इतिहास

भारतीय कला | भारतीय कला के स्रोत | Indian art in Hindi | Sources of Indian Art in Hindi

भारतीय कला | भारतीय कला के स्रोत | Indian art in Hindi | Sources of Indian Art in Hindi

भारतीय कला

‘कला’ शब्द संस्कृत की कल् थातु में कच् तथा टाप् (कल्+कच्+टाप्) लगाने से बनता है। संस्कृत कोश में यह शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है जैसे- किसी वस्तु का छोटा खण्ड, चन्द्रमा की एक रेखा, शोभा, अलंकरण, कुशलता अथवा मेधाविता आदि। किन्तुक्षइतिहास तथा संस्कृति में ‘कला’ से तात्पर्य सौन्दर्य, सुन्दरता अथवा आनन्द से है। अपने मनोगत भावों को सौन्दर्य के साथ दृश्य रूप में व्यक्त करना ही कला है। आचार्य क्षेमराज के अनुसार ‘अपने (स्व) किसी न किसी वस्तु के माध्यम से व्यक्त करना ही कला है और यह अभिव्यक्ति चित्र, नृत्य, मूर्ति, वाद्य आदि के माध्यम से होती है। इस प्रकार कला मनुष्य की सौन्दर्य भावना को मूर्तरूप प्रदान करती है। प्राचीन भारत में कला को साहित्य और संगीत के समकक्ष मानते हुए मनुष्य के लिये उसे आवश्यक बताया गया है। भर्तृहरि ने अपने नीतिशतक में स्पष्टतः लिखा है कि ‘साहित्य, संगीत तथा कला से हीन मनुष्य पूँछ और सींग से रहित  साक्षात् पशु के समान है-

साहित्यसंगीतकला विहीनः

साक्षात्यशःपुच्छविषाणहीनः।

भारतीय परम्परा में कला को लोकरंजन का समानार्थी निरूपित किया गया है। चूंकि इसका एक अर्थ कुशलता अथवा मेधाविता भी है, अतः किसी कार्य को सम्यक् रूप से सम्पन्न करने की प्रक्रिया को भी कला कहा जा सकता है। जिस कौशल द्वारा किसी वस्तु में उपयोगिता और सुन्दरता का संचार हो जाय, वही कला है। भारतीय कला का इतिहास अत्यन्त प्राचीन तथा गौरवशाली है। वस्तुतः यह कला यहाँ के निवालियों के विचारों एवं विश्वासों को समझने का एक सबल माध्यम है।

भारतीय कला के स्त्रोत

कला के अध्ययन के लिये भी प्रायः उन्हीं स्रोतों का उपयोग किया जाता है जो इतिहास के अध्ययन के लिये उपयोगी है। इन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है-

साहित्य

वास्तु या स्थात्य की विविध तकनीकों तथा भवनों के नाना रूपों का प्रचुर वियरन वैदिक साहित्य से लेकर संस्कृत-प्राकृत साहित्य में प्राप्त होता है। हमारे प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में धार्मिक तथा लौकिक दोनों प्रकार की वास्तु का उल्लेख हुआ है। संहिताओं के अध्ययन से कुछ ऐसे शिल्पों के विषय में पता चलता है जो भौतिक सामग्री के माध्यम से बनाये जाते थे। चूँकि इस काल में भवनों का निर्माण मिट्टी, घास-फूस, कब्धी ईंटों, काष्ठ आदि से होता था, अतः वे शीघ्र विनष्ट हो गये और सम्प्रति उनके नमूने नहीं मिलते। किन्तु साहित्य के अनुशीलन से पता चलता है कि काष्ठ शिल्प अत्यन्त विकसित अवस्था में था। बड़े वृक्षों को काट-छाँट कर भारी-भारी महल भी बनाये जाते थे जिन्हें ‘सहस्त्र-स्थूण-प्रासाद’ कहा गया है। भवन स्तम्भों पर टिके होते थे जिन्हें ‘स्कम्भ’ कहा गया है। वैदिक देवता इन्द्र को ‘स्कम्भी-यान्’ (सर्वोत्तम खम्भे का स्वामी) कहा जाता था। एक स्थान पर मजबूत आधार पर गाड़े गये तीन खम्भों का उल्लेख मिलता है। सौ खम्भों वाले (शतभुजी) भवनों का भी उल्लेख मिलता है। त्रिभूमिक प्रासाद अर्थात् तीन खण्डों में बने हुए महलों का भी वर्णन मिलता है। उल्लेखनीय है कि बड़े घरों का निर्माण भी काष्ठ से ही किया जाता था। नगर सन्निवेश का विवरण भी वैदिक साहित्य से प्राप्त होता है। इस प्रकार कुछ पाश्चात्य विद्वानों की यह धारणा सही नहीं है कि वैदिक साहित्य में वास्तु विषयक सामग्री नहीं मिलती। पर्सीब्राउन ने उचित ही सुझाया है कि सांची एवं भरहुत की वेदिकायें वैदिक वेदिका का अनुकरण मात्र है।

अथर्ववेद में गृह-निर्माण सम्बन्धी दो शालासूक्त प्राप्त होते हैं। इनसे सूचित होता है कि विभिन्न बांसों को रस्सियों से बांधकर छाजन बनाये जाते थे। छप्पर या बांस पट्टियों को रस्सी में बांधने की कला उन्हें ज्ञात थी। शतपथ ब्राह्मण में घर के दो अंग बताये गये हैं। प्रथम पुरुष आवास होता था जिसमें कई कमरे होते थे। द्वितीय स्त्रियों का निवास स्थान था। इसमें पीछे की ओर अनेक कमरे होते थे। पालि ग्रन्थों तथा गृह्यसूत्रों के विवरण से पता चलता है कि बुद्ध काल तक वास्तुकला काफी विकसित हो गयी थी। दीर्घ निकाय में इस ‘वत्थुवजा’ अर्थात् वास्तु विद्या कहा गया है तथा इसकी गणना विशिष्ट शिल्प के रूप में की गयी है। जातक ग्रन्थों में गंगातट पर नगर एवं प्रासाद निर्मित किये जाने का विधान दिया गया है। ‘महावर्धकी’ का उल्लेख है जो वास्तु विद्या का ज्ञाता था।

गुप्तकाल तथा उसके बाद कला के विविध अंगों का सम्यक् उत्कर्ष हुआ तथा तत्सम्बन्धी ग्रन्थ भी लिखे गये। इस समय के प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वाराहमिहिर वास्तु विद्या के भी महान् आचार्य थे। उनकी रचना बृहत्संहिता से वास्तुशाला, प्रतिमाशास्त्र तथा चित्रशास्त्र की भी अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। इससे सूचित होता है कि वास्तुशास्त्र ब्रह्मा से उत्पन्न कलाकारों से विकसित किया गया।

पुराण ग्रन्थ भी वास्तुशास्त्र का विवरण प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टि से मत्स्य पुराण सर्वाधिक उल्लेखनीय है जिसमें वास्तु तथा मूर्तिकला से सम्बन्धित विवरण आठ अध्यायों में दिये गये हैं। साथ ही साथ वास्तु शास्त्र के कतिपय प्राचीन आचार्यों के नाम भी दिये गये हैं। ये इस प्रकार हैं- भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नामजित, विशालाक्ष, पुरन्दर, ब्रह्मकुमार नन्दीश, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र, बृहस्पति आदि। कुछ अन्य पुराण जैसे वायु, भविष्य, अग्नि आदि भी स्थापत्य, मूर्ति, चित्र आदि का छिट-पुट रूप से विवरण प्रस्तुत करते हैं।

वास्तुशास्त्र के प्रवर्तकों में विश्वकर्मा तथा मय के नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध थे। प्रथम को देवताओं तथा द्वितीय को असुरों का वास्तुकार माना गया है। इन दोनों के नाम पर अलग- अलग सम्प्रदाय चल पड़े तथा शिल्प ग्रन्थों की रचना की गयी। विश्वकर्मा से सम्बद्ध सम्प्रदाय ब्राहा सम्प्रदाय कहलाया। विष्णुधर्मोत्तर पुराण इसकी सबसे पहली रचना है। इसमें सैंतालिस अध्याय है जिनमें वास्तु एवं मूर्तिकला का वर्णन किया गया है। ‘समरांगणसूत्रधार’ इस सम्प्रदाय की सर्वप्रथम रचना है। इसके रचयिता भोज मालवा के मारवंशी शासक (1011- 46 ई०) थे। इसके अध्ययन से वास्तुकला की विभिन्न विधियों एवं विधानों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त होता है। इसमें कहा गया है कि जिस प्रकार विश्वरूप में विष्णु का अध्यात्मरूप होता है जिसके ध्यान से आत्मशुद्धि होती है उसी प्रकार कला के अन्तर्भाव से उत्प्रेरित दर्शक का हृदय या मन यापरहित हो जाता है।

मय सम्प्रदाय के ग्रन्थों में मयमत, मयमत-शिल्पशास्त्र, मयुवास्तुशास्त्र, मयशिल्पशतिका आदि उल्लेखनीय हैं। इन दोनों सप्रदायों में स्थापत्य सम्बन्धी कुछ भिन्न धारणायें भी स्थापित हो गयीं। ये दोनों साथ-साथ विकसित होती रहीं तथा क्रमशः दोनों के तत्व परस्पर घुलमिल गये।

वास्तुकला के क्षेत्र में उपर्युक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया गया। इनमें से कुछ आज भी उपलब्ध हैं। स्वतन्त्र ग्रन्थ समरांगणसूत्रधार शिल्परत्नम्, ईशानशिव-गुरुदेव-पद्धति, मानसार सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। बारहवीं शती में भुवनदेव ने गुजरात में अपराजितपृच्छा की रचना की जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ वास्तु की विविध विधाओं का भी उल्लेख मिलता है। पी० के० आचार्य ने मानसार को समस्त वास्तुग्रन्थों का आधार बताया है। वे इसे गुप्त कालीन रचना मानते हैं। उनके अनुसार इसकी रचना उस समय की गयी जब ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्म साथ-साथ विकसित हो रहे थे। यूंकि यह स्थिति गुप्त काल में रही, अतः मनसार, गुप्त युगीन कृति होनी चाहिए। किन्तु टी०पी० भट्टाचार्य इस मत से सहमत नहीं हैं तथा वे इसे पूर्व मध्यकाल का ग्रन्थ बताते हैं। उल्लेखनीय है कि मानसार अधिकाशतः चोल, होयसल तथा यादवकाल की वास्तुशैली का प्रतिनिधित्व करता है, अतः इसे ग्यारहवीं शती के बाद ही रखा जा सकता है। वास्तुशास्त्र के ग्रन्थों से पता चलता है कि स्थापति अथवा भवन निर्माता का व्यवसाय समाज में सम्मानित माना जाता था। समरांगणसूत्रधार में स्थापति के विषय में बताया गया है कि उसे शास्त्रज्ञ, कर्म में कुशल, प्रज्ञावान्, शीलवान् तथा लक्षणों सहित वास्तु विद्या का ज्ञाता होना चाहिए। इसमें भवन निर्माण के क्रिया पक्ष पर बल देते हुए कहा गया है कि वह स्थापित जो शास्त्रों का जानकार है किन्तु उसे क्रिया रूप में परिणत नहीं कर सकता या कार्य के समय उसी प्रकार असफल रहता है जिस प्रकार कायर व्यक्ति युद्ध उपस्थित होने पर बिल्कुल शहा जाता है। इसी प्रकार केवल क्रिया-पक्ष के ज्ञाता शिल्पी को भी अपूर्ण कहा गया है। मानसार तथा प्रथमत् के अध्ययन से भी पता चलता है कि स्थापित विधान होता था और उसकी सामाजिक मान्यता उत्तकोटि की थी। मानसार में उसी विश्वकर्मा का पुत्र बताया गया है। मवमत में उसे निर्माण कार्य में प्रवीण तथा वास्तु विद्या का पण्डित कहा गया है। अपराजिता से ज्ञात होता है कि स्थापति वास्तु विद्या में मर्मज्ञ, नगर योजना तैयार करने में कुशल तथा बुद्धिमान होना चाहिए।

रामायण, महाभारत, मानसार, मवमत, समरांगणसूत्रधार आदि ग्रन्थों के अध्ययन से नगर या पुर निर्माण के समय में समुचित जानकारी मिल जाती है। इन ग्रन्थों में नगर सत्रिवेश के निम्नलिखित अंग बाताये गये हैं..

  1. भूमिपरीक्षण, 2. भूमिसंग्रह (चयन), 3. दिशा-निर्धारण (दिवपरिछोद), 4. भूमिका खण्डों में वर्गीकरण (पद बिन्यास), 5. बलिकर्म (पूजन-अर्चन), 6. ग्राम या नगर विन्यास, 7. भूमि विधान (विभिन्न मंजिलों वाले भवन), 8. द्वार निर्माण (गोपुरम्), 9. मण्डप निर्माण, 10. राज प्रासाद निर्माण (राजवेश्म विधान)।

युवित्तकल्पतरू, मानसार आदि ग्रन्थों में दुर्ग निर्माण सम्बन्धी जानकारी दी गयी है। निर्माण स्थान के देवता को ‘वास्तोस्पति’ कहा गया है। मन्दिर निर्माण के लिये आवश्यक सामग्री तथा निर्माता कारीगरों का वर्णन भी शिल्परल, मानसार, काश्यप-शिल्प आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है। बृहत्संहिता से ज्ञात होता है कि मन्दिर के प्रवेशद्वार के बाजुओं को द्वारपाल, उड़ते हुए हंसों के जोड़े, श्रीवृक्ष, स्वास्तिक, घट, मिथुन, पत्रवल्ली आदि से सुसज्जित किया जाता था। कालिदासकृत मेघदूत (उत्तर भाग) से पता चलता है कि चौखट पर शंख तथा पद्म की आकृतियां उत्कीर्ण की जाती थीं। इस प्रकार वास्तुशास्त्र पर लिखा गया प्राचीन साहित्य बहुसंख्यक है। इसे देखने से पता चलता है कि प्राचीन भारत में स्थापत्य तकनीक अत्यन्त विकसित था।

चित्रकला के सम्बन्ध में भी विविध ग्रन्थों से सूचना प्राप्त होती है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में कहा गया है कि सभी कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ है तथा यह धर्म, काम, अर्थ एवं मोक्ष को देने वाली है। इसमें चित्रकला के तकनीकी पक्ष का भी विवरण मिलता है। समरांगणसूत्रधार में भी इसी बात की पुष्टि करते हुए बताया गया है कि चित्र सभी शिल्पों का मुख एवं संसार का प्रिय है। वात्स्यायन के कामसूत्र में चित्रकला की गणना 64 कलाओं में की गयी है जिसका ज्ञान सुसंस्कृत व्यक्ति के लिये आवश्यक था। इसके भाष्यकार यशोधर पण्डित ने चित्र के छः अंगों का उल्लेख किया है : रूपभेद, प्रमाण (उचित अनुपात), भाव, लावण्य योजना (सौन्दर्य विरूपण), सादृश्य (जैसा हो वैसा ही चित्रांकन) एवं वर्णिक भंग (उचित रंगों का भरना)। कालिदास के प्रन्थों- रघुवंश, मेघदूत, मालविकाग्निमित्र अभिज्ञानशाकुन्तलम् आदि से भी चित्रकला के विषय में कुछ जानकारी मिलती है, सोमेश्वर की रचना मानसोल्लास में चित्र, चित्रांकन, चित्र सामग्री आदि का विस्तृत विवरण दिया गया है। इसके अतिरिक्त चित्रकला के स्त्रोत हर्षचरित, कादम्बरी, उत्तर-रामचरित आदि ग्रन्थ भी है।

बौद्ध साहित्य के अध्ययन से भी चित्रकला विषयक कुछ बातें ज्ञात होती हैं। विनयपिटक, थेरगाथा एवं थेरिगाथा में चित्रों का उल्लेख मिलता है। महाउम्मग जातक में चित्रशाला तथा चित्रों की रचना के विषय में विवरण मिलता है। हमारे प्राचीन साहित्य में कला के विविध रूपों के सम्बन्ध में जो सामग्री दी गयी है उसके आधार पर पी० के० आचार्य, आनन्दकुमार स्वामी, वासुदेवशरण अग्रवाल, नीहाररंजन राय, कृष्णदेव, के० आर० श्रीनिवासन, के० वी० सौन्दरराजन आदि विद्वानों ने जो ग्रन्थ प्रस्तुत किये हैं उनके अध्ययन से कला का सांगोपांग ज्ञान हमें प्राप्त हो जाता है। इन विद्वानों की रचनायें भी कला की महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

विदेशी विवरण

साहित्य के साथ-साथ कुछ विदेशी यात्रियों के विवरण भी वास्तुकला के साधन हैं। मेगस्थनीज के विवरण से पाटलिपुत्र के नगर विन्यास के विषय में कुछ जानकारी होती है। तदनुसार यह 80 स्टेडिया(16 किलोमीटर) लम्बा तथा 15 स्टेडिया (तीन किलोमीटर) चौड़ा था। इसके चारों ओर 185 मीटर चौड़ी तथा तीस हाथं गहरी खाई थी। नगर चारों ओर से ऊँची दीवार से घिरा था जिसमें 64 तोरण (द्वार) तथा 570 बुर्ज थे। भव्यता और शान शौकत में सूसा एवं एकबतना के राजमहल भी इसकी बराबरी नहीं कर सकते थे।

इस प्रकार चीनी यात्री फाह्यान के विवरण से भी मौर्य राजप्रासाद की भव्यता की सूचना मिलती है। वह लिखता है कि ‘राजमहल तथा नगर के बीच बने सभाभवन आज भी यथावत हैं। इन सभी को देवदूतों ने बनाया था जिन्होंने पत्थर के ढेर एकत्र किये, दीवारें एवं द्वार बनाये। पत्थरों पर इतनी आश्चर्यजनक खुदाई और पच्चीकारी किया कि ऐसी रचना कोई मनुष्य कर ही नहीं सकता था।’ इसके अतिरिक्त उसने अशोक द्वारा बनवाये गये छः स्तम्भों का भी उल्लेख किया है।

ह्वेनसांग तथा इत्सिंग जैसे यात्रियों के विवरण से मौर्यकालीन स्तम्भ एवं स्तूपों की जानकारी मिलती है। ह्वेनसांग अशोक द्वारा स्थापित पन्द्रह स्तम्भों का उल्लेख करता है जो सांकाश्य, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, लुम्बिनी, कुशीनगर, सारनाथ, वैशाली, पाटलिपुत्र, राजगृह में विद्यमान थे। वह यह भी सूचित करता है कि तक्षशिला, श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, कन्नौज, प्रयाग, कौशाम्बी, श्रावस्ती, वाराणसी, सारनाथ, वैशाली, गया, कपिलवस्तु आदि में अशोक द्वारा स्तूपों का निर्माण करवाया गया था। ह्वेनसांग के कुछ समय बाद आने वाले चीनी यात्री इत्सिंग ने भी स्तूप निर्माण की परम्परा का उल्लेख किया है। उसके अनुसार पूजार्थक स्तूपों का निर्माण भिक्षु तथा उपासक दोनों ही करते थे क्योंकि लोगों में ऐसा विश्वास था कि यह कार्य अनन्त पुण्यदायक है।

पूर्वमध्यकाल के मुस्लिम लेखकों के विवरण से भी कुछ प्राचीन नगरों के विन्यास के विषय में जानकारी मिलती है। अल्बरूनी तथा उत्बी के विवरण से पता चलता है कि कन्नौज नगर अत्यन्त विस्तृत एवं भव्य था। महमूद गजनवी जैसे मूर्तिभंजक के अनुसार ‘कन्नौज तथा मथुरा के मन्दिरों जैसे कोई अन्य वास्तु यदि कोई निर्मित करना चाहता तो उसे काम पर सर्वाधिक अनुभवी कारीगरों को लगाने पर भी एक लाख सोने की दीवारें खर्च करनी पड़ती तथा दो सौ वर्ष का समय लगाना होता।” इस प्रकार पूर्वमध्यकालीन वास्तु अथवा स्थापत्य के ज्ञान में मुस्लिम विवरण भी न्यूनाधिक रूप में सहायक है।

पुरातत्व

पुरातत्व भी कला का महत्वपूर्ण स्रोत माना जा सकता है। विभिन्न स्थलों से जो खुदाइयां हुई हैं उनसे भवनों, मन्दिरों, मूर्तियों आदि के अवशेष प्राप्त होते हैं जिनसे कला के विविध पक्षों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। सैन्धव सभ्यता की वास्तु एवं पूर्ति कला का ज्ञान हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो के उत्खनन में प्राप्त सामग्रियों से होता है। ये दोनों ही नगर वास्तु विन्यास का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। भवन तथा मन्दिर निर्माण सम्बन्धी जो विविध उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है पुरातात्विक अवशेषों में उनके मूर्त रूप प्राप्त होते हैं। आहत सिक्कों तथा औदुम्बरों, पञ्चालों आदि की मुद्राओं में अंकित मन्दिरों की आकृतियों से पता चलता है कि प्रारम्भिक मन्दिर अथवा देवस्थान सीधे-साधे रूप में बनाये जाते थे। भूमि के कुछ ऊँचे स्थान पर प्रतिमा स्थापित की जाती थी तथा उसके चतुर्दिक् वेदिका बनाई जाती थी। इसी प्रकार गुप्तकाल के जो बहुसंख्यक मन्दिर, मूर्तियां एवं चित्रकारियां मिलती हैं उनसे उस काल के कलात्मक उत्कर्ष का ज्ञान प्राप्त होता है। वी० एस० अग्रवाल के शब्दों में ‘गुप्त काल का गौरव इसकी दृश्य कलात्मक रचनाओं द्वारा स्थायी बना दिया गया है।’

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले तथा मध्यप्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका के शिलाश्रयों एवं गुफाओं से जो चित्रकारियां मिली हैं उनसे प्रागैतिहासिक काल की चित्रकला का ज्ञान होता है। इतीहास के प्रत्येक युग से सम्बन्धित पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जिनके आधार पर वास्तु, तक्षण एवं चित्रकला के स्वरूप एवं उद्देश्य के सपझने में मदद मिलती है।

इस प्रकार साहित्य तथा पुरातत्व प्राचीन भारतीय कला एवं स्थापत्य के ज्ञान का प्रमुख स्रोत है। जहां साहित्य कला के सैद्धान्तिक स्वरूप को योतित करता है वहीं पुरातत्व उसके यथार्थिक रूप को उद्घाटित करता है।

कला के अंग

यद्यपि ‘कला’ शब्द से सभी प्रकार की कलाओं का बोध हो जाता है फिर भी सुविधा की दृष्टि से इसका विभाजन वास्तु अथवा स्थापत्य, तक्षण या पूर्ति, चित्रकला, रिलीफ स्थापत्य, मृद्भाण्ड कला आदि प्रकारों में विभाजित किया गया है। इनका विवरण इस प्रकार है-

वास्तु या स्थापत्य

‘वास्तु’ शब्द ‘वस्’ धातु से बना है जिसका अर्थ है- किसी एक स्थान पर निवास करना। तुमुन् प्रत्यय लगाकर ‘वास्तु’ शब्द बनता है जिसका अर्थ होता है वह भवा जिसमें मनुष्य या देवता का वास हो । भारतीय साहित्य में वास्तु के अन्तर्गत नगर-विन्यास, भवन, स्तूप, गुहा, मन्दिर आदि का वर्णन किया गया है। ऋग्वेद में भवन निर्माण के समय वास्तोस्पति देवता के आह्वान करने का विधान मिलता है। सायण के अनुसार वास्तु का अर्थ गृह है तथा उसका रक्षक देवता ‘वास्तोस्पति’ है। इसी प्रकार स्थापत्य शब्द ‘स्थपति’ से बना है जिसका अर्थ है कारीगर या बढ़ई। अतः वास्तु और स्थापत्य दोनों ही शब्द भवन निर्माण को सूचित करते हैं। कला में दोनों का प्रयोग प्रायः समान अर्थ में ही किया गया है। किन्तु तकनीकी दृष्टि से दोनों में कुछ अन्तर भी है। सभी वास्तु रचनाओं को स्थापत्य नहीं कहा जा सकता। केवल वही वास्तु स्थापत्य कहे जाने योग्य है जिसमें कारीगरी अथवा नक्काशी हो। इस दृष्टि से विचार करने पर सैन्धव वास्तु को हम स्थापत्य नहीं कह सकते हैं।

मूर्तिकला

इसे तक्षण भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की पाषाण अथवा धातु निर्मित मूर्तियां आती हैं।

चित्रकला

इसके अन्तर्गत विविध प्रकार की चित्रकारियों का उल्लेख किया जाता है जो भवनों की दीवारों, छतों, स्तम्भों, पर्वत गुफाओं आदि पर अंकित मिलती हैं।

रिलीफ स्थापत्य

पत्थर, चट्टान, धातु आदि के फलक पर जो चित्र या पूर्ति उकेर कर बनायी जाती है उन्हें रिलीफ स्थापत्य या चित्र कहा जाता है। इसे उत्कीर्ण अथवा भास्कर कला भी कहते हैं।

इसके अतिरिक्त मिट्टी के बर्तन बनाने की कला को मृदभाण्ड कला, सिक्के, या मुहरों की कला को मुद्राकला, हाथी दांत से वस्तुयें बनाने की कला को दन्त-कला कहा जाता है। जिन कलाओं से आनन्द की प्रगति एवं सौन्दर्य का भाव जागृत होता है उन्हें ललित कला (Fine Art) कहा जाता है। इसमें काव्य, संगीत, चित्र, वास्तु, मूर्ति आदि की गणना की गयी है। वात्स्यायन ने चौंसठ कलाओं का उल्लेख किया है। भारतीय परम्परा में ललित कलाओं को परमानन्द की प्राप्ति का साधन स्वीकार किया गया है, इन्द्रिय सुख का साधन नहीं। वस्तुतः रूप या सौन्दर्य का ध्येय चित्तवृत्तियों को उन्नत करना था न कि पापवृत्तियों को जागृत करना।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!