ग्रेट ब्रिटेन में उदारवाद | Liberalization in Britain in Hindi
ग्रेट ब्रिटेन में उदारवाद
19वीं शताब्दी से पहले इंग्लैण्ड एक पूर्ण गणतन्त्र देश नहीं था। यद्यपि यह सत्य है कि राजा की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगा दिये थे और संसद की बैठकें नियमित ढंग से होती थीं, तथापि इंग्लैण्ड केवल एक शिष्ट जनसत्तात्मक राज्य था। शासन और संसद् में वर्ग के लोग नहीं पहुंच सकते थे। निर्वाचन का तरीका दोषपूर्ण था। जनता पर धनवानों और भू-स्वामियों का प्रभुत्व था। मताधिकार अत्यन्त सीमित था। केवल अधिक सम्पत्तिवान लोग ही मतदान के अधिकारी होते थे। इन दोषों के कारण संसद् को किसी भी स्थिति में जन प्रतिनिधि संस्था नहीं कहा जा सकता था। इन दोपों की ओर संकेत करते हुए एक इतिहासकार ने लिखा है-
“The House of Commons is not the true representation of the people of Great Britain. It is unconstitutional and founded on principle of either population intelligence or property.”
इन दोषों को दूर करने तथा भेट ब्रिटेन की संसद् को पूर्ण जनप्रतिनिधि संस्था बनाने के लिए समय-समय पर विभिन्न अधिनियम बनाये गये, जिनका विवरण निम्न प्रकार है-
(1) सन् 1832 का प्रथम सुधार अधिनियम-
यह अधिनियम देश के व्यापक जन असन्तोष को दूर करने के उद्देश्य से पारित किया गया था। इसके माध्यम से निर्वाचन क्षेत्रों तथा मताधिकार से सम्बन्धित दोषों को दूर करने का प्रयास किया गया था। दो हजार से अधिक किन्तु चार हजार से कम जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों को दो के स्थान पर एक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया। इस प्रकार कुल मिलाकर 143 स्थान रिक्त हो गये इनका पुनर्वितरण किया गया। सन 1832 से पहले हाउस ऑफ कॉमन्स के 658 सदस्यों में से 513 इंग्लैण्ड से, 100 आयरलैण्ड तथा 42 स्कॉटलैण्ड से निर्वाचित होते थे। किन्तु इस अधिनियम के द्वारा की गई परिवर्तित स्थिति इस प्रकार थी-
इंग्लैण्ड (100), स्कॉटलैण्ड (53) तथा आयरलैण्ड (105) ।
मतदाताओं की संख्या में वृद्धि करने के उद्देश्य से मताधिकार योग्यता में भी छूट प्रदान की गई। नगर निर्वाचन क्षेत्रों में प्रत्येक मकान मालिक तथा दस पौण्ड वार्षिक किराया देने वाले किरायेदारों को मताधिकार दिया। प्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों में 50 पौण्ड लगान देने वाले बीस वर्षीय पट्टेदारों को तथा वार्षिक लगान देने वाले जमींदारों को मतदान सूची में सम्मिलित किया गया।
1832 के अधिनियम का इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में बहुत महत्व है। इसके फलस्वरूप हाउस ऑफ़ कॉमन्स को जन प्रतिनिधि संस्था के 1/24 भाग को मताधिकार प्राप्त हो गया। परिवर्तन के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गई। हाउस ऑफ लॉर्डस की शक्तियों पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास किया गया । इतिहासकार मेरियट (Marriat) के अनुसार-
“इस अधिनियम के पारित होने के साथ ही सम्राट ने लाडों की मृत्यु के वारण्ट पर हस्ताक्षर किये तथा स्वयं सम्राट को भी अपनी शक्ति की सीमाओं का पहली बार अनुभव हुआ था।”
(2) 1867 का द्वितीय सुधार नियम-
सन् 1832 का सुधार अधिनियम महत्वपूर्ण होते भी दोषमुक्त नहीं था। देश के खेतिहर मजदूरों और श्रमिकों को मताधिकार नहीं दिया गया था। अतः उन्होंने चार्टिस्ट आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन में मताधिकार विस्तार, सत्पत्ति योग्यता का अन्त गुप्त मतदान, संसद सदस्यों का वेतन, संसद का वार्षिक अधिवेशन तथा प्रत्येक क्षेत्र में समान निर्वाचनों प्रणाली आदि से सम्बन्धित मांगों को प्रमुख स्थान दिया गया था। किन्तु कतिपय कारणों से यह आन्दोलन अपने-अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सका। सन् 1865 में लार्ड पामटन की मृत्यु के पश्चात् एक बार पुनः सुधार आन्दोलन को गति मिली । फलस्वरूप सरकार ने सन् 1867 में द्वितीय सुधार नियम पारित किया।
इस अधिनियम के द्वारा लन्दन तथा स्कॉटलैण्ड विश्वविद्यालयों को संसद में प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दे दिया गया। 20 हजार से कम जनसंख्या वाले निर्वाचन क्षेत्रों को समाप्त कर दिया गया। लीड्स, बरमिंघम लिवरपूल मैनचेस्टर जैसे बड़े नगरों को प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दे दिया। ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्रों में बारह पौण्ड लगान देने वाले किसानों तथा नगर क्षेत्रों में सभी मकान मालिकों एवं दस पौण्ड वार्षिक किराया देने वालों को मतदाता सूची में सम्मिलित कर लिया गया। आयरलैण्ड में 4 पौण्डवार्षिक कर देने वाले स्कॉटलैण्ड के सभी करदाताओं को मतदाता बना दिया गया। इस प्रकार दस लाख नवीन व्यक्तियों को मताधिकार दिया गया। अब देश की कुल जनसंख्या का 1/12 भाग इस सुविधा का प्रयोग करने का अधिकारी हो गया। एक इतिहासकार के शब्दों में-
“1867 का सुधार अधिनियम पूर्ववर्ती अधिनियम (1832) की तुलना में अधिक क्रान्तिकारी था, उसने मताधिकार का विस्तार करके राजनीतिक जनतन्त्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया था।”
(3) सन् 1911का संसदीय अधिनियम-
उपरोक्त दोनों अधिनियमों के द्वारा मताधिकार तथा निर्वाचन क्षेत्रों के सम्बन्ध में क्रान्तिकारी सुधार किये गये थे, किन्तु इन अधिनियमों को पारित करने में हाउस ऑफ लार्ड्स ने अनेकों बाधाएँ उपस्थित की थीं। वस्तुत: देश के लॉर्ड्स इन सुधारों के कट्टर विरोधी थे। वे संसद पर लॉर्ड सभा का प्रभुत्व कायम रखना चाहते थे। उनका मुख्य कार्य जनहितकारी कार्यों का विरोध करना होता था। इसलिए लॉर्ड सभा की शक्तियों पर अंकुश लगाने की माँग पूरे देश में उठने लगी। इसी मांग के फलस्वरूप सरकार ने सन् 1911 में संसद अधिनियम पारित किया था।
इस अधिनियम के द्वारा किसी विधेयक पर स्वीकृति देने अथवा संशोधन करने का लार्ड सभा का अधिकार छीन लिया गया। आर्थिक प्रस्ताव लगातार तीन बार कॉमन्स सभा द्वारा पास करने पर सम्राट की स्वीकृति से कानून बन सकता था। इसके लिये लार्ड सभा की स्वीकृति से कानून बन सकता था। इसके लिये लार्ड सभा की स्वीकृति आवश्यक नहीं थी। कौन प्रस्ताव आर्थिक है ? इस प्रश्न का निर्णय करने का अधिकार कॉमन्स सभा के स्पीकर को प्रदान किया। संसद का कार्यकाल घटाकर पाँच वर्ष कर दिया गया। संसद के सदस्य को 400 पौण्ड वार्षिक देने की व्यवस्था की गई। इस अधिनियम के महत्व के विषय में इतिहासकार रेग्जे म्योर ने लिखा है कि-
“The Parliamentary Act of 1911 must be accounted as one of the most significant contribution eves made to be the British Constitution, which is mainly unwritten.”
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