इतिहास

समाजवादी आंदोलन में इंटरनेशनलों की भूमिका | द्वितीय इंटरनेशनल और संशोधनवाद | तृतीय इंटरनेशनल

समाजवादी आंदोलन में इंटरनेशनलों की भूमिका | द्वितीय इंटरनेशनल और संशोधनवाद | तृतीय इंटरनेशनल

समाजवादी आंदोलन में इंटरनेशनलों की भूमिका

(Role of Internationals)

समाजवादी आंदोलन में मार्क्स ने स्वयं महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1864 ई. में लंदन में अंतरराष्ट्रीय कामगार एशोसिएशन (International Working Men’s Association) का प्रथम अधिवेशन हुआ। इसे ही सामान्यतः प्रथम इंटरनेशनल (First International) के नाम से जाना जाता है। मार्क्स इस एसोसिएशन का नेता था। उसने जर्मन नेता लैसलियन के बिस्मार्क को सहयोग देने की नीति की भर्त्सना की। मार्क्स का विचार था कि समाजवादियों का काम सरकार के साथ सहयोग करना नहीं, वरन् सरकार को अपने कब्जे में ले लेना था। रूस का समाजवादी नेता बाकुनिन (Mikhail Bakunin) यह मानता था कि राज्य सामान्य जनता की पीड़ाओं का कारण है। वह एक अराजकतावादी था और उसकी मान्यता थी कि राज्य पर आक्रमण किया जाना चाहिए और इसका अंत कर देना चाहिए। मार्क्स के लिए अराजकतावाद और व्यक्तिगत आतंक (individual terrorism) दोनों घृणात्मक थे। सही सिद्धांत यह था कि राज्य चाहे यह जारशाही हो अथवा बुर्जुआवादी-मात्र आर्थिक परिस्थितियों की उपज, वर्ग-संघर्ष का एक औजार और संपत्तिशाली वर्गों का एक अल था और इसलिए क्रांतिकारी क्रियाओं का सच्चा निशाना सरकार को नहीं, वरन् पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था को बनाना चाहिए। मार्क्स ने 1872 ई० में बाकुनिन को प्रथम इंटरनेशनल से बाहर निकाल दिया।

नेपोलियन तृतीय जब जर्मनी से 1871 ई० में पराजित हुआ तो पेरिस के मजदूरों ने ‘पेरिस कम्यून’ की स्थापना की। इसकी रक्षा के लिए उन्होंने जी-जान से कोशिश भी की। पूरे यूरोप में पेरिस कम्यून (Paris Commune) से संबंद्ध घटनाओं को बहुत उत्तेजना के साथ देखा गया। फ्रांस के श्रमजीवियों का यह एक महान प्रयास था। अंतरराष्ट्रीय वर्ग-संघर्ष के कारण मार्क्स ने इसकी प्रशंसा की। लेकिन फ्रांसीसी बुर्जुआवर्ग ने भयभीत होकर मजदूरों को सरकार को कुचल दिया।

मार्क्सवादियों और लैसेलियनों में समझौता 1875 ई० में हुआ, जिसके परिणामस्वरूप जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना हुई। 1880 ई. के लगभग कई देशों में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की गई। फ्रांस में जूल्स गेसडे और डॉ० ब्रांउसे दो मत के माननेवाले समाजवादी थे। गेसड़े एक कठोर मार्क्सवादी था, जबकि डॉ बाउसे का विश्वास था कि कामगारों के लिए संसदीय तरीकों से समाजवाद तक पहुंच पाने की संभावना थी। कुछ अन्य लोगों ने जीन जोरे (Jeen Jaures) का समर्थन किया। उसने सामाजिक सुधारों की आवश्यकता पर बल दिया। 1905 ई० तक फ्रांस के विभिन्न समाजवादी दल एक ऐसे समाजवादी पार्टी की स्थापना नहीं कर पाए थे, जो सबको स्वीकृत हो सके। इंग्लैण्ड में 1881 ई. में हिंडमैन ने जर्मन नमूने पर और मार्क्सवादी परियोजना के साथ एक सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन की स्थापना की। 1883 ई० में स्विट्जरलैण्ड में रहनेवाले दो रूसियों ने रशियन डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना की।

द्वितीय इंटरनेशनल और संशोधनवाद

(Second International & Revisionism)

1889 ई० में समाजवादी पार्टियों ने एक अंतरराष्ट्रीय लीग की स्थापना की, जिसे द्वितीय इंटरनेशनल (Second International) के नाम से जाना जाता है। इसके बाद ये प्रत्येक तीन वर्ष पर अपना सम्मेलन बुलाता रहा।

1883 ई० में मार्क्स की मृत्यु हो गई, लेकिन 1880 ई० के दशक में समाजवादी पार्टियों का प्रेरणा स्रोत मास ही था। माक्र्सवाद जर्मनी और फ्रांस में सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन हो गया । इटली और स्पेन, जहाँ का श्रमजीवी कम चैतन्य था, ज्यादातर बाकुनिन के अनुगामी हो गए। किन्तु, इंग्लैण्ड, में मार्क्सवादी सफल नहीं हो सके। श्रमिक अपने संगठनों में जुटे रहे और पूंजीवाद के मध्यमवर्गीय आलोचक 1883 ई० में स्थापित ‘फेवियन सोसाइटी’ (Fabian Society) के समर्थक बन गए या उससे जुड़ गए। फेबियन लोग घोर मार्क्स-विरोधी थे। जॉर्ज बर्नाड शॉ, एच० जी० वेल्स, सिडनी आदि इस संस्था के प्रारंभिक सदस्यों में थे। उनके लिए समाजवाद राजनीतिक प्रजातंत्र का सामाजिक और आर्थिक प्रतिरूप था। उनकी मान्यता थी कि किसी वर्ग-संघर्ष की न तो आवश्यकता थी और न इसका कोई अस्तित्व था।

युरोपीय देशों में सोशलिस्ट पार्टियों के विकास में श्रमजीवीवर्ग का सहयोग आवश्यक था; क्योंकि संसदीय चुनाव में सोशलिस्ट प्रत्याशियों के वही मतदाता थे। फलतः पार्टियों के अंदर श्रम संगठनों के नेता सिद्धांततः अपने को पूजीवाद के साथ एक महान संघर्ष में रहते तो मानते थे, लेकिन व्यवहार में उनका लक्ष्य यह था कि अपने मालिकों के व्यापार से अपने लिए और सुविधाएँ कैसे प्राप्त की जाएँ। वे कामगारों के संघर्ष के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप में विश्वास अवश्य करते थे, लेकिन व्यवहार में राष्ट्रीय राज्यों के संसदों के माध्यम से काम करते हुए केवल देश के हित-साधन के उपायों में लगे रहते थे। अपने देश के श्रमिकवर्ग के लिए सामाजिक बीमा,कारखानों के कायदे-कानून, काम के कम-से-कम घंटे,अधिक-से-अधिक पारिश्रमिक आदि का प्रबंध करने में उनका सारा कार्यकलाप केंद्रित था। सदी के अंत तक यह जाहिर हो गया कि मार्क्स के सारे अनुमान सही न थे। मार्क्स ने कहा था कि पूंजीवादी व्यवस्था में बुर्जुआ और अधिक धनी तथा श्रमजीवी उत्तरोत्तर ग्रीब होता जाएगा। पर, हर जगह ऐसा नहीं हुआ। मशीनीकरण और उत्पादन बढ़ने से मजदूरों का पारिश्रमिक भी बढ़ा। फूलतः, क्रांतिकारी जोश ठन्डा पड़ने लगा। इस कारण बार-बार व्यर्थ में द्वितीय इंटरनेशनल को अपने घटक समाजवादी पार्टियों को बुर्जुआओं के साथ सहयोग के विरुद्ध चेतावनी देनी पड़ी।

1890 ई. के दशक में मार्क्सवाद को संशोधन के एक दौर से गुजरना पड़ा। फ्रांस में जीन जोरे और जर्मनी में एडुअर्ड बर्नस्टीन ने इसका नेतृत्व किया। बर्नस्टीन ने अपनी एक नई पुस्तक Evolutionary Socialism प्रकाशित कर कुछ नए विचार प्रस्तुत किए। संशोधनवादियों को यह मान्यता थी कि वर्ग-संघर्ष शत-प्रतिशत अवश्यंभावी नहीं भी हो सकता था, पूँजीवाद को धीरे-धीरे श्रमिकों के हितों की ओर झुकाया जा सकता है। अब कामगारों को मतदान का अधिकार प्राप्त हो गया था, उनकी अपनी राजनीतिक पार्टियाँ बन गई थीं और वे अपने लक्ष्यों को बिना क्रांति के-प्रजातांत्रिक माध्यमों से-भी प्राप्त कर सकते थे।

रूढ़िवादी मार्क्सवादियों ने इस संशोधन के विरुद्ध जेहाद छेड़ा। जुर्मनी में कार्ल कौटस्की में संशोधनवादियों पर तुच्छ वुर्जुआ लाभों की प्राप्ति के लिए सम्झौतावादी बनने का आरोप लगाया और उनकी भर्त्सना की। फ्रांस में अलेक्जेंडर मित्ररां के मंत्रिपरिषद में शामिल होने पर इंटरनेशनल ने निर्णय लिया कि समाजवादी संसद का उपयोग एक मंच के रूप में कर सकते हैं, लेकिन सरकार में शामिल नहीं हो सकते; क्योंकि यह कार्य शत्रुपक्ष-बुर्जुआ-के साथ सहयोग करने के समान था।

मार्क्सवाद सदा से अंतर्राष्ट्रीय चरित्र का रहा है। इसकी मान्यता थी कि राज्यों की सरकार श्रमिकों पर शासन करने की नीयत से बनाई गई बुर्जुआओं की समितियाँ थीं। राष्ट्रीय राज्यों का ढांचा ही कुछ ऐसा था, जिन्हें ऐतिहासिक घटनाओं के क्रम में बिखर जाना और ना हो जाना था। लेकिन, बाद में संशोधन की बदौलत माक्र्सवादी कहलाने वाले अधिकांश लोग राष्ट्रीय राज्य की धारणा को स्वीकार करते गए। इनमें उन्हें वह साधन नजर आया जिसकी बदौलत कामगारों की दुरावस्था को क्रमशः सुधारा जा सकता था। कठोर मार्क्सवादियों की दृष्टि में यह संशोधनवादी आंदोलन अवसरवाद (Opportunism) के अलावा और कुछ नहीं था। प्रथम विश्वयुद्ध ने अंतर्राष्ट्रीयवाद की जगह पर राष्ट्रीय निष्ठा की प्राथमिकता को प्रमाणित कर दिया। प्रत्येक देश के समाजवादी अपनी-अपनी सरकारों के लिए मददगार साबित हुए।

रूस की बोल्शेविक क्रांति

(The Bolshevick Revolution of Russia)

1917 ई० में साम्राज्यवादी जर्मन सरकार की मदद से लेनिन रूस पहुँचा। अपने अन्य सहयोगियों की मदद से उसने नवम्बर की क्रांति कर रूस में सर्वप्रथम कामगारों की सरकार की स्थापना की। 1924 ई० में लेनिन की मृत्यू हुई। लेनिन सच्चा मार्क्सवादी था, लेकिन अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह मार्क्सवाद में थोड़ा-बहुत संशोधन करना बुरा नहीं मानता था। उसने जारशाही रूस का आमूल परिवर्तन कर उसे समाजवादी ढांचे पर संगठित् एक नए देश ‘सोवियत समाजवादी गणतंत्रों का संघ (U.S.S.R.) में बदल दिया। उसने शासनतंत्र का पुनर्गठन किया और नई आर्थिक नीतियाँ अपनाई।

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के समाजवादी आंदोलन- प्रथम विश्वयुद्ध के बाद रूस में बोल्शेविक सरकार की स्थापना हुई। दूसरी ओर आस्ट्रियन साम्राज्य के पतन के साथ-साथ उसका विघटन भी हो गया। इससे लाभ उठाकर सभी प्रकार के समाजवादियों और उदारवादियों ने इन देशों में नई-नई शासन-व्यवस्थाएँ कायम करने का प्रयास किया। समाजवादियों के बीच पुराना मतभेद बना रहा। यह मतभेद सामाजिक प्रजातंत्रवादियों और अतिवादी समाजवादियों के बीच था। सामाजिक प्रजातंत्रवादी अहिंसक तथा संसदीय प्रणालियों के समर्थक थे और अतिवादी गुट युद्धोपरांत बिखराव में अंतर्राष्ट्रीय क्रांति को पूरा करना चाहते थे । प्रथम दल ने रूस को बोल्शेविक क्रांति को भयातुर नजरों से देखा। दूसरे गुट ने इसकी प्रंशसा की। प्रथम गुट में न केवल ट्रेडु-यूनियन के अधिकारी और व्यावहारिक समाजवादी राजनीतिज्ञ थे, वरन् कार्ल कौटस्की और एडुअर्ड बर्नस्टीन भी थे, जो युद्ध के पहले के दिनों में कट्टर रूढिवादी मार्क्सवादी थे। अब ये लोग लेनिन के तरीकों की आलोचना कर रहे थे। दूसरी ओर यूरोप के अन्य देशों में कई नेता उभरे, जिन्हें लेनिन की बोल्शेविक सरकार ने मदद की।

तृतीय इंटरनेशनल (Third International)

तृतीय इंटरनेशनल का 1919 ई० में प्रथम सम्मेलन हुआ, जो अव्यवस्थित रहा। लेकिन, 1920 ई० में हुए इसके द्वितीय सम्मेलन में सैंतीस देशों के अतिवादी वामपंथी पार्टियों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इनमें रूस की कम्युनिस्ट पार्टी मात्र एक घटक थी, लेकिन वास्तव में इंटरनेशनल पर इसका पूरा प्रभुत्व बना रहा। तृतीय इंटरनेश्नल या कांमिंटर्न संसार के उन सभी मार्क्सवादियों का संगठन था, जो बोल्शेविक क्रांति को मार्क्सवाद का सच्चा फल मानते थे और जो रूस के नेतृत्व को स्वीकार करते थे।

कॉमिटर्न के प्रति निष्ठावान पार्टियों को अपने पुराने नाम समाजवादी (Socialists) को छोड़ देना पड़ा और अपने को साम्यवादी (Communists) कहना पड़ा। उन्हें शक्तिशाली अंतर्राष्ट्रीय केंद्रीकरण को स्वीकार करना पड़ा। द्वितीय इंटरनेशनल समाजवादी पार्टियों का एक ढीलाढाला संघ था और इसके सम्मेलन ही इसके एकमात्र मंच होते थे। लेकिन, तृतीय इंटरनेशनल, ने एक कार्यकारिणी समिति का निर्माण किया, जिसके हाथों में अत्यधिक शक्तियाँ दी गई। इस समिति की सलाहों को सभी देशों की साम्यवादी पार्टियों को मानना पड़ता था। सोवियत संघ की पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य तृतीय इंटरनेशनल की कार्यकारिणी के सदस्य भी हुआ करते थे। अतएव, कॉमिटर्न के माध्यम से सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव संसार भर की कम्युनिस्ट पार्टियों पर छाया रहता था।

1927 ई० में रूस में टूटूकीवाद एवं विश्व क्रांतिवाद को दबा दिए जाने के साथ स्टालिन के नेतृत्व में ‘एक देश में समाजवाद’ का निर्माण करने की योजना अपनाई गई।

इस कारण कॉमिंटर्न का महत्व घटने लगा। 1933 ई० के आस पास फासिस्ट तानाशाह (इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर युद्ध की तैयारी करने लगे तो सोवियत संघ (रूस) ने अंतर्राष्ट्रीय सामूहिक सुरक्षा की नीति अपनाई और कॉमिंटर्न के सभी साम्यवादी पार्टियों को आदेश दिया कि वे प्रगतिशील उदारवादियों के साथ समझौता कर फासिज्म (Piscism) का सामना करने के लिए लोक मोर्चा (popular fronts) स्थापित करें। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पेट निटेन और संयुक्त राज्य अमेरिका से अच्छे संबंध की शुरुआत करने के लिए सोवियत नेताओं ने कॉमिंटर्न को एकदम समाप्त कर दिया। लेकिन, 1947 ई० में एक नए नाम से इसे पुनः स्थापित किया गया। इस संस्था का नाम कम्युनिस्ट इनफोरमेशन ब्यूरो (Communist Information Bureau) रखा गया। फिर भी विश्व में सोवियत संघ ने कॉमिंटर्न के माध्यम से नहीं, वरन् महज अपने अस्तित्व के प्रभावशाली तथ्य के माध्यम से ही प्रभाव डाला। चीन का सोवियत संघ से कई बातों में मतभेद था, लेकिन विश्व के अधिकांश समाजवादी देश सोवियत संघ के विघटन से पूर्व उसी को अपना नेता मानते थे।

सोवियत संघ के विघटन तथा अन्य कई यूरोपीय देशों में साम्यवादी सरकारों के पतन के परिणामस्वरूप समाजवादी आंदोलन को गहरा धक्का लगा है। किन्तु, इतना भी सही है कि आज के साम्राज्यवादी एवं पूँजीवादी व्यवस्था के युग में समाजवादी व्यवस्था के महत्व को नकारा नहीं जा सकता । साम्राज्यवादी और पूंजीवादी व्यवस्थाओं में शोषण दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। आज कोई भी सामाजिक एवं आर्थिक चिंतक या तो समाजवादी दृष्टिकोण से अपनी बातों को रखता है या उसकी आलोचना करता है। समाजवादी व्यवस्था के महत्व से इंकार करना संभव नहीं है, भले ही साम्यवादी शासन आज कई देशों में असफल दिखाई दे रहा हो। इसके अलावा एशिया और अफ्रीका के गरीब देशों की जनता पर समाजवादी व्यवस्था का प्रभाव बढ़ रहा है। इसका कारण है कि एक तरफ यूरोप और उत्तरी अमेरिका के देशों के एक वर्ग के लोग अधिकांश आर्थिक संसाधुनों पर कब्जा किए हुए हैं तो उन्हीं देशों के अन्य लोगों की आर्थिक स्थिति दयनीय है। इसके विपरीत समाजवादी देशों में इस तरह की सामाजिक एवं आर्थिक विषमता का अभाव था। यही कारण है कि एशिया, अफ्रीका, एवं दक्षिणी अमेरिका के गरीब देशों पर समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में कमी नहीं आई है।

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Pankaja Singh

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