नवीन साम्राज्यवाद के विकास के कारण | 19वीं शताब्दी में नवीन साम्राज्यवाद के विकास के कारण
नवीन साम्राज्यवाद के विकास के कारण
(अ) आर्थिक कारण
- अतिरिक्त उत्पादन- औद्योगिक क्रान्ति के कारण मानव समाज के आर्थिक संगठन में बड़ा परिवर्तन हुआ। मध्यकाल में आर्थिक उत्पादन बहुत छोटे पैमाने पर हुआ करता था। अतः उसकी खपत उसी देश में हो जाती थी। उस समय अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए न तो माल ही था और न उसे एक देश से दूसरे देश में ले जाने के लिए समुचित साधन ही विद्यमान थे। किन्तु 1870 ई0 के पश्चात् औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि हुई। इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के साथ ही जर्मनी, इटली तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में भी औद्योगिक उत्पादन बढ़ा। इन देशों को अपने तैयार माल को बेचने की चिन्ता होने लगी। यूरोप के देश इस समय संरक्षणवादी नीति का पालन कर रहे थे, अतः विदेशी वस्तुओं पर भारी कर लगाये जाते थे। इस कारण औद्योगिक देशों को अपना अतिरिक्त माल (Surplus Manufactures) बेचने के लिए नये बाजार ढूँढ़ने की आवश्यकता पड़ी। इन देशों के व्यापारिक वर्ग ने अपनी सरकार पर दबाव डाला कि वे या तो उपनिवेश हथियाएँ या अविकसित प्रदेशों पर अधिकार करें। यही नवीन साम्राज्यवाद का आधार था।
- अतिरिक्त पूँजी- औद्योगिक क्रान्ति के कारण यूरोप के देशों में धन का संचय आरम्भ हुआ। बड़े पैमाने पर उत्पादन होने से उत्पादित वस्तु की लागत कम आयी और वस्तुओं का उत्पादन अधिक हुआ, इससे लाभ की मात्रा बढ़ गई। इस अतिरिक्त पूँजी की यदि यूरोप के देशों में पुनः लगाया जाता तो बहुत कम ब्याज मिलता, अतः देश में पूँजीपतियों का एक ऐसा वर्ग तैयार हो गया, जो इस अतिरिक्त पूँजी को ऐसे स्थान पर लगाना चाहता था जहाँ लाभ अधिक हो। अविकसित देशों में मजदूरी सस्ती होने तथा प्रतियोगी बहुत कम होने से लाभ की सम्भावनाएँ अधिक थीं। इस कारण पूँजी को उपनिवेशों में लगाने की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई। इस प्रकार यूरोपीय देशों के अतिरिक्त पूँजी वाले लोगों ने अपनी सरकार को उपनिवेश स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। मोरक्को में फ्रांस के साम्राज्य की स्थापना का कारण भी यही था।
- कच्चे माल की आवश्यकता- औद्योगिक देशों द्वारा कच्चे माल की आवश्यकता साम्राज्यवाद का एक महत्त्वपूर्ण कारण था। औद्योगिक उत्पादन के लिए रबर, टिन, टंगस्टन, मैंगनीज, कपास, वनस्पति तेल आदि कई प्रकार के कच्चे माल की माँग बढ़ती जा रही थी। इस माँग की पूर्ति भी उपनिवेशों द्वारा ही सम्भव थी। अतः उद्योग प्रधान देश ऐसे उपनिवेशों पर अधिकार करने का प्रयत्न करने लगे, जहाँ से उन्हें अधिक मात्रा में सस्ते दामों पर यह कच्चा माल मिल सके। उद्योग प्रधान देशों में अधिकतर लोग उद्योग-धन्धों में लगे रहते थे, अतः अन्न का उत्पादन वहाँ कम होने लगा, इसकी पूर्ति भी उपनिवेशों से पूरी की जानी थी। इसी तरह तेल, कॉफी, चाय आदि पदार्थ भी नवीन साम्राज्यवाद के विकास में सहायक सिद्ध हुए।
- यातायात एवं संचार साधनों का विकास- औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप यातायात के साधनों का विकास हुआ। भाप की शक्ति से चलने वाले जहाजों के बन जाने से सुदूरवर्ती देशों से व्यापार करना भी बहुत आसान हो गया। रेलवे, डाक, तार, टेलीफोन आदि के आविष्कार से मनुष्य ने देश और काल पर अभूतपूर्व विजय प्राप्त की। 1880 ई० के पश्चात् जहाजों में प्रशीतन (Refrigeration) की व्यवस्था हो जाने से फल, मक्खन, पनीर, अण्डे आदि दूरवर्ती उपनिवेशों से लाना सम्भव हो सका। लन्दन से भारत आना अब केवल तीन सप्ताह का कार्य रह गया था। टेलीग्राफ और केबिल के द्वारा प्रत्येक उपनिवेश से व्यापारिक सौदे करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी। अनेक स्थानों पर यातायात के साधनों को लेकर ही साम्राज्यवादी संघर्ष शुरू हो गए। बगदाद रेलवे की तजवीज में जर्मनी के लिए विपुल सम्भावनाएँ निहित थीं और योजना यूरोपीय शक्तियों को आतंकित करने वाली थी।
- जनसंख्या का दबाव- उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप की आबादी बड़ी तेजी के साथ बढ़ी। 1800 ई० में ब्रिटेन की आबादी एक करोड़ साठ लाख थी, जो 1900 ई0 में बढ़कर चार करोड़ दस लाख हो गयी। इसी प्रकार इस एक शताब्दी में जर्मनी की आबादी दो करोड़ तीस लाख से बढ़कर पाँच करोड़ साठ लाख हो गयी। इटली की आबादी दो करोड़ तीस लाख से बढ़कर चार करोड़ हो गयी। इस बढ़ती हुई आबादी को रोजगार देने तथा उन्हें बसाने की समस्या दिनों दिन उग्र होती गयी। इस समस्या का एक आसान उपाय यह था कि बहुत से लोगों को दूसरे देशों में बसा दिया जाय। एशिया, अफ्रीका आदि देशों में बहुत से प्रदेश खाली पड़े थे, इस आधार पर भी उपनिवेशों की स्थापना की गयी। इस उपनिवेशों में बहुत से लोग सैनिक और शासकीय अधिकारियों के रूप में जाकर रहने लगे तथा कुछ लोग उद्योग-धन्धों के विस्तार के लिए भी वहाँ जाकर बस गये। इससे यूरोप के देशों में जनसंख्या का दबाव कम हो गया।
(ब) राजनीतिक कारण
साम्राज्यवाद का विकास किसी भी देश की राजनीतिक और आर्थिक आवश्यकता को ध्यान में रखकर तो किया जा रहा है, लेकिन इस कार्य में कुछ लेखक, विचारक एवं राजनीतिज्ञों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, पुर्तगाल, इटली, जर्मनी आदि देशों में इसी प्रकार के राष्ट्रवादी व्यक्तियों के प्रभाव के कारण उपनिवेशवाद को प्रोत्साहन मिला। इटली और रूप जैसे कुछ देशों में जिनका औद्योगिक विकास अपेक्षाकृत कम हो पाया था तथा जिन्हें नई मण्डियाँ स्थापित करने की आवश्यकता नहीं थी, मूलतः राजनैतिक उद्देश्यों से ही औपनिवेशिक विस्तार किया गया। साइप्रस और केंप (उत्तमाशा) पर कब्जा करने के लिए सबसे पहले फ्रांस ने अफ्रीका में प्रवेश किया और इधर इटली ने अपना राष्ट्रीय महत्त्व बढ़ाने के लिए लीबिया पर अधिकार कर लिया। मिस्र में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच प्रतिस्पर्धा चली और अन्ततः मिस्र पर इंग्लैण्ड का संरक्षण स्थापित हो गया। राष्ट्रीय गौरव की वृद्धि के लिए बिस्मार्क भी अपने जीवन की संध्या में उपनिवेश स्थापना की ओर मुड़ा और बाद में विलियम कैसर की महत्त्वाकांक्षा भी काफी रंग लायी। सामुद्रिक मार्गों की खोज होने से बड़े राष्ट्र उन स्थानों पर अधिकार जमाने की चिन्ता करने लगे जहाँ उनके जहाज कोयला, पानी ले सकें और विश्राम कर सकें। अतः यूरोपीय शक्तियों का यही प्रयत्न रहा कि समुद्री किनारों और मार्ग में पड़ने वाले द्वीपों को जीतकर अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया जाय।
(स) अन्य कारण
किसी भी साम्राज्य के निर्माण में सम्पूर्ण राष्ट्र के लोगों का बहुत कम योगदान रहता है। देश के निर्माण का कार्य कुछ लोग ही करते हैं। ये कुछ लोग अपने स्वार्थों की भावना से प्रेरित होकर ही साम्राज्यवाद के निहित स्वार्थ (Vested Interests of Imperialism) होते हैं। इस तथ्य को प्रेरित करने वाली शक्तियाँ निम्न थीं…
- व्यापारिक वर्ग- किसी भी देश का व्यापारिक वर्ग हमेशा अपने व्यापार की उन्नति के विषय में ही सोचता है। इन व्यापारियों का ऐसा संगठन बन जाता है, जो सरकार पर दबाव डालकर व्यापारिक लाभ के लिए किसी भी कार्य को करने के लिए मजबूर करता है। यूरोप के देशों में भी औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् ऐसे वर्ग तैयार हुए। इनमें कपड़े तथा लोहे के व्यवसायियों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। ये साम्राज्यवाद के कट्टर समर्थक होते थे क्योंकि वे अपना माल बेचने के लिए हमेशा नये बाजार की तलाश करते रहते थे। इसी प्रकार अस्त्र-शस्त्र, गोला- बारूद तैयार करने वाली कम्पनियों के व्यवसायी भी साम्राज्यवाद का समर्थन इसलिए करते थे, ताकि युद्ध की स्थिति में उनके व्यवसाय की तरक्की हो सके। बड़ी-बड़ी जहाज कम्पनियों के मालिक भी इस नीति का समर्थन इसलिए करते थे कि उन्हें कोयला लेने या तूफान आदि से बचने के लिए सुरक्षित स्थानों पर ठहरने की आवश्यकता पड़ती थी। साम्राज्यवाद के विस्तार में बैंक अधिकारियों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा। ब्रिटेन के रोथस चाइल्ड बैंक ने प्रधानमन्त्री डिजरैली को स्वेज नहर में हिस्सा खरीदने के लिए धन दिया और बाद में मिस्र पर ब्रिटिश अधिकार स्थापित करने के लिए उस पर दबाव भी डाला। सेना के कुछ अधिकारी भी साम्राज्यवादी नीति के पोषक होते थे क्योंकि औपनिवेशिक युद्ध उन्हें यश प्राप्ति का मौका देता था। सैनिकों की संख्या में वृद्धि के साथ ही उच्च पदों की संख्या में वृद्धि होगी और उनकी पदोन्नति के लिए अवसर अधिक होंगे।
- उग्र राष्ट्रीयता- इस नये साम्राज्यवाद की वृद्धि का एक अन्य कारण उग्र राष्ट्रीयता थी। राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित होकर यूरोप के विविध राज्य विश्व में अपनी शक्ति का विस्तार करने के लिए आतुर थे। जर्मनी और इटली अपना एकीकरण पूरा हो जाने पर और औद्योगिकीकरण का श्रीगणेश करके यह स्वप्न देश रहे थे कि वे भी अपेक्षाकृत पुराने राष्ट्रों के साम्राज्यों की तरह अपने-अपने साम्राज्यों का निर्माण करके अपनी शक्ति बढ़ा लेंगे। फ्रांस- प्रशिया । युद्ध में पराजित फ्रांस को यह आशा थी कि उपनिवेशों की वृद्धि करके अपने पुराने गौरव को पुनः प्राप्त कर सकेगा। बड़ती हुई प्रतियोगिता के इस खतरे के कारण ब्रिटेन चाहने लगा कि जो कुछ उसके पास है, उसे वह हथियाये ही रखे तथा अपने साम्राज्य का और भी विस्तार करे। इसके प्रतिक्रियास्वरूप समृद्ध और शक्ति सम्पन्न ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति ईर्ष्या ने अनेक राष्ट्रों की महत्त्वाकांक्षाओं को उभारा। अनेक राष्ट्रवादी देश उपनिवेशों को सैनिक और सामुद्रिक अड्डों के रूप में रखना चाहते थे। अतः यूरोपीय शक्तियों का यह प्रयत्न था कि समुद्री किनारों और मार्ग में पड़ने वाले द्वीपों को जीतकर वहाँ अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया जाय। संसार के मानचित्र को अपने देश के उपनिवेशों से रंगा देखकर सामान्य नागरिक तक प्रायः राष्ट्रीय गौरव से खिल उठता था।
- ईसाई मिशनरियों का योगदान– यूरोपीय साम्राज्यवाद के प्रसार में धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। यूरोप के पादरियों का मुख्य उद्देश्य ईसाई-धर्म का प्रचार-प्रसार करना था। मध्यकाल में जब यूरोपीय लोगों में नये प्रदेशों की खोज करने की प्रवृत्ति शुरू हुई, तो ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी उसमें हाथ बढ़ाया। मार्कोपोलो नामक यात्री जब चीन गया, तो अनेक इसाई मिशनरी भी उसके साथ गये। चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में अनेक ईसाई धर्म प्रचारक चीन की राजधानी बीजिंग गये, जहाँ उन्होंने बाइबिल का तातारी भाषा में अनुवाद किया और अनेक तातारी लोगों को ईसाई धर्म दीक्षित करके उन्हें धर्म प्रचार के लिए तैयार किया। ईसाई पादरी साम्राज्य विस्तार के एक अच्छे साधन माने जाते थे। यदि पादरियों का किसी तरह अपमान होता था, तो राष्ट्रीय सरकार उस अपमान का बदला लेने के बहाने उन देशों पर आक्रमण कर देती थी या उनके आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप करती थी। उदाहरणार्थ, उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में चीन में जब दो जर्मन ईसाई पादरियों की हत्या हो गयी, तो इसका बदला लेने के लिए जर्मनी ने उसके एक बन्दरगाह पर कब्जा कर लिया।
मिशनरियों ने प्रत्यक्ष रूप से भी साम्राज्यवाद को प्रोत्साहित किया। इस सम्बन्ध में इंग्लैण्ड के डॉक्टर डेविड लिविंग्स्टोन (David Livingstone) का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। लिविंग्स्टोन ने लगभग बीस वर्ष तक अफ्रीका के अन्तः प्रदेश में जेम्बिसी और कांगो नदियों के क्षेत्रों की खोज की। उसने 1873 ई0 में अपनी मृत्यु के पहले, अपने देशवासियों को यह सन्देश भेजा कि अफ्रीका की भूमि उनके ‘व्यापार और ईसाई धर्म के प्रचार’ के लिए उपयुक्त है। लिविंग्स्टोन के समान ब्रिटेन के अन्य धर्म प्रचारकों ने भी एशिया और अफ्रीका में ईसाई धर्म के प्रचार और प्रसार के साथ-साथ अपने देश के राजनैतिक एवं आर्थिक साम्राज्य की वृद्धि के लिए प्रयत्न किया। इसी प्रकार फ्रांस के कार्डिनल लेवीगेरी (Cardinal Levigerie) ने अल्जीरिया में अफ्रीका के ‘मिशनरियों की समिति’ स्थापित की और उसके माध्यम से ट्यूनिस में अपना धार्मिक प्रभाव स्थापित किया। इससे फ्रांस को ट्यूनिस पर अधिकार करने में सहायता मिली। बेल्जियम के पादरियों ने भी इसी प्रकार कांगो के क्षेत्र में अपने राज्य का प्रभाव स्थापित करने के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।
- अपनी सभ्यता को पिछड़े देशों में फैलाने के ‘दिव्य धार्मिक कार्य’ के बहाने साम्राज्य प्रसार- यूरोप के लाखों लोगों का विश्वास था कि गोरे लोगों की सभ्यता-विशेषकर उनके अपने देश की सभ्यता-पिछड़े देशों की रंगीन जातियों की सभ्यता से कहीं अधिक उत्कृष्ट है। इन लोगों का विश्वास था कि अपनी तथाकथित उत्कृष्टतर सभ्यता को पिछड़े क्षेत्रों में फैलाने का पुनीत कार्य उनके ही जिम्मे है। अतः ईसाई धर्म के प्रचारकों ने अविकसित क्षेत्रों के लोगों की भलाई का कार्य आरम्भ किया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ईसाई धर्म के प्रचारकों में कुछ लोग तो सच्चे धार्मिक तथा मानव प्रेमी थे और उन्होंने मानवता की वास्तविक सेवाएँ भी की। हजारों धर्म प्रचारकों, अध्यापकों और चिकित्सकों तथा अन्य लोगों ने पिछड़े लोगों की सहायता करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। किन्तु अविकसित लोगों का उद्धार करने की आड़ में अथवा परोपकारी एवं मानवतावादी प्रयत्नों की आड़ में यूरोप के राज्यों ने अपना साम्राज्य विस्तार किया। फ्रांस ने अपनी औपनिवेशिक विस्तार की नीति को ‘सभ्यता के विस्तार का कार्य’ बदलाया, इटली ने इसे ‘पुनीत कर्त्तव्य’ (Sacred Duty) घोषित किया, इंग्लैण्ड ने इसे ‘श्वेत जाति का भार’ (White Mens’ Burden) या दायित्व बतलाया।
(द) भौगोलिक खोजकर्ता
पुनर्जागरण काल में यूरोप में भौगोलिक खोजों की प्रवृत्ति आरम्भ हुई थी। इसका पूर्ण विकास उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक हुआ। इस समय में अनेक साहसिक खोजकर्ता एवं जांबाज (Explorers and Adventurers) पैदा हुए, जिन्होंने केवल साहसपूर्ण कार्यों के लिए ही नये-नये उपनिवेशों को खोज निकाला। इन खोजों से साम्राज्य विस्तार में में काफी सहायता हुई। बर्टन, कार्ल पीटर्स, स्पेक, पाण्ट, बेकर, हैनरी, मार्टन स्टेनली, डॉ० डेविड लिविंग्स्टोन, गुस्टाव नाक्टिगाल कुछ ऐसे ही उत्साही व्यक्ति थे। फ्रांस के दुचालू (Du Chaillu), एवं डि ब्राजा (De Brazza) ने अफ्रीका के भू-मध्यरेखीय क्षेत्र में खोज की। इंग्लैण्ड के हेनरी मार्टन स्टेनली (Henry Marton Stanley) ने कांगों के क्षेत्र में खोज की थी। जर्मनी के कार्ल पीटर्स (Kari Peters) ने पूर्वी अफ्रीका में बड़ी उपयोगी खोजें कीं।
केमरून और टोगोलैण्ड को जर्मन उपनिवेश बनाने का श्रेय, गुस्टाव नाक्टिगाल को दिया जाता है। इन आविष्कर्ताओं ने अफ्रीका की चार प्रमुख नदियों -नील, नाइजर, कांगों और जैम्बिसी के मार्गों का पता भी लगाया। ‘स्टेनली की पुस्तकों’ के प्रकाशित हो जाने से यूरोप के लोगों में उपनिवेश स्थापित करने की रुचि जागृत हुई।
इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक
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