पट्टदकल के मंदिर | एलोरा के कैलाश मन्दिर | एलोरा के कैलाश मन्दिर की प्रमुख विशेषताएं | एलोरा के कैलाश मन्दिर पर एक संक्षिप्त निबन्ध
पट्टदकल के मन्दिर-
सातवीं शती के मध्य से पट्टदकल नामक स्थान चालुक्यों का मुख्य सांस्कृतिक केन्द्र बना। यह ऐहोल से 15 मील तथा बादामी से 10 मील दूर हैं। पट्टदकल में सपाट छत का स्थान शिखर ने ले लिया। द्राविड़ वास्तु का प्रारम्भिक रूप पट्टदकल तथा बादामी के मन्दिरों में मिलता है। पहले स्थान पर विनयदित्य (696-733 ई०) तथा विक्रमादित्य द्वितीय (733-746 ई०) के शासनकाल में अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ। ये मन्दिर बादामी के महाकूटेश्वर मन्दिर की शैली के हैं।
पट्टदकल के 6 मन्दिर द्राविड शैली के तथा 4 मन्दिर नागर-शैली के हैं। नागर-शैली का पापनाथ मन्दिर उल्लेखनीय हैं। परन्तु नागर-शैली वाले मन्दिर वास्तु की दृष्टि से उतने व्यवस्थित नहीं हैं जितने कि द्राविड़ शैली वाले मन्दिर। पट्टदकल का विरुपाक्ष मन्दिर द्राविड्- शैली का श्रेष्ठ उदाहरण है। मन्दिर का वा भाग कला की दृष्टि से विशेष सुन्दर है। उसके स्तम्भ विविध अलंकरणों से युक्त हैं। इस मन्दिर में तथा ऐलोरा के कैलाश-मन्दिर में बहुत साम्य है।
दक्षिण में पल्लवों से सम्बन्धित होने कारण चालुक्यों के स्थापत्य और मूर्तिकला पर पल्लव-कला के अनेक तत्त्व दृष्टिगोचर होते हैं। गोपुरम् के प्रारम्भिक लक्षण कई परवर्ती चालुक्य मन्दिरों में मिलते हैं।
रायचूर जिले के आलमपुर नामक स्थान पर भी चालुक्यों ने कई मन्दिर बनवाये। वहाँ के मन्दिरों में एलोरा के कैलाश-मन्दिर की कई विशेषताएँ दर्शनीय हैं।
चालुक्य-शैली में उत्तर तथा दक्षिण भारत का नागर-द्राविड़ शैलियों का रोचक समन्वय हुआ, जो ‘बेसर’ नाम से प्रसिद्ध है। प्रारम्भिक चालुक्य-शैली का प्रभाव दक्षिण भारत की परवर्ती शैलियों पर पड़ा।
एलोरा के कैलाश मन्दिर
यह मन्दिर भारतीय मन्दिरों में अपना विशेष स्थान रखता है तथा वास्तुकला का अन्तिम उदाहरण माना जाता है यह सम्पूर्ण पर्वत को काटकर बनाया गया है। इस मन्दिर का सबसे सुन्दर भाग राष्ट्रकूट राजा कृष्णराय के समय बना था अल्टेकर के शब्दों में-
“इस मन्दिर का निर्माण पल्लवों की राजधानी कॉजीपुरम से आये हुये कलाकारों ने किया था। निर्माण के प्रथम चरण में पर्वत को तीन तरफ से खोदकर 102 मीटर लम्बा तथा 79 मीटर चौड़ा एक आँगन बनाया गया। जिसके भीतर इस मन्दिर को निर्मित किया गया। पर्वत के बीच 78 मीटर लम्बा तथा 35 मीटर चौड़ा जो प्रस्तर खण्ड है उसी को ऊपर से काटकर कलाकारों ने छेनी के बल पर इस मन्दिर को बनाया।”
अध्ययन की दृष्टि के इसे हम चार भागों में विभाजित कर सकते हैं-
(1) मन्दिर, (2) प्रवेश द्वार, (3) नन्दिगृह, (4) आंगन के चारों ओर बने बरामदे तथा कमरे
हिन्दू परम्परा के अनुसार मन्दिरों का प्रवेश द्वार पूर्व की तरफ होना चाहिए किन्तु पर्वतीय बाधा के कारण इसका प्रवेश द्वार पश्चिम की तरफ बनाया गया है जो चार अर्द्ध स्तम्भों पर टिका हुआ है। इसका प्रवेश द्वार दो मंजिला है। प्रवेश द्वार के बाद मन्दिर है जिसमें एक लम्बा चौड़ा आंगन है जिसके उत्तर तथा दक्षिण में 18 मीटर ऊँचे दो ध्वज स्तम्भ हैं। किसी समय इनके ऊपरी भाग पर शिवजी का त्रिशूल बना हुआ था इन्हीं खम्भों के पास पर्वत को काटकर एक विशाल हाथी बनाया गया है।
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