इतिहास

दक्षिण भारत में मन्दिर वास्तुकला का विकास | चोल चालुक्य व पल्लव काल में निर्मित मन्दिरों की शैली

दक्षिण भारत में मन्दिर वास्तुकला का विकास | चोल चालुक्य व पल्लव काल में निर्मित मन्दिरों की शैली

दक्षिण भारत में मन्दिर वास्तुकला का विकास

(Development of Temple Architecture in Southern India)

दक्षिण भारत में सुदूर अतीत में किसी भी धर्म से सम्माधित मन्दिर नहीं थे। प्रायः द्रविड़ लोगों के देवता पेडों की छाया अथवा खुले मैदानों में स्थापित होते थे। अनेक विद्वानों का यह कहना है कि दक्षिण भारत में मन्दिर बनाने की परम्परा, बौद्ध धर्मावलम्बियों द्वारा निर्मित चैत्यों एवं विहारों का अनुकरण करके प्रारम्भ हुई। दक्षिणी भारत में, बौद्ध के अनुकरण पर, मन्दिरों के विमान (शिखर) निर्मित किये गये। विमान को स्तूपी भी कहा जाता है। कालान्तर में लघु एवं विशाल देवालय निर्मित्त किये गये। प्राचीन समय में दक्षिणी भारत में मन्दिरों का निर्माण ईट, काष्ठ एवं गारे से किया जाता था। लेकिन सदी तक अर्थात् पल्लव शासकों के शासन काल में प्रस्तर का प्रयोग मन्दिर बनाने हेतु किया जाने लगा।

शैली के आधार पर, दक्षिण भारत के मन्दिर द्राविड़ शैली तथा मिश्रित शैली में निर्मित हैं तथा उत्तरी भारत के मन्दिर आर्य अथवा नागर शैली में बने हुये हैं। दक्षिण भारत में अधिकांशतः विष्णु, शिव, सुब्रह्मण्य देवताओं के नाम पर मन्दिरों का निर्माण किया गया है। दक्षिण में मुख्यतः इन्हीं देवताओं की पूजा एवं उपासना की जाती है। कहीं-कहीं मारि अम्मन अर्थात् शीतला माता के मन्दिर भी बने हुये हैं। शिव मन्दिर में शिवलिंग की तथा विष्णु के मन्दिर में विष्णु की मूर्ति स्थापित होती है, दक्षिण भारत में विष्णु एवं शिव भगवान की अनेक नामों से पूजा की जाती है यथा- रंगनाथ, पेरूमल इत्यादि वैदीश्वर, कपालीश्वर, वृहदीश्वर, मातृभूतेश्वर इत्यादि। दक्षिण के मन्दिर में उपासना हेतु देवी एवं देवताओं के मन्दिर पृथक्- पृथक् होते हैं तथा विशाल देवालयों में तो उनका आकार भी पृथक्-पृथक् होता है। देवी की अपेक्षा देवता का मन्दिर विशाल होता है। मन्दिर के गर्भगृह में उपासना की जाने वाली देवता की प्रतिमा रहती है। मन्दिरों में प्रत्येक देवता की दो प्रतिमायें होती हैं- (1) स्थायी प्रस्तर प्रतिमा, (2) उत्सव मूर्ति- यह प्रतिमा स्वर्ण, चाँदी अथवा अष्टधातु से निर्मित होती है। धार्मिक उत्सव के समय इसी उत्सव प्रतिमा को विशाल रथ में स्थापित करके, नगर में चारों ओर घुमाई जाती है। मन्दिर से लगा हुआ एक जलाशय होता है। इस जलाशय को नेप्पकुलम् कहते हैं। मन्दिर में जाने वाले व्यक्ति इसी जलाशय में स्नान करके मन्दिर में प्रविष्ट होते हैं। मन्दिर की सुसज्जित उत्सव प्रतिमा धार्मिक उत्सव के समय, नौका में बैठाकर इसी जलाशय में घुमाई जाती है। इस समारोह को तप्पम उत्सव कहा जाता है। मन्दिर में बड़े सभामण्डप होते हैं। इनमें भक्तजन एवं दर्शनार्थी एकत्रित होते हैं। गर्भगृह के चारों ओर परिक्रमा हेतु आच्छादित प्रदक्षिणा पथ होता है। इस प्रदक्षिणा पथ की भित्तियों पर, प्रस्तर में मन्दिर का इतिहास अंकित होता है या भगवान की लीलाओं के भव्य रंगीन चित्र होते हैं।

मन्दिर के सामने आंगन में एक बड़ा ध्वज स्तम्भ होता है। मन्दिर के चतुर्दिक विशाल प्रकार का घेरा होता है। इस घेरे के अन्दर मण्डप, कक्ष तथा पुरोहितों इत्यादि के घोर बने होते हैं। मन्दिर के घेरे में ही अन्य देवताओं के भी छोटे-छोटे मन्दिर होते हैं। शिव मन्दिर के आँगन में विशेषतः गणेश, नटराज, सुब्रह्मण्य इत्यादि देवताओं के देवालय होते हैं और वहीं पर 63 नायनमारों अथवा शैल सन्तों की प्रतिमायें भी रखी रहती हैं तथा इनके साथ ही नवग्रहों की. प्रतिमायें भी रहती हैं। मन्दिर के विशाल प्रवेश द्वार को गोपुरम् कहा जाता है। समस्त विशाल मन्दिरों में वेद शालाएँ होती हैं, जहाँ बालक निःशुल्क वेदों का अध्ययन करते हैं। देवालयों के व्यय को वहन करने के लिए अनेक नरेशों, धनाढ्य व्यक्तियों, व्यापारियों तथा भक्तजनों ने विशाल सम्पदा, भूमि एवं जागीरें प्रदान कर दी हैं। इनकी आय से ही देवालय की पूजा, उत्सव समारोह तथा पुनरुद्वार इत्यादि का खर्च चलाया जाता है। देवालयों को प्रायः नगर के बीच में बनाया जाता है। दक्षिणी भारत के कतिपय प्रमुख मन्दिर निम्नलिखित हैं-

(1) चिदम्बरम्-

चिदम्बरम् दक्षिण के धार्मिक क्षेत्रों में अत्यन्त प्राचीन एवं विख्यात स्थान है। चिदम्बरम् में नटराज शिव का सुविख्यात मन्दिर है। इस मन्दिर में शिवलिंग नहीं है, वरन् नृत्य मुद्रा में शिव की प्रतिमा है। शिवाजी की इस प्रतिमा में, सौन्दर्य, सौष्ठव एवं कला का अद्भुत समन्वय किया गया है। पल्लव नरेश सिंहवर्मन में ईमा छठी सदी में इस मन्दिर को बनवाया था। चोल राजाओं तथा पाण्डेय नरेशों एवं विजय नगर के महाराजाओं ने, इस मन्दिर को विस्तृत किया। शिल्प कला के दृष्टिकोण से नटराज शिव के मन्दिर का अत्यन्त महत्त्व है। चिदम्बरम् की छप्पन कलायुक्त स्तम्भों की नाट्यशाला अत्यन्त विख्यात है।

(2) तंजौर-

चोल राजा, राजराज ने तंजौर में वृहदीश्वर का सुविख्यात मन्दिर को निर्मित करवाया। यह मन्दिर 1009 अथवा 1010 में पूर्णरूप से बन कर तैयार हुआ। तंजौर जिले में चोल राजाओं लगभग 275 विशाल मन्दिरों का निर्माण कराया था।

(3) काँची के मन्दिर-

कांची को कांचीपुरम् भी कहा जाता है। यह संस्कृत एवं धर्म का सुविख्यात केन्द्र रहा है। प्राचीन समय में यहाँ विश्व के 108 मन्दिर थे। इसके अतिरिक्त विष्णु भगवान के 18 मन्दिर थे। कंची दो भागों में विभक्त हैं- (1) शिव कांची विष्णु कांची। कांची में शिव के देवालयों में श्री कामाक्षी, कैलाशनाथ, एकांबरनाथ के मन्दिर तथा वरदराज स्वामी, वैकुण्ठ पेरूवाल, विलकोलि पेरूमल इत्यादि विष्णु से मन्दिरों में सुप्रसिद्ध है। शिवकांची का कामाक्षी अम्मन का देवालय सर्वाधिक प्रसिद्ध है। यहाँ का प्राचीनतम एवं सुविख्यात मन्दिर है- कैलाशनाथ का मन्दिर। इस मन्दिर का निर्माण पल्लव राजा, राजसिंह ने सन् 567 में कराया था। इस देवालय में अर्द्धनारीश्वर की मूर्ति है। वरद शिव बैठे हुए हैं तथा उनकी पत्नी पार्वती के हस्त में वीणा है। हस्तगिरि नामक एक छोटी सी पहाड़ी पर निर्मित श्री वरदराज स्वामी का मन्दिर, वैष्णव मन्दिरों के सर्वाधिक विख्यात है।

(4) कुम्भ कोणम-

कुम्भकोणम नगर, तंजौर जिले में कावेरी नदी के किनारे स्थित है। कुम्भकोणम में, दक्षिण भारत के प्रत्येक बारहवें वर्ष में हरिद्वार, प्रयाग एवं उज्जैन के सदृश ही कुम्भ का मेला लगता है। प्राचीन समय में कुम्भकोणम्, दक्षिण में आर्य संस्कृति का सुप्रसिद्ध केंद्र था। यहां पर संस्कृत के कई विद्यापीठ थे। शंकराचार्य का कामकोठी  मठ भी कम्भकोणम में ही है। यहाँ का कुम्भेश्वर महादेव का मन्दिर सर्वाधिक प्राचीन एवं विशाल मन्दिर है। इस मन्दिर के समीप एक बड़ा सरोवर है। कुम्भकोणम में कुम्भेश्वर महादेव के मन्दिर के अतिरिक्त भी अन्य अनेक प्रसिद्ध मन्दिर भी है यथा- विष्णु के मन्दिरों में सांरग पाणी का एवं रामस्वामी के मन्दिर मागणाला मान्दर रण की आकृति के समान है। इस मन्दिर के अन्दर श्री राम की धनुर्धारी प्रतिमा है। तंजार नरेश, रघुनाथ नायक ने सोलहवीं सदी में रामस्वामी का मन्दिर बनवाया था। इस मन्दिर में राम एवं सीता की भव्य मूर्तियाँ हैं।

(5) मातृभूतेश्वरम्-

मतृभूतेश्वरम् का मन्दिर त्रिचनापल्ली नगर के बीच पहाड़ी पर स्थित है। मदुरा के नायक राजा की रानी गप्पा, आज से लगभग 350 वर्ष पूर्व इस मन्दिर का निर्माण कराया था। यह शिवजी का मन्दिर है। इस मन्दिर की भित्तियों पर भगवान शिव के जीवन से सम्बन्धित कथाएँ रंगीन चित्रों में अंकित हैं।

(6) तिरूवारूर-

तंजाऊर जिले में, तिरूवार का त्यागराजा स्वामी का मन्दिर भी सराहनीय है। इस मन्दिर का निर्माण सम्भवतः चोल वंश के राजा भुचकुन्द ने कराया था। इस मन्दिर के सामने विशाल सुन्दर सरोवर है। इस सरोवर के चतुर्दिक प्रस्तर के पक्के घाट बनें हुए हैं। इस सरोवर के बीच में मायामण्डल नामक सुन्दर सभामण्डप बना हुआ है।

(7) जबुकेश्वर-

श्रीरंगम् मन्दिर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर जंबुकेशवर महादेव का प्राचीन प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर में प्रस्तर से निर्मित कलायुक्त स्तम्भों वाला मण्डप है। यह मन्दिर एक प्राकृतिक झरने के ऊपर बना है। इस झरने से शिवलिंग के निकट निरन्तर जल प्रवाहित होता रहता है। मन्दिर के शिखर के निकट, शिवलिंग के बराबर में विशाल पुराना हरा-भरा जंबु का पेड़ खड़ा है। इस पेड़ के नाम पर ही इस मन्दिर को जंबुकेश्वर कहा जाता है।

(8) मदुरा-

मुदरा नगर के बीच में मीनाक्षी देवी का एक बड़ा मन्दिर है। इस मन्दिर को सम्भवतः पाण्ड्य राजाओं ने बनवाया था। इस मन्दिर के दो भाग है। एक भाग में मीनाक्षी देवी का मन्दिर है तथा दूसरे भाग में शिवजी का मन्दिर है। मन्दिर के सभा मण्डप में कलायुक्त स्तम्भ हैं। मन्दिर के चतुर्दिक ऊँची-ऊँची प्राचीरें तथा अन्दर चौड़ी सड़कें हैं। यह मन्दिर 78 मीटर चौड़े तथा 221 मीटर लम्बे अहाते में है। मन्दिर के चातुर्दिक प्रवेश पर विशाल गोपुरम् है। इन पर अनेक देवताओं की भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इस मन्दिर के सभामण्डप की लम्बाई 61 मीटर तथा चौड़ाई 31 मीटर है। इस मन्दिर के विशाल गोपुरम् सुन्दर सभा मण्डप, दक्षिण की शिल्पकला, तक्षणकला, कला के प्रति प्रेम, उत्साह एवं साहस का अद्भुत नमूना है।

(9) श्रीरंगम्-

दक्षिणी भारत में मन्दिरों में सर्वाधिक विशाल एवं दक्षिण के वैष्णव क्षेत्रों में सर्वप्रधान तिरुच्चिरापल्ली के निकट श्री रंगम् का मन्दिर है। आज से लगभग दो सहस्र वर्ष पहले श्री रंगम का मन्दिर बना था। पाण्ड्य एवं चोल नरेशों, विजयनगर के महाराजाओं एवं उनके अधीनस्थ नायक नरेशों ने श्री रंगम के मन्दिर को और विशाल किया। इस मन्दिर में एक दूसरे से मिले हुए सात प्रकार बने हुए हैं। सबसे अन्दर की प्राकार में श्री रंगनाथ अर्थात् विष्णु भगवान का मन्दिर है। यह मन्दिर विमान के समान निर्मित है। इस शिखर के गुम्बद सोना मढ़ा हुआ है। इस मन्दिर में भगवान विष्णु की शेषशायी मूर्ति है। इस मन्दिर के पृष्ठ में माता रंगनाथ जी का मन्दिर है। इस मन्दिर का सबसे बाहर के अहाते की लम्बाई 878 मीटर तथा चौड़ाई 755 मीटर है। इसके अन्दर लगभग 30 सहस्त्र व्यक्ति रहते हैं। मन्दिर के सात घिरे हुए प्राकारों में, अन्दर के तीन अहातों में विशालमण्डप, सभागृह, सरोवर एवं अन्य मन्दिर है। प्रत्येक वर्ष बैकुण्ठ ग्यारस के दिन यहाँ पर दस दिन तक विशाल मेला लगता है। इस अवसर पर भगवान विष्णु की उत्सव प्रतिमा स्वर्ण एवं आभूषणों से सुसज्जित करके नित्य नये वाहनों में जुलूस के साथ नगर में घुमायी जाती है।

(10) तिरूवन्नामले-

तिरूवन्नामले लगभग 2,000 मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्थिर विशाल शिव मन्दिर है। इस मन्दिर के अन्दर एक विशाल सरोवर है। इस मन्दिर का विशाल द्वार कई किलोमीटर दूर से ही दिखाई देता है। विजयनगर के महाराज, श्री कृष्णदेवराय ने इस मन्दिर के विशाल गोपुरम् का निर्माण करवाना प्रारम्भ किया था तथा तंजौर के राजा वप्पायक ने इस गोपुरम् को पूर्ण करवाया।

(11) रामेश्वरम्-

रामेश्वरम् का मन्दिर, दक्षिणी भारत में कन्याकुमारी के अन्तरीप के दक्षिणी-पूर्वी किनारे पर समुद्र तट पर स्थित है। रामेश्वर सम्पूर्ण भारतवासियों का एक पवित्र तीर्थस्थल है। इस मन्दिर के चारों ओर लगभग 6 मीटर ऊँची प्राचीर है। इसमें चारों दिशाओं में सुन्दर एवं ऊँचे चार प्रवेश द्वार है। इस मन्दिर के गर्भगृह के चारों ओर लगभग 7 मीटर चौड़ा तथा 1216 मीटर लम्बा भव्य कलापूर्ण स्तम्भों युक्त प्रदक्षिणा मार्ग है।

(12) चेन्नई-

चेन्नई में भगवान शिव एवं विष्णु के दो प्राचीनतम मन्दिर हैं। यहाँ विष्णु भगवान का मन्दिर पार्थसारथी के नाम से प्रसिद्ध है तथा शिवजी के मन्दिर को कपालीश्वर के नाम से भी जाना जाता है। पल्लव राजा, तोंडयार ने आठवीं सदी में विष्णु मन्दिर का निर्माण करवाया था। इस मन्दिर का पुनरूद्वार सन् 1564 में किया गया। इस मन्दिर में श्री कृष्ण, रुक्मणी, बलराम एवं सात्यकी की मूर्तियाँ हैं। मन्दिर के अहाते में विष्णु, श्री राम एवं सीता के लघु-लघु देवालय हैं। इस मन्दिर के सामने एक सरोवर है।

(13) तिरुपति-

तिरुपति में वेंकटेश्वर अर्थात् विष्णु भगवान का मन्दिर है। यह मन्दिर चेन्नई से पश्चिम की ओर लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी पर स्थित है। तिरुपति बालाजी का मन्दिर अत्यन्त प्राचीन मन्दिर है। यह मन्दिर दक्षिण में वैष्णव सम्प्रदाय का विख्यात क्षेत्र रहा है। कांची के पल्लव नरेशों ने नवीं सदी में तथा चोल राजाओं ने 10वीं सदी में तदोपरान्त पाण्डेय नरेशों ने, तिरूपति के मन्दिर में वृद्धि की तथा दानपत्र, अनुदान इत्यादि प्रदान कर इस मन्दिर को और अधिक समृद्ध किया। इस मन्दिर के अन्दर अहाते में मुख्य देवालय के अतिरिक्त वरदराज गरुड़ नरसिंह, रामानुज, श्वेत वाराह इत्यादि के भी देवालय हैं। यह मन्दिर द्राविड़ शैली में बना हुआ है। इस देवालय का प्रवेश द्वार अत्यन्त विशाल है। मन्दिर का शिखर स्वर्णपत्तरों से ढका हुआ है। पर्वत के नीचे गोविन्दराज का एक बड़ा देवालय है। गोविन्दराज के मन्दिर तथा उसके इर्द-गिर्द के नगर को वैष्णव आचार्य रामानुज ने स्थापित किया था। यही कारण है कि इन देवालयों में रामानुज के अलावा अन्य वैष्णवभक्तों एवं सन्तों के भी मन्दिर हैं। तिरूपति से लगभग दो किलोमीटर दूर, तिरूयानूर में वेंकटेश अर्थात् विष्णु भगवान की अर्धांगिनी श्री लक्ष्मी का मन्दिर है। श्री लक्ष्मी का मन्दिर श्री पद्मावती देवी के नाम से अत्यन्त प्रख्यात मन्दिरों में से एक है।

दक्षिणी भारत में, पल्लव राष्ट्रकूट एवं चोल राजाओं द्वारा द्राविड़ शैली के मन्दिर बनवाये गये। मामल्लपुरम् में, नरसिंह वर्मन द्वारा बनाया गया रथ अथवा मन्दिर सर्वप्रमुख मन्दिर माना जाता है। इन मन्दिरों का निर्माण विशाल चट्टानों को काटकर किया गया है। महाराष्ट्र राज्य में एलोरा में बड़ी चट्टानों को काटकर बनाया गया कैलाश मन्दिर, राजपूत काल की शिल्पकला का एक भव्य उदाहरण है। यह मन्दिर तीन मंजिल का है। इसका निर्माण राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम ने आठवीं सदी में कराया था। कैलाशमंदिर में शिखर द्राविड़ शैली का है। इस शिखर पर व्यापक रूप से भव्य नक्काशी की हुयी है। इसका प्रमुख मन्दिर हस्तियों के पृष्ठ भागों पर टिका हुआ है। ये हस्ति चट्टानों को काटकर बनाये गये हैं। मन्दिरों के चारों ओर गुहायें हैं जो पहाड़ियों में से काटी गई है। ये गुहायें बड़े मण्डप के सदृश हैं। इनमें हिन्दू धर्म के विभिन्न देवी-देवताओं की पूर्तियों को तथा 2 पौराणिक दृश्यों को अंकित किया गया। यथा शिव-पार्वती परिणय; इन्द्र-इन्द्राणी की प्रतिमायें, रावण द्वारा कैलाश पर्वत उठाना एवं नरसिंह अवतार । एलोरा का कैलाश-मन्दिर विश्व को वास्तुकला का एक भव्य उदाहरण माना जाता है।

चोल नरेशों द्वारा बनवाये गये मन्दिर दक्षिणी भारत में द्राविड़ शैली के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनमें से तंजौर में राज-राजेश्वर का शिव मन्दिर अत्यधिक प्रख्यात है। इस मन्दिर का निर्माण चोल राजा राजराजा महान् ने कराया था। यह मन्दिर 14 मन्जिलों का है। इसके शिखर की ऊँचाई 190 फीट है। इसके ऊपर पाषाण खण्ड का एक विशाल गुम्बद है। यह  गुम्बद 25 फीट ऊँचा है तथा इसका भार 80 टन है। मन्दिर के अन्दर विशाल आंगन है। मन्दिर का भवन एवं शिखर पूर्णरूप से, मूर्तियों, अलंकरणों इत्यादि से सुसज्जित है। अलंकरणों में विष्णु सम्प्रदाय की प्रतिमाओं को प्रवेश द्वार पर अंकित किया गया है, लेकिन मन्दिर में अन्यत्र समस्त स्थानों पर शिव-महिमा को ही प्रदर्शित किया गया है, इस प्रकार राजराजेश्वर शिव- मन्दिर में वैष्णव एवं शैव समादाय का समन्वय अत्यन्त सराहनीय है। राजराजेश्वर का शिव- मन्दिर में वैष्णव एव शैव सम्प्रदाय अत्यन्त सराहनीय है। राजराजेश्वर का शिव-मन्दिर ऊँची प्राचीरों के एक आयताकार घेरे में है। यह घेरा 155 मी० लम्बा एवं 77 मीटर चौड़ा है। पर्सी ब्राउन के अनुसार- “तंजौर का यह मन्दिर तथा उसका शिखर मन्दिर निर्माण कला की सबसे, बड़ी सबसे ऊँची तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति है।’ चोलराजा, राजेन्द्र प्रथम ने तंजौर में गंगकोड तथा चोलपुरम् में सुब्रह्मण्य मन्दिर का निर्माण कराया। इस मन्दिर की विशषतायें हैं। बड़ा आकार, ठोस प्रस्तर का बड़ा शिवलिंग, प्रस्तर में उत्कीर्ण आकृतियाँ एवं सूक्ष्म मूर्तिकला।

दक्षिणी भारत में अर्वाचीन मैसूर राज्य में गंग एवं होयसल वंश के.नरेशों ने अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया, सोमनाथपुर, बेलपुर एवं हलोविद् अथवा द्वार समुद्र में बने मन्दिर सर्वाधिक विख्यात मन्दिर हैं। ये मन्दिर ऊँचे आधार पर बने हुए हैं, इनमें अत्यन्त सुन्दर नक्काशी की गई है। ये मन्दिर घुमावदार है। इन मन्दिरों के घुमावों में पट्टियों के कोनों में अनेक मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं तथा शिकर पिरामिड नुमा होने पर भी नीचे ही हैं। इन मन्दिरों को द्राविड़ शैली का संशोधित रूप कहा जाता है। बीणादित्य बल्लाल द्वारा सन् 1043 में निर्मित सोमनाथ का मन्दिर इस शैली का सर्वोत्तम उदाहरण है तथा होयसल कला का श्रेष्ठतम उदाहरण है- हलेविद का होयसलेश्वर मन्दिर। यह मन्दिर एक ऊँचे चबूतरे पर बना है। इस चबूतरे की ऊँचाई साढ़े बाईस मीटर है। मन्दिर की सम्पूर्ण ऊँचाई में ग्यारह अलंकृत पट्टिकायें हैं। यह पट्टिकायें लगभग 194 मीटर लम्बी हैं। इन पट्टिकाओं पर हाथी, सिंहों, घुड़सवारों तथा पशु-पक्षियों की विभिन्न प्रतिमायें उत्कीर्ण है। इस मन्दिर के बाहरी भाग में की गई खुदाई एवं नक्काशी एकदम अनूठी है। ऐसी अन्य मन्दिरों में कम परिलक्षित होती है।

मुम्बई से लगभग 9 किलोमीटर समुद्र में एलीफेन्टा द्वीप में खड़ी चट्टानों को काटकर गुहा मन्दिर एवं प्रतिमायें बनाई गई हैं। इस गुहा में शिव मन्दिर है। शिल्पकला की दृष्टि से शिवाजी का यह मन्दिर अत्यन्त उत्कृष्ट है।

चालुक्य, चोल एवं पल्लव कालीन मन्दिर वास्तुकला का अध्ययन करने से यह विदित होता है कि इस कालों में मन्दिर वास्तुकला का अपूर्व विकास हुआ। चालुक्य कला का विकास शनैः शनैः हुआ। इस काल में विकास से सम्बन्धित तीन केन्द्र थे-

  1. वातापी (बादामी)- वातापी चालुक्यों की राजधानी थीं। बादामी में पर्वतों को काटकर अत्यन्त भव्य गुफा मन्दिर निर्मित किये गये हैं। यहाँ की कला अत्यन्त सुन्दर है।
  2. ऐहोल- एहोल, धारवाल के निकट हैं। ऐहोल को मन्दिरों का नगर कहा जाता है। ऐहोल में कुल 70 मन्दिर प्राप्त हुए हैं। इस समस्त मन्दिरों में दुर्गामाता का मन्दिर भव्य अलंकरण हेतु विख्यात है।
  3. पटुटडकल- यहाँ के मन्दिर चालुक्य कला की प्रगति के उदाहरण है। यहाँ पर 6 मन्दिर द्रविण शैली के तथा 4 मन्दिर आर्य शैली के हैं। कुल मिलाकर 10 मन्दिर इस स्थान से प्राप्त हैं। इन समस्त देवालयों में से द्राविड़ शैली में निर्मित विरुपाक्ष का मन्दिर सर्वाधिक सुन्दर है। इस मन्दिर में मूर्तियों का भव्य अलंकरण किया गया है। हैवेल महोदय के शब्दों में- “इस मन्दिर में यूरोप की रीतिकालीन कला की भव्यता और गौथिक कला की कल्पना का सुन्दर समन्वय देखा जा सकता है।” पापनाथ का मन्दिर आर्य शैली में निर्मित सबसे भव्य मन्दिर है।

दक्षिण भारत में कला के क्षेत्र में पल्लव-काल से एक नवीन युग का प्रारम्भ होता है। पल्लव कला भारतीय इतिहास की महान् देन है पल्लव वंश के शासन शैव धर्मावलम्बी थे। अतः उन्होंने अनेकों देवालयों का निर्माण करवाया था। पल्लवकालीन मन्दिरों में कला की दृष्टि से चार शैलियाँ प्रचलित थीं- (1) महेन्द्र शैली, (2) नरिसंह (नामल्ल) शैली, (3) राजसिंह शैली एवं (4) अपराजित शैली।

  1. महेन्द्र शैली- इस शैली में निर्मित मन्दिर ठोस चट्टानों को काटकर बनाये गये हैं। इस कला की शैली की प्रमुख विशषतायें हैं। वृत्ताकार लिंग, विशिष्ट प्रकार के द्वारपाल एवं प्रभातोरण । महेन्द्र शैली में गुहा मन्दिरों का निर्माण हुआ। ये मन्दिर अपनी सादगी एवं सरलता हेतु भी प्रख्यात हैं।
  2. नरसिंह शैली- पल्लव नरेश सिंह वर्मन प्रथम ने अपनी उपाधि महामल्ल के नाम पर मामल्लपुरम् नगर स्थापित किया था और नरसिंह कला शैली की स्थापना की। उसने मामल्लपुरम् में पाण्डवों के नाम पर पाँच मन्दिर बनवाये थे। इस शैली में रथ मन्दिर निर्मित किये गये थे। इन मन्दिरों में ‘शोर मन्दिर’ विशेष उल्लेखनीय है। इस मन्दिर में गर्भगृह आगे है तथा मण्डप पृष्ठ मे है। मण्डप एवं गर्भगृह दोनों पर शिखर बना हुआ है। मन्दिर के प्रवेश द्वार पर भय अलंकरण किया हुआ है।
  3. राजसिंह शैली- राजसिंह शैली में पल्लव नरेश राजसिंह ने काँची में कैलाशनाथ बनवाया था। इस मन्दिर के अतिरिक्त “बैकुण्ठ का पैरूमल मन्दिर” महाबलीपुरम का मन्दिर भी राजसिंह शैली के महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। इस शैली में मन्दिरों का निर्माण पाषाणों एवं ईटों से हआ है। मन्दिरों से नीचे का भाग पाषाण का तथा ऊपर का भाग ईंटों से निर्मित है। इन मन्दिरों के शिखर पिरामिडाकार के हैं। तथा छत सपाट हैं।
  4. अपराजित शैली- इस शैली की स्थापना पल्लव नरेश अपराजित वर्मन ने की थी। अपराजित शैली की मुख्य विशिष्टता यह है कि देवालयों के लिए ऊपर की ओर पतले होते गये।
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Pankaja Singh

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