इतिहास

अजातशत्रु | अजातशत्रु का धर्म | Ajatashatru in Hindi | Ajatashatru’s religion in Hindi

अजातशत्रु | अजातशत्रु का धर्म | Ajatashatru in Hindi | Ajatashatru’s religion in Hindi

अजातशत्रु

अजातशत्रु, मगध साम्राज्य विस्तार श्रृंखला की दूसरी कड़ी था। अपने पिता के समान वह भी बड़ा महत्वाकांक्षी तथा साम्राज्यवादी भावना से ओत-प्रोत था। सिंहासनारूढ़ होने से पूर्व, बिम्बिसार के जीवन-काल में वह अंगराज्य में मगध का गवर्नर रह चुका था। अतः उसे व्यावहारिक अनुभव एवं कुशलता भी प्राप्त थी।

साम्राज्य विस्तार- अजातशत्रु का परम ध्येय मगध साम्राज्य की शक्ति को संगठित करके अपने राज्य का विस्तार करना था। अतः उसने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये क्रमानुसार संघर्ष किया।

(1) कोशल से युद्ध- बिम्बिसार की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी कोशल देवी की मृत्यु हो गई। यह कोशल राजा प्रसेनजित की बहन थी। संयुक्त निकाय के अनुसार सम्राट प्रसेनजित ने अपने पितृहन्ता भान्जे, अजातशत्रु का काशी ग्राम का कर देना बन्द कर दिया। इस कारण मामा-भांजे के मध्य युद्ध ठन गया। कभी प्रसेनजित विजयी होता तो कभी अजातशत्रु, परन्तु अन्त में अजातशत्रु को विजय प्राप्त हुई। कोशल तथा मगध के बीच सन्धि हुई जिसकी पहली शर्त के अनुसार अजातशत्रु को, प्रसेनजित की पुत्री वाजिरा विवाहस्वरूप प्राप्त हुई तथा दूसरी शर्त के अनुसार काशी ग्राम फिर से मगध-साम्राज्य को दे दिया गया।

(2) वैशाली से युद्ध- अजातशत्रु ने दूसरा युद्ध वैशाली के लिच्छवियों से किया। यद्यपि अजातशत्रु की माता चेल्लना वैशाली की राज-कन्या थी परन्तु अजातशत्रु की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा के समक्ष यह सम्बन्ध नगण्य था। जैन साहित्य के अनुसार वैशाली की लिच्छवी राज-कन्या से बिम्बिसार के दो और पुत्र भी थे-हल्ल और बेहल्ल। अजातशत्रु के भय से वे दोनों अपने नाना चेटक के पास भाग गये। इस कारण अजातशत्रु ने चेटक के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। बौद्ध साहित्य के अनुसार मगध एवं वज्जि राज्य के मध्य गंगा नदी बहती थी। नदी के पास ही एक बन्दरगाह तथा खान थी। अजातशत्रु के समय वज्जि-संघ ने इस प्रदेश पर पूरा अधिकार कर लिया फलतः अजातशत्रु ने उनके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार चाहे जो भी कारण रहा हो अजातशत्रु ने वज्जियों को भगाने के लिए भीषण प्रबन्ध प्रारम्भ कर दिया। महापरिनिब्बान सुत्त के अनुसार उसने कहा था-

“I will root out and destroy these Vajjians, mightly and powerful they may be and bring them to utter ruin.”

उसने शोणभद्र के संगम पर पाटलिपुत्र में एक दुर्ग का निर्माण किया तथा लिच्छवियों को उन्हीं की भूमि पर हरा कर, उनकी स्वतन्त्रता का पूर्ण हरण कर लिया। दीर्घनिकाय के अनुसार उसने पहले तो कूटनीति एवं छल द्वारा वज्जियों में फूट डाल कर उनकी शक्ति को क्षीण कर दिया, तत्पश्चात् युद्ध द्वारा उनकी स्वतन्त्रता नष्ट कर दी।

इस विजय के परिणामस्वरूप अजातशत्रु ने वैशाली पर अधिकार स्थापित कर लिया। काशी-प्राप्ति एवं अंग-प्राप्ति तो पहले हो चुकी थी। अब केवल अवन्ति राज्य ही शेष था जो कदाचित् मगध की शक्ति को चुनौती दे सकता था। मज्झिम निकाय के अनुसार अजातशत्रु अवन्ति-राज प्रद्योत से डरता था तथा उसके आक्रमण की आशंका से राजधानी राजगृह का दुर्गीकरण भी कराया था। अजातशत्रु के जीवन-काल में मगध एवं अवन्ति के मध्य एकच्छत्र राजा की उपाधि के लिये निर्णायक युद्ध न हो सका क्योंकि ऐसा निर्णय लेने के पूर्व ही अजातशत्रु की मृत्यु हो गई। बौद्ध साहित्य के अनुसार अजातशत्रु ने 32 वर्ष तथा पुराणों के अनुसार 25 वर्ष तक शासन किया तथा अपनी मृत्यु के पूर्व मगध साम्राज्य में अंग, वैशाली एवं काशी के प्रदेशों को सम्मिलित कर लिया था।

अजातशत्रु का धर्म-

अजातशत्रु के धर्म के सम्बन्ध में विद्वानों के मध्य मतभेद है। इसके शासन-काल में दोनों युग-प्रवर्तकों महावीर स्वामी एवं महात्मा बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था, अतः वह दोनों धर्मों से सम्बन्धित रहा होगा। परन्तु कुछ विद्वान् यदि उसे पूर्णतः बौद्धमतानुयायी मानते हैं तो कुछ पूर्ण जैन धर्मानुयायी।

अजातशत्रु को जैन मतानुयायी मानने वाले विद्वान् निम्नलिखित तर्कों का सहारा लेते हैं-

(1) जैन ग्रंथों में अजातशत्रु को पितृहन्ता नहीं कहा गया है। उनके अनुसार बिम्बिसार ने आत्म-हत्या द्वारा प्राणविसर्जन किये थे। इससे प्रमाणित होता है कि जैन ग्रन्थ अपने अनुयायी को पितृहन्ता नहीं मानते।

(2) जैन ग्रन्थों के अनुसार अजातशत्रु अपने परिवार सहित, महावीर स्वामी के दर्शनार्थ वैशाली गया तथा जैन धर्म को ही सच्चा धर्म मान कर भिक्षुओं की सराहना की।

(3) ऐसा वर्णन भी प्राप्त होता है कि अपने चचेरे भाई देवदत्त के प्रभाव में आकर, अजातशत्रु महात्मा बुद्ध से ईर्ष्या रखने लगा था।

अजातशत्रु का झुकाव बौद्ध धर्म की ओर प्रमाणित करने के लिए, निम्न साक्ष्य सामने आते हैं-

(1) भरहुत शिल्प के एक अभिलेख में अजातशत्रु एवं महात्मा बुद्ध के वार्तालाप का उल्लेख है तथा स्त्रियों से घिरे हुए हाथी पर बैठे राजा को बुद्ध के समक्ष झुकते हुए चित्रित किया गया है। लेख रूप में “अजातशत्रु भगवतो वन्दते” शब्द भी उत्कीर्ण है।

(2) महापरिनिब्बान सुत्त के अनुसार महात्मा बुद्ध के दाह-संस्कार के पश्चात् अजातशत्रु के क्षत्रिय होने के नाते उनके अवशेषों को प्राप्त करके राजगृह में, उन पर स्तूप निर्माण कराया था।

(3) महात्मा बुद्ध के निर्वाणोपरान्त अजातशत्रु ने प्रथम बौद्ध संगीति के सभा स्थल पर सभा-भवन का निर्माण कराया था।

उपरोक्त विरोधी तर्कों के आधार पर अजातशत्रु के धर्म के विषय में कोई निश्चित मत नहीं दिया जा सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि वह दोनों धर्मों के प्रति सहिष्णु तथा उदार था।

उदायी अथवा उदायिन

पुराणों के अनुसार अजातशत्रु के पश्चात् दर्शक तथा उसके बाद उदायी मगध-साम्राज्य के सिंहासन पर बैठे । पाली तथा जैन ग्रन्थ दर्शक के विषय में कुछ नहीं कहते- उनके अनुसार अजातशत्रु के पश्चात् उनका पुत्र उदायी उत्तराधिकारी बना। जैन ग्रन्थ परिशिष्ट पर्वन के अनुसार उदायी की माता पद्मावती अजातशत्रु की रानी थी परन्तु भासरचित ‘स्वप्नवासवदत्ता’ के अनुसार दर्शक मगध का शासक एवं पद्मावती वत्सराज उदयन की रानी थी। इसके विपरीत डा० राय चौधरी दर्शक को एक माण्डलिक राजा मानते हैं जो बिम्बिसार का समकालीन था। परन्तु वास्तविक रूप में यह दर्शक बिम्बिसार का पुत्र था। डॉ० भण्डारकर दर्शक तथा बिम्बिसारकालीन ‘नागदर्शक’ को एक ही व्यक्ति मानते हैं।

महावंश के अनुसार उदयभद्र (उदायी) ने अपने पिता अजातशत्रु की हत्या करके मगध राज्य का सिंहासन प्राप्त किया, हेमचन्द्र के अनुसार उदायी को पिता की हत्या करने के बाद बड़ा क्षोभ हुआ। उदायी अजातशत्रु के जीवन-काल में चम्पा का गवर्नर था। परिशिष्ट-पर्वन, गार्गी-संहिता एवं वायु-पुराण के अनुसार उदायी ने पाटलिपुत्र की स्थापना करके, मगध की राजधानी को राजगृह से हस्तान्तरित कर दिया। इस नयी राजधानी पाटलिपुत्र की स्थापना गंगा एवं सोन नदी के तट पर स्थापित करने का मुख्य कारण, प्रशासनिक, सैनिक एवं व्यापारिक दृष्टि से उपर्युक्त स्थान की आवश्यकता थी। पाटलिपुत्र की स्थापना उदायी के शासनकाल के चौथे वर्ष में हुई थी।

परिशिष्ट पर्वन के अनुसार उदायी का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी अबन्ति राज्य था। अंग, कोशल एवं वैशाली विजय के पश्चात् अवन्ति की शक्ति, मगध-साम्राज्य के लिये सिरदर्द बन गई थी। कथासरित्सागर से पता चलता है कि अवन्ति ने वत्सराज्य को अपने अन्तर्गत कर लिया था। इसके अतिरिक्त उदायी के एक शत्रु राजकुमार को शरण प्रदान कर अवन्तिराज ने मगध की शक्ति को चुनौती दी। परन्तु उदायी के समय भी मगध एवं अवन्ति में केवल प्रतिद्वन्द्विता ही बनी रही, युद्ध नहीं हुआ।

पुराणों के अनुसार उदायी ने 33 वर्ष तथा महावंश के अनुसार सोलह वर्ष तक शासन किया। उदायी के शासन काल में मगध साम्राज्य स्थिर रहा- न तो उसका विस्तार ही हुआ और न ही उसके क्षेत्र में कोई विघटन हुआ।

उदायी के उत्तराधिकारी

उदायी के पश्चात् मगध साम्राज्य के उत्तराधिकारियों के विषय में मतैक्य नहीं है। इसके प्रमाण तो प्राप्त होते हैं परन्तु उनके आधार पर मतैक्यता स्थापित करना कठिन है। प्रमाणों के आधार पर उदायी के उत्तराधिकारियों के नाम इस प्रकार हैं-

पुराणों के अनुसार-नन्दिवर्धन, तदुपरान्त महानन्दिन ।

दीपवंश तथा महावंश के अनुसार अनुरुद्ध, मुण्ड तथा नागदासक। इन तीनों द्वारा अपने- अपने पिता की हत्या के पश्चात् उत्तराधिकार प्राप्त करने का वर्णन है।

दिव्यावदान के अनुसार- मुण्ड तथा काकवर्ण।

अंगुत्तरनिकाय के अनुसार-मुण्ड पाटलिपुत्र का शासक बताया गया है।

परिशिष्ट पर्वन के अनुसार-उदायिन का कोई उत्तराधिकारी नहीं था।

उपरोक्त विरोधी मतों में सामंजस्य स्थापित करना अति दुष्कर कार्य है। अतः उदायी के पश्चात् मगध के शासकों का वर्णन निश्चित रूप से नहीं किया जा सकता।

ऐसा प्रतीत होता है कि उदायी के पश्चात् मगध साम्राज्य के अवनति के लक्षण प्रकट होने लगे तथा बिम्बिसार एवं अजातशत्रु जैसे अचल एवं महत्वाकांक्षी व्यक्तियों के अभाव में मगध-साम्राज्य में शिथिलता आ गई। हर्यक वंश पतनोन्मुख होकर एक नये राजवंश के आगमन का मार्ग प्रशस्त करने लगा।

शिशुनाग अथवा शैशनाग वंश

सिंहली गाथाओं के अनुसार शिशुनाग एक अमात्य तथा वाराणसी के कार्यवाहक- गवर्नर के रूप में कार्य कर रहा था। पितृहन्ता नागदासक के विरुद्ध क्रान्ति द्वारा मगध जनता ने उसे सिंहासन पर बैठाया। पुराणों के अनुसार शिशुनाग जिस वंश का प्रवर्तक तथा उस वंश के पाँचवें शासक का नाम बिम्बिसार था। सिंहल सूची में बिम्बिसार को प्रथम तथा शिशुनाग को सातवाँ सम्राट माना गया है। परन्तु इस विषय में हम पहले ही कह चुके हैं कि बिम्बिसार एवं शिशुनाग एक ही वंश के न होकर अलग-अलग राजवंशों के व्यक्ति हैं। डाक्टर राय चौधरी सिंहल गाथाओं से सहमत हैं तथा उनका मत है कि शिशुनाग अन्तिम हर्यकवंशीय मगध नरेश का बनारस में नियुक्त वाइसराय तथा उसकी योग्यता के कारण, अनेक मत्रियों एवं अधिकारियों को प्रभावित करके उसने मगध का सिंहासन प्राप्त कर लिया था।

महावंश ट्रीका का कथन है कि शिशुनाग वैशाली के लिच्छवी राजा तथा स्थानीय नगर वधू की सन्तान था। ऐसा प्रतीत होता है कि वैशाली से सम्बन्धित होने के कारण उसने राजगृह का त्याग कर, वैशाली को अपनी राजधानी बनाया होगा।

शिशुनाग बड़ा वीर, उत्साही, साहसी एवं महत्वाकांक्षी सम्राट् था। सिंहासनारूढ़ होते ही, उसने मगध-राज्य की स्थिर गति को सक्रियता प्रदान करने का बीड़ा उठाया। उसने सर्वप्रथम, अवन्ति राज्य पर आक्रमण कर मगध-साम्राज्य की चिरकांक्षा की पूर्ति की। प्रद्योत राजवंश की सत्ता का अन्त करके, शिशुनाग ने अवन्ति को मगध का अंग बना दिया। डा० रायचौधरी के मतानुसार शिशुनाग द्वारा पराजित अवन्ति राजा का नाम अवन्तिवर्धन था। शिशुनाग ने वत्स राज्य का भी अन्त करके मगध की सीमा का विस्तार किया। इस प्रकार उसके शासन-काल में मगध साम्राज्य की शक्ति में बहुत विस्तार हुआ। पंजाब एवं सीमाप्रान्तीय प्रदेशों के अतिरिक्त समस्त उत्तरी भारत पर मगध-साम्राज्य का प्रभुत्व स्थापित हो गया। साम्राज्य के पश्चिमी प्रान्तों पर पूर्ण नियन्त्रण रखने के लिए, उसने अपने पुत्र को काशी-प्रान्त का शासक नियुक्त किया। शिशुनाग ने अट्ठारह वर्ष तक मगध राज्य पर सफलतापूर्वक शासन करके, मगध साम्राज्य के विकास को एक मोड़ प्रदान किया।

शिशुनाग अथवा शैशुनाग के उत्तराधिकारी

पुराणों के अनुसार शिशुनाग के पश्चात् काकवर्ण उसका उत्तराधिकारी बना। सिंहाली गाथाओं में उसका नाम कालाशोक है। भण्डारकर, जैकोबी तथा अन्य कई विद्वानों के अनुसार काकवर्ण तथा कालाशोक एक ही राजा के दो नाम हैं। कालाशोक ने वेशाली से राजधानी को हटाकर, फिर से पाटलिपुत्र को गौरव प्रदान किया। उसके शासन-काल की छदूसरी महत्वपूर्ण घटना, वैशाली में आयोजित द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन थी। इसका आयोजन कालाशोक शासन-काल में दसवें वर्ष में हुआ था। हर्षचरित के अनुसार यदि कालाशोक ही काकवर्ण था तो वह अपनी राजधानी के बाहर गले में छूरा भोंक कर मार डाला गया था। इस घटना की पुष्टि जैन तथा यूनानी वर्णनों द्वारा भी होती है। कालाशोक का वध संभवतः उसकी रानी के प्रपंच द्वारा हुआ था। प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि कालाशोक के पश्चात् उसके दस पुत्रों ने संयुक्त रूप से उत्तराधिकार धारण कर मगध पर शासन किया। महाबोधिवंश के अनुसार इन उत्तराधिकारियों के नाम इस प्रकार हैं-

(1) भद्रसेन, (2) कोरंडवर्ण, (3) भंगुर, (4) सर्वज्ञ, (5) जालिक, (6) उभय, (7) सचय, (8) कोख्य, (9) नन्दिवर्धन, (10) पचभक । पुराणों में कालाशोक के उत्तराधिकारी के रूप में केवल नन्दिवर्धन का ही उल्लेख है। कहा जाता है कि वह बड़ा विलासी राजा था तथा उसके शासन-काल में व्यभिचारिता की वृद्धि हुई। पारिवारिक कलह एवं शासन की दुर्बलता के कारण शिशुनाग वंश का अन्त हो गया।

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Pankaja Singh

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