आनुपातिक प्रतिनिधित्व | आनुपातिक प्रतिनिधित्व की पद्धतियाँ | एकल संक्रमणीय मत प्रणाली | सूची-प्रणाली | आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण | आनुपातिक प्रतिनिधित्व के दोष

आनुपातिक प्रतिनिधित्व | आनुपातिक प्रतिनिधित्व की पद्धतियाँ | एकल संक्रमणीय मत प्रणाली | सूची-प्रणाली | आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण | आनुपातिक प्रतिनिधित्व के दोष

आनुपातिक प्रतिनिधित्व-

अल्पसंख्यकों को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए सामान्यतया जिन प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है, उनमें आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली सर्वश्रेष्ठ एवं लोकप्रिय है। इसके द्वारा सभी धर्मों को प्राप्त मतों के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रदान करने की निम्नलिखित दो पद्धतियाँ हैं:-

(1) एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (Single Transferable Vote system),

(2) सूची-प्रणाली (List system)|

(1) एकल संक्रमणीय मत प्रणाली-

इस प्रणाली को सर्वप्रथम 1851 में थॉमस हेयर (Thomas Hairc) ने प्रस्तुत किया और 1855 में आन्द्रे (Andre) नामक व्यक्ति ने डेनमार्क में इसे लागू किया है। इस कारण इसे आन्द्रे प्रणाली भी कहते हैं। इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:-

(i) इस प्रणाली के अनुसार राज्य-क्षेत्र को बड़े-बड़े बहुसदस्यीय निर्वाचन-क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है। प्रत्येक क्षेत्र में एक से अधिक हियर के अनुसार कम-से-कम 3 और अधिक-से- अधिक 15 सदस्य) चुने जाते हैं।

(ii) प्रत्येक मतदाता को केवल एक मत देने का अधिकार होता है; परन्तु वह मत-पत्र (Ballot paper) में उम्मीदवारों के नाम के आगे 1,2,3,4 आदि संख्या लिखकर अपनी पसन्द के अनुसार वरीयता (preference) स्पष्ट कर सकता है, अर्थात् वह उम्मीदवारों को किस क्रम में पसन्द करता है।

(iii) प्रत्येक उम्मीदवार को निर्वाचित होने के लिए मतों की एक निश्चित संख्या, जिसे ‘निर्वाचन कोटा’ (Election Quota) कहा जाता है, प्राप्त करना होता है।

हेयर के अनुसार कोटा निकालने का सूत्र-

आवश्यक मत संख्या (कोटा) = कुल डाले गये मतों की संख्या +1/ चुने जाने वाले सदस्यों की संख्या +1

उदाहरण के लिए यदि किसी निर्वाचन क्षेत्र में 8 लाख मत पड़े तो सूत्र के अनुसार निम्नलिखित कोटा होगा, यदि उस क्षेत्र से 4 प्रतिनिधि चुने जाने हैं-

कोटा = 800000 + 1/4 + 1

= 1,60,000 + 1

= 1,60,001

अतः जिस उम्मीदवार को 1,60,001 या अधिक मत प्राप्त होंगे, वह निर्वाचित हो जायेगा।

(iv) इस पद्धति में मतगणना के लिए सर्वप्रथम मत-पत्रों को प्रथम वरीयता के अनुसार छाँटा और गिना जाता है। जो उम्मीदवार निश्चित संख्या के बराबर या उससे अधिक पहली पसन्द के मत प्राप्त कर लेते हैं, वे निर्वाचित घोषित कर दिये जाते हैं। परन्तु यदि इस प्रकार सभी स्थानों की पूर्ति नहीं हो पाती तो सफल. उम्मीदवारों को निर्धारित अंक के अतिरिक्त प्रथम वरीयता के जो मत प्राप्त होते हैं, उन अतिरिक्त मतों को उन उम्मीदवारों को हस्तांतरित कर दिया जाता है, जिन्हें कि उन मतदाताओं ने द्वितीय वरीयता है। यदि इस पर भी प्रतिनिधियों को निर्वाचित होने के लिए आवश्यक मत प्राप्त न हो सकें, तो सफल उम्मीदवारों की तीसरी, चौथी, पाँचवीं आदि पसन्दें भी इसी प्रकार हस्तांतरित कर दी जाती हैं।

(v) इस प्रणाली की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें मत बेकार नहीं जाते। इसमें इस बात का आश्वासन रहता है कि यदि मतदाताओं की पहली पसन्द के मत बच जाते हैं तो दूसरी पसन्द के उम्मीवार को प्राप्त हो जाते हैं।

भारत में राष्ट्रपति तथा राज्य सभा के चुनाव (अप्रत्यक्ष) में इस प्रणाली का प्रयाग किया जाता है।

(2) सूची-प्रणाली-

सूची-प्रणाली में भी बहुसदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र होते हैं। इसमें उम्मीदवार व्यक्तिगत रूप से नहीं वरन् दलीय आधार पर खड़े किये जाते हैं। प्रत्येक दल अपने उम्मीदवारों की सूची तैयार करता है। प्रत्येक मतदाता को उतने ही मत देने का अधिकार होता है, जितने प्रतिनिधि उस क्षेत्र से चुने जाने होते हैं, किन्तु एक उम्मीदवार को एक से अधिक मत नहीं दिया जा सकता। इसमें निर्वाचन कोटा ‘हयर प्रणाली’ (Haire system) की भाँति ही निश्चित किया जाता है। एक दल को जितने वोट मिलते हैं, उसी के आधार पर (कोटे के अनुपात) यह निश्चित कर लिया जाता है कि किस दल के कितने उम्मीदवार चुने जायेंगे। इसमें मतदाता किसी भी दल की पूरी सूची के पक्ष में मत’ देते हैं, व्यक्तिगत उम्मीदवारों को नहीं। इसके बाद प्रत्येक दल द्वारा प्राप्त मतों की संख्या को निर्वाचन-अंक से भाग देकर यह निश्चय किया जाता है कि प्रत्येक दल को कितने स्थान मिलेंगे। इस प्रकार की निर्वाचन प्रणाली स्वीडन, डेनमार्क, नार्वे, बेल्जियम आदि देशों में प्रयुक्त की जाती है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के गुण

(i) सभी वर्गों को समुचित प्रतिनिधित्व- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सभी प्रकार के वर्गों को समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है। बहुसंख्यकों को सदैव बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यकों को उनके मतों की संख्या के अनुपात में अल्पसंख्या में प्रतिनिधि प्राप्त होंगे।

(ii) सभी मतों का सदुपयोग- इस प्रणाली का दूसरा विशिष्ट गुण यह है कि इसमें कोई भी मत बेकार नहीं जाता। एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में अधिकांशतः हार-जीत थोड़े मतों से होती है। यह हार-जीत जुए के समान होती है। परन्तु इसमें ऐसा नहीं होता।

(iii) प्रतिनिधि जनता के वास्तविक प्रतिनिधि- इस प्रणाली द्वारा चुने गये प्रतिनिधि वास्तविक रूप में जनता के प्रतिनिधि होते हैं, क्योंकि इसमें प्रत्येक वर्ग के प्रतिनिधि को शासन- कार्य में भाग लेने का अक्सर मिलता है। इस प्रकार इसमें विधानमण्डल जनता का सच्चा प्रतिनिधि बन जाता है।

(iv) बहुमत की निरंकुशता का भय नहीं- इस प्रणाली द्वारा अल्पसंख्यकों में सुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है, क्योकि उचित प्रतिनिधित्व मिलने से वे बहुमत के अत्याचारों से अपनी रक्षा कर सकते हैं।

(v) प्रजातांत्रिक भावना के सर्वथा अनुकूल- आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली द्वारा विधानमण्डल में सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो जाता है। इसलिये यह प्रणाली प्रजातान्त्रिक भावना के अनुकूल है। लार्ड एक्टन के शब्दों में-“यह अति प्रजातन्त्रवादी है, क्योंकि इससे उन हजारों व्यक्तियों को शासन में भाग लेने का अवसर मिलता है, जिसकी वैसे कोई सुनवाई नहीं  होती। यह समानता के सिद्धान्त के निकटतम है, क्योंकि प्रत्येक मतदाता का विधानमण्डल में अपना सदस्य होता है।” इसी प्रकार मिल ने लिखा है-“एक सच्चे जनतन्त्र में प्रत्येक वर्ग को उचित (आनुपातिक) प्रतिनिधित्व प्राप्त होना चाहिये। यदि ऐसा नहीं है, तो वह सरकार न तो प्रजातान्त्रिक है और न न्यायसंगत ।”

(vi) जनता को अधिक स्वतन्त्रता- इस पद्धति का एक यह भी गुण है कि इसमें जनता की दलबन्दी से मुक्त होकर अपनी पसन्द के उम्मीदवारों का चयन करने की अधिक स्वतन्त्रता रहती है।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व के दोष-

इस पद्धति में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं:-

(i) अत्यधिक जटिल- यह प्रणाली अत्यन्त जटिल है, जो कि सामान्य मतदाता की समझ से परे है। इसके अतिरिक्त मतगणना में बहुत अधिक कठिनाई होती है और रू नय नष्ट होता है।

(ii) मतदाताओं और प्रतिनिधियों में घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं- इस पद्धति में विशाल निर्वाचन क्षेत्रों के कारण प्रतिनिधि मतदाताओं से पर्याप्त सम्बन्ध नहीं स्थापित कर पाते। इस कारण कोई भी प्रतिनिधि अपने को किसी विशेष क्षेत्र के लिए उत्तरदायी भी नहीं समझता।

(iii) वर्गीय हितों को प्रोत्साहन- यह प्रणाली वर्गीय हितों पर आधारित है; अत: वर्गीय हितों को प्रोत्साहित करती है। इससे विधानमण्डल वर्गीय हितों के संघर्ष का अखाड़ा बन जाता है। सिजविक के अनुसार, “वर्गीय प्रतिनिधित्व आवश्यक रूप से दूषित वर्गीय व्यवस्थापन को प्रोत्साहित करता है।”

(iv) अस्थायी सरकारों की स्थापना- बहुत अधिक संख्या में राजनीतिक दलों के होने से कोई भी दल साधारणतया अकेले सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होता। राजनीतिक ध्रुवीकरण के बाद जो मिली-जुली सरकार बनती है, वह अस्थायी होती है।

(v) राष्ट्रीय हित की उपेक्षा- इस प्रणाली द्वारा निर्वाचित सदस्य वर्गीय हितों पर अधिक ध्यान देते हैं तथा राष्ट्रीय हित की उपेक्षा करते हैं। छोटे-छोटे गुट एवं दल समाज की संकीर्णता का प्रचार करते हैं, जो कि राष्ट्रीय हित के लिए धातक है। स्ट्रांग के शब्दों में-“आनुपातिक प्रतिनिधित्व संकीर्ण विचारधारा को जन्म देता है, जो अनिवार्य रूप से सामाजिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।”

(vi)  शीर्षस्थ नेताओं का अत्यधिक प्रभाव- आनुपातिक प्रणाली में विशेषतौर से सूची- प्रणाली में दलों को कठोर रूप से संगठित एवं अनुशासित किया जाता है, इससे शीर्षस्थ नेताओं का प्रभाव अत्यधिक बढ़ जाता है। सदस्यों के नामांकन तथा निर्वाचन उन्हीं के आदेशों के अनुरूप होते हैं। इससे साधारण सदस्यों की स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है और वे दल के ‘हाई कमान’ की कठपुतली बन कर रह जाते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली में गुणों की अपेक्षा दोष अधिक गम्भीर हैं। यह पद्धति संकीर्ण भावनाओं एवं दलों को उभारकर स्थायी सरकार की स्थापना को कठिन बना देती है, संसद की सत्ता को निर्बल बना देती है तथा सरकारों के स्थायित्व एवं एकरूपता को नष्ट करके संसदीय शासन को भी असम्भव बना देती है। यही कारण है कि लोकप्रिय सदन के निर्वाचन में यह पद्धति अधिकांश देशों में नहीं अपनायी जाती है। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जिन यूरोपीय देशों ने इसे अपनाया था, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उन्होंने इसका परित्याग कर दिया।

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