गाँधी जी के विचार | गाँधी जी के राजनीतिक विचार | गाँधी जी के सामाजिक विचार | गाँधी जी के आर्थिक विचार | गाँधी जी के धार्मिक विचार | महात्मा गाँधी के साधन | गाँधी जी का महत्व
गाँधी जी के विचार
गाँधी जी प्रधानतः एक राजनीतिक विचारक नहीं थे, वे एक राजनीतिक आन्दोलनकारी भी नहीं थे। मानव मात्र में गहरी रुचि होने के कारण ही उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। उन्होंने अपने कार्यक्रम में स्वराज्य को सबसे आगे रखा और उसे प्राप्त करने में उन्होंने कुछ सिद्धान्तों का पालन किया जिन्हें अन्य लोगों ने एक राजनीतिक विचारधारा का रूप दिया। उनके कार्यों से कुछ सिद्धान्त बने, न कि सिद्धान्त से कुछ कार्य निश्चित किये गये।
गाँधी जी के प्रधान सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:-
गाँधी जी के राजनीतिक विचार-
गांधी जी व्यक्तिवादी तथा अराजकतावादी विचारक थे। वे राज्य की शक्ति के विरोधी थे। उनके अनुसार, “वह सरकार सर्वोत्तम होती है जो कम से कम शासन करे।” वे राज्य के कार्य-क्षेत्र के विस्तार को नहीं पसन्द करते थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि लोगों को अपना कार्य स्वयं करना चाहिए। उन्होंने राजनीति में आध्यात्मिकता को प्रविष्ट कराया। वे केन्द्रीयकृत सत्ता के प्रबल विरोधी और विकेन्द्रीकरण के समर्थक थे। विकेन्द्रीकृत सत्ता से उनका अभिप्राय यह था कि ग्राम पंचायतों को अपने गाँवों का प्रशासन करने के सब अधिकार दे दिये जाएँ। उनके अनुसार राष्ट्रवाद अन्तर्राष्ट्रवाद का विरोधी नहीं हैं। वे कहते हैं, मेरे विचार से बिना राष्ट्रवादी हुए अंतर्राष्ट्रवादी होना असम्भव है। अन्तर्राष्ट्रवाद तभी सम्भय हो सकता है, जबकि राष्ट्रवाद एक यथार्थ बन जाए। ये लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली के समर्थक थे और उन्हें निर्वाचन तथा प्रतिनिधित्व की प्रणाली में विश्वास याचे अधिकारों के प्रबल समर्थक थे। उनके शब्दों में, “अधिकारों का वास्तविक स्रोत कर्तव्य ही है। यदि हम सभी अपने कर्तव्यों का पालन करें तो अधिकार हमसे दूर नहीं रह जायेंगे
गाँधी जी के सामाजिक विचार-
गांधी जी एक सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे सामाजिक विषमता तथा जातिवाद के विरोधी थे। वे अस्पृश्यता तथा साम्प्रदायिकता को मानवता विरोधी समझाते थे। वे दलितों तथा अछूतों को अन्य लोगों के समकक्ष समझते थे। वे स्त्री शिक्षा पर बल देते थे और स्त्रियों को पुरुषों के समान मानते थे। वे बाल विवाह के विरोधी, विधवा विवाह के समर्थक तथा शराब बन्दी पसंद करते थे। वे स्वदेशी और खादी के समर्थक थे। वे कर दरिद्रता और शोषण के विरुद्ध थे। वे वर्णाश्रम धर्म, हिन्दू आदर्श का समर्थन करते थे जिसके अनुसार हर व्यक्ति को समाज में अपनी क्षमताओं और प्रशिक्षण के अनुसार निश्चित काम करना पड़ता था।
मन्दिर प्रवेश के समर्थन में और अस्पृश्यता के विरुद्ध लगातार प्रचार करके उन्होंने जाति- व्यवस्था का अन्त कर दिया। वे नूतन शिक्षा प्रणाली के समर्थक थे जिसे नई तालीम कहते हैं। वे समाज में वर्ग-संघर्ष के बजाय वर्ग-सहयोग पर बल देते थे। उन्होंने मानव गरिमा, समानता और भ्रातृत्व का जोरदार समर्थन किया।
गाँधी जी के आर्थिक विचार-
गाँधी जी औद्योगिक क्रांति और केन्द्रीकृत अर्थ-व्यवस्था के विरोधी थे। याँधी जी के द्वारा कुटीर उद्योग-धन्धों पर आधारित एक ऐसा विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था का प्रतिपादन किया है जिनके अन्तर्गत प्रत्येक गाँव एक आर्थिक इकाई के रूप में कार्य करेगा। वे भारत के लिए विकेन्द्रित अर्थ-व्यवस्था ही सर्वोत्तम मानते थे। वे विनाशकारी और मानव-शोषण को प्रोत्साहित करने वाली मशीनों का प्रयोग सर्वथा त्याज्य समझते थे। आर्थिक विषमता का अन्त करने के लिए उन्होंने ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त पर बल दिया। ट्रस्टीशिप सिद्धान्त के अनुसार धनिकों को चाहिए कि वे अपने धन को अपना न समझकर समाज की धरोहर समझें और उसमें से अपने ऊपर निर्वाह मात्र के लिए खर्च करते हुए शेष धन समाज हित के कार्यों में लगाएँ। आर्थिक समानता उनके रचनात्मक कार्यक्रम का एक अंग थी। वे सामाजिक न्याय के समर्थक थे तथा सच्चे-अर्थों में समाजवादी थे। उनके अनुसार व्यक्ति को स्वयं अपनी सम्पत्ति को सीमित कर, त्याग की नीति अपनानी चाहिए। उनकी विचारधारा में ऐसी आर्थिक विचारधारा निन्दनीय है जो जनता का शोषण करके कतिपय लोगों के हाथों में सम्पत्ति केन्द्रित करती है। गाँधी जी ने सर्वोदय की योजना द्वारा सबकी उन्नति और विकास के विचार को जन्म दिया।
गाँधी जी के धार्मिक विचार-
गाँधी जी सभी धर्मों का समान आदर करते थे। वे सभी धर्मो की समानता पर अटूट विश्वास करते थे। वे धर्म-परिवर्तन तथा धार्मिक साम्प्रदायिकता के विरोधी थे। वे सत्य को ईश्वर मानते थे। वे धर्म का राजनीति में प्रवेश चाहते थे ताकि राजनीति का आधार ऊँचे आदर्श बन सकें। महानता और उदारता उनके धर्म की विशेषताएँ थी।
महात्मा गाँधी के साधन
गाँधी जी ने राजनीति में अहिंसा और सत्याग्रह के साधनों का प्रयोग किया अहिंसा से अभिप्राय है, हिंसात्मक साधनों का अभाव। गाँधी जी ने राजनीति में अहिंसा का प्रयोग एक शस्त्र के रूप में किया। उन्होंने व्यक्ति के साथ-साथ राष्ट्र के लिए भी अहिंसा के सिद्धान्त की अनिवार्यता बताई। उनके अनुसार मानव समाज की प्रगति अब तक अहिंसा की दिशा में होती आई है। वे अहिंसा को कई कारणों से श्रेष्ठ समझते हैं-प्रथम यह एक आत्मिक शक्ति है। द्वितीय अहिंसा का आत्मबल शत्रु पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालता है। अहिंसा और प्रेम का प्रभाव अप्रत्यक्ष और स्थायी होता है। तृतीय, हिंसा की विफलता और अहिंसा की निश्चित सफलता है।
राजनीति में अहिंसा के सिद्धान्त को मूर्त रूप देने के लिए गाँधी जी ने जिस कार्य-पद्धति का प्रयोग किया उसे सत्याग्रह कहा गया है। सत्याग्रह का अर्थ है सत्य पर आग्रह करते हुए अत्याचारी का प्रतिरोध करना और उसके समक्ष नतमस्तक होना। गाँधी जी के अनुसार, “सत्याग्रह में अपनी ही बलि देनी होती है। इस बात को सभी स्वीकार करेंगे कि परिबल से आत्मबल कहीं ऊँची वस्तु है। सत्याग्रही में सत्य निष्ठा, निर्धनता, ब्रह्मचर्य, निर्भयता और अहिंसा के गुण होने चाहिए। भारत की स्वाधीनता का श्रेय गाँधी जी के सत्याग्रह को दिया जाता है। राजनीति में साधनों की पवित्रता पर गांधी जी अधिक बल देते थे। उनका अभिमत था कि केवल अच्छे साधन से ही अच्छे लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते हैं। उनके अनुसार साधन और साध्य एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते क्योंकि गलत साधनों से सही लक्ष्य प्राप्त नहीं किये जा सकते।”
गाँधी जी का महत्व
भारत के राष्ट्रीय-आन्दोलन के नेताओं और विचारकों में गाँधी जी का अपूर्व स्थान है। कूपलैण्ड के अनुसार, “उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन को क्रान्तिकारी आन्दोलन के रूप में परिवर्तित कर दिया।” रफी अहमद किदवई के अनुसार, “हमारे आराध्य नेता के जाने के बाद अब ऐसा कोई नहीं है जो जनता को अनुशासित कर सके। हाई कमान मर गया।” रोम्या रोला के अनुसार, “गाँधी जी ही केवल भारत के राष्ट्रीय इतिहास के ऐसे नायक हैं, जिनकी किंवदन्तियाँ युगों तक प्रसिद्ध रहेगी।” दुर्गादास के कथनानुसार, “गाँधी जी ने भारत माता को हजार वर्ष की दासता से मुक्त कराया था। ईसा मसीह के बाद गाँधी जी विश्व के सबसे महान व्यक्ति थे।” –डा० होम्स
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