इतिहास

साम्राज्यवाद क्या है | नये साम्राज्यवाद का स्वरूप | साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद

साम्राज्यवाद क्या है | नये साम्राज्यवाद का स्वरूप | साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद

साम्राज्यवाद क्या है

“सभ्य राष्ट्रों की कमजोर एवं पिछड़े लोगों पर शासन करने की इच्छा व नीति साम्राज्यवाद कहलाती है।” चार्ल्स ए0 बेयर्ड

नये साम्राज्यवाद का स्वरूप-

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप में नवीन साम्राज्यवाद का आरम्भ हुआ। इसका स्वरूप मुख्यतः राष्ट्रीय तथा आर्थिक था। राष्ट्रीयता की जो नवीन भावना यूरोपीय राज्यों में उत्पन्न हुई थी, वह अब अत्यन्त प्रबल रूप धारण कर रही थी। यह साम्राज्यवाद, पुराने साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद से भिन्न था। पुराने उपनिवेशवाद का मुख्य आधार ‘वाणिज्यवाद’ था। उस काल में इंग्लैण्ड, फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल, हालैण्ड आदि ने अफ्रीका और एशिया में विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिए थे। इन देशों का मुख्य उद्देश उपनिवेशों से कच्चा माल पर्याप्त मात्रा में प्राप्त करना तथा अपने तैयार माल को इन उपनिवेशों में बेचना था, किन्तु नवीन साम्राज्यवाद इन उद्देश्यों के अतिरिक्त अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रसार तथा अपनी अतिरिक्त जनसंख्या को बसाने के लिए भी प्रयत्नशील था।

‘साम्राज्यवाद’ शब्द की व्याख्या विद्वानों ने अलग-अलग की है। लेकिन इतिहास के विद्यार्थी इस शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में करते हैं, “भिन्न प्रजाति वाले देश पर किसी दूसरे देश के राजनीतिक आधिपत्य की व्यवस्था को साम्राज्यवाद कहते हैं।”

साम्राज्यवाद के सम्पूर्ण जीवन को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं—पुराना साम्राज्यवाद और नया साम्राज्यवाद! पुराने साम्राज्यवाद का आरम्भ लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी से माना जा सकता है। इसके पूर्व तक यूरोप के लोग अपने महाद्वीप के अतिरिक्त अन्य किसी भी देश से परिचित नहीं थे। इस समय यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि कोई यूरोपीय देश समुद्र पार कर एशिया व अफ्रीका के किसी देश को अपने अधीन करके अपने साम्राज्य का विस्तार करे। पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में एक नयी प्रवृत्ति आरम्भ हुई। भूगोलवेत्ता और अनुसंधानकर्ता नये-नये प्रदेशों को खोज निकालने के लिए जिज्ञासु प्रतीत होने लगे। दिग्दर्शक यन्त्र के आविष्कार से समुद्री यात्रा आसान हो गयी। अब उपनिवेशों की स्थापना का कार्य आसान गया। इस कार्य में स्पेन तथा पुर्तगाल ने विशेष तत्परता दिखलाई। स्पेन के राजा की सहायता से 1492 ई० में कोलम्बस ने अमेरिका का पता लगाया। 1498 ई0 में पुर्तगाल का वास्कोडिगामा अफ्रीका का चक्कर लगाते हुए भारतवर्ष पहुँचा। इन अन्वेषकों के कारण पुर्तगाल और स्पेन सोलहवीं सदी के अग्रणी उपनिवेशी राष्ट्र बन गये। पुर्तगाल ने ब्राजील और भारत तथा अफ्रीका के तट पर व्यापारिक चौकियां स्थापित की। स्पेन ने फिलीपाइन्स और उत्तरी, मध्य एवं दक्षिणी अमेरिका के बड़े प्रदेश पर अधिकार जमा लिया। सोलहवीं सदी के मध्य में स्पेन ने नई दुनिया में साटो डोशमिगो, लिमा और मैक्सिको नगर में, सर्वप्रथम विश्वविद्यालयों की भी स्थापना की। उन्होंने अमेरिका को सर्वप्रथम मुद्रणालय और पुस्तकालय प्रदान किये किन्तु स्पेन ने यहाँ से अधिकाधिक धन का दोहन भी किया। सत्रहवीं शताब्दी में हालैण्ड और फ्रांस ने भी औपनिवेशिक साम्राज्य का निर्माण आरम्भ किया। इंग्लैण्ड सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक उपनिवेशों की प्रतियोगिता में सम्मिलित नहीं हुआ था किन्तु धीरे-धीरे उसका औपनिवेशिक साम्राज्य सम्पूर्ण विश्व में स्थापित हो गया। यहीं से यूरोप के इन देशों की औपनिवेशक तथा व्यापारिक प्रतिस्पर्धा आरम्भ होती है। कुछ ही वर्षों में यूरोप के मुट्ठी भर देशों ने सारे संसार को आपस में बाँट लिया। सम्पूर्ण उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका, भारतवर्ष, दक्षिण-पूर्व एशिया में मलाया, हिन्द-चीन, हिन्देशिया तथा अफ्रीका के उत्तरी और दक्षिणी किनारे के कुछ भागों पर शीघ्र ही यूरोपीय साम्राज्य स्थापित हो गया।

उन्नीसवीं शताब्दी में इस उपनिवेशवाद ने नया रूप धारण कर लिया। अब वह उपनिवेशवाद से साम्राज्यवाद बन गया (Colonialism became Imperialism)। इस समय तक औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप आर्थिक क्षेत्र में नयी विचारधाराओं का जन्म हुआ। एडम स्मिथ और तुर्गों ने ‘मुक्त व्यापार’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस सिद्धान्त के कारण ‘पुरानी वाणिज्यवादी पद्धति’ का ह्रास होने लगा। साथ ही यूरोपीय राज्यों के बहुत से उपनिवेश स्वतंत्र होने लगे। इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा हालैण्ड के बहुत से उपनिवेश स्वतंत्र हो गये थे।

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में ‘औपनिवेशिक उदासीनता’ देखने को मिलती है। इस समय में ‘मुक्त व्यापार’ तथा ‘अहस्तक्षेप’ (Laissez Faire) के सिद्धान्तों के कारण उपनिवेश स्थापित नहीं हुए किन्तु 1870 ई0 के पश्चात् यूरोप में साम्राज्यवाद की भावना पुनः प्रबल होने लगी। 1868 ई0 और 1872 ई0 के बीच इंग्लैण्ड में ‘इम्पीरियल फेडरेशन आन्दोलन’ का प्रभाव बढ़ने लगा। इसमें इंग्लैण्ड के कुछ अग्रणी व्यक्ति सम्मिलित थे। उनका विचार था कि इंग्लैण्ड को अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करने चाहिए। 1870 ई० में आक्सफोर्ड में भाषण देते हुए प्रसिद्ध लेखक रस्किन ने कहा था कि “इंग्लैण्ड को शीघ्रतिशीघ्र नए उपनिवेश स्थापित करने चाहिए, उसे जहाँ भी उपयोगी खाली स्थान मिलता है, उस पर अधिकार कर लेना चाहिए… यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो स्वयं नष्ट हो जायेगा।” इसी प्रकार फ्रांस में भी साम्राज्यवाद की नयी धारा का प्रभाव बढ़ रहा था। फ्रांस के प्रमुख अर्थशास्त्री पाल लेरायब्यूल (Paul Leroy baulieu) ने 1874 ई० में एक पुस्तक लिखी, जिसमें उसने यह विचार प्रतिपादित किया कि उन राज्यों के लिए जो सभ्यता के उच्च शिखर पर पहुंच चुके हैं- उपनिवेश स्थापित करना सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। उसके इस विचार से फ्रांस में बाडिंगटन, गेम्बेढा तथा जूल्स फेरी बहुत प्रभावित हुए।

1880 ई० में जर्मनी में भी औपनिवेशिक विस्तार की लहर आयी और बिस्मार्क को, जो उपनिवेशों को अनावश्यक भार समझता था, क्रियाशील औपनिवेशिक नीति अपनानी पड़ी। औद्योगीकरण के कारण भी उपनिवेशों की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। ऐसे धनी राज्यों के लिए जिनके पास प्रचुर मात्रा में संचित पूँजी थी और जिनके पास औद्योगिक उत्पादन बढ़ता जा रहा था तथा जिनकी जनसंख्या का अधिकांश भाग उद्योगों के माध्यम से जीवनयापन करना था, उनके लिए यह आवश्यक था कि वे तथाकथित पिछड़े प्रदेशों पर अधिकार स्थापित कर लें। तथा उनके प्राकृतिक साधनों का उपयोग तथा उनके व्यापार को अपने हाथों में रखें। इस नीति के आधार पर अगले 25 वर्षों में संसार के अविकसित क्षेत्रों पर अधिकार करने की प्रतिस्पर्धा शुरू हुई, जिसके फलस्वरूप अफ्रीका और चीन जैसे विशाल भू-भाग को भी आपस में बाँट लिया गया और एशिया के कई प्रदेश तथा प्रशान्त महासागर के अनेक द्वीपों पर अधिकार कर लिया। साम्राज्यवाद की इस नीति के परिणामस्वरूप अफ्रीका महाद्वीप का 90 प्रतिशत भाग यूरोपीय राज्यों के मध्य बँट गया।

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Pankaja Singh

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