इतिहास

जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क का योगदान | Bismarck’s contribution to the unification of Germany in Hindi

जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क का योगदान | Bismarck’s contribution to the unification of Germany in Hindi

जर्मनी के एकीकरण में बिस्मार्क का योगदान

(Contribution of Bismark)

(1) बिस्मार्क का परिचय- विस्मार्क का पूरा नाम आटो-वॉन बिस्मार्क था। उसका जन्म व्रेण्डनवर्ग के एक कुलीन जागीरदार के परिवार में हुआ था। उसके रक्त में उच्च कुल की प्रवृत्तियों के संस्कार तैरते थे। उसकी शिक्षा गोडिन्जन तथा बर्लिन विश्वविद्यालयों में हुई थी। वह अपना अधिक समय मलयुद्ध करने तथा उदण्डता के कार्य करने में बिताया करता था। कोई नहीं जानता था कि इस प्रकार के अटपटे स्वभाव वाला व्यक्ति अपने युग का एक महान व्यक्ति बनेगा।

शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् वह प्रशा के न्याय विभाग में नियुक्त हुआ। परन्तु उसे राज्य कर्मचारी बन्ने से घृणा थी। वह कहा करता था, कलम हाथ में लिए व्यक्ति पशु हैं। कुछ दिनों के बाद उसने नौकरी छोड़ दी और पिता की जागीर देखने लगा। आठ वर्ष तक उसने इस कार्य को किया। इस बीच उसने अच्छा अनुभव प्राप्त किया। सन् 1847 ई० में उसने राजनीति में प्रवेश किया। वह प्रशियन डाइट का सदस्य निर्वाचित हो गया। 1859 में वह सेण्ट पीटर्सवर्ग में राजदूत बनाकर भेजा गया। इसी पद पर उस  फ्रांस भी जाने का अवसर मिला।

फ्रांकफर्ट की पार्लियामेंट की सदस्यता के काल में उसने उदारवाद तथा क्रांति का घोर विरोध किया। वह विधान को एक कागज का टुकड़ा बताता था। वह सदा सम्राट को उदारवादी विचारों से बचाये रखता था। उसे राज-पद पर बहुत विश्वास था। उसने एक बार कहा था, “मैं आपके साथ नष्ट होना पसन्द करूँगा पर कभी आपको उदारवादियों के संघर्ष में अकेला नहीं छोडूंगा।

(2) विस्मार्क का प्रधानमन्त्री पद- उसने असीम राजभक्ति देखकर सन् 1862 में प्रशिया के राजा विलियम प्रथम बिस्मार्क को अपना प्रधानमन्त्री बनाया। उस समय संसद के साथ राजा का मतभेद चल रहा था। राजा की इच्छा सेना को सुदृढ़ तथा शक्तिशाली बनाने की थी। परन्तु इस कार्य के लिए संसद धन देना नहीं चाहती थी। राजा ने एक बार संसद के निचले सदन को भंग कर दिया तथा फिर से निर्वाचन कराए। परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। नए निर्वाचन में जो सदन बना उसमें प्रगतिशील दल (Progressive Party) का बहुमत रहा। यह सद्न राजा की सैनिक नीति का विरोध करना चाहता था। ऐसी दशा में राजा ने राजगद्दी छोड़ने का निश्चय किया, परन्तु सेनापति रून ने उसे परामर्श दिया कि एक बार वह विस्मार्क को प्रधानमन्त्री नियुक्त को क्योंकि बिस्मार्क समस्या को हल करने में आपकी पूर्ण सहायता करेगा। राजा ने बिस्मार्क को प्रधानमन्त्री बनाया। इसके पश्चात् उसे सिंहासन छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ी।

(3) राष्ट्रवादी भावना- बिस्मार्क राष्ट्रवादी भावना का पोषक था। वह जर्मनी को एक रूप में देखना चाहता था, परन्तु उसके अन्दर लोकतन्त्र के विचार नहीं थे। वह जनता की शक्ति में विश्वास नहीं करता था। उसे राजा तथा सेना की शक्ति में विश्वास था। अपनी नीति की घोषणा करते हुए उसने प्रशिया की संसद में कहा था, “महत्वपूर्ण प्रश्नों का निर्णय वाद-विवादों तथा जनता के बहुमतों से नहीं होता है- सन् 1848 और 1849 में यही गलती की गई थी। ऐसे प्रश्नों का निर्णय खून और तलवार से होता है।

बिस्मार्क ने अपने सामने एक स्पष्ट लक्ष्य रखा था-उसे हर दशा में जर्मनी को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाना है। वह इस कार्य के लिए युद्धों द्वारा सहमति के पक्ष में था तथा उससे ही पूर्ण करना चाहता था। उसके मार्ग में अनेक बाधायें थीं-जैसे आस्ट्रिया, फ्रांस तथा रूस को शक्ति को बाधाएँ। प्रशिया की शक्ति इन तीनों में प्रत्येक से कम थी। वे इस बात के लिए कभी तैयार नहीं होते कि प्रशिया के नेतृत्व में जर्मनी एक संगठित व शक्तिशाली राष्ट्र बने। जिस्मार्क का कार्य बहुत कठिन था, परन्तु उसने अपनी सूझ-बूझ तथा सुदृढ़ नीति के द्वारा उस कार्य को पूरा करके दिखा दिया।

(4) संसद की उपेक्षा- प्रारम्भ में बिस्मार्क ने इस बात का प्रयल किया कि संसद से समझौता हो जाये। परन्तु जब ऐसा नहीं हो सका तो उसने संसद् की उपेक्षा कर दी। ऐसी स्थिति आ गई कि लगने लगा कि संसद् है ही नहीं। संसद् से बजट पारित किए बिना ही उसने चार वर्ष तक काम चलाया। इसी मध्य उसने सेना को शक्तिशाली बनाने के लिए हर सम्भव उपाय किए। वह जनता था कि संसद में जिन लोगों का बहुमत है, उनके पास केवल बोलने की शक्ति है, वे क्रांति को प्रायोगिक रूप देने के बारे में कुछ जानते हैं। वह यह भी जानता था कि देश की जनता उन्हें सक्रिय सहयोग कभी नहीं देगी। वह क्रांति के प्रत्येक प्रयल को सेना की शक्ति से दबा देने की क्षमता रखता था।

(5) तीन युद्ध- जब बिस्मार्क ने सेना को शक्तिशाली बना लिया तो जर्मनी के एकीकरण के लिए तीन युद्ध किए-(1) डेनमार्क से युद्ध, (2) आस्ट्रिया से युद्ध तथा (3) फ्रांस से युद्ध । तीनों युद्धों में प्रशा की प्रशिक्षित सेना ने तो वीरता दिखायी ही, परन्तु विस्मार्क को कुशल नीति ने यूरोप के राष्ट्रों को चकित कर दिया। उसने अपनी नीति द्वारा तीनों युद्धों से पहले परिस्थितियों को अपने अनुकूल बना लिया ताकि असफलता की कोई सम्भावना न रहे। उसे तीनों युद्धों में अपूर्व सफलता मिली। युद्धों का अध्ययन निम्नवत् है-

(i) डेनमार्क से युद्ध- डेनमार्क से युद्ध करने के लिए उसने ‘श्लेस्विग’ तथा ‘होल्सटीन के प्रश्नों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया। इन प्रश्नों के कारण उसने आस्ट्रिया को बड़ी कूटनीति से अपने पक्ष में कर लिया। आस्ट्रिया ने उसका साथ दिया, क्योंकि वह जर्मनी के अधिकारों की रक्षा के लिए तत्पर था। डेनमार्क एक छोटा सा देश था, अत: वह आस्ट्रिया तथा प्रशा दो देशों की सेनाओं का सामना करने में असमर्थ रहा। उसने विवश होकर श्लेस्विग तथा होल्सटीन दोनों राज्य आस्ट्रिया तथा प्रशिया को संयुक्त रूप से दे दिए।

अब बिस्मार्क आस्ट्रिया को भी नीचा दिखाना चाहता था। जर्मनी में प्रशा चाहता था कि आस्ट्रिया भी अपने हाथ-पाँव चलाये। जब तक बिस्मार्क ने अपनी पूर्ण तैयारी नहीं कर ली तब तक उसने श्लेविग तथा होल्सटीन के राज्यों का शासन आस्ट्रिया तथा प्रशा की देखरेख में ही होने दिया। इस बीच उसने रूस तथा फ्रांस को तैयार कर लिया कि यदि भविष्य में आस्ट्रिया से युद्ध छिड़ जाये तो उन दोनों महान् राष्ट्रों को तटस्था रहना चाहिये। सन् 1863 में पौलैंड ने जब रूस के विरुद्ध विद्रोह कर दिया तो बिस्मार्क ने रूस की सहायता करने की इच्छा प्रकट की, परन्तु रूस इसके लिए तैयार नहीं हुआ। फिर भी रूस का रूख प्रशिया की ओर से अनुकूल हो गया।

(ii) आस्ट्रिया से युद्ध- सन् 1866 ई० में आस्ट्रिया-प्रशा में युद्ध छिड़ गया। प्रशा ने अपने पराक्रम से आस्ट्रिया को सात सप्ताह में ही हरा दिया। उसके बाद उसने सन्धि कर ली। उसने ऐसा अवसर ही नहीं दिया जिससे रूस और फ्रांस बीच में कूद पड़े। इसमें बिस्मार्क ने भारी कूटनीति से विजय पाई।

(iii) उत्तर-जर्मन परिसंघ- आस्ट्रिया को हराने के पश्चात् बिस्मार्क ने उत्तरी जर्मनी के राज्यों को धूल चटाकर उन्हें सीधे अपने राज्य में सम्मिलित कर कर लिया। शेष राज्यों का उसने एक उत्तर जर्मन परिसंघ बनाया। इस प्रकार जर्मनी के एकीकारण का कार्य शुरू हो गया। अभी दक्षिणी जर्मनी के राज्यों को एक करने का कार्य शेष था। इस कार्य को सम्पन्न तभी किया जा सकता था जब फ्रांस की शक्ति को नीचा दिखाया जाये। अब प्रशिया की सैन्य-शक्ति पहले से अधिक थी।

(iv) फ्रांस से युद्ध- बिस्मार्क इस तथ्य को भली-भाँति जानता था कि यदि उसे सम्पूर्ण जर्मनी को एक राष्ट्र के रूप में परिवर्तित करना है तो फ्रांस से अवश्य लड़ना पड़ेगा। वह गुप्त रूप से इसके लिए तैयारी करता रहा । फ्रांस का सम्राट बिस्मार्क के समान कूटनीतिज्ञ नहीं था। अत: बिस्मार्क ने एसी चाल चली कि नेपोलियन तृतीय को ही युद्ध की घोषणा करनी पड़ी- असल में उसने अपनी कूटनीति द्वारा नेपोलियन तृतीय को भड़का दिया जिससे वह शीघ्र ही युद्धाग्नि में कूद पड़ा। इसके फलस्वरूप यूरोप में नेपोलियन तृतीय आक्रमणकारी तथा साम्राज्यवादी समझा गया। प्रशिया को आक्रमण का शिकारी समझा गया। अब प्रशा की प्रशिक्षित सेना ने फ्रांस को सरलतापूर्वक हरा दिया।

(v) दक्षिण-जर्मनी का एकीकरण-फ्रांस को हराने के पश्चात् दक्षिणी जर्मनी के राज्यों को बिस्मार्क ने उत्तरी जर्मनी संघ तथा प्रशिया के साथ मिलाकर एक ‘जर्मन साम्राज्य’ बनाया। विलियम प्रथम को इस जर्मन साम्राज्य का सम्राट घोषित किया गया। इस प्रकार ‘संयुक्त जर्मनी’ पर प्रशिया का शासन स्थापित हो गया।

निष्कर्ष (Conclusion)

अन्त में हमको यह स्वीकार करना पड़ेगा कि बिस्मार्क ने अपने महान व्यक्तित्व द्वारा इस महान् कार्य में सफलता प्राप्त की। उसने जर्मनी के नाम पर अपने को एक अमर पुत्र बनाया। वह सदा कहा करता था कि “हम प्रशियन हैं और सदा प्रशियन रहेंगे। उसके इन शब्दों में प्रशा के प्रति श्रद्धा झलकती है। उसने अपने बल और बुद्धि द्वारा जर्मनी के एकीकरण में सफलता प्राप्त की। उसने इस कथन को चरितार्थ किया कि युद्ध के अतिरिक्त कदाचित् ही राष्ट्रों का जन्म होता है । (Nations are seldom born except on the battle)|

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Pankaja Singh

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