविली पेनीप्लेन ।

राँची पठार का पश्चिमी उच्च प्रदेश (पाट प्रदेश) उत्थित समप्राय मैदान का प्रमुख उदाहरण है। यह प्रदेश मध्य राँची पठार (610 मीटर) से 305 मीटर (पश्चिमी उच्च प्रदेश की 915 मीटर सतह के ऊपर भी 154 मीटर मोटी क्रीटैसियस युगीन लावा की परत है) ऊंचा है। क्रीटैसियस लावा प्रवाह के पूर्व समस्त राँची पठार एक विस्तृत समतल सहत के रूप में परिवर्तित हो गया था। तदन्तर टर्शियरी युग में इस पश्चिमी पाट प्रदेश का 305 मीटर तक उत्थान हो गया। परिणामस्वरूप इस प्रदेश की 915 मीटर की सतह उत्थित समप्राय मैदान का उदाहरण है (चित्र 16.5)। उत्तरी कोयल नदी तथा उसकी सहायक नदियों ने इस प्रदेश को निम्नवर्ता अपरदन द्वारा कई सपाट सतह वाले लघु भागों में विभक्त कर दिया है जिन्हें स्थानीय भाषा में पाट कहते हैं-जैसे नेतरहाट पाट, खमार पाट, रुडनी पाट, जमीरा पाट, रल्डामी पाट, बांगरू पाट आदि। इन मेसा या पाट के किनारे तीव्र ढाल वाले होते हैं।

  1. अधः कर्तित विसर्प ( Incised Meanders) : भूआकृति विज्ञान में विसर्प (meanders) की पाँच नामवलियों का प्रयोग किया जाता है तथा ये एक दूसरे से इतने समीप हैं तथा उनमें इतनी समता कि उनको अलग करना कठिन कार्य है। इन नामावलियों का प्रयोग विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से अलग-अलग रूप में किया है। ये पाँच शब्द इस प्रकार हैं- (incised meanders, entrenched meanders, entrenched meanders, enclosed meanders तथा ingrown meanders | जीर्णावस्था में नदी कम गति तथा कम ढाल के कारण सीधे मार्ग से न प्रवाहित होकर टेढ़े-मेढ़े मार्ग से होकर बल खाती हुई चलती है। नदी के इन मोड़ों को विसर्प कहते हैं। प्रथम चक्र में नदी चौड़े विसर्पों का निर्माझ करती है तथा यदि इस अवस्था में उस स्थल का उत्थान हो जाय तो नदी में नवोन्मेष हो जाता है, जिस कारण वह पुराने चौड़े विसर्प के अन्दर निम्न कटाव द्वारा दूसरे सँकरे तथा गहरे विसर्प का निर्माण करती है। इसे अधःकर्तित विसर्प (Incised meanders) कहते हैं।

दक्षिणी राँची पठार की दक्षिणी सीमा (सिंह भूमि के साथ) पर कारो नदी पर स्थित फेरुआघाघ प्रपात (18.28 मीटर) के नीचे विसर्पित घाटी पायी जाती है जिसमें अधःकर्तन द्वारा गार्ज एवं अधःकर्तित विसर्प का निर्माण हुआ है। टर्शियरी युग में उत्थान के कारण नवोन्मेष होने से अधःकर्तित विसर्प का निर्माण हुआ है। राजरप्पा के पास (हजारी बाग पठार) दामोदर नदी का गार्ज अधःकर्तित विसर्प का प्रमुख उदाहरण है। संगमरमर शैलिकी में नर्मदा नदी का भेड़ाघाट गार्ज अधःकर्तित विसर्प का सबसे प्रभावी तथा खूबसूरत उदाहरण है।

  1. निक प्वाइण्ट (Knick Point) : प्रत्येक नदी के उद्गम स्थल से मुहाने तक के मार्ग को एक अनुदैर्ध्य वक्र कहा जाता है। नदी का आधार तल या कटाव की अन्तिम सीमा सागरतल से निश्चित होती है। नदी के इस मुहाने से उद्गमस्थल वाले वक्र या घाटी को अनुदैर्ध्य परिच्छेदिका (long profile) तथा घाटी के चौड़ाई वाले भाग को अनुप्रस्थ परिच्छेदिका (transverse profile) कहते हैं। जब नदी अपरदन द्वारा अपने आधारतल को प्राप्त हो जाती है तो उसे प्रवणित नदी (graded rivers) कहते हैं। नदी का आधारतल वक्र के रूप में होता है। जब नदी के आधारतल में ऋणात्मक परिवर्तन होता है अर्थात् सागरतल नीचे चला जाता है या मार्ग में स्थल खण्ड में उत्थान हो जाता है तो नदी में नवोन्मेष आ जाता है तथा नदी अपने नये आधारतल से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करने लगती है (नया आधारतल अब नये सागर तल के बराबर होता है)। फलस्वरूप नदी के एक नये वक्र का निर्माण हो जाता है क्योंकि पहले आधार तल में परिवर्तन हो चुका है। चूँकि इस बार आधारतल में ऋणात्मक परिवर्तन हुआ है अतः नया आधारतल, प्रारम्भिक आधारतल अर्थात् नया वक्र पहले वक्र से नीचा होता हैं। नवोन्मेष के कारण नदी का शीर्ष की ओर अपरदन (headward erosion) होने से नया वक्र पुराने वक्र की स्थानापूर्ति करता रहता है। जहाँ पर दोनों वक्र मिलते हैं वहाँ पर ढाल में अचानक अन्तर, आ जाता है क्योंकि पहले वक्र से दूसरा वक्र नीचा होता है। इस ढाल परिवर्तन वाले स्थान को निक प्वाइन्ट (Knick point) कहते हैं। जैसे-जैसे शीर्षवर्ती अपरदन होता है वैसे-वैसे नया वक्र भी पीछे हटता जाता है, जिस कारण निक प्वाइण्ट भी निरन्तर पीछे (शीर्ष) की ओर हटता जाता है।

निक प्वाइन्ट को वास्तव में नवोन्मेष का शीर्ष (head of rejuvenation) कहा जाता है। संयुक्तराज्य अमेरिका में ऐसे निक प्वाइन्ट के उदाहरण आप्लेशियन क्षेत्र के पीडमाण्ट तथा तटीय मैदान के मिलनबिन्दु पर प्रपातरेखा के सहारे पाये जाते हैं। सागरतल में ऋणात्मक परिवर्तन के कारण जब संयुक्त राज्य अमेरिका के अटलांटिक तटीय मैदानों का प्रथम निर्गमन हुआ तो आधारतल में परिवर्तन हो गया जिस कारण नदियों में नवोन्मेष आ गया। फलस्वरूप नदियों ने शीघ्र ही अपना नये आधारतल से सामंजस्य तटीय मैदान में कटाव करके कर लिया तथा प्रथम नवोन्मेष शीर्ष की स्थिति पीडमाण्ट के पूर्वी ढाल पर हुई, जिससे समस्त अप्लेशियन के सहारे उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में एक क्रमबद्ध श्रृंखला के रूप में प्रपात रेखा का निर्माण हो गया। निक प्वाइन्ट प्रापात के लिये उचित दशा उपस्थित कर सकते हैं, परन्तु यह स्मरण रखना होगा कि प्रतिरोधी चट्टानें निक प्वाइण्ट के पीछे हटने की गति में कमी कर सकती हैं परन्तु ये उनके आविर्भाव का कारण कदापि नहीं बन सकती हैं।

राँची पठार की स्वर्णरेखा नदी पर हुण्डरूघाघ प्रपात (76.67 मीटर), गंगा तथा रारू नदी के संगम पर जोन्हा या गौतम धारा प्रपात (25.9 मीटर) एवं कांची नदी पर दासम प्रपात (दो प्रपात 39.62 तथा 15.24 मीटर) निक प्वाइन्ट एवं नवोनमेष के शीर्ष को प्रदर्शित करते हैं। यदि मानचित्र पर इन प्रपातों की  स्थितियों को देखा जाय तो ये उ. पू. से द. प. दिशा में एक सीधी रेखा पर पड़ते हैं। इनमें उभय विशेषतायें पायी जाती हैं (सीधा लम्बवत प्रपात, रुण्डित संरचना (turneded structure), प्रापात के नीचे तंग तथा गहरी घाटी वाले गार्ज आदि)। ये प्रपात टर्शियरी युग के उत्थान को इंगित करते हैं। प्रपातों को देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन बिन्दुओं पर उक्त नदियों में नवोन्मेष हुआ है तथा पृष्ठवर्ती (backward) अपरदन के कारण ये प्रपात पीछे हट रहे हैं।

यदि उत्तरी कोयल नदी की सहायक बूढ़ा नदी के उद्गम से उसके उ. कोयल के साथ संगत तक अनुदैर्ध्य परिच्छेदिका का अवलोकन किया जाय तो निक प्वाइण्ट की तीन स्थितियाँ  मिलती हैं तथा ये निक प्वाइन्ट जलप्रपात के रूप में मिलते हैं जिनकी ऊंचाइयाँ उद्गम से सगम की ओर घटती जाती हैं। नदी के सबसे ऊपरी मार्ग में बूढ़ा घाघ प्रपात (142 मीटर) प्रथम निकप्वाइन्ट को इंगित करता है। यहाँ बूढ़ा नदी ने 915 मीटर ऊँचे (ग्रेनाइटनीस संरचना पर) भाग को काटकर उक्त प्रपात का निर्माण किया है। नदी के मार्ग के मध्य भाग में दूसरा निकप्वाइण्ट सुगाबन्ध प्रपात (12.19 मी.) के रूप में मिलता है। तीसरा निक प्वाइण्ट नदी के निचले भाग में मिलता है। द. प. बिहार के रोहतास पठार से निकलकर जो नदियाँ (सुरा प., सुरा पू., दुर्गावती आदि) उत्तर की ओर बहती हैं उन पर एक रेखा के सहारे (जहाँ पर ये पठार को छोड़कर उत्तरी मैदान में प्रविष्ट होती हैं) प्रपातों के रूप में निकप्वाइण्ट मिलते हैं। इसमें सबसे बड़ा निकप्वाइण्ट औसाने नदी (जो पछार से निकलकर दक्षिण दिशा में बहती हुई सोन नदी में मिलती है) पर क्वारीडाह (180 मीटर) प्रपात के रूप में है। जबलपुर (म.प्र.) के पास नर्मदा नदी पर धुआंधार प्रपात निक प्वाइण्ट का परिचायक है। रीवां पठार (म.प्र.) को छोड़कर रीवां कगार के सहारे उतरकर उत्तर दिशा में प्रवाहित होकर गंगा तथा यमुना नदियों से मिलने वाली सरिताओं पर स्थित प्रमुख जलप्रपात (बीहर नदी पर 127 मी. चचाई प्रपात, महानानदी पर 98 मी. केवटी प्रपात, टोंस नदी पर पुरवा (टोंस प्रपात) 75 मी. प्रपात, बेलन की सहायक ओडा नदी पर 148 मी. ओडा प्रपात आदि) इन नदियों के नवोन्मेष के परिचायक हैं।

अपरदन चक्र में व्यवधान तथा नवोनमेष के कारण नदी के दोनों ओर समान ऊंचाई पर वेदिकायें बन जाती हैं। इन्हें युगल वेदिका (paired terraces, चित्र 16.7) कहते हैं। हिमालय में तीन ऊंचाइयों पर नदी वेदिकाओं के तीन जोड़े पाये जाते हैं जिनसे हिमालय पर्वतीकरण के समय उत्थान की तीन प्रावस्थाओं का बोध होता है।

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Pankaja Singh

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