राजनीति विज्ञान

मताधिकार का अर्थ | सार्वभौम वयस्क मताधिकार का अर्थ | वयस्क मताधिकार के पक्ष में तर्क | वयस्क मताधिकार के विपक्ष में तर्क | महिला मताधिकार | महिला मताधिकार का समर्थन | महिला मताधिकार का विरोध

मताधिकार का अर्थ | सार्वभौम वयस्क मताधिकार का अर्थ | वयस्क मताधिकार के पक्ष में तर्क | वयस्क मताधिकार के विपक्ष में तर्क | महिला मताधिकार | महिला मताधिकार का समर्थन | महिला मताधिकार का विरोध

मताधिकार का अर्थ

(Meaning of Franchises)

मताधिकार एक प्रकार का राजनीतिक अधिकार है, जो प्रजातांत्रिक व्यवस्था (प्रतिनिध्यात्मक प्रजातन्त्र) में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। सामान्य अर्थों में ‘मताधिकार’ मत देने का अधिकार है। अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र जनता अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन करती है। ये प्रतिनिधि जनता अपने मत को व्यक्त करके चुनती है। इस प्रकार अपने मत द्वारा सरकार प्रतिनिधियों को चुनने की स्वतंत्रता को ‘मताधिकार’ कहा जाता है।

सार्वभौम वयस्क मताधिकार का अर्थ

सार्वभौम वयस्क मताधिकार का तात्पर्य यह है कि उन समस्त वयस्क स्त्री-पुरुषों को मताधिकार प्राप्त होना चाहिए, जो किसी देश में निवास करते हों और वे उस देश के नागरिक हों। दूसरे शब्दों में जिस पद्धति में जाति, सम्पत्ति, शिक्षा, लिंग आदि के भेद-भाव के बिना देश के सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार प्रदान किया जाता है, उसे ‘सार्वभौम’ वयस्क मताधिकार’ (Universal adults suffrage) कहते हैं।

वयस्क मताधिकार के पक्ष में तर्क

वयस्क मताधिकार के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं:-

(1) प्रजातन्त्र के अनुकूल- वयस्क मताधिकार प्रजातान्त्रिक आदर्शों एवं सिद्धान्तों के अनुकूल हैं। प्रजातन्त्र की मूल धारणा यह है कि सभी व्यक्ति समान हैं और उन्हें प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार प्रात्त हैं; अत: मत प्रदान करने का अधिकार सभी को होना चाहिये। सभी से मताधिकार प्रदान करने के बाद ही लोकप्रिय प्रभुसत्ता’ की धारणा साकार की जा सकती है।

(2) सभी के हितों की सुरक्षा- यदि निर्धनों, अशिक्षितों आदि का मताधिकार प्राप्त नहीं होगा तो राज्य उनके हितों की रक्षा का ध्यान नहीं रखेगा और उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। यदि समस्त वयस्क नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त होगा और उनके प्रतिनिधि विधान-मण्डलों में होगे तो सरकार उनके हितों के प्रति उदासीन नहीं रहेगी। अत: वयस्क मताधिकार के अनुसार सबके हित सुरक्षित और राज्य समस्त जनता के हितों की रक्षा समान रूप से करेगी।

(3) राजनीतिक समानता और लोकसत्ता की अभिव्यक्ति– लोकतन्त्र की सफलता के  लिए राजनीतिक समानता आवश्यक है। इसमें शासन की अन्तिम सत्ता जनता के हाथ में निहित रहती है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह को दूसरे लोगों पर उनकी सम्मति के बिना शासन करने का अधिकार नहीं है; अतः प्रत्येक व्यक्ति को शासन कार्यों में भाग लेने का अवसर प्राप्त होना चाहिये। गार्नर ने लिखा है-“लोकसत्ता की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति सार्वभौम मताधिकार के द्वारा ही हो सकती है।”

(4) राजनीतिक चेतना का विकास- मताधिकार मिलने से नागरिकों में राजनीतिक चेतना का विकास होता है, नागरिकों की राजनीतिक क्रिया-कलापों में उत्सुकता बढ़ती है और वह अनुभव करने लगते हैं कि शासन में उनका भी हाथ है। इससे शासन के प्रति उनका प्रेम बढ़ता है, उत्तरदायित्व की भावना जन्म लेती है और उनमें स्वाभिमान उत्पन्न होता है। इस प्रकार मताधिकार नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करता है।

(5) राष्ट्रीय एकता का साधन- सार्वभौम मताधिकार के द्वारा राष्ट्र की एकता और शक्ति में वृद्धि होती है। लोग समझने लगते हैं कि सरकार उन्हीं की है और शासन में उनका भी हाथ है। यदि कुछ लोगों को मताधिकार से वंचित रखा जाये, तो वे राष्ट्र के प्रति अपनापन नहीं अनुभव कर सकते। ऐसी स्थिति में वे राष्ट्र के प्रति निष्ठावान नहीं रह सकते । इससे राष्ट्र की एकता में बाधा पड़ सकती है।

(6) नागरिकों के आत्मसम्मान में वृद्धि- इस मताधिकार से व्यक्ति के आत्मसम्मान में वृद्धि होती है। क्योंकि निर्वाचन के समय देश के व्यक्ति उससे मत प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करते हैं। इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव यह होता है कि साधारण जनता भी अपने को महत्त्वपूर्ण समझने लगती है और उसमें आत्मसम्मान की भावना बढ़ती है।

(7) देश की उन्नति- प्रतिनिधि किसी भी समय नागरिकों का कार्य करने से नहीं सकुचाते हैं। वे उनको प्रसन्न रखने के लिए अपने क्षेत्र को उन्नत बनाने का प्रयत्न करते हैं, जिससे देश की बड़ी उन्नति होती है। सार्वजनिक मंतों द्वारा निर्वाचित होने के कारण प्रतिनिधियों को निर्वाचकों का डर बना रहता है है।

वयस्क मताधिकार के विपक्ष में तर्क

(1) मताधिकार जन्म-सिद्ध अधिकार नहीं- हेनरीमेन और लैकी का मत है कि मताधिकार कोई जन्मसिद्ध अधिकार नहीं है। यह राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकार है। अतः यह राज्य का कार्य है कि किसे मताधिकार दिया जाये और किसे नहीं। मताधिकार केवल उन्हीं व्यक्तियों को मिलना चाहिये जो उचित रूप से उसका पालन कर सकें और उसके औचित्य एवं महत्त्व को समझते हों। अधिकांश जनता में ऐसी योग्यता नहीं होती कि वह इस अधिकार का उचित रूप से प्रयोग कर सके । इस अधिकार के दुरुपयोग से सत्ता निरंकुश एवं अयोग्य व्यक्ति के हाथ में पहुँच सकती है।

(2) अशिक्षितों को मताधिकार देना अनुचित- सार्वभौम मताधिकार के विरोधियों का दूसरा तर्क यह है कि जिन लोगों का समुचित बौद्धिक विकास नहीं हुआ है, वह स्वविवेक से अपने मत का सदुपयोग नहीं कर सकते; अत: उन्हें मताधिकार प्रदान नहीं करना चाहिए। जे. एस० मिल के शब्दों में-“मैं इस बात को नितान्त अनुचित मानता हूँ कि कोई पढ़ने-लिखने की योग्यता प्राप्त करने से पूर्व ही मतदान में भाग ले । मताधिकार को सार्वभौम बनाने के पूर्व सभी को शिक्षा प्रदान करना नितान्त आवश्यक है।” लैकी ने भी कहा है–” संख्या की अपेक्षा गुण पर अधिक ध्यान देना चाहिए। मताधिकार का प्रयोग बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से किया जाना चाहिये, नहीं तो अयोग्य एवं मूर्ख व्यक्ति चुन लिये जायेंगे।”

(3) अधिकांश जनता का संकुचित दृष्टिकोण- अधिकांश जनता का दृष्टिकोण संकुचित होता है। उनका कार्य क्षेत्र जाति-बिरादरी, सम्प्रदाय एवं स्थान विशेष तक ही सीमित है। मत देते समय वे लोग योग्य और अयोग्य में भेद नहीं करते हैं और अपनी जाति, वर्ग अथवा सम्प्रदाय के व्यक्ति के पक्ष में वोट डाल देते हैं, चाहे वे निर्वाचित होने के योग्य हों या न हों।

(4) निर्धनों के हाथों में मताधिकार का दुरुपयोग- विद्वानों का विचार है कि निर्धन लोगों को मताधिकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि धनी या सत्ता लोलुप लोग उनके मतों को खरीद लेते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि वे अपनी स्वतन्त्र राय नहीं दे पाते और शासन सत्ता धनिकों एवं पूँजीपतियों के हाथ में चली जाती है। इसके अतिरिक्त निर्धन व्यक्ति के पास न इतना समय होता है और न इतनी योग्यता कि वह राष्ट्र की आर्थिक-सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध में कोई रचनात्मक योगदान दे सके।

(5) खर्चीली चुनाव-व्यवस्था के कारण धनवानों का प्रभुत्व- सार्वजनिक वयस्कता मताधिकार प्रणाली में चुनाव प्रक्रिया बड़ी खर्चीली होती है; अतः धनी एवं पूँजीपति ही चुनाव में निर्वाचित हो सकते हैं ।

(6) महिलाएँ मताधिकार के योग्य नहीं- कुछ विद्वानों का विचार है कि व्यवस्था के आधार पर महिलाओं को मताधिकार नहीं मिलना चाहिये। क्योंकि इससे महिलाओं के नारी सुलभ. गुण नष्ट हो जायेंगे, पारिवारिक जीवन में संघर्ष उत्पन्न हो जायेंगे। महिलाओं में अस्थिरता होती है और उनके निर्णय भावनाओं पर आधारित होते हैं, तर्क पर नहीं; अत: वे उचित निर्णय नहीं ले सकतीं।

(7) मताधिकार केवल अधिकार ही नहीं वरन् एक दायित्व भी है- मताधिकार एक- सामाजिक दायित्व एवं पावन कर्त्तव्य भी है, जिसका प्रयोग सावधानी, बुद्धिमत्ता एवं विवेक के साथ किया जाना चाहिये। मताधिकार का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिये जिससे सार्वजनिक हित एवं देश की एकता बनी रहे । अत: आवश्यक है कि यह अधिकार योग्य व्यक्तियों को ही मिलना चाहिए।

महिला मताधिकार

आरम्भ में वयस्क मताधिकार केवल पुरुषों तक ही सीमित था महिलाओं को मताधिकार प्राप्त नहीं था। ब्रिटेन जैसे प्रजातान्त्रिक देश में भी सन् 1918 तक महिलाओं को वोट देने का अधिकार प्राप्त नहीं था। इसके अतिरिक्त विश्व के कुछ अन्य देशों में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त नहीं था।

महिला मताधिकार का समर्थन-

संसार के विभिन्न विद्वानों ने महिला मताधिकार का समर्थन किया है। गांधीजी के अनुसार-“स्त्री को अवला के नाम से पुकारना उसका अपमान करना है।”

जे० एस० मिल के अनुसार, “मैं राजनीतिक अधिकारियों के विषय में लिंग भेद को उसी प्रकार अनुचित समझता हूँ जिस प्रकार से बालों के रंग को। यदि दोनों में भेदभाव किया भी जाय तो स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा अधिक अधिकारों की आवश्यकता है। क्योंकि वे शारीरिक दृष्टि से कमजोर हैं और अपनी रक्षा हेतु समाज एवं कानून पर अधिक आश्रित है।”

स्त्रियों के मताधिकार के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं:-

(i) कानूनों का बी एवं पुरुषों पर समान प्रभाव पड़ता है, अत: त्रियों को मताधिकार दिया जाना चाहिए।

(ii) स्त्रियों में उच्चकोटि की नैतिकता होती है, अतएव उन्हें मताधिकार दिया जाना चाहिए।

(iii) स्त्रियाँ सदैव शोषण का शिकार रही हैं। उन्हें मताधिकार न देना भी उनका शोषण करना होगा।

इस समय प्राय संसार के सभी देशों में वियों को मताधिकार प्रदान किया गया हैं।

महिला मताधिकार का विरोध-

अनेक विद्वानों ने महिलाओं को मताधिकार देने का विरोध किया है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये गये हैं:-

(i) स्त्रियाँ अधिकतर अशिक्षित होती हैं। उन्हें मताधिकार देने से उसका दुरुपयोग होगा।

(ii) पति की इच्छा के विरुद्ध किसी को मत देने पर घर में कलह की सम्भावना है।

(iii) स्त्रियों द्वारा सार्वजनिक जीवन में भाग लेने से घरेलू जीवन पर दुअभाव की सम्भावना रहती है।

(iv) प्रकृति से कमजोर होने के कारण स्त्रियाँ पुरुषों की भाँति अपने उत्तरदायित्वों को नहीं निभा सकतीं।

राजनीति विज्ञान महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!