मौर्यकालीन वास्तुकला | मौर्यकाल की वास्तुकला की विशेषताएँ | मौर्यकालीन वास्तुकला का विषय | मौर्यकालीन वास्तुकला के विषय क्षेत्र
मौर्यकालीन वास्तुकला
स्थापत्य कला के क्षेत्र में मौर्यकालीन कला के चार रूप परिलक्षित होते हैं-
(1) राज प्रासाद तथा भव्य भवन,
(2) गुफायें,
(3) स्तूप,
(4) स्तम्भ या लाट।
मौर्यकाल में मौर्य शासकों के द्वारा अनेक भव्य-भवनों का निर्माण कराया गया। इन भवनों में विशाल कमरे बने हुए तथा उनके स्तम्भों के ऊपर सोने-चाँदी की पालिश तथा विभिन्न मनोरम आकृतियों का चित्रण किया गया था। अशोक के द्वारा निर्मित राजमहल को देखकर तात्कालिक चीनी यात्री फाह्यान ने लिखा है- “ऐसा प्रतीत होता है, जैसे यह राजमहल मनुष्यों द्वारा निर्मित न होकर प्रेतात्माओं के द्वारा निर्मित हो।’ मौर्य सम्राटों ने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाकर उसको मिस्तर संवारने और सजाने का प्रयास किया था। पाटलिपुत्र को देखकर सेल्यूकस ने लिखा है-“भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ नगर पाश्चात्य देशों में पाटलिपुत्र कहलाता है। वह गंगा और सोन नदियों के तट पर स्थित है। इन नगरी की बस्ती की लम्बाई लगभग 15 मील और चौड़ाई 3 मील है। यह नगरी समानान्तर चतुर्भुज की शक्ल में बनी है। इसके चारों ओर लकड़ी की एक प्राचीर है, जिसके बीच में तीर छोड़ने के छिद्र बने हैं, दीवार के साथ चारों तरफ एक खाई है जो रण के निमित्त और शहर के मैला बहाने के काम आती है। यह गहराई में 45 फीट और चौड़ाई में 600 फीट है।
शहर के चारों ओर की प्राचीर 500 बुजों से सुशोभित है और उसमें 64 द्वार बने हैं।” राजप्रासाद एवं अनेक भव्य भवनों के अतिरिक्त मौर्य सम्राटों ने धार्मिक भावनाओं से प्रेरित होकर, अनेक गुफाओं एवं स्तूपों का भी निर्माण कराया। गुफाओं का निर्माण बौद्ध भिक्षुओं के निवास हेतु कराया गया था। सम्राट अशोक के द्वारा बारबरा व नागार्जुन की पहाड़ियों में शिलाओं को काटकर इस प्रकार की अनेक गुफायें निर्मित कराई गई, जो मौर्यकालीन कला के उत्कृष्ट नमूनों के रूप में आज भी विद्यमान है। बौद्ध सन्तों एवं महापुरुषों की अस्थियों पर, समाधि रूप में स्तूप बनवाने की परम्परा के अनन्तर सम्राट अशोक के द्वारा 84,000 स्तूप बनवाये गये थे, जिनके बाह्य भाग पर बौद्ध धर्म से सम्बन्धित चित्रों का सृजन हुआ था।
साँची का स्तूप इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है, जिसका व्यास लगभग 121 फीट तथा ऊंचाई 77 फीट है। 1873 में कनिंघम को भरहुत में भी एक विशाल स्तूप के अवशेष प्राप्त हुए, जिसकी दीवारों पर उत्कीर्ण बौद्ध-धर्म पर आधारित गाथायें चित्रकला की श्रेष्ठता का प्रमाण प्रस्तुत करती है। इसके अतिरिक्त मौर्य- सम्राटों द्वारा निर्मित स्तम्भ एवं लाट भी मौर्यकालीन कला के अद्वितीय उदाहरण हैं। इसके सम्बन्ध में इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है-“स्तम्भों का निर्माण, उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना, तथा उनकी स्थापना एक प्रबल प्रमाण है कि अशोक कालीन कलाकार तथा इन्जीनियर किसी भी अन्य देश के कलाकारों से शिल्पकला तथा साधनों में कम नहीं थे।”
विशेषकर सम्राट अशोक द्वारा निर्मित इन स्तम्भों तथा लाटों में सारनाथ का स्तम्भ जगतप्रसिद्ध है, जिसके शीर्ष पर चार सिंहों की भव्य मूर्तियाँ बनी हैं। इन सिंह मूर्तियों की भव्यता के सम्बन्ध में डा० सत्यकेतु विद्यालंकार ने लिखा है- “सिंह की चार मूर्तियाँ हैं। मूर्तिकला की दृष्टि से इनमें कोई भी शून्यता या दोष नहीं हैं। पहले इन मूर्तियों की आँखें मणियुक्त थीं, अब उनमें मणियां नहीं हैं : सिंह को चार मूर्तियों के नीचे चार चक्र के मध्य हाथी, सांड़, अश्व और शेर अंकित हैं। इन चक्रों तथा प्राणियों को चलती हुई दशा में बनाया गया है।” विसेट स्मिथ ने भी इन स्तम्भ एवं लाटों पर चित्रों एवं मूर्तियों से प्रभावित होकर लिखा है कि “संसार के किसी भी देश में इतनी सुन्दर, या इनकी समानता करने वाली पशुओं की मूर्तियों का अंकन कर पाना कठिन है। इनके अन्दर कल्पना तथा यथार्थता का सुन्दर व सफल सम्मिश्रण किया गया है और इनका प्रत्येक भाग दोषों से दूर है।”
मौर्यकाल की वास्तुकला की विशेषताएँ
निम्नलिखित विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं-
(1) लकड़ी का प्रयोग- पूर्व मौर्यकालीन भारत तथा अशोक के शासनकाल से पूर्व मौर्यकालीन भवनों के निर्माण में लकड़ी का प्रयोग होता था। पूर्वी भारत में मकान तथा भवन लकड़ी के बना करते थे। मेगस्थनीज के लेखों से कथन सत्य सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त खुदाई में चन्द्रगुप्त मौर्य तथा सम्राट अशोक के जो ध्वंसावशेष प्राप्त हुए हैं वे भी कथन को सही सिद्ध करने में बड़ी सहायता करते हैं। मौर्यकालीन भवनों की छतें तथा अन्य अङ्ग भी लकड़ी के बनते थे। भवनों के बनाने के लिए पत्थरों का प्रयोग उस समय से आरम्भ हुआ जब अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। पत्थर का प्रयोग मौर्यकालीन भवनों की एक विशेषता कही जाती है।
(2) स्तम्भों का सहारा- मौर्यकालीन भवनों में डाट या मेहराब का अभाव था। इसके स्थान पर ऊपर के भार को संभालने के लिए स्तम्भों का सहारा लिया जाता था। अतः मौर्यकालीन वास्तुकला की यह एक विशेषता कही जाती है।
(3) अलंकरण के स्थान पर उपयोगिता को महत्त्व दिया- मौर्यकालीन भवन सादा था। उन पर सजावट नहीं होती थी क्योंकि अलंकरण के स्थान पर उपयोगिता पर इस काल में अधिक बल दिया जाता था। अतः यह बात भी मौर्यकालीन वास्तुकला की एक विशेषता है।
(4) विदेशी प्रभाव का होना तथा कोई परम्परा का न होना- इतिहास के कुछ विद्वानों का यह मत है कि मौर्य वास्तुकला से पीछे कोई परम्परा नहीं थी। परन्तु जब ध्यानपूर्वक इसकी परख करते हैं तो हमें यह बात सत्य नहीं प्रतीत होती है। ऋग्वेद से लेकर बौद्ध साहित्य तक ईट, मिट्टी तथा पत्थर या लकड़ी के बने मकानों का वर्णन मिलता है। मौर्यकाल में भी यही परम्परा बनी रही। डॉ० भंडारकर तथा पर्सी ब्राउन का मत है कि मौर्य वास्तुकला पर विदेशी प्रभाव है। यह सत्य है कि मौर्यकालीन तथा पारसीक कलाओं में हमें कुछ सीमाओं तक समानता के दर्शन होते हैं जैसे कि भवनों में विशाल स्तम्भों का इस्तेमाल तथा उनके समक्ष पशुओं आदि के मूर्ति रूप।
(5) एकांगी हैं- मौर्यकालीन वास्तुकला सम्राटों के संरक्षण में पनपी थी। इस कारण एकांगी है। इसमें जनता के सहयोग की झलक दिखाई नहीं देती है।
मौर्यकालीन वास्तुकला के विषय
मौर्यकालीन वास्तुकला के विषय निम्नलिखित है-
(1) नगर- मौर्यकालीन वास्तुकला का यह विषय हमें बड़ी उन्नत दशा में दिखाई देता है। इस विषय की प्रसंसा मेगस्थनीज ने भी अपने लेखों में की है। वह पाटलिपुत्र का वर्णन करते हुए लिखता है, “यह नगर गंगा तथा सोन नदियों के संगम पर बसा हुआ था।” कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में लिखा है, “सैनिक सुरक्षा के लिए नगरों को नदियों के संगम पर होना चाहिए।” इस सिद्धान्त को दृष्टि में रखते हुए पाटलिपुत्र को गंगा, सोन नदियों के संगम पर बसाया गया। वह आगे चलकर पाटलिपुत्र के विषय में लिखता है, ‘पाटलिपुत्र का आकार एक समानान्तर चतुर्भुज की शक्ल में था। यह नगर 9 मील लम्बा तथा 1.5 मील चौड़ा था। प्रायः समस्त प्रमुख नगरों के समान यह नगर भी लकड़ी की एक विशाल चहारदीवारी से घिरा हुआ था। जिसमें बहुत से छेद थे जिनसे बाहरी शत्रुओं पर बाण-वर्षा की जा सके।” इस दीवार में 570 बुर्ज तथा 64 फाटक थे। इनके चारों ओर गहरी खाई भी थी जिसमें पानी भरा रहता था। इसी चहारदीवारी के अन्दर चन्द्रगुप्त मौर्य का राजप्रासाद बना हुआ था जो एशिया के समस्त भवनों से अधिक सुन्दर था। भारत में इतना विशाल तथा सुन्दर भवन अब तक नहीं बना था। समय के अत्याचारी हाथों के कारण यह सुदर तथा विशाल महल मिटने से बच नहीं सका, अतः मिट कर मिट्टी में दब गया। यह ऐसा मिटा कि इसने अपना कोई निशान तक नहीं छोड़ा। जब पटना के बुलन्दी बाग में खुदाई हुई तो इसके ध्वंसावशेष अवश्य प्राप्त हुए हैं। उनको देखने से पता चलता है कि यह प्रासाद लकड़ी का बना हुआ था।
डॉ० स्पूनर के शब्दों में “Those who executed them would find little indeed to learn in the field of their won art, could they retum to earth today.” डांo स्पूनर
राजप्रासाद- राजप्रासाद का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग उसका हाल था जिसकी छत खम्भों के सहारे रोकी गयी थीं। इन खम्भों पर सोने-चाँदी का काम था। इन पर तरह-तरह के बेलबूटे तथा पक्षियों के चित्र भी थे। डॉ० स्पूनर का कथन भी हमारी बात को सत्य करने में बड़ी सहायता करता है।
“Each of them was clasped around with vines and embossed in gold omamented with design of birds and foliages in gold and silver thus excelling in magnificence the famous royal plaisances of susa and Ecbatna.”
खम्भों के सहारे छत को रोकने की प्रथा फारस की इमारतों में भी हमें देखने को मिलती है। अतः दोनों देशों की वास्तुकला में यह.परम्परा समान रूप से दिखाई देती है। ऐसा होना सम्भव भी है। इसी को आधार मानकर पर्सी ब्राउन ने कहा भी है, “चन्द्रगुप्त मौर्य के इस राजप्रासाद पर पारसिक प्रभाव है।” आधुनिक भारतीय इतिहासकार इस बात से सहमत नहीं हैं।
मौर्यकाल के राजप्रासाद में लकड़ी के जो जोड़ थे। उनको छोटी-छोटी खूटियों के द्वारा बनाया जाता था। लकड़ी के ऐसे जोड़ों में यदि कोई भाग खाली रह जाता था, तो उसको चूने से भर दिया जाता था। यह प्रथा पूर्णरूप से भारतीय थी। इस प्रथा का चलन हमें पारसिक भवनों में दिखाई नहीं देता था।
छतें- मौर्यकाल में भवनों की छतें निम्नलिखित दो प्रकार की बना करती थीं-
(i) गोलाकार बांसों तथा लट्ठों से बनी हुई अर्ध गोलाकार छतें – ऐसी छतों को अंग्रेजी में Vaulted roofs कहा जाता है।
(ii) सीधी शहतीरों से बनी हुई समतल छतें जो अंग्रेजी में Flat roofs कहलाती हैं।
सम्राट अशोक का राजप्रासाद-
सम्राट अशोक ने राजप्रासाद बनवाए। डॉ० स्पूनर ने पटना के पास कुमरहार में जो खुदाई की थी, उस खुदाई में अशोक के राजप्रासाद के ध्वंसावशेष मिले हैं जिनको देखने से यह कहा जा सकता है कि इस राजप्रासाद की गणना भी एशिया के सुन्दर भवनों में होती थी। इस राजप्रासाद के निर्माण के लगभग 700 वर्ष पश्चात् चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था, उसने इस भवन को अपनी सम्पूर्ण सुन्दरता के साथ देखा था। उसने इसके विषय में लिखा है-
“It was made by spirits who piled up the stones, reared the wall and gates and executed the elegant carying and in laids culpture work in away which no human hands of this “world could accomplish”. फाहियान
अर्थात् ऐसा सुन्दर प्रासाद मनुष्य नहीं बना सकता है। यह प्रासाद असुरों द्वारा बनाया गया है। सम्राट अशोक के राजप्रासाद में भी एक बड़ा हाल था जिसकी छत को रोकने के लिए 225 विशाल खम्भों का निर्माण हुआ था, यह स्तम्भ लकड़ी की आधार पीठिकाओं पर बने हुए थे। इनको पत्थरों से बनाया गया था जिन पर चमकदार पालिश की गयी थी। हमारे देश भारत ऐसे खम्भों के बनाने की परम्परा ऋग्वेद से भी पूर्व काल में प्रचलित थी। ऋग्वेद में 100 स्तम्भ वाले हाल का वर्णन है, जो हमारे इस कथन को सही सिद्ध करता है। भारत में पाषाण का इस्तेमाल अशोक के शासन से पूर्व भी हुआ करता था, पर बहुत ही कम । अशोक ने अपने शासन की वास्तुकला में इसका अधिक सहारा लेकर पाषाण को उभार कर उन्नत दशा में पहुँचा दिया।
इन सब बातों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट अशोक के इस राजप्रासाद में विदेशी प्रभाव सिद्ध नहीं होता है।
चीनी यात्रियों के वृत्तांतों से इस बात का पता चलता है कि उसने कश्मीर की राजधानी श्रीनगर की भी स्थापना की थी, तथा उसने नेपाल में भी एक शहर बसाया था।
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