इतिहास

महाबलीपुरम् मंदिर | महाबलीपुरम् मंदिर की विशेषताएं | नागर शैली के मंदिर

महाबलीपुरम् मंदिर | महाबलीपुरम् मंदिर की विशेषताएं | नागर शैली के मंदिर

महाबलीपुरम् मंदिर

भातीय वास्तु और मूर्तिकला के विकास में दक्षिण भारत के पल्लव राजवंश का भी योगदान है। लगभग ईसवी 600 वीं से 9वीं शती के मध्य तक इस वंश का आधिपत्य रहा। उनकी राजधानी काँची (कांजीवरम्) थीं। वहाँ तथा कूरप, पनमलै, महाबलीपुरम् आदि अनेक स्थलों पर पल्लवों के शासनकाल में कला का संवर्धन हुआ। इस वंश के एक राजा नरिसंहवर्मा द्वितीय ‘राजसिंह’ (ईसवी700-728) ने इस दिशा में विशेष रुचि ली। उसने कई पाषाण मन्दिरों का निर्माण कराया, जिनमें उल्लेखनीय हैं- काँची का कैलाशनाथ मन्दिर, महाबलीपुरम् का समुद्र-तट मन्दिर तथा पनमलै का तालगिरीश्वर देवालय।

पल्ववों के अनुकरण पर परवर्ती चोलवंशी शासकों ने तमिनाडु क्षेत्र में कला के उत्थान में विशेष योग दिया। महाबलीपुरम् पल्लव शासकों का मुख्य बंदरगाह था। उसके माध्यम से पाल्लवों ने समुद्र-मार्ग से सांस्कृतिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध बढ़ायें। इस स्थल पर निर्मित दो मन्दिर उल्लेखनीय हैं- प्रथम पहाड़ी पर ओलकणेश्वर तथा द्वितीय समुद्रतटीय सन्दिर। दोनों मन्दिर द्रविड़-शैली के हैं। मन्दिरों के विभिन्न भागों का नियोजन तथा उन्हें प्रतिमाओं द्वारा मण्डित करने का कार्य बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से किया गया है। उन्हें देखने पर अनेक पौराणिक कथाओं के रूप साकार हो उठते हैं।

समुद्रतटीय मन्दिर स्थापत्य का एक विशिष्ट उदाहरण है। इसकी भव्यता तथा आनुपातिक वरेण्यता प्रभावोत्पादक हैं। इस मन्दिर के तीन भाग हैं- प्रथम मन्दिर की संज्ञा “क्षत्रिय सिंहेश्वर” है, जिसका मुख समुद्र की ओर है। उसके चारों ओर ऊँची रक्षा-दीवार है, जो “शाला” तथा “कूट’ प्रकार वाले लघु मन्दिरों से अलंकृत हैं। इस दीवार का गोपुर भी दर्शनीय है।

उक्त बीस में से प्रथम तीन शैलियों- मेरू, मन्दर और कैलाश के मन्दिर विशाल होते थे। इनमें से प्रत्येक में कई भूमियाँ (मंजिलें) होती थीं। नन्दन उपशैली के मन्दिर भी बड़े होते थे और उनमें मंजिलें कम होती थीं। इन चार के अलावा विमानच्छन्द नामक मन्दिर-प्रकार भी इसी श्रेणी के अन्तर्गत है। उनका तल-विन्यास चौकोर होता है और वे षडस्त्र (छह कोणों वाले) होते हैं।

शेष पन्द्रह नागर-उपशैलियों के मन्दिर गोल या अनेक कोणों के तल-विन्यास वाले होते हैं। गज या कुंजर नाम वाले प्रासाद की छत हाथी की पीठ से आकार की होती थीं। वर्तुल उप- शैली वाले मन्दिर गोल होते थे, चतुरस्त्र का आकार चौकोर षोडशार का सोलह-पहलू, तथा अष्टास्त्र का अठपहलू होता था। ये सभी मन्दिर प्रायः इकहरे होते थे, उनके ऊपर अन्य मंजिलें नहीं बनायी जाती थीं। इन देवालयों के उदाहरण गुजरात के गोप नामक स्थान के मन्दिर तथा मध्य प्रदेश के भुमरा आदि के मन्दिरों में देखे जा सकते हैं। कर्णाटक में बादामी के आरम्भिक भी इसी कोटि के हैं।

नागर शैली के मन्दिर

चतुष्कोण गर्भगृह पर झुकी हुई रेखाओं के संयुक्त छत्ते की भौति विमान शिखर वाले नागर मंदिर नर्मदा के दक्षिण में तो स्वल्प ही है किन्तु हिमालय और विध्याचल के मध्य में इनका अधिक प्रचार व प्रसार है। “पंजाब, हिमालय, काश्मीर, राजस्थान, पश्चिमी भारत, गंगा की घाटी, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल आदि विविध प्रदेशों में अपनी-अपनी शैली के प्रायः 900 और 1300 विक्रमी के बीच हजारों मन्दिर बने।”

मन्दिरों का निर्माण प्रारम्भ में भारत में कब और कहाँ हुआ, इस सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप में कुछ कहना कठिन है। आज तक के प्राप्त मन्दिरों में प्राचीनतम मन्दिर साँची का 40 संख्यक मन्दिर है। सर्वप्रथम यह मौर्यकाल या शुंगकला में निर्मित हुआ था। इस मन्दिर की प्रस्तर की आधार भूमि और पश्चिम की और सोपान हैं। मन्दिर का ऊपरी भाग सम्भवतः लकड़ी का बना हुआ था जो कि बाद में पुनर्निर्माण के समय ढंक दिया गया है।

साँची के इस मन्दिर का समकालीन मन्दिर नगरी (चित्तौड़ के पास) में निर्मित मन्दिर है। इस मन्दिर में संकर्षण (बलराम) और वासुदेव कृष्ण की प्रतिमाएँ थीं। यह मन्दिर भी सम्भवतः पहले लकड़ी का रहा होगा। इस मन्दिर में सातवीं शताब्दी तक असंदिग्द रूप से पूजा आदि होती रही थी। इस काल में सरगुजा रियासत में एक ‘लयण मन्दिर’ का भी पता चलता है जोकि जोगीमारा के नाम से प्रसिद्ध वरुण मन्दिर था। मध्य प्रदेश में विदिशा के समीप वेसनगर ने भी भगवान विष्णु के शुंगकालीन एक मन्दिर का उल्लेख मिलता है।

यह मन्दिर शीर्षहीन गरुडध्वजांकित है “जिसे अन्तियालाकिद नामक यवन शासक के राजदूत हेलियोडोर ने वासुदेव के सम्मान में 140 ई० पू० में स्थापित किया था। अब लोग उसे खामबाग कहकर पुकारते हैं। इसी स्थान पर दो ताइपखशीर्ष और एक मकरध्वज मिला है जो इस बात का स्पष्ट संकेत करते हैं। वहाँ दूसरी शताब्दी ई०पू० में कम से कम एक वैष्णव मन्दिर अवश्य रहा होगा।”

विशिष्ट उल्लेखों के होते हुए भी गुप्त साम्राज्य से पूर्ववर्ती कोई भी मन्दिर वास्तु प्राप्त नहीं हुआ है जिसके कारण उसकी रूपरेखा, शैली और विकास-क्रम का ज्ञान हो सके। गुप्तयुग से पूर्व के मन्दिरों की रूपरेखा का अनुमान, भरहुत, अमरावती, साँची, गया तथा मथुरा के प्रस्तरों पर अंकित चित्रों से किया जा सकता है। “तत्कालीन मन्दिरों का निर्माण चौकोर नींव के ऊपर होता था, जिसके ऊपर बाहर स्थूणों का मण्डप होता था, उनके ऊपर स्तूपिका और स्तूपिका के ऊपर शिखरनुमा कलश होता था।…….. प्रायः सभी देवताओं के मन्दिरों की योजना यही होती थीं, और देवता की पहचान के लिए बाहर प्रहरण ध्वज अथवा कोई अन्य चिन्ह होता था। इन मुद्राओं पर मन्दिर के सामने त्रिशूल और परशु है जो मन्दिर के शैव होने का द्योतक है। इस प्रकार ई०पू० द्वितीय शताब्दी तक के मन्दिर स्तूप युक्त होते थे।

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Pankaja Singh

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