यूरोप में विकसित समाजवाद के विभिन्न स्वरूप | समाजवाद | आदर्शवादी समाजवाद | वैज्ञानिक समाजवाद

यूरोप में विकसित समाजवाद के विभिन्न स्वरूप | समाजवाद | आदर्शवादी समाजवाद | वैज्ञानिक समाजवाद

यूरोप में विकसित समाजवाद के विभिन्न स्वरूप

समाजवाद (Socialism)

समाजवादी व्यवस्था में आम जनता अपने आवश्यकता के अनुसार सामग्री को पाती है और राजनीतिक व्यवस्था में आम आदमी का ही बोलबाला होता है। लेकिन, यह व्यवस्था और विचार कई चरणों से होकर गुजरा है और कई समाजवादी देशों में भी इसे अनेक तरह से लागू किया गया है। आरंभिक काल से ही इस विचारधारा के पोषक लोग रहे हैं लेकिन पहले उत्पादन के साधनों की प्रचुरता थी, फलतः समाजवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार बड़े पैमाने पर नहीं हो सका था। लेकिन, 19वीं शताब्दी में औद्योगिकीकरण और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण समाजवादी विचारधारा का प्रचार जोरों से हुआ। इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति होने से मजदूरों का जमघट शहरों में होने लगा था। खेती का पूंजीकरण होने से देहातों से बहुत लघु कृषक खेती की जमीन खोकर शहर रोजी-रोटी की खोज में आ गए थे। उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर कारखानों के मालिक कम-से-कम वेतन देकर अधिक से अधिक काम कराते थे। मजदूरों की इस बिगड़ती दुशा से कुछ विद्वान चिंतित हुए और पूँजीवादी व्यवस्था की आलोचना करने लगे। वास्तव में पूँजीवादी व्यवस्था की खामियों ने ही समाजवादी व्यवस्था के विषय में समाज-वैज्ञानिकों को सोचने को बाध्य किया।

आदर्शवादी समाजवाद (Utopian Socialism)

19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में यूरोप में उदय होने वाले बुर्जुआ औद्योगिक समाज के तीव्र आलोचकों में कुछ संख्या ऐसे लेखकों की भी थी, जो अपने को समाजवादी कहा करते थे। उन लेखकों के प्रस्तावों में विभिन्नता होने के बावजूद उन्हें प्राय: आदर्शवादी समाजवादियों (Utopian Socialisis) की संज्ञा दी जाती है। उन्हें यह संज्ञा इसलिए दी जाती है कि उन्होंने आदर्शवादी समाज बनाने की कोशिश की, जिसका तर्क वैज्ञानिक आधार नहीं था। कार्ल मार्क्स के अनुसार, इन आदर्शवादियों का समाजवाद बहुत अधिक भावप्रधान था और इतिहास के तथ्यों पर समुचित रूप से आधृत नहीं था।

1848 ई० के पहले के सभी समाजवादी निजी उद्योगों पर प्रश्न चिन्ह लगाते थे तथा बैंक, फैक्टरी, मशीन, भूमि तथा यातायात के साधनों आदि जैसे उत्पादक सम्पत्ति पर कुछ अंश तक सामाजिक नियंत्रण के हिमायती थे। ये समाजवादी संपत्ति के मालिकों के पास इतनी अधिक आर्थिक शक्ति के होने, श्रमिकों को काम देने या न देने की क्षमता, पारिश्रमिक तथा काम के घंटों को अपने हित के अनुसार तय करने की शक्ति समाज के समस्त श्रम को निजी उद्योग के हित के लिए निर्देशित करने की शक्ति आदि को अनुचित मानते थे।

अनियंत्रित प्रतियोगितावाली व्यवस्था में प्रायः ही उत्पन्न होने वाले व्यापक पैमाने पर बेरोजगारी एवं अन्य संकटों को ओर भी समाजवादी लेखकों ने ध्यान आकर्षित किया।

इस व्यवस्था की मूल त्रुटि क्या थी ? आदर्शवादियों ने इसका कोई एक-समान उत्तर प्रस्तुत नहीं किया। लेकिन, वे प्रायः इस विचार के समर्थक थे कि अत्यधिक व्यक्तिवाद और स्वार्थपरता पूँजीवाद को मुख्य विशेषताएँ हैं और इनका निराकरण आवश्यक है। इनकी जगह इन्होंने सहयोग पर आधृत एक सामाजिक संगठन की व्यवस्था प्रस्तावित को। ऐसे समाजवादियों की श्रेणी में ओवन, साइमन, लुई ब्लां आदि थे। रॉबर्ट ओवन (Robert Owen) इंग्लैण्ड के एक साधारण परिवार से आगे बढ़कर उद्योगपति बना था। उसने मजदूरों के लिए अनेकानेक कल्याणकारी काम किए, उनका पारिश्रमिक बढ़ाया, काम के घंटे कम किए, फिर भी उत्पादन बढ़ता चला गया। फ्रांस का सेट साइमन (Saint Simon) और उसके शिष्य एक नियोजित समाज के प्रथम स्पष्ट प्रवर्तकों में थे। चार्ल्स फाउरिए (Charies Marie Fourier) एक दूसरे प्रकार का समाजवादी था। सेंट साइमन ने वैज्ञानिकों और इंजीनियरों द्वारा संचालित एक सहकारी राज्य की कल्पना की और फाउरिए ने समाज को सहकारी समुदायों में संगठित करने की योजना प्रस्तुत की।

1840 ई० के बाद लुई ब्लां (Louis Blanc) फ्रांस का सबसे बड़ा प्रभावशाली समाजवादी विचारक और नेता था। उसने बुर्जुआ वर्ग द्वारा श्रमिकों के शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई, श्रमिकों के लिए ‘राष्ट्रीय कर्मशालाओं (national workshops) की मांग की। उसका विचार था कि ये राष्ट्रीय कर्मशालाएँ अंतत: एक संपूर्ण सहयोगी समाज का केंद्र बन जाएगी।

लुई ब्लां के समकालीन समाजवादियों में कवेल लुई ब्लां का ही प्रभाव तत्कालीन समाज पर कुछ पड़ सका । इस्लिए कहा जाता है कि ये सारे समाजवादी कल्पना की दुनिया में रहते थे और समय के पहले अवैज्ञानिक ढंग से समाजवादी विचार के पोषक थे, जिसके चलते यूरोपीय जनता को उनके विचार ग्राह्य नहीं हो सके । फिर भी, उस समय के समाजवादियों ने वर्ग-विभाजनों और सामाजिक वर्गों की महत्ता को पहचाना और औद्योगिक समाज के विभिन्न वर्ग हितों की ओर इशारा भी किया। साथ ही, वे यह अनुभव करते थे कि अपने नागरिकों के भौतिक कल्याण के लिए राज्य की कुछ जिम्मेदारियाँ थीं और समाज की दशा में सुधार करना सरकार का सर्वप्रमुख कर्तव्य था।

वैज्ञानिक समाजवाद (Scientific Socialism)

आधुनिक समाजवाद के जन्मदाता मार्क्स (Karl Mar) और एंजल्स (Friedrich Engles) थे। ये दोनों जर्मनी थे और उन्होंने ही समकालीन साहित्य का अध्ययन कर सर्वप्रथम वैज्ञानिक ढंग से समाजवादी विचारधारा का प्रतिपादन किया। आजकल साम्यवाद निश्चित रूप से प्रायः समाजवाद का पर्याय बन गया है। इस शब्द का प्रयोग मार्क्स और एंजल्स ने किया। वैज्ञानिक समाजवाद का सर्वप्रथम उदय जनवरी 1848 ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र (Communist Manifesto) नामक एक पुस्तक के प्रकाशन के साथ हुआ। इसके लेखक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजल्स थे। ये दोनों पहले-पहल 1848 ई० में पेरिस में मिले और तबसे उन्होंने विचारों और लेखन में सहयोग आरंभ किया, जो चालीस वर्षों तक चला। 1847 ई० में वे कम्युनिस्ट लीग (Communist League) में सम्मिलित हुए। यद्यपि जनवरी, 1848 में प्रकाशित कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने किसी का भी ध्यान तत्काल आकर्षित नहीं किया और उस वर्ष हुए उथल-पुथल पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा तथापि कम्युनिस्ट लीग के सदस्यों ने 1848 ई० की क्रांतियों में प्रमुख रूप से भाग लिया। इन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की मांगों की सूची प्रस्तुत की जिसमें बैंकों, रेलपथ नहरों, खानों इत्यादि का सरकारीकरण तथा व्यापक पैमाने पर सामूहिक खेती की मांग की गई थी। इन मांगों से फ्रैंकफुर्ट एसेंबली चिंतित हुई और जर्मनी में प्रतिक्रांति की सफलता के साथ कम्युनिस्ट लीग को कुचल दिया गया। एंजल्स मैनचेस्टर चला गया और मार्क्स लंदन में बस गया तथा वहाँ उसने अपना शेष जीवन ब्रिटिश म्यूजियम में अध्ययन-कार्य में बिताया। वहीं पर उसने दास कैपिटल (Das Capital) की रचना की। इसके प्रथम खंड का प्रकाशन 1867 ई० में हुआ और शेष दो खंडों का प्रकाशन उसकी मृत्यु के पश्चात हुआ।

मार्क्सवादी विचार (Marxist Thoughts)

कार्ल मार्क्स और फ्रेडिरक एंजल्स ने जिस विचारधारा का प्रतिपादन किया उसे मार्क्सवादी विचारधारा कहा जाता है। यह विचारधारा तत्कालीन जर्मनी की आर्थिक स्थिति से उपजी थी । जर्मनी के उद्योगीकरण के साथ-साथ जर्मन मजदूरों का शोषण बढ़ने लगा था। उन दिनों राष्ट्रीय आय का अपेक्षाकृत बहुत छोटा अंश ही श्रमिकों को प्राप्त होता था। सरकार और संसदीय संस्थाएं संपत्तिशाली वर्गों के हाथ में रहती थी। निम्नवर्ग को व्यवस्थित रखने के लिए धर्म की आवश्यकता सामान्यतः सभी को मान्य थी। चर्च गरीबों को सिखाता था कि उन्हें धैर्यवान होना चाहिए। महिलाओं तथा बच्चों की नियुक्तियों द्वारा उनका शोषण तथा अस्वास्थ्यकर आवासों में अत्यधिक भीड़ के कारण नगरों के श्रमिकों के परिवार का बिखरना आदि सभी तथ्यों को कम्युनिस्ट घोषणापत्र में वर्णित किया गया था एवं नाटकीयता प्रदान की गई थी। इसमें बताया गया था कि कैसे श्रमिक को स्वयं निर्मित संपत्ति से वंचित रखा जाता है। राज्य जनता के बुर्जुआ शोषण के लिए निर्मित की गई एक संस्था है; जनता को काल्पनिक स्वर्णिम सुख एवं पुरस्कार पाने का सपना चुपचाप देखते रहने की नीयत से दिया जाता है। ‘कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र’ में इस बात पर जोर दिया गया कि कामगारों को मात्र अपने वर्ग के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। “मजुदूरों का कोई देश नहीं होता। हर जगह उन्हें समान समस्याओं का सामना करना पड़ता है और हर जगह उनके समान् शत्रु हैं। अतः शासकवर्गों को एक साम्यवादी आंदोलन से भयातुर हो कापने दो। श्रमिकों को सिवा अपने बंधनों के कुछ भी नहीं खोना है। उन्हें एक विश्व जीतना है। हर देश के कामगारों एक हो।” इस प्रकार कम्युनिस्ट घोषणा-पत्र को घोषित बातें बहुत महत्वपूर्ण थीं।

कार्ल मार्क्स ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (dialectical materialism) के सिद्धांत के आधार पर मानव इतिहास में होने वाले परिवर्तनों एवं घटनाओं के विषय में यह विचार व्यक्त किया कि ये सभी परिवर्तन भौतिक या आर्थिक कारणों से होते हैं। अतः, उसका यह सिद्धांत ‘इतिहास को भौतिकवादी व्याख्या (materialistic interpretation कहलाता है। मार्क्स का कहना था कि इतिहास एक तार्किक तथा क्रमबद्ध विकास है। समाज की विभिन्न संस्थाओं का विकास भौतिक अवस्था में परिवर्तन के कारण, अर्थात् उत्पादन और वितरण के तरीकों में परिवर्तन के कारण हुआ है। जब इस प्रणाली में परिवर्तन हो जाता है तो उसके साथ ही सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं में भी परिवर्तन होते हैं। इस सिद्धांत के आधार पर इतिहास को चार युगों में विभाजित किया गया है। प्रथम प्राथमिक साम्यवाद का युग’ था, जिसमें कोई वैयक्तिक संपत्ति नहीं थी। वैयक्तिक संपत्ति के जन्म के बाद दूसरे युग का आरंभ हुआ। यह इतिहास का ‘दास युग’ था। इस युग में आर्थिक आधार पर समाज दो वर्गों में विभक्त हो गया। एक वर्ग स्वामियों का और दूसरा गुलामों का था। इसके बाद ‘सामंती युग’ आया, जिसमें समाज सामंत और कृषक वर्गों में विभक्त रहा। इस युग के बाद पूंजीवादी युग’ आया, जिसमें दो वर्ग है-पूँजीवादी वर्ग और श्रमिक वर्ग।

मार्क्स के चिंतन का मूलाधार वर्ग-संघर्ष (class-conflict) का सिद्धांत है। उसके अनुसार समस्त समाज का विकास वर्ग-संघर्ष के द्वारा ही होता है। प्रत्येक युग में दो वर्ग होते हैं, जिनमें एक आर्थिक साधनों का स्वामी होता है और दूसरा उसका आश्रित होता है। इन दोनों वर्गों के हित परस्पर विरोधी होते हैं। अतः, उनमें निरंतर संघर्ष चलता रहता है। मार्क्स के अनुसार, बुर्जुआ और श्रमिक एक विश्वव्यापी संघर्ष में संलग्न थे। यह वास्तव में एक युद्ध था और जैसा कि अन्य सभी युद्धों में होता है, इसमें अन्य सभी बातें गौण पड़ जाती हैं। सामाजिक शांति की अवधियाँ वास्तविक शांति को नहीं होती, वे मात्र युद्ध के बीच विराम-संधि की अवधियाँ होती हैं। अतः, कामगारों को चाहिए कि वे हमेशा संघर्षात्मक तथा क्रांतिकारी मनोदशा में रहे । श्रमिकों को संघर्ष करते रहने के अपने प्राथमिक दायित्व को भूलने नहीं दिया जाना चाहिए। उन्हें यह कभी नहीं भूलना चाहिए की उनको काम देनेवाला उन्का वर्गशत्रु है और सरकार, कानून, नैतिकता और धर्म उसके विरुद्ध प्रयुक्त किए जानेवाले गोला-बारूद हैं। नैतिकता बुर्जुआई नैतिकता है, कानून बुर्जुआई कानून है, सरकार वर्ग-शक्ति का एक यंत्र और धर्म मनोवैज्ञानिक युद्ध का एक रूप है-धर्म श्रमिकों को ‘अफीम’ (opium) देने का एक साधन है। श्रमिक अपने को मूर्ख नहीं बनने देना है। सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थाओं और विश्वासों में अंतर्निहित वर्ग-हितों को पहचानने की क्षमता उसे अपने अंदर उत्पन्न करनी चाहिए। युद्ध करनेवाली सभी शक्तियों की तरह श्रमिकों को भी एक अनुशासित एकता की आवश्यकता है। व्यक्ति को अपने वर्ग में पूर्णरूपेण विलीन कर देना होगा। एक श्रमिक के लिए अपनी व्यक्तिगत स्थिति उन्नत का श्रमिकवर्ग से ऊपर उठना अपने वर्ग को धोखा देने के समान होगा। श्रमिक संगठनों के लिए मालिकों के साथ विचार-विमर्श कर मात्र अच्ण पारिश्रमिक प्राप्त कर लेना खतरनाक होता है; क्योंकि ऐसी छोटी उपलब्धियों से स्वयं संघर्ष को भूल जाने का खतरा रहता है। इसी प्रकार श्रमिकों के लिए राज्य में विश्वास कर लेना तथा प्रजातांत्रिक यंत्र अथवा सामाजिक कानूनों से संतुष्ट हो जाना न केवल खतरनाक है, वरन धोखेबाजी से भरा है। राज्य-जो दमन का एक यंत्र है-को कभी कल्याण करनेवाले एक यंत्र का रूप नहीं दिया जा सकता।

मार्क्सवादी विचारधारा आदर्शवादी विचारधारा से बिल्कुल हटकर थी। मार्क्सवादी सिद्धांत का नैतिक सिद्धांत से कोई लगाव न था, जबकि आदर्शवादी समाजवाद का आधार नैतिक सिद्धांत हो था। फिर मार्क्सवाद पूर्णतः वैज्ञानिक था, जो केवल वास्तविक तथ्यों पर आधृत था। इसने यह दर्शाया कि समाजवाद एक आश्चर्यजनक प्रत्यावर्तन नहीं होगा, वरन् जो वास्तव में घटित हो रहा है, उसी के जारी रहने की ऐतिहासिक प्रक्रिया होगी। इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के पूर्ण होते ही एक वर्गहीन समाज की स्थापना होगी और अंततः राज्य विलुप्त (wither away) हो जाएगा।

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