इतिहास

उत्तर भारत की नव पाषाणिक संस्कृति | Neolithic culture of North India in Hindi

उत्तर भारत की नव पाषाणिक संस्कृति | Neolithic culture of North India in Hindi

उत्तर भारत की नव पाषाणिक संस्कृति

कश्मीर घाटी का आकार एक नाव की तरह है जिसकी दक्षिणी-पश्चिमी सीमा का निर्धारण पीर पंजाल की पर्वत मालाएँ करती हैं और उत्तरी-पूर्वी सीमा हिमालय की चोटियाँ बनाती हैं। झेलम प्रमुख नदी है।

उत्तरी भारत में नव पाषाण काल के पुरावशेष जम्मू-कश्मीर प्रदेश में झेलम की घाटी में स्थित विभिन्न पुरास्थलों से प्राप्त हुए हैं। प्रमुख पुरास्थलों में बुर्जहोम, गुफकराल तथा मार्तण्ड का उल्लेख किया जा सकता है। नव पाषाण काल के पुरास्थल करेवा से निर्मित ऊँचे सोपानों पर स्थित मिलते हैं। करेवा मिट्टी का जमाव प्रातिनूतन काल में झीलों में हुआ जो बाद में सूख गयी। ये कैम्ब्रिज अभियान दल के द तेरा तथा पीटरसन ने सन् 1935 में बुर्जहोम की खोज तथा यहाँ पर परीक्षणात्मक उत्खनन कराया था। कालान्तर में भीरतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग की ओर सन्1959-60 से 1963-64 तक चार उत्खनन सत्रों में टी०एन० खजांची की देख-रेख में बुर्जहोंम का सुव्यवस्थित ढंग से उत्खनन कराया गया। गुफकराल नामक पुरास्थल जम्मू-कशमीर के पुलमासा जिले की त्राल तहसील में श्रीनगर से दक्षिण-पूर्व दिशा में लगभग 41 किमी की दूरी पर स्थित है। इस पुरास्थल की खोज सन् 1962-63 में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने किया था तथा पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग की प्रागैतिहासिक शाखा के तत्त्वावधान में ए० के० शर्मा ने सन् 1981 में यहाँ पर उत्खनन कराया। बुर्जहोम तथा गुफकराल के उत्खननों के परिणामस्वरूप अधोलिखित तीन प्रमुख सांस्कृतिक कालों के सम्बन्ध में जानकारी हुई-

  1. नव पाषाणिक काल, 2. बृहत्पाषाणिक काल, 3. ऐतिहासिक काल।

नव पाषाण काल से सम्बन्धित प्रथम काल की संस्कृति को बुर्जहोम के उत्खनन से उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ‘अ’ तथा ‘ब’ दो उपकालों में विभाजित किया गया है। गुफकराल के उत्खनन से उत्तरी भारत की नव पाषाणिक संस्कृति के विषय में कतिपय नवीन साक्ष्य प्राप्त हुए हैं- नव पाषाण काल की संस्कृति को ‘अ’, ‘ब’, ‘स’, तीन उपकालों में विभाजित किया गया है।

  1. प्रथम अ: मृद्भाण्ड रहित नव पाषाणिक काल (Aceramic Neolithic)
  2. प्रथम ब : प्रारम्भिक नव पाषाणिक काल (Early Neolithic),
  3. प्रथम सः उत्तर नव पाषाणिक काल (Late Neolithic)।

यद्यपि बुर्जहोम में दो एवं गुफकराल में तीन उपकालों के साक्ष्य मिले हैं तथापि कुल मिलाकर दोनों में कोई खास सांस्कृतिक अन्तर नहीं है।

प्रथम ‘अ’ काल ऐसा प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र में करेवा (Karewa) या लोयस मिट्टी का जमाव हो जाने के बाद मृद्भाण्ड-रहित नव पाषाणिक संस्कृति अस्तित्व में आयी। बुर्जहोम के उत्खनन में इस प्रकार का स्पष्ट स्तर नहीं मिला था। यद्यपि बुर्जहोम के विषय में भी इस प्रकार की सम्भावना कुछ पुराविदों ने प्रकट की है। गुफकराल के उत्खनन से 35 सेमी से 1.10 मीटर मोटा जो जमाव मिला है उसमें मिट्टी के बर्तनों का पूर्ण अभाव मिलता है। इस उपकाल को फर्श के दो स्तरों के आधार पर दो चरणों में विभाजित किया गया है।

आवास प्रथम

‘अ’ काल में ‘करेवा’ मिट्टी के धरातल में गोल तथा अण्डाकार गड्डे खोद कर लोग निवास करते थे। बुर्जहोम के प्रथम ‘अ’ उपकाल में भी इसी प्रकार के गड्ढों में निवास के प्रमाण मिले हैं। दोनों ही पुरास्थलों पर गड्ढे ऊपर की तरफ सँकरे तथा नीचे पेंदी में चौड़े मिलते हैं। गड्ढों की औसत गहराई 20 सेमी 30 सेमी तक और मुँह के पास का व्यास 1.50 मीटर से 3.80 मीटर तक मिलता है। बुर्जहोम में, जो सबसे बड़ा गड्ढा है, उसका व्यास मुँह पर 2.74 मीटर तथा पेंदे में 4.57 मीटर है। बुर्जहोम में इस प्रकार के सोलह गड्ढे अभी तक ज्ञात हो चुके हैं। खाना पकाने के लिए इन गड्ढों के समीप ही चूल्हों के साक्ष्य भी मिलते हैं। गड्ढों के अन्दर आवास की फर्श चौरस है, गड्ढों में नीचे उतरने के लिए ताख या आले बने ह उए हैं। इन गड्ढों के अन्दर फर्श के ऊपर राख इत्यादि के मिलने से यह इंगित होता है कि इनका उपयोग रहने के लिए होता था। इन गड्ढों के किनारों पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर स्तम्भ-गर्त (Post holes) मिलते हैं जिनसे यह आभास होता है कि इन गड्ढों के ऊपर घास-फूस का छाजन भी सम्भवतः बनाया जाता था। गुफकराल के उत्खनन से बाँस-बल्ली की छाप से युक्त मिट्टी के टुकड़े मिले हैं जिससे यह अनुमान किया जाता है कि गड्ढों के किनारों पर निर्मित छाजन के कम-से-कम निचले भाग को छाप-लीप कर मजबूत तथा पानी एवं बर्फ को रोकने योग्य बनाया जाता था। गुफकराल के प्रथम चरण में गड्ढों के फर्श को गेरू से प्रलेपित किया जाता था। इस पुरास्थल के दूसरे चरण के गड्ढों में गेरू का प्रलेप नहीं मिला है। दूसरे चरण में कतिपय गड्ढों को दो भागों में विभाजित करने के प्रमाण मिले हैं। गड्ढों का आकार-प्रकार भी पूर्ववर्ती चरण की तुलना में बड़ा मिलता है।

उपकरण

पाषाण उपकरणों में ट्रैप पत्थर पर निर्मित कुल्हाड़ी, बेधक, पाषाण-वलय अथवा गदाशीर्ष, लोढ़े तथा सिल गुफकराल से प्राप्त हुए हैं। इनके अलावा भेड़-बकरी एवं हिरण के सींगों तथा पाँव की हड्डियों पर बने हुए हड्डी के सत्ताईस उपकरण भी मिले हैं। इनमें से अधिकांश बेधक तथा बाण (Arrow heads) हैं। दो छिद्रक, कतिपय खुरचनी एवं नाकेदार सुई की गणना भी हड्डी के बने हुए उल्लेखनीय उपकरणों में की जा सकती है। श्रृंग का बना हुआ एक मनका और सिलखड़ी के बने हुए दो मनके भी प्रथम उपकाल की अन्य विशिष्ट पुरानिधियाँ हैं।

पशु-पालन

गुफकराल के मृद्भाण्ड-रहित प्रथम उपकाल में वहाँ के लोगों का जीवन प्रधानरूपेण जंगली पशुओं के शिकार पर निर्भर था। जंगली भेड़, बकरी, गाय-बैल, हिरण तथा भेड़िया एवं भालू की हड्डियाँ प्राप्त हुई हैं। केवल भेड़ और बकरियों को ही इस उपकाल में अभी पालतू बनाया गया था।

अनाज

गुफकराल में ‘प्लवन तकनीक’ (Floatation Technique) के माध्यम से जौ, गेहूँ तथा मसूर के कार्वनीकृत या अधजले दाने प्राप्त हुए हैं इसमें संदेह नहीं कि जौ, गेहूँ एवं मसूर के दानों का खाद्यान्न के रूप में महत्त्व भली-भाँति ज्ञात हो चुका था लेकिन यह निश्चित नहीं है कि इनके जंगली पौधों से दाने एकत्र किये जाते थे अथवा सीमित क्षेत्र में इनकी कृषि प्रारम्भ हो चुकी थी। यह ध्यान देने योग्य है कि प्रथम उपकाल से कृषि-कार्य में सहायक उपकरण प्राप्त नहीं हुए हैं।

प्रथम ‘ब’ काल

प्रथम ‘अ’ काल के पश्चात् बिना किसी व्यवधान एवं अन्तराल के प्रथम ‘ब’ काल गुफकराल नामक पुरास्थल पर प्रारम्भ होता है। इस काल का लगभग 40 सेमी मोटा सांस्कृतिक जमाव मिलता है। इसकी प्रमुख विशेषताओं में हस्त-निर्मित मृद्भाण्डों के प्रचलन तथा गड्ढों में निवास के स्थान पर समतल धरातल के ऊपर मकान बनाने की प्रथा का उल्लेख किया जा सकता है। बुर्जहोम के प्रथम ‘ब’ काल को इसका समकालिक माना जा सकता है।

आवास

ऐसा प्रतीत होता है कि इस उपकाल में लोगों ने गड्ढों में निवास करने की प्रथा का परित्याग कर दिया था। धरातल के ऊपर मिट्टी और कंकड़-पत्थर की दीवारें बनाना प्रारम्भ कर दिया था। इस काल के मकान अपेक्षाकृत बड़े तथा आयताकार थे। बुर्जहोम में इस काल के मकानों की फर्श पर गैरिक रंग का प्रलेप मिलता है। गुफकराल में फर्फ को साफ-सुथरा बनाने के लिए छ:-सात सेमी मोटी पीली मिट्टी का उपयोग किया गया है और किनारे-किनारे चूने का प्रयोग किया गया है। बुर्जहोम के मकानों में चबूतरे बने हुए मिले हैं और मकानं को कई कमरों में विभाजित करने वाली दीवारें भी उपलब्ध हुई हैं। घरों से बुर्जहोम में चूल्हे, सिल-लोढ़े एवं मिट्टी के बर्तन आदि के अवशेष मिले हैं। बुर्जहोम में प्रथम ‘ब’ काल में अन्त्येष्टि संस्कार मृतकों को दफना कर करने के भी साक्ष्य प्रकाश में आए हैं। गुफकराल से अभी तक अन्त्येष्टि के प्रमाण नहीं मिले हैं।

मिट्टी के बर्तन

इस काल में हस्त-निर्मित मृद्भाण्डों का प्रचलन हो गया था। धूसर पात्र-परम्परा (Grey ware) के सर्वाधिक ठीकरे मिलते हैं। रुक्ष तथा फीके लाल रंग की पात्र-परम्परा (Coarse Dull red ware) के भी कतिपय नमूने उपलब्ध होते हैं। बर्तन अच्छी तरह तैयार मिट्टी से निर्मित नहीं हैं। ये भली-भाँति पके भी नहीं हैं। इनकी पेंदी में चटाई की छाप का अलंकरण मिला है तथा बर्तनों की बारी पर चुटकी से दबाकर बनाई गई जिडाइन मिलती है। बर्तनों के बाहर तथा भीतर दोनों ओर नरकुल या सरकण्डे की छाप अंकित मिलती है। कटोरे, तसले तथा घड़े कुल मिलाकर यही तीन प्रकार के पात्र मिलते हैं। गुफकराल से लाल रंग की पात्र- परम्परा में साधारण तश्तरी (Dish-on-Stand) के आधार का एक टुकड़ा मिला है-

उपकरण

बुर्जहोम से प्राप्त उपकरणों में कुल्हाड़ियाँ, छेनियाँ, बसूले, खुरपा अथवा गगडाँस (Harvester), गदाशीर्ष तथा कुदाल (Hoe) आदि उल्लेखनीय हैं। गुफकराल से एक पाषाण निर्मित बेधक, एक खण्डित गदाशीर्ष तथा हड्डी के बने हुए उन्नीस उपकरण प्राप्त हुए हैं। हड्डी के उपकरणों में अधिकांश ओपदार बेधक (Polished Points) हैं और केवल दो स्क्रेपर हैं। कृषि में प्रयुक्त होने वाले उपकरण गुफकराल से नहीं मिले हैं।

पशु-पालन

गुफकराल के उत्खनन से प्रथम ‘ब’ काल से पशुओं की जो हड्डियाँ मिली हैं, ये पालतू भेड़-बकरी तथा छोटे सींग वाले मवेशियों की हैं। इस काल में भी भेड़-बकरी का प्राधान्य प्रतीत होता है। भेड़ का आकार जंगली भेड़ की तुलना में कुछ छोटा हो जाता है। कुत्ते की हड्डियाँ भी मिली हैं। हिरण, साकिन (Ibex) तथा भालू की हड्डियाँ यह इंगित करती हैं कि शिकार का अभी भी इनके आर्थिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान था। बुर्जहोम में एक शिला- पट्ट पर धनुष-बाण से शिकार का दृश्य अंकित मिला है। अनेक हड्डियों में हलाल करने के चिन्ह मिलते हैं। पक्षियों में मुर्गे (Gellus) को भी पालतू बनाया गया है। बुर्जहोम में कुत्ते, भेड़िये तथा साकिन की हड्डियाँ विधिवत् दफनायी हुई मिली हैं।

कृषि जौ, गेहू एवं मसूर के अतिरिक्त इस काल में मटर के भी दाने प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार पशु-पालन तथा कृषि की मिश्रित अर्थ-व्यवस्था के प्रचलन का संकेत मिलता है।

शवाधान

बुर्जहोम के उत्खनन के फलस्वरूप नवपाषाण काल के द्वितीय चरण से सम्बन्धित मनुष्यों तथा पशुओं के पूर्ण (Primary) एवं आंशिक (Secondary) शवाधान के साक्ष्य आवास-क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। गुफकराल से शवाधान के प्रमाण अभी तक नहीं मिले हैं। समाधियाँ या कः गोलाकार अथवा अण्डाकार गड्ढों के रूप में अधिकतर प्राप्त होती हैं। पूर्ण समाधियों में उर्ध्वाधर शवाधान (Extended Inhumation) मिलता है। जिनमें मृतक को चित लिटाकर दफनाया गया है। इन समाधियों से जो मानव-कंकाल मिले है उनके ऊपर गैरिक रंग छिडका गया है। मानव-कपालों को देखने से विदित होता है कि ये लोग संभवतः कपालक्रिया (Trepanning) भी करते थे। आदमियों के साथ कुत्ते, बकरे आदि पालतू पशुओं को भी दफनाया जाता था। आंशिक शवाधान में कतिपय चुनी हुई मानव-अस्थियों को दफनाया जाता था। इनके इतिरिक्त पशुओं की भी पूर्ण या आंशिक स्वतंत्र समाधियाँ मिली हैं। कुत्ता, भेडिया तथा हिरण की समाधियाँ प्राप्त हुई हैं। एक पशु-समाधि में पाँच जंगली कुत्ते तथा एक हिरण के सींग दफनाये हुए मिले हैं। मालिक के साथ तथा स्वतन्त्र रूप से पशुओं को दफनाने की प्रथा चीन की नव पाषाणिक संस्कृति में भी मिलती है।

प्रथम ‘स’ काल

गुफकराल के उत्खनन से प्राप्त नव पाषाणिक पुरावशेषों के तीसरे चरण को ‘उत्तर नव पाषाणिक’ कहा गया है। इस उपकाल से सम्बन्धित लगभग 70-80 सेमी मोटा आवासीय जमाव मिलता है। इस सांस्कृतिक जमाव में कूड़े-कचरे के अनेक गड्ढे मिलते हैं।

आवास इस काल में भी मिट्टी तथा कंकड़-पत्थर की दीवारों के मकान मिलते हैं। मकानों के फर्श पर चूने का गाढ़ा प्रलेप पूरे आवास-क्षेत्र में मिलता है।

मिट्टी के बर्तन

इस उपकाल में कई प्रकार की पात्र-परम्पराएँ प्रचलित थीं। धूसर, घर्षित धूसर (Burnished Grey Ware) तथा फीके रंग की लाल पात्र-परम्पराएँ हस्त-निर्मित मृद्भाण्ड परम्पराएँ थीं। इनके अलावा काली घर्षित पात्र परम्पर (Black Burnished Were) चाक-निर्मित थी। गोलाकार छिछले-कटोरे, ग़हरे कटोरे, बोतल की भाँति सँकरे मुँह वाले घड़े, मिटी पेंदी वाली छिछली थालियाँ या प्लेटें आदि प्रमुख पात्र-प्रकार हैं। घर्षित पात्र- परम्परा में साधार तश्तरी भी मिलती है। बर्तनों की पेंदी में चटाई तथा बटी हुई रस्सी की छाप, बाहरी सतह पर सरकण्डों की छाप एवं चुटकी से दबा कर बारी पर निर्मित डिजाइने एवं तिर्यक् डिजाइने उल्लेखनीय अलंकरण विधाएँ हैं।

उपकरण

एक अर्द्ध-निर्मित प्रस्तर कुल्हाड़ी को छोड़कर इस उपकाल से अत्यल्प संख्या में नव पाषाणिक बड़े उपकरण प्राप्त हुए हैं। इस काल में पाषाण निर्मित चौदह बेधक प्राप्त हुए हैं। अन्य पाषाणिक उपकरणों में दो छिद्र युक्त खुरपे या गडाँसे, गोफन-पाषाण, सिल-लोढ़े तथा मिट्टी एवं पाषाण दोनों के बने हुए तकुओं आदि की गणना की जा सकती है। हड्डी के बने हुए सर्वाधिक इकतालीस उपकरण इसी उपकाल से प्राप्त हुए जिनमें से अधिकांश पालिशदार अस्थि-बेधक हैं। बेधकों की नोक को आग में सेंक कर नुकीला तथा मजबूत बनाया गया है। मिट्टी की बनी हुई चूड़ियाँ, हड्डी तथा पत्थर के मनके अन्य महत्त्वपूर्ण पुरानिधियाँ हैं। इस काल के ऊपर के स्तर से प्राप्त ताँबे की एक कुण्डिलित शीर्ष वाली (Coiled head) पिन की भी गणना विशिष्ट पुरानिधियों में की जा सकती है।

पशु-पालन

इस उपकाल तक आते-आते पशु-पालन की प्रक्रिया लगभग पूर्ण हो चुकी थी। भेड़- बकरी तथा मवेशी-पूर्ण-रूपेण पालतू बना लिये गए थे। बकरियों तथा मवेशियों के आकार काफी छोटे हो गए थे। भेड़ बकरियों की इस काल में भी बहुतायत थी। इस उपकाल में सुअर, खरगोश, मछली, चूहे आदि की भी हड्डियाँ मिली हैं। इस प्रकार कतिपय छोटे-छोटे जीवों तथा जलचरों का शिकार इस काल में होता रहा।

कृषि

खुरपी या गैंडासे की प्राप्ति से यह इंगित होता है कि इस काल में कृषि-कर्म में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई। जौ, गेहूँ, मटर और मसूर इस उपकाल में भी प्रमुख खाद्यान्न थे।

कालानुक्रम

उत्तरी भारत की नव पाषाणिक संस्कृति के कालानुक्रम निर्धारण के लिए बुर्जहोम तथा गुफकराल से प्राप्त सात रेडियो कार्बन तिथियाँ उपलब्ध हैं-गुफकराल की तिथियाँ बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑव पेलियोबॉटनी, लखनऊ की प्रयोगशाला द्वारा और बुर्जहोम की तिथियाँ टाटा फंडामेण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, बम्बई की प्रयोगशाला द्वारा निर्धारित की गई है। रेडियो कार्बन तिथियों के अनुसार बुर्जहोम के पुरास्थल पर 2,375 ई०पू० के लगभग सर्वप्रथम निवास प्रारम्भ हुआ। इस पुरास्थल से ज्ञात अनेक रेडियो कार्बन तिथियों से सिद्ध होता है कि लगातार 1,400 ई०पू० तक मानव-आवास का अविछिन्न क्रम चलता रहा। गुफकराल से जो रेडियो कार्बन तिथियाँ प्राप्त हैं, वे द्वितीय एवं तृतीय उपकाल से सम्बन्धित हैं। द्वितीय चरण के प्रारम्भ की तिथि लगभग 2,000 ई०पू० मानी जा सकती है। मृद्भाण्ड- रहित प्रथम उपकाल के आरम्भ का कालानुक्रम 400-500 वर्ष पहले रखा जा सकता है। इस प्रकार इस बात की प्रबल संभावना है कि उत्तरी भारत की नवपाषाणिक संस्कृति के प्रारम्भ की तिथि 2,500 ई०पू० और अन्त की तिथि 1,400 ई०पू० फिलहाल निर्धारित की जा सकती है।

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Pankaja Singh

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