इतिहास

चीन में साम्यवाद का उदय | चीन में साम्यवाद की स्थापना | साम्यवादियों द्वारा स्थान परिवर्तन या ‘महाप्रस्थान’ | चीनी गृहयुद्ध के कारण | चीनी क्रान्ति के परिणाम | चीन में साम्यवादी क्रान्ति

चीन में साम्यवाद का उदय | चीन में साम्यवाद की स्थापना | साम्यवादियों द्वारा स्थान परिवर्तन या ‘महाप्रस्थान’ | चीनी गृहयुद्ध के कारण | चीनी क्रान्ति के परिणाम | चीन में साम्यवादी क्रान्ति

चीन में साम्यवाद का उदय तथा स्थापना

(Rise and Establishment of Communism in China)

डॉ० सनयात सेन के प्रयासों से चीन में 1911 ई० में राज्य क्रान्ति सम्पन्न हुई थी किन्तु उसके पद त्याग के पश्चात् युआनशिकाई ने स्वेच्छाचारी शासन स्थापित करने का प्रयास किया। डॉ० सनयात सेन ने अपने तीन सिद्धान्तों-राष्ट्रीयता, जनतंत्र और ‘समाजवाद’ के आधार पर चीन का पुनर्निर्माण करने का प्रयास किया था। 1920 ई0 तक उनके दल के उद्देश्य में केवल डॉ० सेन के सिद्धान्त थे जो उनके अनेक भाषणों में प्रकट हुए थे। इस दल के पास कोई रचनात्मक कार्यक्रम नहीं था और न कोई शक्तिशाली संगठन ही था। 1923 ई० में रूसी साम्यवादी सरकार के प्रतिनिधि एब्राम एडोल्फ जोफ व सनयात सेन के बीच एक सपझौता हुआ। किन्तु 12 मार्च, 1925 को उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के दो महत्त्वपूर्ण किन्त परस्पर  विरोधी परिणाम हुए। प्रथम डॉ० सनयात सेन रातों-रात राष्ट्रीय चीन व कोमिन्तांग दल के जननायक कर गये, उनका वसीयतनामा दल के लिए पवित्र सिद्धान्त बन गया और ‘जनता के तीन सिद्धान्त’ राहवादियों का धर्म ग्रन्थ हो गया।

किन्तु इन सबके बावजूद दूसरा परिणाम भी प्रकट हुआ, वह यह था कि उनकी मृत्यु से दल के नेतृत्व के लिए सैद्धान्तिक मतभेद आरम्भ हो गये। इन सैद्धान्तिक मतभेदों का कारण डॉ० सेन द्वारा अपनी बातों को सामान्य या आम हँग के कहना था, जिससे उन्हें लागू करने में व्याख्या भेद की गुंजाइश रह जाती थी। इस मतभेद में दल का वामपक्ष अधिक सुविधाजनक स्थिति में था और इसे साम्यवादी सदस्यों का समर्थन प्राप्त था और दल के केन्द्रीय संगठन पर इसका नियंत्रण था। क्वांगतुक के कुलीनों व केण्टन के व्यापारियों के विरुद्ध संघर्ष में विजयी होने के कारण केण्टन पर इनका कब्जा था। दल के भीतर के संघर्ष की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण बात। यह थी कि रूस के साथ किस तरह के सम्बन्ध रखे जायँ? किन्तु चीन में जब साम्यवादी प्रचार आरम्भ हुआ तो वहाँ आपसी फूट, संघर्ष और प्रतिक्रिया के दर्शन होने लगे। रूस की सहायता से यद्यपि कोमिन्तांग दल ने चीन में भारी सफलताएँ प्राप्त की थीं किन्तु साथ ही वहाँ आतंकवाद और प्रतिआतंकवाद का दौर आया जिसके कारण चीन की सहानुभूति साम्यवाद से हटने लगी।

दल विभाजन- जब रूस ने स्पष्ट रूप से चीन में साम्यवादी और बोल्शेविक कार्यक्रम चलाने का प्रयास किया तो कोमिन्तांग दल के नेता रूस के विरुद्ध हो गये। अब चीन के लोग ब्रिटेन तथा अन्य पश्चिमी शक्तियों का सहारा लेने लगे। इससे कोमिन्तांग दल में विभाजन होने लगा। नवम्बर, 1925 ई० में कोमिन्तांग दल के व्यापारी तथा जमींदार वर्ग के लोगों ने पीकिंग की पश्चिमी पहाड़ियों में एक बैठक की और रूसी सलाहकारों और साम्यवादी सदस्यों को संस्था से निकालने का कार्यक्रम बनाया और संस्था के दूसरे सम्मेलन में (1926 ई०) में साम्यवादी सदस्यों को दल से अलग कर दिया। फिर भी 1927 ई० तक किसी तरह कोमिन्तांग और साम्यवादियों में सहयोग रहा किन्तु जब साम्यवादियों ने हैकाउ सरकार तथा उसके द्वारा कोमिन्तांग पर भी अपना नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया तो च्यांगकाईशेक ने साम्यवादियों को कोमिन्तांग दल से निष्कासित कर दिया। साम्यवादियों की शक्ति को दबाने के पश्चात् च्यांगकाईशेक ने 1928 ई० में पीकिंग पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात् च्यांगकाईशेक ने मंचूरिया पर कोमिन्तांग शासन स्थापित करने का विचार किया, परन्तु जापान के विरोध के कारण वह ऐसा नहीं कर पाया। इसी बीच मंचूरिया के सेनाध्यक्ष लियांग ने कोमिन्तांग सरकार से एक समझौता किया। फलतः मंचूरिया पर भी कोमिन्तांग का प्रभाव स्थापित हो गया। जब कम्युनिस्ट लोग कोमिन्तांग दल से अलग हो गये, तो उन्होंने चीन के अनेक प्रदेशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। 1931 ई० में उनकी शक्ति का प्रधान केन्द्र कियांग्सी था। 1931 ई0 में प्रथम ‘अखिल चीनी-सोवियत सम्मेलन’ आयोजित किया गया इसमें ‘चीन-सोवियत गणतंत्र’ का संविधान स्वीकार किया गया और 61 सदस्यों की एक केन्द्रीय समिति बनायी गयी। इस समिति का अध्यक्ष माओ को बनाया गया। इस प्रकार 1931 ई0 तक चीन में साम्यवादियों ने अपनी शक्ति काफी बढ़ा ली थी। उनकी बढ़ती हुई प्रतिभा ने नानकिंग सरकार के लिए संकट उत्पन्न कर दिया। वर्ष 1933 ई० में चीन में तीन प्रमुख सरकारें थीं-

(1) च्यांग-काई-शेक की अध्यक्षता में नानकिंग में कोमिन्तांग दल की सरकार।

(2) कैण्टन में कोमिन्तांग दल की ही वामपंथी सरकार। इसके प्रमुख नेता वांग-चिंग-वेहं व चेन-कुंग-पो थे। इस वामपंथी दल के सदस्य ज्योगकाईशेक की नीति को डॉ० सनयात सेन के सिद्धान्तों के विरोध में समझते थे। इस कारण से उन्होंने कैण्टन में पृथक सरकार का निर्माण कर लिया था।

(3) कियांग्सी, आन्हुई तथा किएन प्रान्तों में साम्यवादी सरकार। यह सरकार अपने को देश की राष्ट्रीय सरकार कहती थी तथा साम्यवादी साँचे पर देश में शासन स्थापित करना चाहती थी।

रूस का विरोध- च्यांग- काई-शेक के अधीन नानकिंग सरकार कम्युनिस्ट विरोधी थीं। चीन की राष्ट्रीय एकता के लिए यह आवश्यक था कि कियांग्सी की कम्युनिस्ट सरकार को युद्ध द्वारा परास्त कर उसे अधीनता में लाया जाय। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए 1933 ई० में महासेनापति च्यांगकाईशेक ने चार बार कियांग्सी की कम्युनिस्ट सरकार पर आक्रमण किये किन्तु उसे कोई सफलता नहीं मिली। इस समय कम्युनिस्ट लोग निरंतर अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। च्यांगकाईशेक की सरकार ने 1934 ई० में अपनी सम्पूर्ण शक्ति कम्युनिस्ट लोगों के दमन में लगा दी। अब कम्युनिस्ट लोगों के लिए यह सम्भव नहीं रह गया कि वे नानकिंग सरकार की शक्ति का मुकाबला कर सके। 1934 में लाखों की संख्या में कम्युनिस्ट लोगों को मौत के घाट उतारा गया। सैन्य शक्ति के अतिरिक्त च्यांगकाईशेक ने फासिस्ट ढंग पर ‘नीलीकुर्ती’ नाम से एक आतंकवादी दल का गठन किया, जिसका उद्देश्य कोमिन्तांग दल के विरोधियों का विनाश करना था।

साम्यवादियों द्वारा स्थान परिवर्तन या ‘महाप्रस्थान’

लाल सेना का महान् अभियान च्यांगकाईशेक जिस ढंग से साम्यवादियों पर अत्याचार कर रहा था उससे अब यह सम्भव नहीं था कि वे कियांग्सी प्रान्त व उसके समीपवर्ती प्रदेशों पर साम्यवादी अपने प्रभाव को स्थापित रख सकें। इसी बीच 1931 ई० में चीन पर जापान का आक्रमण हो गया, जो एक लम्बे ‘युद्ध का प्रारम्भ’ था। च्यांगकाईशेक ने इस समय जापानी खतरे से बड़ा साम्यवादी खतरा समझा और अपनी सम्पूर्ण शक्ति साम्यवादियों के दमन में लगा दी। अतः साम्यवादियों ने यही उचित समझा कि वे च्यांगकाईशेक की सेनाओं का मुकाबला करने की अपेक्षा उत्तर में शेन्सी प्रान्त की ओर प्रस्थान कर दें और वहाँ जाकर अपनी शक्ति का पुनर्गठन करें। कियांग्सी से शेन्सी एक महान् अभियान इतिहास में महाप्रस्थान’ कहलाता है, जो 16 अक्टूबर, 1934 ई० में आरम्भ हुआ और 20 अक्टूबर, 1935 ई० में पूरे एक वर्ष बाद समाप्त हुआ। इस ऐतिहासिक वीरता का समस्त श्रेय माओत्सेतुंग का कमाण्डर सूते को है। अपने इस राज्य में साम्यवादियों ने समाजवादी व्यवस्था की स्थापना की और च्यांगकाईशेक की कोमिन्तांग सरकार से संघर्ष की तैयारी आरम्भ कर दी।

साम्यवादियों का यह नया राज्य जापान द्वारा अधिकृत उत्तरी चीन के निकट था। अतः यह स्वाभाविक ही था कि साम्यवादियों का ध्यान चीन पर निरन्तर बढ़ते हुए प्रभुत्व की ओर आकृष्ट होता। साम्यवादियों का कहना था कि कोमिन्तांग एवं कुगचागतांग दोनों को मिलकर देश में राष्ट्रीय सरकार की स्थापना करनी चाहिए, जापानी साम्राज्यवादियों को देश से निकालने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए माओ ने एक त्रिसूत्री कार्यक्रम तैयार किया जो कि दोनों दलों को स्वीकार्य हो सकता था। 1936 ई० में साम्यवादी सरकार ने अपने उद्देश्यों को इस प्रकार प्रकट किया-

(1) विदेशी आक्रमणकारी का मिलकर मुकाबला करना,

(2) चीन में लोकतांत्रिक सरकार का गठन करके जनता को शासन सम्बन्धी अधिकार प्रदान करना, और

(3) देश की वित्तीय व्यवस्था में आवश्यक सुधार करके कृषकों की दशा सुधारने का प्रयत्न करना।

साम्यवादियों के उक्त उद्देश्यों के कारण चीन की जनता का बहुमत उनके साथ हो गया। इससे साम्यवादियों को अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन मिला।

चीन में गृह-युद्ध की स्थिति-

च्यांगकाईशेक साम्यवादियों के साथ किसी भी प्रकार का समझौता नहीं करना चाहता था। वह शेन्सी प्रान्त में भी उन्हें परास्त कर सम्पूर्ण चीन पर कुओमिंगतांग दल का शासन स्थापित करना चाहता था। उसने क्वाग्तुंग तथा क्वांर्गसू के प्रान्तों को साम्यवादियों के स्थानान्तरण के बाद अपने प्रभुत्व में ले लिया था। च्यांगकाईशेक का विचार था कि जापान का मुकाबला करने के लिए यह आवश्यक था कि पहले साम्यवादियों को परास्त किया जाय ताकि चीन में राष्ट्रीय एकता स्थापित हो सके। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु उसने अपनी सेनाएँ साम्यवादियों से संघर्ष हेतु भेजीं। इन सेनाओं का प्रधान चांगहसूएहलिआंग था। साम्यवादी अपने चीनी भाइयों से नहीं लड़ना चाहते थे। उन्होंने च्यांगकाईशेक द्वारा भेजी गयी सेनाओं को युद्ध न करने के लिए तैयार कर लिया। जब यह बात च्यांगकाईशेक तक पहुँची तो वह स्वयं शेन्सी प्रान्त की ओर बढ़ा। उसके इस रुख को देखकर चांगहसुएहलिआंग ने साहस दिखाकर 12 दिसम्बर, 1936 ई0 को च्यांगकाईशेक को गिरफ्तार कर लिया और च्यांगकाईशेक को अपनी नीति में परिवर्तन करने के लिए कुछ माँगें रखीं जिनमें ‘चीन में लोकतंत्र शासन की स्थापना; साम्यवादियों को इस बात के लिए तैयार किया जाये कि आपसी लड़ाई को समाप्त कर जापान के विरुद्ध शीघ्र युद्ध आरम्भ किया जाये’ आदि थीं। पर च्यांगकाईशेक किसी भी प्रकार से इन शर्तों को मानने के लिए तैयार नहीं था। उसकी गिरफ्तारी के तेरह दिन बाद 25 दिसम्बर, 1936 ई० को पूर्ण राजकीय सम्मान साथ उसे रिहा किया गया तो साम्यवादियों और नानकिंग सरकार के बीच युद्ध बन्द हो गया। इस समय चीन का लोकमत गृह-युद्ध को बन्द कर जापान के विरुद्ध संघर्ष को शुरू करने के पक्ष में था। च्यांगकाईशेक के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह लोकमत की उपेक्षा करे। अतः उसने साम्यवादियों के साथ बातचीत आरम्भ की।

कोमिन्तांग और साम्यवादी दल (कुगचांतांग) में समझौता : सह-अस्तित्व का प्रयास- च्यांगकाईशेक साम्यवादियों की इस बात से सहमत था कि चीन के विविध दलों को आपसी मतभेदों को भुलाकर जापान के प्रभुत्व को नष्ट करने के लिए सम्मिलित प्रयास करने चाहिए। उसने अब महसूस किया कि साम्यवादियों के साथ समझौता करने में ही चीन का लाभ है। अतः दोनों पक्षों के बीच 10 फरवरी, 1937 ई० को एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार-

(i) उत्तर-पश्चिमी चीन के जिन प्रदेशों (शेन्सी और कांगसू) पर साम्यवादियों का अधिकार है, वहाँ उनका शासन ही स्थापित रहेगा,

(ii) इन प्रदेशों में साम्यवादियों का अपना स्वतंत्र व पृथक् राज्य रहेगा, जो चीन के अन्तर्गत रहता हुआ भी शासन की दृष्टि से साम्यवादियों के अधीन होगा,

(iii) साम्यवादी सेना को चीन की राष्ट्रीय सेना का ही एक अंग मान लिया गया और साम्यवादी सेनापति जापान के साथ युद्ध करते हुए महासेनापति च्यांगकाईशेक के आदेशों का पालन करेंगे। साम्यवादी सेना को चीन की राष्ट्रीय सेना में आठवीं सेना का नाम दिया गया।

द्वितीय विश्व-युद्ध और चीन-

जब द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ तो चीन में तीन तरह की सरकारें थीं—मंचूरिया में एक स्वतंत्र व पृथक् राज्य था, जिसे ‘मचूंकाओ’ कहा जाता था। यह राज्य जापान के प्रभाव में था और नानकिंग को राजधानी बनाकर वहाँ एक स्वतंत्र चीनी सरकार की स्थापना कर दी गई थी। दूसरी चीनी सरकार महासेनापति च्यांगकाईशेक के नेतृत्व में ‘राष्ट्रीय सरकार’ कहलाती थी, उसकी राजधानी चुंगकिंग थी। तीसरी सरकार साम्यवादियों की थी जो उत्तर पश्चिमी चीन में स्थित थी, इसकी राजधानी येयान थी। इसका नेतृत्व माओत्सेतुंग कर रहे थे। साम्यवादी सरकार चुंगकिंग की सरकार के अधीनता में रहते हुए जापान के विरुद्ध युद्ध में सहयोग देने को तैयार थी पर च्यांगकाईशेक जापान के विरुद्ध संघर्ष की अपेक्षा चीन की आन्तरिक राजनीति को अधिक महत्त्व देता था। चीन के सम्पूर्ण समुद्र तट पर जापान का अधिकार हो जाने के कारण च्यांगकाईशेक की सरकार का अन्य देशों के साथ कोई सीधा सम्बन्ध नहीं रह गया था। अतः अमेरिका और ब्रिटेन ने उसे वायुयान द्वारा सहायता पहुँचाने का प्रयास किया। वे यह नहीं चाहते थे कि जापान या रूस का प्रभाव चीन में बढ़े। हिमालय की उच्च पर्वतमाला को पार कर अमेरिका व ब्रिटेन के हवाई जहाज भारत होते हुए चुंगकिंग जाने लगे। जनवरी, 1944 में 13,399 टन युद्ध सामग्री भारत से चीन पहुंचाई गयी। हवाई जहाजों द्वारा इतनी अधिक युद्ध सामग्री प्रतिमाह पहुँचाना इस बात का प्रमाण है कि अमेरिका और ब्रिटेन च्यांगकाईशेक की सरकार को कितना अधिक महत्त्व देते थे।

समझौते के प्रयास- अमेरिका और ब्रिटेन ने चुंगकिंग सरकार को अपने पक्ष में करने के लिए 11 जनवरी, 1943 ई० को च्यांगकाईशेक के साथ एक संधि की, जिसके अनुसार एक्स्ट्रा- टेरिटोरिएलिटी की पद्धति का चीन में अन्त कर दिया गया। इसके अतिरिक्त इन दोनों देशों को चीन में जो अन्य अनेक प्रकार के विशेषाधिकार प्राप्त थे उन्हें भी समाप्त कर दिया गया। साथ ही यह भी स्वीकार किया गया कि चीन राजनीतिक दृष्टि से पाश्चात्य देशों के समकक्ष है और संसार का एक प्रमुख व शक्तिशाली राज्य है। इसलिए जब संयुक्त राष्ट्रसंघ का गठन किया गया, तो उसकी सुरक्षा परिषद् में चीन को भी स्थायी रूप से सदस्यता प्रदान की गयी थी। मित्र राज्य इस बात के लिए बहुत अधिक उत्सुक थे कि च्यांगकाईशेक की सरकार जापान के विरुद्ध युद्ध जारी रखे और किसी भी प्रकार उसके साथ समझौता नहीं करे। अमेरिका की ओर से जो सेनाएँ चीन में विद्यमान थीं, वे चाहती थीं कि चीन राष्ट्रीय सेनाएँ येयान की साम्यवादी सरकार के विरुद्ध युद्ध करके जापान से युद्ध करें तथा साम्यवादी सरकार भी जापान के विरुद्ध च्यांगकाईशेक की सरकार की मदद करे। अमेरिका के प्रधान अधिकारी जनरल स्टिलवेल और उसके बाद अमेरिकी राजदूत हर्ले ने बहुत प्रयास किया कि चीन की च्यांगकाईशेक की सेनाओं तथा साम्यवादी सेनाओं में समझौता हो जाय किन्तु अमेरिका के ये समझौता प्रयास असफल रहे।

इसी बीच अगस्त, 1945 ई० में जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया और महायुद्ध का अन्त हो गया। किन्तु महायुद्ध की समाप्ति के साथ ही चीन की समस्या का अन्त नहीं हुआ। जापान की पराजय के कारण नानकिंग की उस सरकार का स्वयंमेव अन्त गया, जो वागचिंग वेई के नेतृत्व में स्थापित की गई थी। महायुद्ध की समाप्ति पर यह समस्या उत्पन्न हुई कि नानकिंग सरकार द्वारा अधिकृत प्रदेशों पर अब किसका आधिपत्य स्थापित हो चुंगकिंग की कोमिन्तांग सरकार का या येयान की साम्यवादी सरकार का।

लोकतंत्र की स्थापना के प्रयास–

दिसम्बर, 1945 ई० में अमेरिका के राष्ट्रपति टूमेन  ने जनरल मार्शल को विशेष रूप से चीन इसी उद्देश्य से भेजा था कि वह चीन के दोनों प्रमुख दलों में समझौता कराये। उन्हें यह भी कार्य सौंपा गया कि वे चीन के दोनों दलों को वहाँ लोकतंत्र की स्थापना के लिए तैयार करें। जनरल मार्शल 10 जनवरी, 1946 ई० को एक संधि कराने में सफल हुए, जिसमें यह तय किया गया कि दोनों पक्षों की सेनाएँ आपसी संघर्ष समाप्त कर दें और चीन का जो प्रदेश जिस सेना के अधिकार में है, वह उसी सेना के अधिकार में रहेगा। साम्यवादियों ने संचार साधनों में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया और मंचूरिया पर राष्ट्रीय सरकार द्वारा पुनः कब्जा करने का अधिकार स्वीकार किया। इस प्रकार अमेरिका के प्रयत्न से चीन का गृह-युद्ध कुछ समय के लिए स्थगित हो गया।

साम्यवादियों द्वारा सैनिक सत्तारोहण-

अमेरिका के अथक प्रयासों के बावजूद भी कोमिन्तांग और साम्यवादियों के बीच कोई स्थायी समझौता नहीं हो सका। किन्तु जापान के आत्मसमर्पण करते ही अब उत्तरी व पूर्वी चीन पर पुनः अधिकार स्थापित करने का प्रश्न उत्पन्न हुआ तो, चुंगकिंग और येयान सरकारों के पारस्परिक विरोध ने बहुत उग्र रूप धारण कर लिया। कुछ ही समय बाद दोनों दलों की सेनाओं में गृह-युद्ध आरम्भ हो गया और इस गृह-युद्ध में साम्यवादियों को सफलता प्राप्त हुई।

साम्यवादियों की सफलता के कारण-

चीन के गृह-युद्ध में साम्यवादियों की सफलता

के कई कारण थे-

(1) साम्यवादियों की देश रक्षा की भावना और उनके द्वारा जापान के विस्तार को रोकने का प्रयास करना, उनकी सफलता का मुख्य कारण था। जबकि च्यांगकाईशेक ने सदैव अपनी शक्ति को आंतरिक शत्रु के दमन में पहले खर्च किया और जापानी विस्तार को गौण समझा। चीन की जनता इस कारण च्यांगकाईशेक से असंतुष्ट होती जा रही थी।

(2) साम्यवादी प्रभाव क्षेत्र में जो विकास की तीव्र गति थी, उसने भी जनता को साम्यवाद की ओर प्रेरित किया, जबकि च्यांगकाईशेक की सरकार के अधिकार क्षेत्र में आर्थिक समस्या बिकराल रूप धारण किये हुए थी।

(3) साम्यवादियों के सिद्धान्त– जनता की आवाज सुनना व निम्न वर्ग से सहानुभूति रखना, जनता का पूर्ण सहयोग प्राप्त करने काफी थे, जबकि कोमिन्तांग दल वैयक्तिक उन्नति व पूंजीवादी व्यवस्था में मग्न थे।

(4) साम्यवादियों की स्थिति ऐसी थी कि उन्हें निरन्तर रूस की सहायता मिलती जा रही थी और उनकी शक्ति का विस्तार हुआ था, जबकि चुंगकिंग की सरकार असहाय स्थिति में थी। . पश्चिमी राष्ट्रों की सहानुभूति के बावजूद भी उनकी सहायता के सभी मार्ग बन्द थे, अतः उनकी शक्ति का ह्रास हो रहा था।

द्वितीय विश्व युद्ध में रूस ने मित्रराष्ट्रों का साथ दिया था और जर्मनी की शक्ति को परास्त करने में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इसी कारण उसने जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा नहीं की थी। अप्रैल, 1941 में जापान और रूस के बीच एक संधि हुई, जिसके अनुसार दोनों देशों ने तटस्थ रहना स्वीकार किया। यह संधि पाँच वर्ष के लिए की गई थी। इस संधि से पूर्व फरवरी, 1941 ई० में मित्र राष्ट्रों के प्रमुख नेताओं का एक सम्मेलन याल्टा नामक स्थान पर  हुआ। इस सम्मेलन में रूस ने यह स्वीकार किया कि जब जर्मनी युद्ध में परास्त हो जायगा तो उसके दो या तीन माह बाद रूस जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करेगा ताकि जापान को परास्त करने में वे भी उसकी सहायता कर सकें। याल्टा सम्मेलन में ही ब्रिटेन और अमेरिका ने रूस के साथ एक समझौता किया, जिसके अनुसार उन्होंने यह स्वीकार किया था कि जापान की पराजय के बाद पूर्वी एशिया के सम्बन्ध में नयी व्यवस्था स्थापित करते हुए रूस की निम्नलिखित बातों को स्वीकार किया जायगा –

(i) मंगोलिया पीपुल्स रिपब्लिक को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्वीकृत किया जायगा।

(ii) 1904-05 ई० में रूस-जापान युद्ध के कारण रूस से जो प्रदेश जापान को मिले थे, वे पुनः रूस को सौंप दिये जायगे।

(iii) सखालीन द्वीप पर दक्षिणी भाग और उसके समीपवर्ती द्वीप रूस को पुनः प्राप्त होंगे।

(iv) पोर्ट आर्थर रूस को पट्टे पर दे दिया जायेगा ताकि वहाँ रूस अपनी जल-शक्ति का केन्द्र बना सके।

(v) मंचूरिया पर चीनी सरकार का अधिकार होगा, पर उसकी दो प्रमुख रेलवे लाइनों का संचालन एक ऐसी कम्पनी द्वारा किया जाये, जिस पर चीन और रूस दोनों का सम्मिलित आधिपत्य हो।

जापान की पराजय के पश्चात् चीन की स्थिति

याल्टा सम्मेलन में इंग्लैण्ड और अमेरिका के साथ उपर्युक्त समझौता करके रूस ने यह तय कर लिया था कि जर्मनी की पराजय के कुछ माह बाद वह भी जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देगा। 7 मई, 1945 ई० को जर्मनी ने आत्मसमर्पण किया और उसके ठीक तीन माह बाद 8 अगस्त, 1945 को रूस ने जापान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। रूस की सेनाओं ने उत्तर की ओर से मंचूरिया में प्रवेश किया। कुछ ही समय बाद 15 अगस्त, 1945 को जापान ने बिना किसी शर्त के आत्मसमर्पण कर दिया। अब रूस को और अधिक युद्ध करने की आवश्यकता नहीं थी। किन्तु जापान के साथ संधि 2 सितम्बर, 1945 ई0 को की गयी। इस बीच के तीन सप्ताह तक रूसी सेनाएँ जापान द्वारा अधिकृत प्रदेशों में निरन्तर आगे बढ़ती गयीं।

यद्यपि जापान युद्ध में परास्त हो गया था, पर मंचूरिया और पूर्वी चीन पर उसका ही आधिपत्य स्थापित रहा। इस समय मंचूरिया और कोरिया में रूसी सेनाएँ आगे बढ़ रहीं थीं, पर मंचूकाओं और नानकिंग की सरकारें अभी पूर्ववत् स्थापित थीं। जापान के आत्मसमर्पण का यह परिणाम अवश्यम्भावी था कि मंचूरिया और पूर्वी चीन में उन सरकारों का अन्त हो जाता, जो जापान को अपना संरक्षक मानती थीं। मंचूरिया और उत्तरी कोरिया में रूसी सेनाएँ प्रवेश कर चुकी थीं। अब समस्या यह थी कि पूर्वी चीन पर अब किसका अधिकार हो और जापानी सेनाएँ किसके सम्मुख आत्मसमर्पण करें। मित्र-राष्ट्रों ने इस बात का तो फैसला कर लिया था कि पूर्वी चीन पर चीन की स्वतंत्र राष्ट्रीय सरकार का अधिकार स्थापित होगा, पर चीन की स्वतंत्र राष्ट्रीय सरकार की सेनाएँ दो प्रकार की थीं कोमिन्तांग और साम्यवादी। इन दोनों सेनाओं में किसी प्रकार का समझौता अब तक नहीं हो पाया था। चन में साम्यवादी सेनाएँ अधिक संगठित तथा व्यवस्थित थीं। उत्तर-पश्चिमी चीन पर तो उनका अधिकार था ही, जापान द्वारा अधिकृत चीन में भी अनेक स्थानों पर साम्यवादी सेनाएँ छापामार युद्ध प्रणाली से युद्ध में व्यस्त थीं। इस स्थिति में उनके लिए यह आसान था कि वे पूर्वी चीन के एक बड़े हिस्से इपर अपना अधिकार स्थापित कर लें। किन्तु च्यांगकाईशेक इस बात को कभी सहन नहीं कर सकता था। परिणामस्वरूप सितम्बर, 1945 ई० में कोमिन्तांग और साम्यवादी सरकारों में युद्ध आरम्भ हो गया। जापान की पराजय के बाद भी चीन में शान्ति स्थापित नहीं हो सकी।

अमेरिका नहीं चाहता था कि चीन में गृह-युद्ध जारी रहे। सितम्बर, 1945 ई० में जनरल मार्शल इसी उद्देश्य से चीन गये, उनका उद्देश्य चीन के दोनों दलों में समझौता कराके वहां लोकतंत्र की स्थापना करना था। किन्तु मार्शल को अपने उद्देश्य में कोई सफलता नहीं मिली नवम्बर, 1946 ई0 में च्यांगकाईशेक ने देश के लिए नये शासन का निर्माण करने के लिए एक राष्ट्रीय महासभा का आयोजन किया किन्तु साम्यवादी दल ने इसका बहिष्कार किया। इसी बीच साम्यवादी सेनाएँ उत्तरी व पूर्वी चीन के अनेक प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर चुकी थीं। जिन स्थानों को रूसी सेनाओं ने मंचूरिया और कोरिया में खाली किया था, उन स्थानों पर अब साम्यवादी सेनाओं ने अधिकार कर लिया था। इस प्रकार चीन के एक विस्तृत भू-भाग पर साम्यवादी सेनाओं का अधिकार था। अब चीन में राष्ट्रीय एकता स्थापित करने के लिए च्यांगकाईशेक के सम्मुख दो ही उपाय बचे थे–प्रथम तो यह कि वह साम्यवादियों से समझौता कर चीन में लोकतंत्र स्थापित करने का प्रयास करे—दूसरा यह कि साम्यवादियों को युद्ध में परास्त कर उनके अधीनस्थ स्थानों पर अपना अधिकार कर ले।

1948-49 ई० में दोनों दलों के बीच समझौते का प्रयास चलता रहा। अन्ततः 14 जनवरी, 1949 ई० को साम्यवादियों ने समझौते की निम्न शर्ते प्रस्तुत की-

(j) च्यांगकाईशेक और लीत्सुंग येन को अपने पदों से हटा दिया जाय।

(ii) कोमिन्तांग और साम्यवादी सरकारें एक साथ अपनी-अपनी सेनाओं को युद्ध बन्द करने का आदेश दें।

(iii) देश के लिए एक नया संविधान बनाया जाय जिसे बनाने का कार्य जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि करें।

(iv) जब तक नया संविधान तैयार न हो, शासन के संचालन के लिए एक ऐसी सरकार का गठन किया जाय जिसमें सभी प्रमुख दलों के प्रतिनिधि हों।

(v) सेना को नये ढंग से संगठित किया जाय।

(vi) युद्ध के लिए दोषी चीनी नेताओं को दण्डित किया जाय।

यह बात स्पष्ट थी कि च्यांगकाईशेक इन शर्तों को स्वीकार नहीं कर सकता किन्तु इस समय चीन में च्यांगकाईशेक की स्थिति बहुत कमजोर हो चुकी थी। इन विकट परिस्थितियों में च्यांगकाईशेक ने 12 जनवरी, 1949 ई0 को अपनी सरकार का कार्यभार उपराष्ट्रपति लीत्सुंग येन को सौंप दिया। वह अब नाममात्र का राष्ट्रपति बना रहा। नानकिंग की सरकार का संचालन जनरल ली के पास आ गया। इस समय नानकिंग सरकार का प्रधानमंत्री सन-फ्रो साम्यवादियों से समझौते के पक्ष में था, पर उसे अपने उद्देश्यों में सफलता नहीं मिली। युद्ध यथावत् चलता रहा।

कोमिन्तांग दल की घटती हुई लोकप्रियता-

17 सितम्बर, 1949 ई0 को ब्रिटेन, फ्रांस तथा अमेरिका के विदेश मंत्रियों ने अलग-अलग किन्तु एक ही प्रकार की प्रेस-विज्ञप्ति जारी की कि चीन में ऐसा कोई राष्ट्रवादी दल दिखाई नहीं दे रहा, जिसे मित्रराष्ट्र समर्थन दे सकें। यह प्रतिक्रिया केवल सैनिक स्थिति के संदर्भ में ही नहीं व्यक्त की गयी, वरन् कोमिन्तांग दल के राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के संदर्भ में भी कही गयी थी, क्योंकि युद्ध की समाप्ति के तत्काल बाद के वर्षों में कोमिन्तांग दल ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का पुनः निर्माण करने की समस्या की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उसे कम से कम देश के पूर्व संचार-साधनों को पुनः स्थापित कर लेना था, जो आधुनिकतम थे। उसे नागरिक समुदायों के आर्थिक जीवन को पुनः स्थापित करना था और नगरों तथा गाँवों के बीच सम्बन्ध स्थिर करने का प्रयास करना था। इनका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रीय सरकार की सैनिक शक्ति कम हो गयी और उन्हें राष्ट्रीय साधनों का पूरा लाभ नहीं हुआ। अब वे केवल अपनी उच्च सैनिक शक्ति के आधार पर ही शासन चला सकते थे और वह सैनिक शक्ति भी देश की प्रगतिशील आन्तरिक अर्थव्यवस्था पर आधारित न होकर, उसकी क्षीणतर हो रही अर्थव्यवस्था पर आधारित थी। सैनिक तंत्र को बराबर बनाये रखने के लिए देश की आर्थिक पुनः स्थापना से अधिक जोर अमेरिकी सहायता पर दिया गया था।

किन्तु कोमिन्तांग दल की मौलिक कमजोरी यह थी कि उसके विरोध में यह भावना फैल गयी थी कि उसका शीर्षस्थ सरकारी कार्य-कलाप बहुत अधिक प्रष्ट और अक्षम है और यह भ्रष्टाचार और अक्षमता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। मुद्रा-स्फीति बढ़ने पर सम्भवतः ईमानदार सरकारी कर्मचारी भी अपनी सरकारी आय से अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ नहीं निभा सकते थे। इस कारण सहपूर्ति सामग्री, जो जनता के उपयोग के लिए थीं, वे भी निजी व्यापार साधनों में प्रयुक्त होने लगी थीं।

साम्यवादियों की बढ़ती हुई लोकप्रियता-

साम्यवादियों की सफलता का कारण उनकी बढ़ती हुई शक्ति और साथ ही साथ कोमिन्तांग दल की शक्ति का उसी अनुपात में निरंतर क्षीण होते जाना था। यह पार्टी, युद्ध के बाद नेताओं का समर्थ नेतृत्व प्राप्त करने का सम्मान अर्जित कर चुकी थी। वास्तव में इस दृष्टिकोण का भी काफी प्रचार हो गया था कि साम्यवादी नेताओं द्वारा अपने अधिकारों का प्रयोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए न होकर सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति लिए किया जाता है। यह तथ्य उनके द्वारा कृषकों के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में परिलक्षित हुआ था। स्वाभाविक रूप से साम्यवादियों ने देश का भीतरी और बाहरी समर्थन प्राप्त करने के लिए एक ‘नये लोकतंत्र और भूमि सुधार की विनम्र विधि का प्रचार किया। इस प्रकार चीन की जनता का समर्थन साम्यवादी सरकार के साथ अधिक था। चीन में कोमिन्तांग दल की लोकप्रियता धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। इस स्थिति में साम्यवादियों के लिए यह आसान था कि वे सम्पूर्ण चीन पर अधिकार स्थापित कर सकें।

1945 ई० के बाद के वर्षों में चीनी साम्यवादी दल और सोवियत संघ के बीच स्थापित सम्बन्ध स्पष्ट रूप से दृष्टिगत हुए। 1949 ई0 तक इसे केवल भूमि सुधार करने वाली पार्टी मानते हुए मात्र चीनी राष्ट्रीय आन्दोलन के एक उपकरण के रूप में स्थित साम्यवादी पार्टी के बजाय, इसे रूसी साम्यवादी पार्टी के साथ सम्बद्ध अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवादी आन्दोलन का हिस्सा मानना अधिक उपयुक्त समझा गया। इसके कारण और कोमिन्तांग को अमेरिका द्वारा बराबर हर सम्भव सहायता दिये जाने के कारण चीन के गृह-युद्ध को एक अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व प्राप्त हुआ।

फिर भी 1949 ई0 तक यांगत्जे का उत्तर स्थित चीन, कम्युनिस्ट सेनाओं द्वारा कोमिन्तांग के नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया था और इसे चीनी साम्यवादी पार्टी के अन्तर्गत स्थित समझ लिया गया था। साम्यवादियों को कुछ सफलता भूतपूर्व कोमिन्तांग कमाण्डरों को अपने भीतर आत्मसात कर लेने से भी प्राप्त हुई थी। अतः उत्तर चीन में भी प्रशासकीय अधिकार कुछ स्थानों पर उन लोगों द्वारा प्रयुक्त हो रहा था, जो विचार परिवर्तन के कारण नहीं बल्कि परिस्थितियों से बाध्य होकर साम्यवादियों से आ मिले थे।

इन राजनीतिक और प्रशासकीय व्यवस्थाओं के अन्तर्गत चीन में किसी ऐसी साम्यवादी सरकार की स्थापना नहीं हो सकी थी जो विदेशी शक्तियों से अपनी मान्यता की माँग करे या आशा करे। 19 जून को ‘नव चीनी केन्द्रीय समाचार’ एजेन्सी द्वारा चीन के लिए एक ‘लोकतान्त्रिक सम्मिलित सरकार’ का गठन करने के लिए जनता के ‘नये सलाहकार सम्मेलन की रूपरेखा के सम्बन्ध में घोषणा कर, इस दिशा में अभियान शुरू करने का संकेत मिला। इसके प्रतिनिधियों में कोमिन्तांग दल के प्रतिक्रियावादियों को स्थान न देने का निर्णय किया गया था जिसका तात्पर्य यह था कि कोई व्यक्ति या दल, जो अपने दृष्टिकोण के कारण साम्यवादी नेताओं को स्वीकार न हो, उसे इसमें सहयोजित नहीं किया जाय। इस प्रकार ‘जनता के नये साम्यवादी सलाहकार सम्मेलन का उद्देश्य साम्यवादियों के साथ सहृदय व्यवहार रखने वालों को मिलाकर एक ऐसी केन्द्रीय सरकार की स्थापना करने का था, जो एक पार्टी की सरकार के बजाय एक सम्मिलित सरकार की तरह प्रतीत हो।

लोक गणराज्य की स्थापना-

जनता के नये साम्यवादी सलाहकार सम्मेलन’ द्वारा किये गये निर्णयों की घोषणा 1 अक्टूबर, 1949 ई0 को की गयी। इस घोषणा के द्वारा साम्यवाद ने पीकिंग में लोक गणराज्य की घोषणा कर दी। 2 अक्टूबर को सोवियत संघ ने इस नये तंत्र को चीन की सरकार के रूप में मान्यता दी और इसके बाद सोवियत संघ के निर्देश पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में कार्यवाही करने वाले अन्य राज्यों ने भी इसे ऐसी ही मान्यता प्रदान की और 1950 ई० के अन्त तक 25 देशों ने इसे मान्यता दे दी। इस प्रकार चीन साम्यवादी हो गया। लोगों ने साम्यवाद को इसलिए स्वीकार नहीं किया कि वे इसके सिद्धान्तों को विशेष रूप से पसन्द करते थे बल्कि इसलिए कि वे कोमिन्तांग के शासन से तंग आ चुके थे और इससे बचने के लिए उनके पास उस समय साम्यवाद के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था।

मार्च, 1950 ई0 तक चीन के सभी भागों पर साम्यवादी सरकार की स्थापना हो चुकी थी। केवल फारमोसा द्वीप च्यांगकाईशेक के अधिकार में था। संयुक्त राज्य अमेरिका ने साम्यवादी सरकार को मान्यता देना अस्वीकार करते हुए चीन की सरकार के रूप में फारमोसा स्थित राष्ट्रवादी सरकार से अपना सम्बन्ध बनाये रखा।

साम्यवादी क्रान्ति का प्रभाव-

साम्यवादी नेतृत्व में एकीकृत राष्ट्रीय शक्ति के रूप में चीन का उदय आधुनिक वर्षों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना है। इस घटना के परिणामस्वरूप विश्व राजनीति में अनेक मोड़ आये तथा अनेक नयी परिस्थितियों का जन्म हुआ। माओत्सेतुंग ने सम्पूर्ण चीन में एक सत्ता की घोषणा की। साम्यवाद ने एशिया महाद्वीप के विशाल क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। इससे पश्चिमी शक्तियों एवं साम्यवादियों के बीच एक नया शक्ति संतुलन स्थापित हुआ। चीन में साम्यवाद की स्थापना से ऐसा अनुमान लगाया गया था कि वह सोवियत रूस का नेतृत्व स्वीकार करेगा किन्तु कुछ ही वर्षों बाद चीन साम्यवादी देशों के नेतृत्व के लिए रूस का प्रतिद्वन्द्वी बन गया। इस सम्बन्ध में पामर एवं परकिन्स ने लिखा है कि-“चीन की साम्यवादी क्रान्ति का सम्पूर्ण एशिया पर प्रभाव पड़ना निश्चित है।” चीन की इस क्रान्ति ने अफ्रीका में भी राष्ट्रवादी शक्तियों को प्रोत्साहित किया किन्तु उसकी दोहरी नीति के कारण उसे अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुई। पश्चिम की महान् शक्ति अमेरिका ने भी चीन में साम्यवाद की स्थापना के बाद शकित हो जापान के लोकतंत्र को दृढ़ता प्रदान करने वाली नीति अपनाई ताकि जापान अपने पड़ोसी साम्यवादी देशों से बचा रह सके। वर्षों सुषुप्त चीनी दैत्य जाग उठा था और अब वह सम्पूर्ण विश्व को कंपित करने की प्रयत्न कर रहा था।

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Pankaja Singh

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