छठी शताब्दी के गणराज्यों के गणतांत्रिक व्यवस्था | छठी शताब्दी के गणराज्यों के गणतांत्रिक व्यवस्था की विवेचना

छठी शताब्दी के गणराज्यों के गणतांत्रिक व्यवस्था | छठी शताब्दी के गणराज्यों के गणतांत्रिक व्यवस्था की विवेचना

छठी शताब्दी के गणराज्यों के गणतांत्रिक व्यवस्था

गणराज्य-

भारतीय राजनीति में गणराज्यों का अस्तित्व बुद्धकाल की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। उत्तर वैदिक काल में ही कुछ गणराज्यों का उदय हो गया था। राजाओं की प्रसासनिक कार्यों में रुचि का अभाव एवं निरंकुशता से मुक्ति के प्रयास के फलस्वरूप गणराज्यों का विकास हुआ। तत्कालीन साहित्य में दस गणराज्यों के अस्तित्व की जानकारी मिलती है। विद्वानों ने शासन केन्द्रों के नाम एवं गणराज्यों का उल्लेख इस प्रकार किया है- कपिलवस्तु के साकिय, अल्लकप्प के बुलि, केसपुत्त के कालाम, सुंसमारगिरी के भग्ग, रामगाम के कोलिय, पावा के मल्ल, कुसिनारा के मल्ल, पिफलिवन के मोरिय, मिथिला के विदेह, वैशाली के लिच्छवि, वैशाली के नाय (ज्ञातृक)। मैगस्थनीज ने कुछ और गणराज्यों का उल्लेख किया है परन्तु उनका समीकरण नहीं किया जा सका है। इन गणराज्यों में शाक्यों और लिच्छवियों का गणराज्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे और इन्हीं के विषय में सार्वाधिक सूचनायें भी मिलती हैं। लिच्छविगण को वज्जिगण भी कहा गया और यह कई क्षत्रिय कुलों से मिलकर बना था। वजि प्रदेश गंगा के उत्तर में नेपाल की तराई क्षेत्र में विस्तृत था। इसमें बिहार राज्य के मुजफ्फरपुर व चम्पारन जिले एवं सारन तथा दरभंगा जिले के कुछ भाग सम्मिलित थे। वह राज्य मगध के उत्तर तथा कोशल एवं मल्ल राज्यों के पूर्व में स्थित था। इस गणराज्य की राजधानी वैशाली थी जिसका तादाशम्य वर्तमान में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में गंडक नदी के तट पर स्थित बसाढ़, से किया जाता है। वैशाली में 7707 प्रासाद, 7707 कूटागार, 7707 आराम, 7707 कमल पुष्करिणी होने की जानकारी महावग्ग से मिलती है। वैशाली तीन भागों में विभक्त था 7000 घर स्वर्ण शिखर के, 14000 घर चांदी शिखर के एवं 21000 घर ताम्र शिखर के थे। यह क्रमशः उच्च, मध्यम एवं निम्नवर्गों के द्योतक हैं।

वज्जिसंघ ने बुद्ध के समय अपने को आठ संघों के एक समूह में संगठित कर लिया था जो अट्ठकुलिक कहलाते थे। इनमें विदेह, ज्ञातृक, लिच्छवि एवं वज्जि आदि सम्मिलित थे। दूसरे चार उग्र, भोग, ऐक्ष्वाकु एवं कौरव माने जाते हैं। वज्जि संघ के वज्जियों एवं लिच्छवियों में भेद नहीं किया जा सकता क्योंकि वज्जि इस संघ की एक पृथक् जाति भी थी एवं लिच्छवि आदि जातियों को सम्मिलित किये जाने से इस गणराज्य का नाम वज्जि था। इस तरह वैशाली केवल लिच्छवि वंश की ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण वृज्जि गणतंत्र की राजधानी थी। पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इक्ष्वाकु के पुत्र विशाल ने वैशालिक वंश की स्थापना की थी। राजा विशाल ने वैशाली नगर बसाया था।

कुछ विद्वानों की मान्यता है कि लिच्छवि लोग विदेशी थे। बील (सेमुएल) ने लिच्छवियों को यू-ची जाति का सदस्य माना है परन्तु भारत में यू-ची जाति का आगमन प्रथम शती ई० में हुआ था। अतः इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया जा सकता। डॉ० स्मिथ की मान्यता है कि वे तिब्बती शे। न्याय प्रणाली एवं शव संस्कार (शव जंगली जानवरों के भक्षण हेतु फेंका जाता था) के आधार पर ऐसा कहा गया है। रायचौधरी का कथन है कि तिब्बती न्याय व्यवस्था जिसमें तीन न्यायालय होते थे, सात न्यायालय वाली लिच्छवी न्याय व्यवस्था से अभिन्न नहीं कही जा सकती। शव संस्कार के विषय में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि जंगली जानवरों के भक्षण हेतु फेंके जाने का प्रचलन लिच्छवियों में था। जायसवाल एवं रायचौधरी आदि विद्वान लिच्छवियों को क्षत्रिय मानते हैं। इस सम्बन्ध में कहा गया है कि भगवान बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने पर उनके अस्थि अवशेषों की मांग लिच्छवियों ने भी की थी, क्योंकि भगवान बुद्ध भी क्षत्रिय थे और वे भी क्षत्रिय हैं। जैन ग्रंथ कल्पसूत्र में वैशाली के चेटक की बहिन त्रिशला को क्षत्रियाणी कहा है। मनु ने लिच्छवियों मल्लों को व्रात्य क्षत्रिय कहा है।

रायचौधरी ने लिखा है कि निष्कर्ष यही निकलता है कि लिच्छवि लोग भी क्षत्रिय थे किन्तु ब्राह्मण विधियों की अवहेलना करने के फलस्वरूप उन्हें व्रात्य कहकर निम्नकोटि का मान लिया गया।

शाक्य-

हिमालय की तराई में स्थित शाक्यों के गणराज्य का शासन केन्द्र कपिलवस्तु था और यह रोहिणी नदी के पश्चिमी तट पर स्थित था। संभवतः यह कोशल के अधीन रहा होगा। अतः सोलह महाजनपदों में इसका उल्लेख नहीं मिलता। सुत्तनिपात में बिम्बिसार द्वारा अपना परिचय पूछे जाने पर बुद्ध द्वारा स्वयं को शाक्य जाति में उत्पन्न तथा कौशल का निवासी बताया (कोसलेसु निकेतनो) है। शाक्य संघ में 80,000 कुल या पांच लाख जनसंख्या थी। इनमें से विरुद्धक (विडूड्भ) ने 77000 शाक्यों का क्रूरतापूर्वक वध कर दिया था। इस संघ में राजधानियों के अतिरिक्त अन्य नगरों के विषय में भी जानकारी मिलती है : छातुमा, सामगारा, कोमदास्स, सिलावती, मेदलुम्पा, नागरका, उलम्पा, देवदाहा, सकारा आदि। शाक्य संघ की सभा में 500 सदस्य थे जिसे शाक्य परिषद् कहा जाता था। इसका प्रमुख राजा कहलाता था। बुद्ध के पिता शुद्धोधन को राजा कहा गया है। विरुद्धक के आक्रमण के समय शाक्य संस्थागार में एकत्र हुए थे नगर के द्वार खोले जायें अथवा न खोले इस प्रश्न पर बहुमत जानने का प्रयास किया था।

कोलिय-

कोलियों को नागवंशी माना गया है उनका पूर्वपुरुष रामकाशी का नागवंशी नरेश था। कोलियों का राज्य गोरखपुर के दक्षिण भाग में स्थित था। उनकी राजधानी रामगाम थी इसके अतिरिक्त पांच अन्य नगरों का उल्लेख आया है हल्दावसाना, सजनेला, सापगा, उतरा एवं काकरापत्ता। कोलियों को शाक्यों से निकट रूप से सम्बद्ध (वैवाहिक) कहा गया है।

मल्ल-

मल्ल संघ पावा एवं कुशीनारा दो केन्द्रों में विभक्त था। पावा में महावीर ने देह त्याग किया था। दूसरी ओर कुशीनारा में बुद्ध का निर्वाण हुआ था। सुमंगलविलासिनी में पावा को कुशीनगर से तीन गावुत (लगभग 6 मील) दूर कहा है। उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसिया नामक स्थान से उत्खनन में महानिर्वाण स्तूप एवं चैत्य के अवशेष, ताम्रपत्र एवं मुद्रायें प्राप्त हुई हैं जो बुद्ध के निर्वाण स्थल को इंगित करते हैं।

पिष्फलिवन के मोरिय तथा अलकप्प के बुलि लोगों ने भी भगवान बुद्ध के शारीरिक अवशेषों के एक अंश की मांग की थी। केसपुत्र के आलार कालाम का नाम बौद्ध साहित्य में आता है। केसपुत्र संभवतः कोशल राज्य के अधीन था। चुल्लवग्ग में वत्सराज उदयन के पुत्र कुमार-बोधि का विवरण आया है जिसने सुसुमारगिरी में अपने नये बनवाये गये कोकनद प्रासाद में बुद्ध का स्वागत किया था।

वस्तुतः इन गणराज्यों को तत्कालीन राजतंत्रों की साम्राज्यवादिता का शिकार होना पड़ा। क्योंकि उनमें राजतंत्रों का प्रतिरोध करने की शक्ति नहीं थी। केवल लिच्छविगण ने कुछ समय तक सामना किया था। वज्जि एक संघ गणराज्य था। वज्जियों, मल्लों एवं काशी-कोसल ने मिलकर एक विशाल संघ बनाया, जिसका उद्देश्य अजातशत्रु के आक्रमणों का सामना करना था। जैन कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि उस संघ में 9 लिच्छवि, 9 मल्ल तथा काशी-कोसल के 18 गणराजा सम्मिलित थे। यद्यपि संघ के सदस्य गणराज्य स्वतंत्र थे क्योंकि कुछ राजाओं ने संघ की सदस्यता से हाथ खींच लिया। अतः लिच्छवि गणाध्यक्ष चेटक को अजातशत्रु से अकेले युद्ध करना पड़ा था।

चेटक ने वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का प्रयास किया था। उसकी बहिन त्रिशला महावीर की मां का विवाह ज्ञातृक राजा सिद्धार्थ के साथ हुआ था। उसकी सात लड़कियाँ थीं जिनमें से एक चेल्लना का विवाह मगध नरेश बिम्बिसार के साथ और दूसरी मृगावती का वत्स राजा शतानीक के साथ हुआ था। चेटक द्वारा अपनी पुत्री का विवाह बिम्बिसार के साथ किये जाने पर भी दोनों राज्यों में परस्पर संघर्ष हुआ।

वज्जिसंघ की प्रशासनिक व्यवस्था के संचालन हेतु संघ की सभा में 7707 राजा थे जो वैशाली के नागरिक द्विगुणित 84,000 अर्थात् 168 लाख जनसंख्या में से चुने जाते थे इनसे इतने ही उपराजा, सेनापति एवं भण्डारिक थे। लिच्छवि गण के बहुसंख्यक राजाओं के बारे में कहा गया कि कोई लिच्छवि राजा अपने को किसी दूसरे से छोटा नहीं मानते थे और सब मैं राजा हूँ मै राजा हूँ ऐसा कहते थे। वे विभिन्न प्रकार के सुन्दर वस्त्र पहन कर सभा भवन में उपस्थित होते थे।

संघ का अधिवेशन जिस स्थान पर होता था उसे संस्थागार कहते थे। कभी-कभी  अधिवेशन उद्यान (आराम) में भी होते थे। अट्ठकथा से जानकारी मिलती है कि अधिवेशन से पूर्व घड़ियाल बजाया जाता था। राजाओं के अधिवेशन में न केवल विदेशी मामलों पर विचार किया जाता था बल्कि व्यापार कृषि सामाजिक एवं वैवाहिक मामले भी तय किये जाते थे।

गणराज्यों की कार्य प्रणाली का विस्तृत विवेचन नहीं मिलता किन्तु बौद्ध संघों की कार्य विधि का उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में आया है अतः विद्वानों की मान्यता है कि बौद्धसंघ की कार्य प्रणाली का जो स्थूल चित्र बनता है उससे अधिक भिन्न गणराज्यों का कार्य प्रणाली नहीं रही होगी।

अधिवेशन हेतु एक विशेष अनुभवी अधिकारी आसनपचापक वरिष्ठताक्रम (जेष्ठानुपूर्वीक्रम) से आसन की व्यवस्था करता था। अधिवेशन के लिए गणपूर्ति (कोरम) का विधान था, गणपूर्ति के लिए कम से कम दस (सीमान्त क्षेत्रों में पांच) सदस्यों (भिक्षुओं) का विधान था। वस्तुतः भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए संघ की निर्धारित उपस्थिति (नियतोपस्थिति) अलग-अलग (5, 10, 20 और 20 से अधिक) कही गई है। गणपूर्ति में दूसरे जनपदों के व्यक्ति या जिनके विरुद्ध मामला विचाराधीन हो सम्मिलित नहीं किये जाते थे। गणपूरक नामक अधिकारी कोरम पूरा कराने का प्रयास (व्हिप) करता था। संघ का अध्यक्ष विनयघर कहलाता था उसकी गणना गणपूर्ति में नहीं की जाती थी। संघपूर्ति के अभाव में संघवग्ग (व्यग्र) कहलाता था, व्यग्र संघ के निर्णय अनियमित माने जाते थे और अनुपस्थित भिक्षुओं की अनुमति से भी उनको नियमित नहीं कहा जा सकता था।

प्रस्ताव (ज्ञप्ति) औपचारिक रूप से प्रस्तोता (ज्ञापक) द्वारा उपस्थित (स्थापन) या प्रस्तुत करना आवश्यक था। तदनन्तर उसका नियमित अनुस्सावन या आवृत्ति होती थी, जिससे सब सुन सके। इस तरह वाद-विवाद विषय वस्तु तक ही सीमित रहता था, असम्बद्ध बातों पर वाद-विवाद नहीं किया जा सकता था। प्रस्तुत ज्ञप्ति पर किसी सदस्य का मौन रहना उसकी सहमति का सूचक था। विवादास्पद विषय पर सबकी सहमति प्राप्त करने के लिए अन्य संघ को उद्धृत किया जाता था। विवादास्पद विषय पर किसी निर्णय पर नहीं पहुंचने की स्थिति में एक उपसमिति बना दी जाती जिसे उब्बाहिक (उद्वाहिका) सभा कहा जाता था। इस समिति में चुने हुए व्यक्ति ही सदस्य बनाये जाते थे। यह समिति किसी अन्य स्थान पर विचार- विमर्श कर सकती थी उसका निर्णय सबको मान्य होता था। रीजडेविड्स ने ‘नेति’ एवं ‘उबाहिक’ शब्द पंचनिर्णय के द्योतक माने हैं उनके अनुसार विवादस्पद विषय पंचनिर्णय हेतु भेजे जाते थे।

अत्यन्त जटिल एवं विवादास्पद विषय पर एक मत न होने पर बहुमत द्वारा उसका निर्णय किया जाता था, जैसा विदित है कि विरुद्धक द्वारा आक्रमण किये जाने पर कोशल नरेश (विरुद्धक) की अधीनता स्वीकार कर ले या नहीं, इसका निर्णय भी बहुमत से करना पड़ा था। मतदान लेने वाला अधिकारी ‘शलाका ग्राहापक’ कहलाता था। शलाकाएँ लकड़ी की बनी होती थी, जिन्हें सदस्यों में वितरित कर दिया जाता था। प्रत्येक सदस्य को उस रंग की शलाका का चयन करना होता था जो उसके मत के अनुरूप हो एवं शलाका का चयन गुप्त रखा जाता था। स्वकर्णजल्पक विधि द्वारा शलाका ग्राहापक कान के पास मुंह ले जाकर गुप्त रूप से अवगत करवाता था कि किस रंग की शलाका क्या आशय रखती है और कौन सी शलाका का उसे चयन करना चाहिए।

सदस्यों में असमान व्यवहार से या वर्ग में विभक्त कर करवाया गया मतदान अवैध माना जाता था। गण के अधिवेशनों में कार्यवाही लेखन की क्या व्यवस्था थी इस विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती। किन्तु महागोविन्दसुत्त से ज्ञात होता है कि सभागार में व्यर्थ प्रलाप भी होता था इससे स्पष्ट होता है कि अधिवेशन के अभिलेखन की व्यवस्था थी। संभवतः यह, कार्य अधिकारियों अथवा लिपिकों द्वारा सम्पन्न किया जाता होगा।

विनयपिटक में एक स्थान पर अपनी दुश्चरित्र पत्नी की हत्या के इच्छुक एक व्यक्ति को लिच्छविगण के समक्ष प्रस्तुत किये जाने का उल्लेख आया है, इससे प्रतिध्वनित होता है कि गण सभा न्यायिक सभा का कार्य भी करती थी। किन्तु न्याय प्रक्रिया अत्यन्त विशद् थी। सुमंगलविलासिनी में विवरण मिलता है कि किसी अपराध के दोषी व्यक्ति को क्रमशः विनिच्छयमहामत्त (जाँच अधिकारी) के पास लाया जाता था। वह जाँच प्रक्रिया में अभियुक्त को दोषी न पाने पर छोड़ सकता था परन्तु दोषी पाने पर उसे दण्डित करने का अधिकार नहीं था बल्कि मामला बोहारिक (न्यायिक विशेषज्ञ) के पास प्रेषित किया जाता था। दोषी व्यक्ति तदनन्तर सुत्तघर (पारस्परिक नियमों के विशेषज्ञ) अट्ठकुलिकों (आठ व्यक्तियों की न्याय परिषद्) सेनापति तथा उपराजा के पास प्रस्तुत किया जाता था। अन्तिम सुनवाई ‘राजा’ करता था जो ‘पणिक-पोत्थक’ (पूर्व दृष्टान्तों को संकलित करने वाला ग्रंथ) के आधार पर निर्णय देता था।

मल्ल एवं वज्जि संघ का उन्मूलन-

पालि ग्रंथों से जानकारी मिलती है कि लिच्छवी लोग निकटस्थ प्रदेशों में आक्रमण करके लोगों को परेशान करते रहते थे। लिच्छवियों के आतंक से पाटलिग्राम के निवासी भी दुःखी थे। कहा जाता है कि एक बार उन्होंने वहाँ के निवासियो को घरों से निकाल कर वहाँ डेढ़ माह तक अधिकार बनाये रखा था। अजातशत्रु द्वारा वजिसंघ के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के अनेक कारण थे जिनकी चर्चा आगे की जायेगी किन्तु अजातशत्रु द्वारा वज्जियों की शक्ति का रहस्य जानने का प्रयास किया था उसका उल्लेख करना युक्ति संगत होगा। महापरिनिर्वाणसुत्त में उल्लेख

मिलता है कि अजातशत्रु ने वस्सकार को वज्जियों के उन्मूलन का उपाय जानने के लिए बुद्ध के पास भेजा था। बुद्ध ने अवगत करवाया कि वज्जि लोग जब तक सात बातों का पालन करते रहेंगे तब तक अजेय रहेंगे जिसे अपरिहानिय धम्म की संज्ञा दी गई। ‘अपरिहानिय धम्म’ का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है

  1. संघ सभा में पूर्ण उपस्थिति एवं नियत समय पर अधिवेशन
  2. संघ में एकमत या सम्पूर्ण रूप से उपस्थित रहना, अधिवेशन करना एवं संघ के कर्तव्य कर्म करना।
  3. अस्वीकृत तथ्य को स्वीकार न करना एवं स्वीकृत तथ्य का बहिष्कार न करना अर्थात् वज्जिसंघ. के स्वीकृत तथ्यों के अनुसार कार्य करना होता था।
  4. वज्जि संघ के वृद्धों, नेताओं का सत्कार करना, उनके प्रति गौरव भाव रखना, सम्मान करना, पूजा करना एवं आदेशों का पालन करना।
  5. वज्जि संघ के चैत्यों की पूजा करना एवं धार्मिक कृत्यों का सम्पादन करना।
  6. वज्जि संघ के धार्मिक अरहन्तों का सम्मान करना।
  7. वज्जि संघ के महल्लकों (वृद्धों) का सत्कार करना, उनका गौरव रखना, सम्मान करना, पूजा करना, कुल की स्त्रियों एवं कुमारियों का अपहरण न करना आदि।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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