इतिहास

चित्रकला की उत्पत्ति | चित्रकला का विकास | चित्रकला की उत्पत्ति एवं विकास

चित्रकला की उत्पत्ति | चित्रकला का विकास | चित्रकला की उत्पत्ति एवं विकास

चित्रकला की उत्पत्ति-

प्राचीन काल की चित्रकला के उद्गम को देखने के लिए मानव की उत्पत्ति और विकास का अध्ययन आवश्यक है। प्राचीन युग, धर्म तथा संस्कृति पर प्रकाश डालना होगा। चित्रकला की उत्पत्ति के विषय में वेदों में प्रमाण उपलब्ध होते हैं। इस संदर्भ में एक कथा प्रचलित है कि प्रचीन कला में भयजित नामक राजा बड़ा न्यायी तथा ईश्वर भक्त था उसके राज्य में एक ब्राह्मण के एक मात्र पुत्र की असमय में मृत्यु हो गयी। ब्राह्मण ने राजा से पुत्र के प्राण वापिस लौटाने के लिए याचना की।

राजा ने अपने तपोबल से यम को बुलाकर ब्राह्मण पुत्र को जीवित करने की प्रार्थना की। राजा और यम में वाद-विवाद तथा युद्ध हुआ। ब्रह्मा ने यम को दर्शन देकर राजा से ब्राह्मण पुत्र का चित्र बनाने के लिए कहा। राजा ने चित्र बनाया और ब्रह्मा ने उसमें प्राणों का संचार किया। पौराणिकर कथाओं के आधार पर यह पृथ्वी का प्रथम चित्र था। यह भी वर्णन मिलता है कि राजा भयजित ने ब्रह्मा से चित्रकला का ज्ञान प्राप्त किया। ब्रह्मा जी के आदेश पर विश्वकर्मा ने राजा को चित्रकला को अन्य तकनीकों से परिचित कराया। उन्हीं लक्षणों से युक्त ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र आदि की आकृतियाँ उभरने लगीं। शतपथ ब्राह्मण, जैन सूत्रों और महाभारत आदि ग्रन्थों में भयजित को नग्नजित कहा गया है।

चित्रकला का विकास-

मानव समाज और चित्रकला का प्राचीन काल से ही सम्बन्ध रहा है। चित्रकला का विकास मानव जाति के जीवन क्रम के विकास को श्रृंखला से निरन्तर बंधा चला आ रहा है। आदि मानव ने अपने भय जनित तथा आत्मरक्षा के भावों को भित्तियों पर चित्रों के रूप में अंकित किया। धीरे-धीरे मानव ने प्रकृति के सौन्दर्य को अनुभव कर अपनी कल्पना से उसको रेखाओं द्वारा अभिव्यक्त किया। सृष्टि के अगम्य स्वरूप को समझने के लिए अपनी बुद्धि का प्रयोग किया तथा उसको अपनी भावनाओं के आधार पर साकार रूप प्रदान किया। सम्भवतया यही चित्रकला का प्रथम सोपान था।

आज के सभ्य समाज में भी मानव अपनी कल्पनाओं, जाग्रत और सुप्तावस्थाओं के मनोविकारों को चित्रित करने का सतत् प्रयास करता आ रहा है। विश्व की प्रत्येक सभ्यता एवं संस्कृति ने चित्रकला के विकास में निरन्तर योगदान किया है। हमारे पूर्वजों के उदार प्रयलों के फलस्वरूप चित्रकला की नींव विश्व की कलाओं में सुदृढ़ है।

प्राचीन काल में चित्रकला मानव जीवन की अभिव्यक्ति थी अतः प्राचीन भारतीय चिन्तकों ने जीवन का चरम लक्ष्य आनन्द की उपलब्धि स्वीकार किया जिससे कला स्वरूप आध्यात्मिक हो गया प्रकृति के सभी स्वरूपों को सौन्दर्य सृजन और ब्रह्मानन्द प्राप्ति का साधन समझकर दिव्य रूपों में व्यक्त किया गया। चित्रकला का यह स्वरूप मात्र इच्छा पूर्ति के लिए न होकर परमानन्द के लिए था। इसमें बाह्य सौन्दर्य की अपेक्षा आन्तरिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति की गई।

मध्यकालीन भारतीय चित्रकला का विकास अपनी पूर्व परम्परा के आधार पर प्रकृति के आदर्शवादी एवं आनन्दात्मक स्वरूप की अभिव्यक्ति करना ही रहा। मध्य युग के अन्तिम चरण में भारतीय चित्रकला पर विदेशी संस्कृतियों का प्रभाव पड़ा और मुगल शासन के प्रभाव से चित्रकला की शैली में कुछ परिवर्तन हुए। अंग्रेजी शासन की बेड़ियों से बंधा कलाकार अपनी सत्ता को भूल गया और चित्रकला का ह्रास हुआ।

भारत से चित्रकला जैसे रूठ गयी। किन्तु संकट की इस परिस्थिति में छटपटाती चित्रकला को मुगलशासन ने कुछ सहारा दिया और अपने प्रयास से उसका पुनरुद्धार किया। अपनी कला और संस्कृति को पुनर्जीवित करने की जैसे एक लहर दौड़ गयी। कलाकारों ने अपने स्वरूप को समझने का प्रयास किया जिसके परिणामस्वरूप भारतीय चित्रकला अपनी अद्वितीयता के कारण विश्व की चित्रकला के समक्ष अपना मस्तक ऊँचा किए खड़ी है।

भारतीय चित्रकला की धारा अपने उसी वेग से प्राचीन परम्परा की धरोहर को अपने अन्तर में समेटे निर्द्वन्द्व, निर्बाध बहती चली आ रही है जिसकी अतुल गहराई में जाने पर भी उसकी निर्मलता, शीतलता उसी प्रकार बनी रहती है। जीवन के सभी क्षेत्रों में कला का स्वरूप हर समाज, हर जाति में अक्षुण्ण बना हुआ है। आज समाज के बदलते परिवेश में भी कला का रूप उसी प्रकार निखरा हुआ है। उसके उद्देश्य, उसके सिद्धान्त उतने ही दृढ़ हैं। भले ही उसके माध्यम में थोड़ा बहुत परिवर्तन हो गया हो। कला सभ्यता और संस्कृति के विकास की आधार शिला है। जो जीवन को अपने में समेटे वातावरण और परिस्थिति से टकराती हुई मानव की सहचरी बनी रहती है।

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Pankaja Singh

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