दक्षिण भारत के मन्दिर | द्रविड़ शैली | द्रविणशैली की विशेषता | राष्ट्रकूट मंदिरों की विशेषताएं | चालुक्यकालीन मंदिरों की शैली | चालुक्यकालीन मंदिरों की विशेषताएं

दक्षिण भारत के मन्दिर | द्रविड़ शैली | द्रविणशैली की विशेषता | राष्ट्रकूट मंदिरों की विशेषताएं | चालुक्यकालीन मंदिरों की शैली | चालुक्यकालीन मंदिरों की विशेषताएं

दक्षिण भारत के मन्दिर (द्रविड़ शैली)

चालुक्य मन्दिर-

छठी शताब्दी के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ में चालुक्य वंश ने शासन किया। उनकी राजधानी वातापी अथवा बादामी में थी। इस वंश की दो अन्य शाखायें भी थीं जिनका केन्द्र वेंगी तथा कल्याणी में था। इनमें वातापी के चालुक्य ही इतिहास में अधिक प्रसिद्ध हैं। वे पहान् निर्माता थे।

चालुक्य शासन में कला और स्थापत्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इस समय जैनों तथा बौद्धों के अनुकरण पर हिन्दू देवताओं के लिये पर्वत गुफाओं को काटकर मन्दिर बनवाये गये। चालुक्य मन्दिरों के उत्कृष्ट नमूने बादामी, ऐहोल तथा पत्तडकल से प्राप्त होते हैं। बादामी में पाषाण को काटकर चार स्तम्भयुक्त मण्डप (Pillared Rock-cut Halls) बनाये गये हैं। इनमें से तीन हिन्दू तथा एक जैन धर्म संबंधित है। प्रत्येक से स्तम्भ-युक्त बरामदा, मेहराब- युक्त हाल (Colurnmed Hall) तथा एक छोटा वर्गाकार गर्भगृह, पाषाण में गहराई से काटकर बनाये गये हैं। इनमें से के वैष्णव-गुहा है जिसके बरामदे में विष्णु की दो रिलीफ मूर्तियाँ- एक अनन्त पर बैठी हुई तथा दूसरी नरसिंह रूप की- प्राप्ति होती है। इन गुफाओं की वास्तु तथा उकेरी अत्यन्त उच्चकोटि की है। प्रत्येक चबूतरे पर उड़ते हुए गणों के विभिन्न मुद्राओं में उत्कीर्ण चित्र अत्यन्त उल्लेखनीय है। गुफाओं की भीतरी दीवारों पर विभिन्न प्रकार की सुन्दर-सुन्दर चित्रकारियाँ प्राप्त होती हैं।

ऐहोल को ‘मन्दिरों का नगर’ (Town of Temple) कहा जाता है और यहाँ कम से कम 70 मन्दिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं। यही रविकीर्ति द्वारा बनवाया गया मेगुती का जैन मन्दिर है। अधिकांश मन्दिर विष्णु तथा शिव के हैं। ऐहोल का विष्णु मन्दिर अभी तक सुरक्षित अवस्था में यहाँ के हिन्दू गुहामन्दिरों में सबसे सुन्दर सूर्य का एक मन्दिर है जो ‘लाढ़ खाँ’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह 50 वर्ग फीट में बना है तथा इसकी छत चिपटी है। छत में एक छोटा वर्गाकार गर्भगृह तथा द्वारमण्डप (Porch) बने हुए हैं। गर्भगृह के सामने स्तम्भों पर टिका हुआ बरामदा तथा एक विशाल सभा कक्ष है। छत बड़े पत्थरों से बनाई गयी है। इस मन्दिर में शिखर नहीं मिलता। लाढ़ खौँ मन्दिर से भिन्न दुर्गा का मन्दिर है जो 60’x36′ के आकार का है। इस मन्दिर का निर्माण एक ऊँचे चबूतरे पर किया गया है तथा इसकी चिपटी छत जमीन से 30 फीट ऊँची है। गर्भगृह के ऊपर एक शिखर है तथा बरामदे में प्रदक्षिणापथ बनाया गया है। इस प्रकार यह मन्दिर बौद्ध गुहा-चैत्यों के अनुकरण पर बना है।

बादामी तथा ऐहोल के मन्दिरों के अतिरिक्त पत्तडकल से भी चालुक्य.मन्दिरों के सुन्दर नमूने मिलते हैं। यहाँ दस मन्दिर प्राप्त होते हैं जिनमें चार उत्तरी (नागर) तथा छः दक्षिणी (द्रविड़) शैली में बने हैं। उत्तरी शैली में बना ‘पापनाथ का मन्दिर’ तथा दक्षिणी शैली में बने ‘विरूपाक्ष’ तथा ‘संगमेश्वर मंदिर’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। पत्तडकल के सभी मन्दिरों में विरूपाक्ष का मन्दिर सर्वाधिक सुन्दर तथा आकर्षक है। इसका निर्माण विक्रमादित्य द्वितीय की एक रानी ने 740 ई० के लगभग करवाया था। मन्दिर के सामने नन्दि-मण्डप बना है। इसके चारों ओर वेदिका तथा एक तोरणद्वार है। मन्दिर की बाहरी दीवार में स्तम्भ जोड़कर सुन्दर ताख बनाये गये हैं जिनमें मूर्तियाँ रखी हुई हैं। ये शिव, नाग, नागिन तथा रामायण से लिये गये दृश्यों का प्रतिनिधित्व करती है। विख्यात कलाविद् पर्सी ब्राउन के शब्दों में ‘विरूपाक्ष मन्दिर प्राचीन काल की उन दुर्लभ इमारतों में से एक है जिनमें उन मनुष्यों की भावना अब भी टिकी हुई है जिन्होंने इसकी कल्पना की तथा अपने हाथों से निर्मित किया।

अजन्ता तथा एलोरा दोनों की चालुक्यों के राज्य में विद्यमान थे। संभवतः यहाँ की कुछ गुफायें इसी काल की है। अजन्ता के एक गुहाचित्र में पुलकेशिन द्वितीय को संभवतः फारसी दूत-मण्डल का स्वागत करते हुए दिखाया गया है।

राष्ट्रकूट मन्दिर

दक्षिणापथ में बादामी के चालुक्यों का विनाश राष्ट्रकूटों द्वारा किया गया। इस वंश ने आठवीं शताब्दी से दशवीं शताब्दी तक शासन किया। राष्ट्रकूटवंशी नरेश उत्साही निर्माता थे। महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद में स्थित एलोरा नामक पहाड़ी पर हिन्दू गुहा-मन्दिर प्राप्त होते हैं। इनमें से अधिकांश का निर्माण राष्ट्रकूट राजाओं के शासन-काल में किया गया है। मन्दिरों में कैलाश मन्दिर’ अपनी आश्चर्यजनक शैली के लिये विश्व-प्रसिद्ध है। इसका निर्माण कृष्ण प्रथम ने अत्यधिक धन व्यय करके करवाया था। यह प्राचीन भारतीय वास्तु एवं तक्षण कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। यह सम्पूर्ण मन्दिर एक ही पाषाण को काटकर बनाया गया है। इसका विशाल प्रांगण 276 फुट लम्बा तथा 154 फुट चौड़ा है। इसमें विशाल स्तम्भ लगे हैं तथा छत मूर्तिकारी से भरी हुई है। मन्दिर के ऊपर का विशाल शिखर95 फुट ऊँचा है तथा यह चारतल्ला है। मन्दिर में प्रवेश द्वार तथा मण्डप बनाये गये हैं। इसकी चौकी 25 ऊँची है। मन्दिर के समीप ही काटकर एक लम्बी, पंक्ति में हाथियों की मूर्तियां बनाई गयी है। मन्दिर की वीथियों में भी अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी है। इनमें गोवर्धन धारण किये कृष्ण, भगवान विष्णु, शिव के विविध रूपों, महिषासुर का वध करती हुई दुर्गा कैलाश पर्वत उठाये रावण, रावण द्वारा सीता हरण तथा जटायु के साथ युद्ध आदि दृश्यों का अंकन अत्यन्त कुशलतापूर्वक किया गया है। समग्र रूप से यह एक अत्युत्कृष्ट रचना है। पाषाण काटकर बनाये गये मन्दिरों में इस मन्दिर का स्थान अद्वितीय है।

एलोरा के मध्य मन्दिरों में रावण की खाई, देववाड़ा, दशावतार, लम्बेश्वर, रामेश्वर, नीलकण्ठ आदि विशेष रूप उल्लेखनीय है। दशावतार मन्दिर का निर्माण आठवीं शती में दन्तिदुर्ग के काल में हुआ। इसमें भगवान विष्णु के दस अवतारों की कथा मूर्तियों में अंकित है। तक्षण एवम् स्थापत्य दोनों ही दृष्टि से यह मन्दिर भी अत्युत्कृष्टच है।

होयसल मन्दिर-

ग्यारहवीं से चौदहवीं शताब्दी के बीच द्वारसमुद्र के होयसल राजाओं के काल में मन्दिर निर्माण की एक नई शैली का विकास हुआ। इन मन्दिरों का निर्माण भवन के समान ऊँचे ठोस चबूतरे पर किया जाता था। चबूतरों तथा दीवारों पर हाथियों, अश्वारोहियों, हंसों, राक्षसों तथा पौराणिक कथाओं से संबंधित अनेक मूर्तियाँ बनाई गयी हैं। इन मन्दिरों के उदाहरण हलेबिड, बेलूर तथा श्रवणबेलगोला से मिलते हैं। हलेबिड में विष्णुवर्धन द्वारा बनवाया गया होयसलेश्वर का विशाल मन्दिर है। यह 160′ लम्बा तथा 122′ चौड़ा है। इसमें शिखर नहीं मिलता। इसकी दीवारों पर अद्भुत मूर्तियाँ बनी हुई हैं जिनमें देवताओं, मनुष्यों एवं पशु- पक्षियों आदि सब की मूर्तियां हैं। विष्णुवर्धन ने 1117ई० मैं बेलूर में ‘चेन्नाकेशव मन्दिर’ का भी निर्माण करवाया था। वह 178 फुट लम्बा तथा 156 फुट चौडा है। मन्दिर के चारों ओर वेष्टिनी (Railing) है जिसमें तीन तोरण बने हैं। तोरण-द्वारों पर रामायण तथा महाभारत से लिये गये अनेक सुन्दर दृश्यों का अंकन हुआ है। मन्दिर के भीतर भी कई मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इनमें सरस्वती देवी का नृत्य मुद्रा में बना मूर्ति-चित्र सर्वाधिक सुन्दर एवं चित्ताकर्षक है। होयसल मन्दिर अपनी निर्माण शैली आकार-प्रकार के लिये प्रसिद्ध है।

पल्लवकालीन मन्दिर

छठी शताब्दी के मध्य से लेकर दसवीं शताब्दी के अन्त तक तमिल देश पर पल्लव वंश का शासन रहा। इस काल में दक्षिण की चहुमुखी सांस्कृतिक उन्नति हुई।

पल्लव नरेशों का शासन-काल कला एवं स्थापत्य का उन्नति के लिये प्रसिद्ध है। वस्तुतः उनकी वास्तु एवं तक्षण कला दक्षिण भारतीय कला के इतिहास में सर्वाधिक गौरवशाली अध्याय है। पल्लव वास्तु कला ही दक्षिण की द्रविड़ कला शैली का आधार बनी। उसी से दक्षिण भारतीय स्थापत्य की तीन प्रमुख अंगों का जन्म हुआ – (1) मण्डप, (2) रथ तथा (3) विशाल मन्दिर।

प्रसिद्ध कलाविद् पर्सी ब्राउन ने पल्लव वास्तुकला के विकास की शैलियों को चार भागों में विभक्त किया है। इनका विवरण इस प्रकार है-

महेन्द्रशैली (610-640 ईस्वी)-

इस शैली के अन्तर्गत कठोर पाषाण को काटकर गुहा- मन्दिरों का निर्माण हुआ जिन्हें ‘मण्डप’ कहा जाता है। ये मण्डप साधारण स्तम्भयुक्त बरामदे हैं जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये हैं। मण्डप के बाहर बने मुख्य द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियाँ मिलती हैं जो कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की है। मण्डप के सामने स्तम्भों की एक पंक्ति मिलती है। प्रत्येक स्तम्भ सात फीट ऊँचा है। स्तम्भ प्रायः चौकोर हैं जिनके ऊपर के शीर्ष सिंहाकार बनाये गये हैं। महेन्द्र शैली के मण्डपों में मण्डगपटु का त्रिमूर्ति मण्डप, पल्लवरम् का पञ्चपाण्डव मण्डप, महेन्द्रवाड़ी का महेन्द्रविष्णु गृहमण्डप, मामण्डूर का विष्णुमण्डप, त्रिचनापल्ली का ललितांकुर पल्लवेश्वर गृहमण्डप आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस शैली के प्रारम्भिक मण्डप सादे तथा अलंकरणरहित है किन्तु बाद के मण्डपों को अलंकृत करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। पञ्चपाण्डव मण्डप में छः अलंकृत स्तम्भ लगाये गये हैं। महेन्द्रवर्मा प्रथम के बाद भी कुछ समय तक इस शैली का विकास होता रहा।

मामल्ल-शैली (640-674 ईस्वी)-

इस शैली का विकास नरसिंहवर्मा प्रथम महामल्ल के काल में हुआ। इसके अन्तर्गत दो प्रकार के स्मारक बने- मण्डप तथा एकाश्मक मन्दिर  (Monolithic temples) जिन्हें ‘रथ’ कहा गया है। इस शैली में निर्मित सभी स्मारक मामल्लपुरम् (महाबलीपुरम्) में विद्यमान है। यहाँ मुख्य पर्वत पर दस मण्डप बनाये गये हैं। इनमें आदिवाराह मण्डप, महिषमर्दिनी मण्डप, पञ्चपाण्ड मण्डप, रामानुज मण्डप आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। इन्हें विविध प्रकार से अलंकृत किया गया है। पण्डपों का आकार-प्रकार बड़ा नहीं है। मण्डपों के स्तम्भ पहले की अपेक्षा पतले तथा लम्बे हैं। इनके ऊपर पदा, कुम्भ, फलक आदि अलंकरण बने हुए हैं। स्तम्भों को मण्डपों में अत्यन्त अलंकृत ढंग से नियोजित किया गया है। मण्डप अपनी मूर्तिकारी के लिये प्रसिद्ध है। इनमें उत्कीर्ण महिषमर्दिनी, अनन्तशायी विष्णु, त्रिविक्रम, ब्रह्मा, गजलक्ष्मी, हरिहर आदि की मूर्तियाँ कलात्मक दृष्टि से अत्युत्कृष्ट हैं। पञ्चपाण्डव मण्डप में कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण किये जाने का दृश्य अत्यन्त सुन्दर है। आदिवराह मण्डप में राजपरिवार के दो दृश्यों का अंकन मिलता है।

मामल्लशैली की दूसरी रचना रथ अथवा एकाश्मक मन्दिर है। इन्हें कठोर चट्टानों को काटकर बनाया गया है। रथ मन्दिरों का आकार-प्रकार अन्य कृतियों की अपेक्षा छोटा है। ये अधिक से अधिक 42 फुट लम्बे, 35 फुट चौड़े तथा 40 फुट ऊँचे हैं तथा पूर्ववर्ती गुहा-विहारों अथवा चैत्यों की अनुकृति पर निर्मित प्रतीत होते हैं। प्रमुख रथ है- द्रौपदी रथ, धर्मराज रथ, नकुल-सहदेव रथ, अर्जुन रथ, भीम रथ, गणेश रथ, पिडारि रथ तथा वलैयंकुटैथ रथ । प्रथम पाँच दक्षिण में तथा अन्तिम तीन उत्तर और उत्तर पश्चिम में स्थित हैं। ये सभी शैव मन्दिर प्रतीत होते हैं। द्रौपदी रथ सबसे छोटा है। इसमें किसी प्रकार का अलंकरण नहीं मिलता तथा यह एक सामान्य कक्ष की भाँति खोदा गया है। यह सिंह तथा हाथी जैसे पशुओं के आधार पर टिका हुआ है। धर्मराज रथ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसके ऊपर पिरामिड के आकार का शिखर बनाया गया है। मध्य के वर्गाकार कक्ष तथा नीचे स्तम्भयुक्त बरामदा है। कुर्सी में गढ़े हुए सुदृढ़ टुकड़ों तथा सिंह-स्तम्भयुक्त अपनी ड्योढ़ियों से यह और भी सुन्दर प्रतीत होता है। पर्सी ब्राउन के शब्दों में ‘इस प्रकार की योजना न केवल अपने में एक प्रभावपूर्ण निर्माण है अपितु शक्तियों से परिपूर्ण होने के साथ-साथ सुखद रूपों तथा अभिप्रायों का भण्डार है। इसे द्रविड़ मन्दिर शैली का अग्रदूत कहा जा सकता है। भीम, सहदेव तथा गणेश रथों का निर्माण चैत्यगृहों जैसा है। ये दीर्घाकार है तथा इनमें दो या अधिक मंजिले हैं, और तिकोने किनारों वाली पीपे जैसी छतें हैं। सहदेव रथ अर्धवृत्त के आकार का है। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार ‘इन रथों की दीर्घाकार आयोजना, छोटी होती जाने वाली मंजिलों और कलशों तथा नुकीले किनारों के साथ पीपे के आकार वाली छतों के आधार पर ही बाद के गोपुरों अथवा मन्दिरों की प्रवेश बुर्जियों की डिजाइन तैयार की गई होगी। इसे द्रविड़ मन्दिर शैली का अग्रदूत कहा जा सकता है।

मामल्लशैली के रथ अपनी मूर्तिकला के लिये भी प्रसिद्ध है। नकुल-सहदेव रथ के अतिरिक्त अन्य सभी रथों पर विभिन्न देवी-देवताओं जैसे- दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरि, ब्रह्मा, स्कन्द आदि की मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं। द्रौपदी रथ की दीवारों से तक्षित दुर्गा तथा अर्जुन रथ की दीवारों में बनी शिव की मूर्तियाँ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। धर्मराज रथ पर नरसिंहवर्मा की मूर्ति अंकित है। इन रथों को ‘सप्त पगोडा’ कहा जाता है। दुर्भाग्यवश इनकी रचना अपूर्ण रह गयी है।

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