कला का अर्थ | कला की परिभाषा | कला का स्रोत व उद्भव | कला का महत्त्व | कला का वर्गीकरण | प्राचीन चित्रकला की उत्पत्ति व विकास
कला का अर्थ
मानव ने सृष्टि के आरम्भ में अपने मनोभावों और कल्पनाओं के सौन्दर्य की अभिव्यक्ति के लिए जिस माध्यम का प्रयोग किया उसे ही कला नाम दिया। इसके लिए उसने काव्य, संगीत, चित्र, मूर्ति एवं वास्तु अनेक माध्यमों का प्रयोग किया। कलाकार की यह कल्पनात्मक अनुभूति अभिव्यक्त होकर रस विभोर करती है। इसी संदर्भ में फ्रेंच समालोचक फागुए ने कहा कि- “कला, भाव की उस अभिव्यक्ति को कहते हैं जो तीव्रता से मानव हृदय को स्पर्श कर सके।”
कला का स्रोत व उद्भव-
कला एक व्यापक अर्थ का प्रतिपादक है। कला कलाकार की रस अवस्था का प्रकाशन है। वह केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं वरन् एक साधना है। मनोगत भावों का गतिपूर्ण साधन द्वारा प्रगटन है। इस प्रकार मानव हृदय की अनुभूति होकर कला धर्म के निकट है। आत्मा की उच्चता को सांकेतिक आकारों में प्रकट करने का माध्यम है जिसकी प्रेरणा समाज का आदर्श है। टालस्टाय का दृष्टिकोण है- “अनुभव पर आधारित विचारों की अभिव्यक्ति कला है।”
साहित्य, संगीत, वास्तु, चित्र और मूर्ति कला के उद्भव स्त्रोत हुए, मानव के वे भाव जो उसके आस-पास के वातावरण के सौंदर्य से प्रेरित होकर उपजे। प्रकृति के अद्भुत सुन्दरतम रूप मानव को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और कलाकार के हृदय को झकझोर देते हैं। खेतों की हरितिमा, नदियों का कल-कल निनादित शब्द, शीतल मन्द समीर, हिमाच्छादित पर्वत शिखर तथा नारी के अंग-प्रत्यंग का कोमल, लावण्ययुक्त सौन्दर्य कलाकार के भावमय हृदय को आनन्द की अनुभूति प्रदान करता है। प्रकृति के असंख्य रूपों का निरीक्षण कर मानव आत्मविभोर व विस्मृत हुआ और उसकी आत्मा की अनुभूतियाँ प्रकट होने को मचलने लगी। प्राचीन मानव ने अपने सीमित साधनों से इनको रूप दिया और उसके प्रथप वाक्य गुफाओं की दीवारों पर रेखा व आकार के रेखाचित्र थे; जो कि समय पाकर प्रेम व परिश्रम के बल पर निखर कर आज के कला के स्वरूप को प्राप्त हुए। किसी भी देश की जाति या सांस्कृतिक उन्नति का रूप वहाँ की कला की उन्नति में दीख पड़ता उन्हीं के आधार पर प्राचीन सभ्यताओं की खोज होती है।
कला कौशल-
मात्र प्रेरणा व अनुभूति ही तो कला निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं। चित्रकला में जग का निरीक्षण, तूलिका-प्रयोग का अभ्यास व रंगों से बाहाकार को प्रस्फुटित करने का हस्तकौशल अत्यन्त आवश्यक है। अनुभूति के आवेश के साथ इनका योग संसार की उच्चकलाओं को जन्म देता है। अतः जिस गुण व कौशल के कारण किसी वस्तु में उपयोगिता व सुन्दरता आती है, उसकी ही संज्ञा कला है।
कला की परिभाषा-
हिन्दी में शब्दों का जन्म संस्कृत से हुआ है। कला के सम्बन्ध में ही यही बात चरितार्थ है, कला ‘कल’ धातु से उत्पन्न है। इसका अर्थ बनना, शब्द करना, गिनना है। कुछ इसे ‘कड्’ धातु से भी जोड़ते हैं। जिसका अर्थ मदमस्त करना, प्रसन्न करना है। कुछ विद्वान् ‘कल, का अर्थ कोमल, सुन्दर, मधुर, सुखकर, मानकर उसे कला से सम्बन्धित करते हैं। संस्कृत में कला को विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया गया है। चन्द्रमा की कला भगवान राम जहाँ बारह कलाओं से अवतरित माने जाते हैं। भगवान कृष्ण सोलह कलाओं के अवतार कहे जाते हैं। भरत के नाट्य शास्त्र में ‘कला’ शब्द का सबसे प्रथम व प्रमाणिक प्रयोग प्रथम शताब्दी के आस-पास किया गया है।
‘न तज्ज्ञानंन तछिल्पं नसा विद्या नस कला’
अर्थात् ऐसा कोई ज्ञान नहीं, कोई शिल्प नहीं, कोई विद्या नहीं, कोई कला नहीं, भतृहरि के प्रसिद्ध श्लोक का यह अंश ‘साहित्य संगीत कला विहीन’ इस बात की पुष्टि करता है, कि कला की कोई विशेष संज्ञा थी और पामह व दंडी ने भी इसकी पुष्टि की है। काश्मीर के प्रसिद्ध पंडित क्षेमेन्द्र ने कलाओं पर लेखनी उठाई है और उनकी पुस्तक का नाम ‘कला विलास’ है। इसमें सबसे अधिक कलाओं का वर्णन है। ‘कला विलास’ के आधार पर चौसठ कलायें जनोपयोगी हैं, जैन ग्रन्थों के अनुसार बहत्तर कलाओं का वर्णन सामने आया है। प्रबन्ध कोष में बहत्तर कलाओं का वर्णन है। इस प्रकार भारतीय शास्त्रों में कला का विवरण सदैव मिला है।
अंग्रेजी में कला को आर्ट कहते हैं। यह शब्द पुरानी फ्रेन्च आर्ट और लेटिन आर्टेम या आर्स से जोड़ गया प्रतीत होता है। इसकी अधिक पुष्टि इस बात से होती है, कि इसके मूल में अर धातु है, जिसका अर्थ बनाना, पैदा करना, अथवा फिट करना कहा गया है। लेटिन में (आर्स) का वही अर्थ है जो संस्कृति में कला अथवा शिल्प का है, शारीरिक अथवा मानसिक कौशल से निर्मित वस्तु को कला कहा जायेगा। कला में करने अथवा कर्तव्य का अधिक महत्त्व है। कौशलपूर्ण क्रिया कला संज्ञा कहलाती है।
कला का महत्त्व-
आदिकाल से ही कला मानव के जीवन का अटूट हिस्सा रही है यहाँ तक कि जीवन के हर क्षेत्र में कला का किसी न किसी रूप में प्रयोग अवश्य होता है। बच्चों की प्रारम्भिक अवस्था में बाल कला, फिर लोक कला, व्यावसायिक कला आदि कला के अनेक रूप दिखाई देते हैं। जन्म से मरणोपरान्त विभिन्न अवसरों पर कला के विविध रूप भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। कला के अभाव में जीवन को पूर्णता की कल्पना करना भी कठिन है। अतः मनोवैज्ञानिक तथा व्यावहारिक दोनों ही आधार पर मानव जीवन में कला का विशेष महत्त्व है। विश्व के समस्त देशों में किसी भी स्तर पर कला से कोई क्षेत्र अथवा जीवन का कोई पंडलू अछूता नहीं है। कला के बिना किसी देश अथवा युग की सभ्यता का ज्ञान प्राप्त करना असम्भव ही प्रतीत होता है अतः कला अपने किसी न किसी रूप से मानव की चिरसंगिनी रही है।
कला की कोई सीमित परिभाषा नहीं हो सकती। अधिकतर कला को सीमित मानकर ललित कला की परिभाषा का रूप देने लगे हैं।
कला का वर्गीकरण-
कला का क्षेत्र व्यापक है। खाने, चलने, बात करने, बैठने, चोरी करने, चकमा देने की कला से लेकर साहित्य, दर्शन, सौन्दर्यशास्त्र के प्रसंगों में भी कला शब्द का प्रयोग होता है। कला को अनन्त मानकर ही यह भेद व्यवस्थित किये हैं।
कुछ लोगों के अनुसार शिक्षा की दृष्टि से कला के भेद इस प्रकार हैं- (1) आचरण विषयक कला, (2) ललित कला, (3) उदार कला।
व्यावसायिक कला- रंगाई, सुनारी, बढ़ईगीरी, नाई का काम, मशीन का काम आदि। व्यावसायिक कला के अन्तर्गत आते हैं।
उदार कला- व्याकरण, तर्क, भाषण, रेखागणित, संगीत आदि उदार कला के अन्तर्गत रखे गये हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में इसी के आधार पर कला संकाय, फैकल्टी ऑफ आर्ट्स) एफ० ए० (फैलो ऑफ आर्ट्स) बी० ए० (बैचलर ऑफ आर्ट्स) एम० ए० (मिस्टर ऑफ आर्ट्स) का प्रचलन हुआ है। डॉ० भोला नाथ तिवारी ने आर्ट्स के स्थान पर आर्ट शब्द का प्रयोग किया है।
कुछ विद्वानों ने लूलित कला को रूप व इन्द्रिय के आधार पर विभाजित किया है।
रूप के आधार पर-
- रूपात्मक अथवा स्थान पर आधारित वास्तु, मूर्ति, चित्रं ।
- गत्यात्मक अथवा गति पर आधारित संगीत, काव्य। इन्द्रियों के आधार पर-
- आँख से रसास्वादित होने वाली ललित कला-वास्तु, मूर्ति, चित्र।.
- कान से आस्वादित होने वाली ललित कला-काव्य, संगीत ।
- आँख-कान दोनों से आस्वादित होने वाली ललित कला-नाट्य, नृत्य ।
मूर्तता के आधार पर-
- मूर्त आधार की ललित कला-वस्तु, मूर्ति, चित्र,
- अमूर्त आधार की चित्रकला।
अनुकरणीय और अननुकरणीय ललित कला-
- अनुकरण पर आधारित-मूर्ति, चित्र, महाकाव्य ।
- अनुकरण न करने पर आधारित-गीतिकाव्य, वास्तु।
मनोवैज्ञानिक आधार पर-
- अनुकरणात्मक ललित कला-मूर्ति, चित्र ।
- आत्माभिव्यंजक ललित कला-गीत, काव्य, नृत्य।
- अलंकरणात्मक ललित कला-श्रृंगार।
प्रचार तथा व्यावहारिक उपयोगिता की दृष्टि से हीगेल महोदय ने कला को तीन वर्गों में विभाजित किया है-
- प्रतीकवादी-वास्तु।
- अभिजात्यवादी अथवा शास्त्रीय-मूर्ति।
- रोमानी अथवा स्वच्छन्दतावादी अथवा भावात्मक-चित्र, गीत, काव्य।
इसी प्रकार अनेक रूपों में कला का विभाजन हुआ है। अपने-अपने दृष्टिकोण को लेकर विद्वानों ने कला के रूप का वर्गीकरण किया है। इस प्रकार ललित कलाओं के वर्गीकरण में कितना तत्त्व है यह विचारणीय है। उपयोगी वस्तुएं भी लालित्य गुण से विभूषित की जाती हैं। लालित्य पूर्ण वस्तुओं में भी उपयोगिता संचरित की जाती है। डॉ० भोलानाथ तिवारी के विचार में ललित कला में स्थान पाने वाली कुछ उपयोगी कलाएँ भी हो गई है। अतः तालिका दृष्टि में कला का वर्गीकरण असम्भव है। क्रोचे के शब्दों को दुहराते हुए डॉ० तिवारी कहते हैं यह वर्गीकरण सुविधा मूलक कर लिया गया है ज्ञान को वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है इसी प्रकार कला को भी समझना चाहिये।
कला के द्वारा समस्त जनसमुदाय आह्लादिक वातावरण का रसास्वादन और आनन्द प्राप्त करता है। कला आनन्द व प्रमोद का ही साधन नहीं है वरन् जीवन की सहज अभिव्यक्ति भी उसका प्रधान अंग है। कला ही जीवन का मुख्य अंग है।
चित्रकला- चित्रकला का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव जाति का इतिहास। अपना सांस्कृति विकास करने के लिए मनुष्य ने जिन अंशों से श्री गणेश किया उसमें चित्रकला भी एक है जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त चित्रकला हमारी सहचरी है।
श्री राय कृष्ण दास के शब्दों में- “किसी एक तल पर जो सम हो वह समता खमदार भी हो सकती है जैसे- कुम्भ आदि का बाहरी भाग और कटोरी, रकाबी आदि का भीतरी भाग एवं लदावदार (पाटन) आदि। पानी, तेल अथवा अन्य माध्यम से घोले हुए अथवा एक व एकाधिक रंग की रेखा एवं रंगा मेजी द्वारा किसी रमणीय आकृति के अंकन को और उसी प्रसंग में निम्नोन्नत तथा एकाधिक तल और पहलू दर्शाने को चित्रण कहते हैं।” श्री देवखरे के अनुसार- “एक रंग द्वारा किसी भी आकृति एवं लम्बाई, चौड़ाई तथा मोटाई आदि का आलेखन ही चित्रण कहलाता है।”
पाश्चात्य विद्वानों ने ललित कला व उपयोगी कला के दो भेद किये हैं। ललित कला के अन्तर्गत चित्रकला का प्रमुख स्थान है। इसमें महनीय तत्त्वों का सम्मिश्रण, संकलन स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। रंग और रेखाओं से अनिवर्चनीय विचारों का उद्घाटन भारतीय कलाकारों की देश को आलौकिक देन है। वेद, वेदांग, काव्य, कोश आदि सभी में किसी न किसी रूप में चित्रकला की चर्चा है। प्राचीनतम विद्या ज्योतिष शास्त्र में भी चित्रकला का स्थान स्पष्ट है। पंचांग में एक पक्षी द्वारा शकुन विचार होता है। पक्षी का चित्रण इस बात की पुष्टि करता है। इस ग्रंथ में भविष्यफल ज्ञात होता है और ये सब चित्ररूप में है। बौद्धकाल में चित्रकला विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम थी। लोग अपना चित्र दर्पण में देखकर बनाते थे। उपनिषद् काल से गुप्त काल तक कला पुस्तकों में चार प्रकार के चित्रों का वर्णन है।
1.विद्वचित्र- वास्तविक आकृति को कहते हैं जैसी दर्पण में पड़ी परछाई के द्वारा अनुभव की जाती है। इस प्रकार के चित्र फारसी में भी पाये जाते हैं और वे आबूहेव कहलाते हैं।
- अविद्वचित्र- अपनी कल्पना से मनोगत भावों के आधार पर चित्र रचना को चित्रकार इसी नाम से पुकारते हैं।
- रसचित्र- की परम्परा बड़ी प्राचीन है इसमें विभिन्न रसों की अभिव्यक्ति है।
- धूलिचित्र- अल्पना, चौक पूरना, साँझी व रंगोली आदि इसके उदाहरण हैं, अलंकारिता, कला इसके मुख्य उद्देश्य हैं।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
- चित्रकला की उत्पत्ति | चित्रकला का विकास | चित्रकला की उत्पत्ति एवं विकास
- भारतीय कला | भारतीय कला के स्रोत | Indian art in Hindi | Sources of Indian Art in Hindi
- भारतीय कला की विशेषतायें | भारतीय कला की आधारभूत विशेषतायें
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