मगध राज्य का उत्कर्ष | मगध की भौगोलिक स्थिति | हर्यक कुल | बिम्बिसार
मगध राज्य का उत्कर्ष
प्रस्तावना- छठी शताब्दी ई०पू० में भारत की राजनीति में अधिक हलचल थी। राजतन्त्र एवं गणतन्त्र शासन-प्रणालियों के रूप में तत्कालीन राजनीति अनेक सुखप्रद एवं दुखप्रद प्रसंगों में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही थी। इतना होने पर भी इस समय राजनैतिक उथल- पुथल तथा वैविध्य के फलस्वरूप भारत में परोक्ष रूप से साम्राज्यवादी तथा विस्तारवादी शक्तियों द्वारा सर्वश्रेष्ठ महत्व प्राप्त करने के लिए यत्र-तत्र प्रयास चल रहे
बुद्धयुगीन चार प्रमुख राजतन्त्रों के पारस्परिक संघर्ष द्वारा मगध नित्य-प्रति राजनैतिक विस्तार की ओर अग्रसर हो रहा था। बुद्धकालीन चार राज्य साम्राज्यवादी एवं विस्तारवादी नीति के पोषक थे। यद्यपि मगध को कई अवसरों पर उत्थान पतन को भी देखना पड़ा परन्तु उसे विशेष दुर्दिन देखने का अवसर नहीं आ सका। मगध राज्य के महत्व का यह राजनैतिक पक्ष है। मगध राज्य के ऐतिहासिक महत्व में सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं का भी योगदान था। मगध में अनेक क्रान्तिकारी जागरण तथा परिवर्तन होते रहे। अविच्छिन्न समय तक यह राज्य भारतीय सभ्यता और संस्कृति का मुख्य स्थल (केन्द्र) रहा। मगध में अनेक गौरवयुक्त राजवंशों का अभ्युदय हुआ।
मगध और इसकी भौगोलिक स्थिति-
प्राचीन मगध में आधुनिक बिहार के दक्षिणी भाग में स्थित पटना तथा गया जिले के प्रदेश सम्मिलित थे। इसके उत्तर में गंगा तथा पश्चिम में सोन नदियाँ बहती थीं। मगध के दक्षिण में विन्ध्याचल पर्वत तथा पूर्व में चम्पा नदी थी। मगध की सबसे प्राचीन राजधानी राजगृह थी जो राजगिरि के निकट उपस्थित थी। प्राचीन ग्रन्थों में मगध के विभिन्न नामों का उल्लेख मिलता है जैसे वृहद्रथपुर, कुशाग्रपुर, मगधपुर, वसुमति तथा बिम्बिसार इत्यादि।
भारतीय इतिहास के अन्य अनेक प्रसंगों की भाँति मगध का प्रारम्भिक इतिहास विवाद, अप्रामाणिकता तथा अनिश्चितता के गर्त में डूबा हुआ है।
ऋग्वेद में कहा गया है कि प्रमगन्द नामक राजा ‘किकात’ में राज्य करता है। ‘किकात’ राज्य मगध का ही आदि नाम है। अथर्ववेद की एक स्तुति में कहा गया हैं कि ‘मगध राज्य में ज्वर का प्रकोप हो।’ अनुमान लगाया जाता है कि मगध अति प्राचीन राज्य थे। उस काल में मगध राज्य में आधुनिक पटना तथा गया के जिले सम्मिलित थे। महाभारत के वर्णनानुसार कुरुवंशी राजा वसु ने मगध राज्य पर विजय प्राप्त करके, अपने राज्य में मिला लिया। उसके पश्चात् उसके पांच पुत्रों बृहद्रथ, प्रत्यग्रह, कुश, यदु तथा माकेल्ल साम्राज्य को आपस में विभक्त कर लिया। विभाजन के फलस्वरूप वसु के पुत्र वृहद्रथ को मगध राज्य प्राप्त हुआ। इसी समय से मगध का वास्तविक इतिहास प्रारम्भ होता है। बृहद्रथ ने गिरिव्रज को अपनी राजधानी बनाया। इसी स्थान पर बाद में राजगृह की स्थापना हुई तथा यह मगध राज्य की गौरवशाली राजधानी बनी। बृहद्रथ मगध राज्य का स्वतन्त्र शासक था तथा उसे ही मगध साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है।
महाभारत काल में मगध राज्य पर जरासन्ध नामक राजा शासन कर रहा था। वह बड़ा ही शक्तिशाली, महत्वाकांक्षी एवं साम्राज्यवादी शासक माना जाता है। उसने अनेक क्षत्रिय राजाओं को परास्त कर अपने अधीन कर लिया। क्षत्रिय राजा जरासन्ध की शक्तिशाली सेना के कारण आतंकित एवं भयग्रस्त रहते थे। उसका आतंक चारों ओर छा गया तथा उसने अनेक राजाओं को बन्दीगृह में डाल दिया। महाभारत की अनुश्रुति के अनुसार, “जिस प्रकार सिंह महागज को पकड़ कर गिरिराज की कन्दरा में बन्द कर देता है उसी प्रकार जरासन्ध ने राजाओं को परास्त करके गिरिव्रज में बन्दी बना लिया। ऐसी विकट परिस्थिति को देखकर श्रीकृष्ण ने पांडवों की सहायता से जरासन्ध को परास्त किया। युद्ध में जरासन्ध की मृत्यु हुई तथा मगध-राज्य का पतन होने लगा। उसकी मृत्यु के पश्चात् कई राजाओं ने मगध पर शासन किया। किन्तु उसमें से कोई भी इतना योग्य, शक्तिशाली एवं प्रतिभावान नहीं था जो मगध राज्य को फिर से उन्नति पथ पर ले जाता। इस वंश के अन्तिम राजा के रूप में रिपुंजय का नाम मिलता है। प्राप्त प्रमाणों के आधार पर वह अयोग्य शासक था तथा अपने मन्त्री पुलिक के पड्यन्त्र का शिकार होकर वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। पुलिक ने अपने पुत्र बालक को मगध के राजसिंहासन पर बैठाया तथा अन्य पुत्र प्रद्योत को अवन्ति का शासक बनाया। परन्तु थोड़े दिनों बाद भट्टिय नामक सामन्त ने पुलक के पुत्र बालक की हत्या कर दी एवं बिम्बिसार को गद्दी पर बैठाया। इस प्रकार मगध राज्य के रंगमंच पर बृहद्रथ तथा पुलिक के राजवंश समाप्त हो गये।
उपरोक्त राजवंशों की समाप्ति पर मगध में जिस राजवंश का उदय हुआ उसके विषय में विभिन्न मत हैं। पुराणों के अनुसार बृहद्रथ कुल के पश्चात् शिशुनाग वंश ने मगध की सत्ता धारण की तथा इस कुल के अन्य शासकों में काव्यवर्ण, क्षेमधर्मन, क्षेमजित, बिम्बिसार, अजातशत्रु, दर्शक, उदय अथवा उदासीन, नन्दिवर्धन एवं महानन्दिन, क्रमानुसार उत्तराधिकार धारण करते रहे। मत्स्यपुराण के अनुसार शैशुनाग वंश ने 360 वर्ष तक राज्य किया। डाक्टर बी०ए०स्मिथ पुराणों की शैशुनाग वंशावली, को सही मानते हैं परन्तु वे इस वंश के शासनकाल की अवधि को गलते मानते हैं। इस मत के आलोचकों का कथन है, अश्वघोष के अनुसार बिम्बिसार हर्यक कुल का शासक था तथा शैशुनाग वंश से उसका कोई सम्बन्ध नहीं था। महावंश के अनुसार तो शैशुनाग वंश की स्थापना, बिम्बिसार के पश्चात् हुई थी। पुराणों में कहा गया है कि शिशुनाग प्रद्योतों के गौरव का हरण करेगा। प्रद्योत बिम्बिसार का समकालीन था। इस प्रमाण के आधार पर शिशुनाग का आगमन चण्ड प्रद्योत महासेन के पश्चात् हुआ होगा तथा बिम्बिसार एवं चण्डप्रद्योत में समकालीनता होने के कारण शैशुनाग वंश का प्रादुर्भाव भी बिम्बिसार के पश्चात् हुआ होगा। पुराणों के अनुसार वैशाली तथा वाराणसी, शिशुनाग के अधिकार में थे। वास्तव में वैशाली पहले से ही बिम्बिसार एवं अजातशत्रु के अधिकार में थी। इस प्रमाण के आधार पर भी शिशुनाग वंश का प्रादुर्भाव बिम्बिसार के पश्चात् ही हुआ होगा। उपरोक्त परिस्थितियों एवं प्रमाणों के आधार पर डा० राय चौधरी, डा० मजूमदार तथा डा० राधाकुमुद मुखर्जी के मतानुसार बिम्बिसार ने हर्यक कुल तथा उसके बाद शिशुनाग वंश की नींव डाली। इस मत की पुष्टि में अन्य प्रमाण भी प्राप्त होते हैं जो निम्न प्रकार से हैं-
(1) पुराणों के अनुसार शिशुनाग ने अवन्ति के प्रद्योत वंश का नाश किया। प्रद्योत बिम्बिसार का समकालीन था तथा प्रद्योत के पश्चात् अवन्ति में उसी राजवंश के पालक, आर्यक, अवन्तिवर्धन एवं विशाखयूप नामक राजा हुए थे। इससे प्रमाणित होता है कि चण्डप्रद्योत के पश्चात् भी अवन्ति में उसका वंश शासन करता रहा। अतः शिशुनाग को बिम्बिसार से पूर्व का शासक नहीं माना जा सकता।
(2) बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु ने ही सर्वप्रथम वैशाली पर विजय प्राप्त की थी। महालंकारवत्थु नामक पाली ग्रन्थ के अनुसार शिशुनाग ने राजगृह का त्याग कर वैशाली को राजधानी बनाया तथा शिशुनाग का आगमन, निश्चय ही अजातशत्रु के पश्चात् हुआ था।
(3) महालंकारवक्षु ग्रन्थ में कहा गया है कि शिशुनाग द्वारा राजगृह के परित्याग के कारण, राजगृह उजड़ गया परन्तु बिम्बिसार एवं अजातशत्रु के काल में राजगृह उन्नति एवं प्रगति की पराकाष्ठा पर था। इससे भी यही प्रमाणित होता है कि शिशुनाग वंश का उदय हर्यक कुल के पश्चात्य ही हुआ था।
(4) बिम्बिसार के समय पाटलिपुत्र नगर का अस्तित्व नहीं था इसकी स्थापना तो बिम्बिसार के पश्चात् उदयन ने की थी। किन्तु शिशुनाग के पुत्र कालाशोक ने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर यही उचित प्रतीत होता है कि बिम्बिसार शिशुनाग से पहले हुआ है तथा उसका सम्बन्ध शिशुनाग वंश से नहीं था। बौद्ध साहित्य में लिखा हुआ है कि बिम्बिसार हर्यक कुल का शासक था।
हर्यक कुल- हर्यक कुल की उत्पत्ति के प्रमाण अप्राप्त हैं। महावंश के अनुसार बिम्बिसार इस कुल का प्रथम शासक नहीं था। क्योंकि पन्द्रह वर्ष की आयु में, उसके पिता भट्टिय ने उसे सिंहासनारूढ़ किया। तिब्बती परम्परा के अनुसार बिम्बिसार के पिता का नाम महापद्म तथा पुराणों के अनुसार क्षेमजित शत्रुज या क्षेत्रोजा था। बिम्बिसार का दूसरा नाम श्रेनिक था। हर्यक वंश का संस्थापक चाहे जो भी रहा हो- परन्तु बिम्बिसार द्वारा ही इस बंश ने प्रगति एवं उन्नति के मार्ग का अनुसरण किया।
बिम्बिसार- मगध की प्रतिष्ठा का शिलान्यास करने वाला प्रथम व्यक्ति प्रसिद्ध शासक, राजा बिम्बिसार था।
जैन ग्रन्थों में उसे ‘श्रेणिक’ कहा गया है। पाली गाथाओं के अनुसार बिम्बिसार ने 50 वर्ष तक राज्य किया तथा महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण से आठ वर्ष पूर्व शरीर त्याग किया। इस प्रकार बिम्बिसार के राज्यारोहण की तिथि 547 ई०पू० तथा निधन की तिथि 495 ई०पू० निर्धारित होती है।
वैवाहिक सम्बन्ध- बिम्बिसार कुशल राजनीतिज्ञ एवं कूटनीतिज्ञ था। उसे तत्काल राजनैतिक परिस्थिति का अच्छा ज्ञान था। अतः उसने अपने साम्राज्य विस्तार के लिये शस्त्र प्रयोग के साथ-साथ वैवाहिक सम्बन्धों का भी प्रयोग किया। मगध की शक्ति के सुनिश्चित एवं प्रभावपूर्ण विकास के प्रतिद्वन्द्वी कोशल, वत्स तथा अवन्ति राज्य थे। इस वस्तुस्थिति को समझते हुए बिम्बिसार ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने के लिए वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये, ये इस प्रकार हैं-
(1) उसने अपने समकालीन प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी राजा महाकोशल की पुत्री कोशल देवी से विवाह करके, कोशल राज्य की मित्रता के साथ-साथ काशी ग्राम भी दहेज स्वरूप प्राप्त किया। केवल काशी ग्राम से ही मगध राज्य की एक लाख रुपये की वार्षिक आय होती थी।
(2) तत्कालीन राजनीतिक क्षेत्र में लिच्छवी गणराज्य भी शक्तिशाली था। अतः बिम्बिसार ने अपने साम्राज्य विस्तार हेतु लिच्छवी राज्य की मित्रता प्राप्त करने के लिये लिच्छवी राजा चेटक की पुत्री चेल्लना (छलना) से विवाह किया।
(3) बिम्बिसार का तीसरा विवाह मद्र देश की राजकुमारी खेमा के साथ हुआ था।
(4) महाबग्ग के अनुसार, बिम्बिसार की पाँच सौ पलियाँ थीं। इतनी बड़ी पत्नी-संख्या चाहे अतिशयोक्ति हो परन्तु संभव है कि उसने अन्य छोटे-बड़े राजवंशों से विवाह सम्बन्ध स्थापित कर अपनी शक्ति में वृद्धि की होगी।
साम्राज्य विस्तार- बिम्बिसार की विस्तारवादी नीति एवं प्रवृत्ति का प्रथम प्रहार अंगराज्य पर हुआ। अंग-शासक ब्रह्मदत्त को मार कर, वह राज्य मगध के अधीन कर लिया गया। इसके पूर्व, वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा मगध की शक्ति में वृद्धि हो चुकी थी। अब गङ्गा की घाटी में मगध को पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त हो गया तथा वैवाहिक सम्बन्धों के बावजूद भी कोशल राज्य उसका प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी बना रहा।
इस प्रकार कूटनीति एवं युद्ध का आश्रय लेकर बिम्बिसार ने अपनी शक्ति का चतुर्दिक विकास किया तथा मगध राज्य को उन्नति के पथ पर खड़ा किया।
महावग्ग के अनुसार बिम्बिसार की अधीनता में 80,000 ग्राम थे। बुद्ध चर्चा से पता चलता है कि बिम्बिसार का राज्य 300 योजन में विस्तृत था। बिम्बिसार के राज्य में कई गणतन्त्र राज्य भी थे। उसके राजनैतिक प्रभाव के परिणामस्वरूप, गान्धार-नरेश पुष्करसारी ने अपना राजदूत मगध-दरबार में भेजा था।
मगध की प्राचीन राजधानी गिरिव्रज थी- परन्तु यह स्थान लिच्छवियों की बढ़ती हुई शक्ति के कारण पूर्णतः सुरक्षित नहीं था अतः बिम्बिसार ने गिरिव्रज से उत्तर की ओर राजगृह नामक राजधानी की स्थापना की। राजगृह के अवशेष, पटना से लगभग पचास मील दूर राजगिरि नामक आधुनिक ग्राम में अभी वर्तमान हैं।
बिम्बिसार के कई पुत्र थे। जैन-ग्रंथों के अनुसार उसके पुत्रों के नाम इस प्रकार हैं- कुणिक या अजातशत्रु, हल्ल, वेहल्ल, अभय, नन्दिसेन तथा मेघकुमार। इनमें से प्रथम तीन चेल्लना के द्वारा तथा तीसरी लिच्छवी की नगरवधू आम्रपाली द्वारा उत्पन्न हुए। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार अजातशत्रु, विमल, कोन्डन्न, वेहल्ल तथा शिलावत पुत्रों द्वारा बिम्बिसार शंकित रहता था। दर्शक नामक पुत्र से बिम्बिसार को विशेष प्रेम प्रतीत होता है। अपने शासन-काल के अन्तिम वर्षों में उसने राज्यकार्य का सारा भार दर्शक के सुपुर्द कर दिया था। इससे अजातशत्रु अप्रसन्न हो गया तथा अपने पिता बिम्बिसार की हत्या करके, शासनाधिकार ग्रहण किया। तत्पश्चात्, बिम्बिसार के कृपापात्र पुत्र दर्शक ने अजातशत्रु के भय से बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली।
बौद्ध साहित्य का कथन है कि अपने चचेरे भाई देवदत्त की मन्त्रणा का अनुसरण करके ही अजातशत्रु ने अपने पिता को बन्दी बना लिया तथा अन्न-जल के बिना बिम्बिसार कारागार में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। इससे प्रतीत होता है कि अजातशत्रु वास्तविक पितृहन्ता नहीं था बल्कि उसकी उदासीनता के कारण बिम्बिसार की मृत्यु हुई। इस घटना के पश्चात्, अजातशत्रु को बड़ा पश्चात्ताप हुआ ।
इस प्रकार मगध साम्राज्य की नींव रखने वाले शासक बिम्बिसार की मृत्यु के पश्चात् मगध साम्राज्य के प्रांगण में दूसरे प्रतापी शासक अजातशत्रु का आविर्भाव हुआ।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
- अजातशत्रु | अजातशत्रु का धर्म | Ajatashatru in Hindi | Ajatashatru’s religion in Hindi
- मगध का उत्कर्ष | ई०पू०छठी शताब्दी से चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण तक मगध के उत्कर्ष की विवेचना
- छठी शताब्दी के गणराज्यों के गणतांत्रिक व्यवस्था | छठी शताब्दी के गणराज्यों के गणतांत्रिक व्यवस्था की विवेचना
- गणतंत्रों की राजतंत्रीय व्यवस्था | गणराज्यों का उदय | दस गणराज्य | गणराज्यों की विशेषताएँ | गणराज्यों की दुर्बलताएँ
- नंदवंश की उत्पत्ति | नन्दवंश की उपलब्धियाँ | Origin of Nanda Dynasty in Hindi | Achievements of Nanda Dynasty in Hindi
Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- [email protected]