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चोलकालीन मन्दिर | चोल कालीन मंदिरों की विशेषताएं | चोल कालीन मंदिरों की शैली

चोलकालीन मन्दिर | चोल कालीन मंदिरों की विशेषताएं | चोल कालीन मंदिरों की शैली

चोलकालीन मन्दिर

पल्लवों को परास्त कर चोलों ने सुदूर दक्षिण में अपना विशाल साप्राज्य स्थापित किया। चोल वंश ने850 ई० से लेकर 1279 ई० तक शासन किया।

चोलवंशी शासक उत्साही निर्माता थे और उनके समय में कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। चोलयुगीन कलाकारों ने अपनी कुशलता का प्रदर्शन पाषाण-प्रन्दिर एवं मूर्तियां बनाने में किया है। कलाविद् फर्गुसन के अनुसार चोल कलाकारों ने दैत्यों के समान कल्पना की तथा जौहरियों के समान उसे पूरा किया’ (They conceived like giants and finished like jewellers)। चोल शासकों ने अपनी राजधानी में बहुसंख्यक पाषाण मन्दिरों का निर्माण करवाया। चोल काल के प्रारम्भिक स्मारक पुडुक्कोटै जिले से प्राप्त होते हैं। इनमें विजयालय द्वारा नामिलाई में बनवाया गया चोलेश्वर मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है। यह चोल शैली का एक सुन्दर नमूना है। इसमें एक वर्गाकार प्राकार के अन्तर्गत एक वृत्ताकार गर्भगृह बना हुआ है। प्राकार तथा गर्भगृह के ऊपर विमान है। यह चार मंजिला है। प्रत्येक मंजिल एक दूसरे के ऊपर क्रमशः छोटो होती हुयी बनायी गयी है। नीचे की तीन मंजिले वर्गाकार तथा सबसे ऊपरी गोलाकार है। इसके ऊपर गुम्बदाकार शिखर तथा सबसे ऊपरी भाग में गोल कलश स्थापित है। सामने की ओर घिरा हुआ मण्डप है। बाहरी दीवारों को सुन्दर भित्तिस्तम्भों से अलंकृत किया गया है। मुख्य द्वार के दोनों ओर ताख में दो द्वारपालों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मुख्य मन्दिर के चारों ओर खुले हुए बरामदे में सात छोटे देवस्थान हैं जो मन्दिर ही प्रतीत होते हैं। ये सभी पाषाण-निर्मित है। इस प्रकार का दूसरा मन्दिर कन्नूर का बालसुब्रह्मण्य मन्दिर है जिसे आदित्य प्रथम ने बनवाया था। इसकी समाधियों की छतों के चारों कोनों पर हाथियों की मूर्तियाँ हैं। विधान के शिखर के नीचे बना हुआ हाथी सुब्रह्मण्यम् का वाहन है। इसी समय का एक अन्य मन्दिर कुम्बकोनम् से बना ‘नागेश्वर मन्दिर है। इसकी बाहरी दीवारों की ताखों में सुन्दर मूर्तियाँ बनाई गयी हैं। गर्भगृह के चारों ओर अर्द्धनारी, ब्रह्मा, दक्षिणामूर्ति के मनुष्यों की मूर्तियाँ ऊँची रिलीफ में बनी है जो अत्यधिक सुन्दर है। मानव मूर्तियाँ या तो दानकर्ताओं की है या समकालीन राजकुमारों तथा राजकुमारियों की है। आदित्य प्रथम के ही समय में तिरुझट्टलै के सुन्दरेश्वर मन्दिर का भी निर्माण हुआ। इसके परकोटे में गोपुरम् बना हुआ है, विमान दुतल्ला (Double storeyed) है तथा इसमें एक अर्द्धमण्डप भी है। इस मन्दिर में द्रविड़ शैली की सभी विशेषतायें देखी जा सकती है।

परान्तक प्रथम के राज्य-काल में मिति श्रीनिवासनल्लूर का कोरंगनाथ मन्दिर चोल मन्दिर निर्माण-कला के विकास के द्वितीय चरण को व्यक्त करता है। यह कुल मिलाकर 50 फिट लम्बा है। इसका वर्गाकार गर्भग 25 फीट का है तथा सामने की ओर का मण्डप 25’x20′ के आकार का है। मन्दिर का शिखर 50 फीट ऊँचा है। गर्भगृह की बाहरी दीवार में बनी ताखों में एक पेड़ के नीचे भक्तों, सिंहागणों के साथ बैठी हुए दुर्गा की दक्षिणामूर्ति तथा विष्णु एवं ब्रह्मा की खड़ी हुई मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती है। दुर्गा के साथ लक्ष्मी तथा सरस्वती की मूर्तियाँ भी मिलती हैं। सभी तक्षण अत्यन्त सुन्दर है। इस प्रकार वास्तु तथा तक्षण दोनों की दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट कलाकृति है।

चोल स्थापत्य का चरमोत्कर्ष त्रिचनापल्ली जिले में निर्मित दो मन्दिरों- तंजौर तथा गंगैकोण्डचोलपुरम्- के निर्माण में परिलक्षित होता है। तंजौर का भव्य शैव मन्दिर, जो राजराजेश्वर अथवा बृहदीश्वर नाम से प्रसिद्ध है, का निर्माण राजराज प्रथम के काल में हुआ था। भारत के मन्दिरों में सबसे बड़ा तथा लम्बा यह मन्दिर एक उत्कृष्ट कलाकृति है जो दक्षिण भारतीय स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को द्योतित करती है। इसे द्रविड़ शैली का सर्वोत्तम नमूना माना जा सकता है। इसका विशाल प्रांगण 500’x250′ के आकार का है। इसके निर्माण में ग्रेनाइट पत्थरों का प्रयोग किया गया है। मन्दिर के चारों ओर से एक ऊँची दीवार से घिरा है। मन्दिर का आकर्षण गर्भगृह के ऊपर पश्चिम में बना हुआ लगभग 200 फीट ऊँचा विमान है। इसका आधार 82 वर्ग फुट है। आधार के ऊपर तेरह मंजिलों वाला पिरामिड के आकार का शिखर 190 फीट ऊँचा है। मन्दिर का गर्भगृह 44 वर्ग फीट का है जिसके चतुर्दिक 9 फीट चौड़ा प्रदक्षिणापथ निर्मित है। प्रदक्षिणापथ की भीतरी दीवारों पर सुन्दर भित्तिचित्र बने हैं। गर्भगृह के भीतर एक विशाल शिवलिंग स्थापित है जिसे अब बृहदीश्वर कहा जाता है। प्रवेशद्वार पर दोनों ओर ताख में दो द्वारपालों की मूर्तियाँ बनी हैं। मन्दिर के बहिर्भाग में विशाल नन्दी की एकाश्मक मूर्ति बनी है। मन्दिर की दीवारों में बने ताखों में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बनी हुई है। इस प्रकार भव्यता तथा कलात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से यह दक्षिण भारत का सर्वश्रेष्ठ हिन्दू स्मारक है। पर्सी ब्राउन के शब्दों में ‘इसका विमान न लेवल द्रविड़ शैली की सर्वोत्तम रचना है अपितु इसे समस्त भारतीय स्थापत्य की कसौटी भी कहा जा सकता है।’

गंगैकोण्डचोलपुरम् के मन्दिर का निर्माण राजराज के पुत्र राजेन्द्र चोल के शासन-काल में हुआ। यह 340,फीट लम्बा तथा 110 फीट चौड़ा है। इसका आठ मंजिला पिरामिडाकार विमान 100 वर्ग फीट के आधार पर बना है तथा 86 फीट ऊँचा है। मन्दिर का मुख्य प्रवेशद्वार पूर्व की ओर है जिसके बाद175’x95′ के आकार का महामण्डप है। मण्डप तथा गर्भगृह को जोड़ते हुए अन्तराल बनाया गया है। मण्डप एवं अन्तराल की दोनों छतें सपाट हैं। अन्तराल के उत्तर तथा दक्षिण की ओर दो प्रवेशद्वार बने हैं। जिनसे होकर गर्भगृह में पहुँचा जाता है। मण्डप के स्तम्भ अलंकृत तथा आकर्षक हैं।

तंजौर तथा गंगैकोडचोलपुरम् के मन्दिर चोल स्थापत्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करते हैं। साथ ही साथ ये चोल सम्राटों की महानता एवं गौरवगाथा को आज भी सूचित कर रहे हैं।

राजेन्द्र घोल के उत्तराधिकारियों के समय में भी मन्दिर निर्माण की परम्परा कामय रही इस समय कई छेटे-छोटे मन्दिरों का निर्माण किया गया। इनमें मन्दिर की दीवारों पर अलंकृत चित्रकारियाँ एवं भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। राजराज द्वितीय तथा कुलोत्तुंग तृतीय द्वारा बनवाये गये क्रमशः दारासुरम् का ऐरावतेश्वर का मन्दिर तथा त्रिभुवनम् का कप्पहरेश्वर का मन्दिर अत्यन्त भव्य एवं सुन्दर है। इन मन्दिरों का निर्माण भी तंजौर पन्दिर की योजना पर किया गया है। ऐरावतेश्वर मन्दिर में महामण्डप के सामने अग्रमण्डप बनाये गये हैं। ये पहियेदार रथ की भाँति हैं जिमें हाथी खींच रहे हैं। मण्डपों में अलंकृत स्तम्भ लगाये गये हैं। कालान्तर में इस मन्दिर का प्रभाव कोणार्क के सूर्य मन्दिर पर पड़ा। वास्तु तथा तेक्षण दोनों ही दृष्टियों से यह मन्दिर उल्लेखनीय हैं। कपहरेश्वर, जिसे त्रिभुवनेश्वर भी कहा जाता है, की योजना भी ऐरावतेश्वर मन्दिर के ही समान है। इसमें मूर्तिकारी की अधिकता है। मूर्तियाँ कलात्मक दृष्टि से भी अच्छी हैं। नीलकण्ठ शास्त्री ने इसे ‘मूर्तिदीर्घा’ कहा है।

स्थापत्य के साथ-साथ तक्षण-कला (Sculpture) के क्षेत्र में भी चोल कलाकारों ने सफलता प्राप्त की। उन्होंने पत्थर तथा धातु की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण किया। उनके द्वारा निर्मित मूर्तियों में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ ही अधिक है, यद्यपि छिट-पुट रूप से मानव मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। चूंकि चोलवंश के अधिकांश शासक उत्साही शैव थे, अतः इस काल में शैव मूर्तियों का निर्माण ही अधिक हुआ। पाषाण मूर्तियों से भी अधिक धातु (कांस्य) मूर्तियों का निर्माण हुआ। सर्वाधिक सुन्दर मूर्तियाँ नटराज (शिव) की है जो बहुत बड़ी संख्या में मिलती है। ये आज भी दक्षिण के कई स्थानों पर विद्यमान हैं जिनकी पूजा होती है। त्रिचनापल्ली के तरुभरंगकुलम् से नटराज की एक विशाल कांस्य प्रतिमा मिली है जो इस समय दिल्ली संग्रहालय में हैं। इसी जिसे के तिरुवलनकड्डु से शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की एक मूर्ति मिलती है जो चेन्नई संग्रहालय में सुरक्षित है। इसमें नारी तथा पुरुष की शारीरिक विशेषताओं को उभारने में कलाकार की विशेष सफलता मिली है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी, भूदेवी, राम-सीता, कालियानाग पर नृत्य करते हुए बालक कृष्ण तथा कुछ शैव सन्तों की मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं जो कलात्मक दृष्टि से भव्य एवं सुन्दर है। चोल कलाकारों ने धातु मूर्तियों के निर्माण में एक विशिष्ट विधा का प्रचलन किया है। चोल मूर्तिकला मुख्यतः वास्तु कला की सहायक थी और यही कारण है कि अधिकांश मूर्तियों का उपयोग मन्दिरों को सजाने में किया गया। केवल धातु मूर्तियाँ ही स्वतंत्र रूप से निर्मित हुई हैं।

वास्तु तथा तक्षण के साथ-साथ चोल काल में चित्रकला का भी विकास हुआ। इस युग के कलाकारों ने मन्दिरों की दीवारों पर अनेक सुन्दर चित्र बनाये हैं। अधिकांश चित्र बृहदीश्वर मन्दिर की दीवारों पर उत्कीर्ण मिलते हैं। ये अत्यन्त आकर्षक एवं कलापूर्ण हैं। चित्र प्रमुखतः पौराणिक धर्म से सम्बन्धित हैं। यहाँ शिव की विविध लीलाओं से सम्बन्धित चित्रकारियाँ प्राप्त होती है। एक चित्र में राक्षस का वध करती हुई दुर्गा तथा दूसरे में राजराज को सपरिवार शिव की पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया है।

पल्लव तथा चोल शासकों द्वारा बनवाये गये मन्दिरों में द्रविड़ वास्तु का चरम विकास देखने को मिलता है। चोलों को अपदस्थ करने वाले पाण्ड्य राजवंश के समय (13वीं-14वीं शताब्दी) में द्रविड़ शैली में कुछ नये तत्व समाविष्ट हो गये। बारहवीं सदी के बाद से मन्दिरों में शिखर के स्थान पर उन्हें चारों ओर से घेरने वाली दीवारों के प्रवेश-द्वारों को महत्व प्रदान किया गया। प्रवेश-द्वार चारों दिशाओं में बनाये जाते थे। इसके ऊपर पहरेदारों के लिये कक्ष बनाये जाते थे। बाद में इन पर ऊँचे शिकर बनाये गये जिनकी संज्ञा ‘गोपुरम्’ हो गयी। पाण्ड्य राजाओं के काल में मदुरै, श्रीरंगम आदि स्थानों में गोपुरम्-युक्त मन्दिरों का निर्माण करवाया गया। अपने वर्तमान रूप में ये मन्दिर आधुनिक युग की कृतियां हैं।

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Pankaja Singh

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