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भारत में नव पाषाण काल | नव पाषाण काल की विवेचना कीजिए | Describe the Neolithic Period in Hindi

भारत में नव पाषाण काल | नव पाषाण काल की विवेचना कीजिए | Describe the Neolithic Period in Hindi

भारत में नव पाषाण काल

नव पाषाण काल का मानव की भौतिक प्रगति के इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस काल में कृषि एवं पशु-पालन सर्वप्रथम प्रारम्भ हुए वे मानव समाज को आखेट एवं संचय की अर्थ-व्यवस्था में आगे नहीं बढ़ पाये, वे सभ्यता का विकास नहीं कर सके। कांस्य काल की सभ्यताओं के उदय तथा विकास के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमि नवपाषाण काल की अर्थ-व्यवस्था ने प्रस्तुत की। नवपाषाण काल की इस महत्त्वपूर्ण भूमिका को लक्ष्य करके ही प्रसिद्ध विद्वान् गॉर्डन चाइल्ड ने इस परिवर्तन को नवपाषाण काल की क्रान्ति (Neolithic Revolution) कहा था। आजकल प्रायः यह कहा जाता है कि मध्य पाषाण काल से नवपाषाण काल परिवर्तन आकस्मिक एवं अप्रत्याशित नहीं था। नवीन अनुसंधानों के आलोक में यह कहा जा सकता है कि आखेट एवं संचय से खाद्यान्न उत्पादन तथा पशु-पालन के रूप में परिवर्तन क्रमिक गति से धीरे-धीरे हुआ।

जॉन लुब्बॅक ने पाषाण उपकरणों के वैशिष्ट्य के आधार पर सन् 1865 में पाषाण काल को पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल में विभाजित किया था जिसके अधोलिखित मापदण्ड प्रस्तावित किया गए थे-

  1. काल में पाषाण उपकरणों का निर्माण प्रधानतः फलकीकरण की प्रविधि से किया जाता था, जबकि निवपाषाण काल में उपकरणों को अभीष्ट आकार देने के लिए फलकीकरण के पश्चात् गढ़ना (Pecking), घिसना(Grinding) तथा चमकाना (Polishing) पड़ता था।
  2. पुरापाषाण काल में जिन पशुओं का शिकार किया जाता था, वे अब विलुप्त हो गये हैं; जबकि नवपाषाण काल के पशुओं के वंशज आज भी मिलते हैं।
  3. पुरापाषाण काल में मानव अपने भरण-पोषण के लिए आखेट एवं प्रकृति-प्रदत्त फल-फूलों तथा अन्य खाद्य सामग्री पर निर्भर था। नवपाषाण काल में खाद्यान्न उत्पादन और पशुपालन प्रारम्भ हो गया था।

सन् 1865 में लुब्बॅक द्वारा प्रस्तावित उपर्युक्त परिभाषा में अनुसंधान एवं खोजों के फलस्वरूप प्राप्त नवीन जानकारी के परिप्रेक्ष्य में यथेष्ट परिष्कार तथा परिवर्द्धन किये गए हैं। नव पाषाण शब्द अब अनेकार्थक हो गया है। ऐसी स्थिति में इसका ठीक-ठीक अर्थ बतलाना अपेक्षाकृत कठिन हो गया है। यह कहा गया है कि विभिन्न संदर्भो में नव पाषाणिक शब्द का अर्थ है- “एक आत्म-निर्भर अर्थ-व्यवस्था, एक ऐसी पुरावशेष-सामग्री जिसमें मिट्टी के बर्तन प्राप्य हैं, पालिशदार पाषाण उपकरणों का समूह, स्थायी रूप से निवास करने वाले लोगों को एक ऐसी संस्कृति जिसमें पालिशदार पाषाण उपकरणों या मिट्टी के बर्तनों का अभाव है।”

नव पाषाण काल के सम्बन्ध में विद्वानों ने कतिपय भ्रान्त धारणाएँ बना लिया है, उदाहरणार्थ, बहुत समय से यह माना जाता रहा है कि कृषि का विकास सर्वप्रथम केवल मध्य- पूर्व के क्षेत्रों में हुआ था, वहाँ पर कृषि-कर्म की शुरुआत इसलिए हुई कि मध्य-पूर्व के क्षेत्रों में हुआ था, वहाँ पर कृषि-कर्म की शुरुआत इसलिए हुई कि मध्य-पूर्व के हरे-भरे घास के मैदान तेजी से मरुस्थलों में परिवर्तित हो रहे थे। जिसके फलस्वरूप वहाँ पर निवास करने वाले लोगों के समक्ष अपने अस्तित्त्व की रक्षा की जटिल समस्या उत्पन्न हो गई। मानव- समुदाय तथा पशु मरुस्थलों में परस्पर एक-दूसरे के समीप रहने के लिए बाध्य हुए। इन विषम परिस्थितियों का सामना करने के लिए कृषि तथा पशु-पालन प्रारम्भ किये गए।

बीसवीं शताब्दी ईसवी के चालीसवें दशक के समय से लेकर आज तक हुई नवीन खोजों, नये अनुसंधानों एवं सम्यक् विचार-मंथन के फलस्वरूप नवपाषाण काल के सम्बन्ध में उल्लेखनीय जानकारी प्राप्त हुई है। उपर्युक्त धारणाओं में संशोधन प्रस्तावित किये गए हैं। उनमें से कुछ तो निश्चयेण गलत साबित हुई हैं, कतिपय अन्य के विषय में भी ऐसा ही कहा जा सकता है; जबकि अन्य अनेक के सम्बन्ध में प्रश्न चिन्ह लगाए जा रहे हैं। कृषि-कर्म का उदय एवं विकास किसी बढ़ते हुए संक्रमणात्मक अभाव के फलस्वरूप नहीं हुआ। अकाल की विभीषिका से पीड़ित और अभाव की काली छाया में निवास करने वाले लोगों के पास कृषि-कार्य जैसे मन्द, अत्वरित प्रयोग तथा परीक्षण करने के लिए साधन एवं समाज नहीं रहा होगा मानव के लिए उपयोगी जंगली घासों के पौधों में चयन के द्वारा सुधार ऐसे लोगों द्वारा किया गया होगा जो आवश्यक आवश्यकताओं की सीमा से पर्याप्त ऊपर जीवनयापन कर रहे थे। कृषि एवं पशु-पालन सम्बन्धी प्राचीनतम प्रमाण पश्चिमी एशिया के क्षेत्र में इसलिए मिलते हैं क्योंकि यहाँ पर मौसम की अनुकूलता, उपयुक्त जंगली पौधों तथा पशुओं की उपलब्धता और मानव की समुन्नत तकनीकी प्रगति के रूप में इसके लिए अनुकूल एवं अपेक्षित साधन प्राप्य थे।

कृषि तथा पशु-पालन का विकास साथ-साथ हुआ अथवा दोनों का विकास अलग- अलग क्षेत्रों और विभिन्न समयों में हुआ? इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना अपेक्षाकृत कठिन है। इतना निश्चित है कि ये दोनों ही शीघ्र एक-दूसरे के पूरक बन गए और कृषि तथा पशु-पालन की मिश्रित अर्थ-व्यवस्था ग्राम्य-जीवन का एक अभिन्न अंग बन गई। कृषि तथा पशु-पालन के विकास के बाद भी जंगली जानवरों के शिकार और कन्द-मूल तथा फल-फूलादि का संचय होता रहा।)

कृषि का प्रचलन सर्वत्र एक ही समय में नहीं हुआ। दस हजार से छः हजार ई०पू० के मध्य पश्चिमी एशिया के कम-से-कम तीन क्षेत्रों में कृषि तथा पशुपालन प्रारम्भ हुआ-

  1. जग्रोस पर्वत क्षेत्र,
  2. लेवां (सीरिया, फिलिस्तीन, जॉर्डन),
  3. दक्षिण तुर्की (टर्की)।

छठी-पाँचवीं सहस्त्राब्दी ई०पू० तक उत्तरी अफ्रीका में मिस्र और एशिया में तुर्किस्तान से लेकर सिन्ध तक के क्षेत्र में कृषि, पशु-पालन का प्रचलन हो गया था। चीन के कतिपय क्षेत्रों में भी लगभग इसी समय कृषि के प्रचलन के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। चौथी-तीसरी शताब्दी ई०पू० में पहले पूर्वी यूरोप के क्षेत्रों में तत्पश्चात् समशीतोष्ण कटिबंध के क्षेत्रों में कृषि होने लगी थी। उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका महाद्वीपों में कृषि का विकास पुरानी दुनिया की भांति नहीं हुआ। यहाँ कृषि का विकास निश्चित रूप से स्वतन्त्र आविष्कार के फलस्वरूप हुआ। दक्षिणी तथा उत्तरी अमेरिका में आरम्भिक कृषि के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं- 1. पेरू का तटीय क्षेत्र, 2. मेक्सिको, 3. संयुक्त राज्य अमेरिका का दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र। उपलब्ध तिथि-क्रम के अनुसार उद्भिज कृषि (लौकी, मटर आदि) सातवीं सहस्त्राब्दी ई०पू० में और अनाज (मक्का आदि) का उत्पादन तृतीय सहस्त्राब्दी ई०पू० में प्रारम्भ हुआ। अमेरिका महाद्वीपों में प्रागैतिहासिक काल में पालतू पशुओं का अभाव था इसलिए वहाँ का सामाजिक संगठन पुरानी दुनिया के समकालिक सामाजिक संगठन से नितान्त भिन्न प्रकार का था।

पश्चिमी एशिया ने मानव को जौ, गेहूँ, दलहन तथा तिलहन आदि के रूप में सबसे महत्त्वपूर्ण खाद्यान्न प्रदान किये। दक्षिण-पूर्व एशिया से धान तथा अमेरिका से मक्का के रूप में खाद्यान्न उपलब्ध हुए। वस्त्र-निर्माण हेतु कपास की कृषि भारत-पाकिस्तान के क्षेत्र में सर्वप्रथम प्रचलित हुई। भेड़-बकरी और गाय-बैल आदि मवेशियों को भी सर्वप्रथम पश्चिमी एशिया के क्षेत्र में ही पालतू बनाया गया। सुअर और गधे भी नवपाषाण काल में ही इस क्षेत्र में पाले गए। घोड़े को संभवतः पहले-पहल धातु युग में सवारी के लिए पालतू बनाया गया।

नवपाषाण काल में कृषि विकास के फलस्वरूप बढ़ईगीरी में काम आने वाले पाषाण उपकरणों का विशेष रूप से निर्माण किया गया। कुल्हाड़ी के अतिरिक्त बसूला, रूखानी आदि प्रमुख पाषाण उपकरण थे। इनके अलावा हँसिया, सिल-लोढ़ा, ओखली आदि अन्य पाषाण उपकरण तथा उपादान भी उल्लेखनीय हैं। दन्तुर-कटक प्रविधि से निर्मित लघु पाषाण उपकरणों का प्रचलन इस काल में भी मिलता है।

मिट्टी के बर्तनों का निर्माण नवपाषाण काल की एक अन्य प्रमुख विशेषता मानी जाती है, यद्यपि सर्वत्र प्रारम्भ से ही मिट्टी के बर्तन नहीं मिलते हैं। आरम्भ में मिट्टी के बर्तन-हस्त- निर्मित होते थे। बर्तनों के निर्माण में बन्दगति के चाक (Turn-table) को इस दिशा में प्रगति होगीका अगला कदम माना जा सकता है। चाक का आविष्कार मानव की तकनीकी प्रगति की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है। प्राम्भिक मिट्टी के बर्तनों में अलंकरण बहुत कम मिलता है। चाक के प्रचलन के साथ ही मिट्टी के बर्तनों की सतह पर चित्रकारी की प्रक्रिया भी विशेष लोकप्रिय हुई। मिट्टी के बर्तनों के अतिरिक्त नवपाषाण काल के पुरास्थलों से प्राप्त तकुए तथा करघे के मृण्मय पुरावशेषों से यह इंगित होता है कि ऊन, सन और कपास के धागों से वस्त्र तैयार किये जाते थे। कृषि तथा पशु-पालन आदि के फलस्वरूप लोगों के जीवन में स्थायित्व का संचार हुआ। सुनिश्चित खाद्यान्न-व्यवस्था के फलस्वरूप जनसंख्या में वृद्धि होने लगी। सूखा आदि प्राकृतिक आपदाओं और किसी एक मानव-समूह द्वारा दूसरे पर अप्रत्याशित आक्रमण के संकट को छोड़ कर मानव का जीवन पुरापाषाणिक कालों की तुलना में काफी सुरक्षित हो गया था।

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Pankaja Singh

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