मौर्य युगीन कला | मौर्य युग की कला की विस्तृत विवेचना | दरबारी अथवा राजकीय कला

मौर्य युगीन कला | मौर्य युग की कला की विस्तृत विवेचना | दरबारी अथवा राजकीय कला

मौर्य युगीन कला

मौर्य कला का उद्गम-मौर्य युग से पहले की भारतीय कला का इतिहास अस्पष्ट सा है। साहित्यिक साक्ष्यों द्वारा मौर्य काल से पूर्व की कला का आभास मात्र ही मिल पाया है  तथा पूर्व कला के अवशेषों तथा प्रमाणों का अभाव है। उदाहरण के लिए महाकाव्यों में अनेकानेक कलाकृतियों का नामोल्लेख तो है, परन्तु उनके अवशेषों का कहीं कोई नामोनिशान नहीं है। प्रश्न उठता है कि मौर्य काल में कला की जो अभूतपूर्व प्रगति हुई है-उसका मूल स्त्रोत क्या था? मार्शल महोदय का मत है कि पौर्य कला का आदर्श ‘हखायनी कला’ थी। परन्तु जब हम मौर्य कला के प्रतीकों का सन्तुलित विवेचना करते हैं तो यह तय्य स्पष्ट होता है कि मौर्य कला के प्रतीक वैदिक कल्पना का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारतीय कला के प्रतीकात्मक अर्थ अद्भुत थे तथा ये ईरानी प्रतीकों एवं विचारों से सर्वथा भिन्न भी हैं। भारतीय शिल्प ग्रन्थों के अनुसार भारतीय कला की प्राचीनतम परम्परा विश्वकर्मा ने चलाई थी। अतः हमारा विचार है कि मौर्य कला का उद्गम स्त्रोत विशुद्ध रूप से भारतीय है।

मौर्ययुगीन कला को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

  1. दरबारी अथवा राजकीय कला जिसमें राजतक्षाओं द्वारा निर्मित स्मारक मिलते हैं जैसे राजप्रासाद, स्तम्भ, गुहा-विहार, स्तूप आदि।
  2. लोककला जिसमें स्वतंत्र कलाकारों द्वारा लोकरुचि की वस्तुओं का निर्माण किया गया, जैसे-यक्ष-यक्षिणी प्रतिमायें, मिट्टी की मूर्तियाँ आदि।

अग्रलिखित पंक्तियों में उपयुक्त दोनों कलाओं का विवरण प्रस्तुत किया जायेगा।

दरबारी अथवा राजकीय कला

राजप्रासाद-  मौर्यकाल के अधिकांश अवशिष्ट स्मारक अशोक के समय के हैं। अशोक के पूर्व मौर्ययुगीन वास्तुकला का ज्ञान हमें मुख्यतः यूनानी लेखकों के विवरण से होता है। कौटिल्य अपने अर्थशास्त्र में दुर्ग विधान के अन्तर्गत वास्तुकला के जिन लक्षणों की चर्चा करता है उनके अनुसार नगर के चतुर्दिक गहरी परिखा (खाई), ऊंचे वप्र (चबूतरा) पर बना हुआ प्राकार, प्राकार में यथास्थान द्वार, कोष्ठ तथा अट्टालक (बुज) बने होने चाहिए। कहा जा सकता है कि यह विवरण काल्पनिक न होकर वास्तविकता पर आधारित है तथा मौर्य शासकों का नगर विन्यास इसी के अनुरूप रहा होगा। कौटिल्य के इस विवरण की पुष्टि यूनानी-रोमन लेखकों के विवरण से भी हो जाती है। इन लेखकों ने चन्द्रगुप्त मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र तथा वहाँ स्थित उसके भव्य राजप्रासाद का विवरण दिया है। स्ट्रैबो पाटलिपुत्र का वर्णन इस प्रकार करता है-‘पोलिबोथ्रा (पाटलिपुत्र) गंगा और सोन के संगम पर स्थित था। इसकी लम्बाई 80 स्टेडिया तथा चौड़ाई 18 स्टेडिया थी। यह समानान्तर चतुर्भुज के आकार का था। इसके चारों ओर लगभग 700 फीट चौड़ी खाई थी। नगर के चतुर्दिक लकड़ी की दीवार बनी हुई थी जिसमें बाण छोड़ने के लिये सुराख बनाये गये थे। इसमें 64 द्वार तथा 570 बुर्ज थे।’ इस नगर में चन्द्रगुप्त मौर्य का भव्य राजप्रासाद स्थित था। यह वस्तुतः एक विशाल भवन समूह था जिसमें अनेक बड़े-बडे कमरे थे। इनके चमकते स्तम्भों में सोने की लतापत्रावली  तथा चाँदी की चिड़ियाँ बनी हुई थी। इनमें सर्वप्रमुख भवन अनेक स्तम्भों वाला मण्डप था जो लकडी के ऊंचे धरातल पर टिका हुआ था। यह राजप्रासाद एक बड़े पार्क के बीच स्थित था। इसमें छायादार एवं हरे-भरे वृक्ष लगे हुए थे। यहाँ अनेक सरोवर थे जिनमें विविध आकार- प्रकार की मछलियां पाली गई थीं। सूसा तथा एकवतना के राजप्रासाद भी भव्यता में इसकी बराबरी नहीं कर सकते थे। पटना के समीप बुलन्दीबाग तथा कुपहार में की गई खुदाई में लकड़ी के विशाल भवनों के अवशेष प्रकाश में आये हैं। इन्हें प्रकाश में लाने का श्रेय स्पूनर महोदय को है। बुलन्दीबाग से नगर के परकोटे (Palisade) के अवशेष तथा कुप्रहार से राजप्रासाद के अवशेष प्राप्त हुए हैं। परकोटे की लम्बाई 450 फुट तक है। इसमें दोनों ओर लकड़ी के लट्ठों की विशाल दीवारें हैं। प्रत्येक लट्ठा 19 फुट ऊँचा तथा एक फुट चौड़ा है। लठ्ठे की दोनों दीवारों को 14 फुट के बड़े लठ्ठों से जोड़ा गया है। उनके बीचोबीच कूटी हुई मिट्टी भरी गयी हैं। कुम्रहार के प्रासाद-अवशेष से पता चलता है कि यह एक भवन समूह था। एक भवन के अवशेष में पत्थर के विशाल स्तम्भ खड़े हैं जो किसी विशाल स्तम्भ-मण्डप की छत के आधार रहे होंगे। यही सम्भवतः चन्द्रगुप्त मौर्य का विशाल सभांभवन था। यह ऐतिहासिक काल का पहला विशाल अवशेष है जो एक मण्डप के रूप में है। मण्डप के मुख्य भाग में दस-दस स्तम्भों की आठ कतारें पूरब से पश्चिम की ओर बनी है। इसके पूरब की ओर दो और स्तम्भ खण्डित अवस्था में मिलते हैं। मण्डप के एक ओर काष्ठमंच मिले हैं जिन्हें काष्ठशिल्प का अद्भुत उदाहरण माना जा सकता है।

अशोक के समय तक आते-आते मौर्यकला के बहुसंख्यक स्मारक हमें मिलने लगते हैं। इस समय की कला-कृतियों को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं-स्तम्भ, स्तूप, वेदिका तथा गुहा-विहार। इनका परिचय इस प्रकार है–

(1) स्तम्भ- स्तम्भ मौर्ययुगीन वास्तुकला के सबसे अच्छे उदाहरण हैं। सर जान मार्शल, पर्सी ब्राउन, स्टेला कैम्रिश जैसे विद्वान् इन्हें ईरानी स्तम्भों की अनुकृति बताते हैं। किन्तु यह समीचीन नहीं है क्योंकि हमें ईरानी तथा अशोक के स्तम्भों में कई मूलभूत अन्तर दिखाई देते हैं। इनमें कुछ इस प्रकार हैं

(1) अशोक के स्तम्भ एकाश्मक अर्थात् एक ही पत्थर से तराशकर बनाये गये हैं। इसके विपरीत ईरानी स्तम्भों को कई मण्डलाकार टुकड़ों को जोड़कर बनाया गया है।

(2) अशोक के स्तम्भ बिना चौकी या आधार के भूमि पर टिकाये गये हैं, जबकि ईरानी स्तम्भों को चौकी पर टिकाया गया है।

(3) ईरानी स्तम्भ विशाल भवनों में लगाये गये थे। इसके विपरीत अशोक के स्तम्भ स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं।

(4) अशोक स्तम्भों के शीर्ष पर पशुओं की आकृतियाँ हैं, जबकि ईरानी स्तम्भों पर मानव आकृतियाँ हैं।

(5) ईरानी स्तम्भ गड़ारीदार है किन्तु अशोक के स्तम्भ सपाट हैं। अशोक के स्तम्भों के शीर्ष पर लगी पशु मूर्तियों का एक विशेष प्रतीकात्मक अर्थ है जिसकी समुचित व्याख्या भारतीय परम्परा में ही सम्भव है। किन्तु ईरानी स्तम्भ शीर्षकों में कोई प्रतीकात्मकता नहीं है।

(6) अशोक के स्तम्भ नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः पतले होते गये हैं, जबकि ईरानी स्तम्भो की चौडाई नीचे से ऊपर तक एक जैसी है।

इस प्रकार हम अशोक स्तम्भों को ईरानी स्तम्भों की नकल नहीं कह सकते हैं। स्पूनर का विचार है कि मौर्य स्तम्भों पर जो ओपदार पालिश है वह ईरान से ही ग्रहण की गई है। लेकिन वासुदेव शरण अग्रवाल ने आपस्तम्भ सूत्र तथा महाभारत से ऐसे उदाहरण खोज निकाले हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि यह पालिश भारतीयों को बहुत पहले से ही ज्ञात थी। उनके अनुसार आपस्तम्भसूत्र में मृद्भाण्डों को चमकीला बनाने की विधि के प्रसंग में ‘एलक्षणीकरणै तथा ‘श्लक्षणीकुर्वन्ति’ (चिकना करने के मसालों से उसे चिकना किया जाता था) शब्द प्रयुक्त कीकिया गया है जो ओपदार पालिश की प्राचीनता का सूचक है। पिपरहवा बौद्ध स्तूप की धातुगर्भ-मंजूषा पटना की यक्ष प्रतिमायें, लोहानीपुर से प्राप्त जैन तीर्थंकरों के धड़ आदि सभी में चमकीली पालिश लगाई गयी है। इस सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि पूर्व मौर्य युग के उत्तर भारत के विभिन्न स्थलों से काले रंग के चमकीले भाण्ड मिले हैं जिनका समय ई०पू०600-200 निर्धारित है। इन्हें एन०बी०पी० (Northern Black Polished Ware) कहा जाता है।

अशोक के स्तम्भों की संख्या निश्चित नहीं है। यह लगभग तीस रही होगी। इनमें से पन्द्रह सुरक्षित हैं, अन्य नष्ट हो गये हैं। ये दो प्रकार के हैं-(1) स्तम्भ जिन पर धम्म-लिपियाँ खुद हुई हैं, (2) स्तम्भ जो बिल्कुल सादे हैं। पहले प्रकार में दिल्ली-मेरठ, दिल्ली-टोपरा, इलाहाबाद, लौरिया, नन्दनगढ़, लौरिया अरराज, रमपुरवा (सिंह-शीष), सकिस्सा, साँची, सारनाथ, लुम्बिनी, निगाली सागर आदि के स्तम्भ आते हैं। दूसरे प्रकार में रमपुरवा (बैल- शीर्ष) बसाढ़, कोसम आदि प्रमुख हैं। सभी स्तम्भ चमकदार, लम्बे, सुडौल तथा एकाश्मक (एक ही पत्थर के बने हैं। ये नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः पतले होते गये हैं। स्तम्भ के मुख्य भाग हैं-(1) यष्टि, (2) यष्टि के ऊपर अधोमुख कमल (घण्टे) की आकृति, (3) फ्लका (Abacus) (4) स्तम्भ को मण्डित करने वाली पशु-आकृति ।

स्तम्भों की यष्टि एक ही पत्थर को तराश कर बनाई गई है। इन पर इतनी बढिया पालिश है कि वे आज भी शीशे की तरह चमकते हैं। यष्टि के सिरे पर उल्टे कमल की आकृति है। कुछ विद्वान् इसकी तुलना पर्सिपोलिस (हखामनी सम्राटों की राजधानी) के घण्टाशीर्ष (Bell- capital) से करते हैं। डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल ने इसे भारतीय ‘पूर्णघट’ या ‘मंगलकलश’ का प्रतीक बताया है।

वे सभी स्तम्भ अपने-आप में पूर्ण स्वतंत्र हैं तथा बिना किसी सहारे के खुले आकाश के नीचे खड़े हैं। सभी चुनार के बलुये पत्थर से बने हैं। ऐसा लगता है कि चुनार (मिर्जापुर) में स्तम्भों के निर्माण का कारखाना रहा होगा। स्तम्भों की लम्बाई 35 से 50 फीट तथा प्रत्येक का वजन लगभग 50 टन है।

स्तम्भ शीर्षों में सारनाथ के स्तम्भ का सिंहशीर्ष (Lion-Capital) सर्वोत्कृष्ट है। इसके फलक पर चार सजीव सिंह पीठ से पीठ सटाये हुए तथा चारों दिशाओं की ओर मुँह किये हुए दृढ़तापूर्वक बैठे हैं। सिंहों के तने हुए शरीर की मांसपेशियाँ, लहलहाते हुए केश तथा गठीले अंग-प्रत्यंग अत्यन्त सूक्ष्मता एवं चतुरता के साथ बनाये गये हैं। ये चक्रवर्ती सम्राट अशोक की शक्ति के प्रतीक हैं। इनसे चारों दिशाओं में उसके राज्य तथा धर्म के प्रचार की सूचना मिलती है, अथवा इन्हें शाक्य-सिंह बुद्ध की शक्ति का प्रतीक माना जा सकता है जो जन्मना चक्रवर्ती थे। सिंहों के मस्तक पर महाधर्मचक्र स्थापित था जिसमें मूलतः 32 तीलियाँ (Spokes) थीं। यह शक्ति के ऊपर धर्म की विजय का प्रतीक है जो बुद्ध तथा अशोक दोनों के व्यक्तित्व में दिखाई देता है। सिंहों के नीचे की फलका पर चारों दिशाओं में चार चक्र बने हुए हैं जो धर्मचक्रप्रवर्तन के प्रतीक हैं। इसी पर चार पशुओं गज, अश्व, बैल तथा सिंह की आकृतियाँ उत्कीर्ण है जिन्हें चलती हुई अवस्था में दिखाया गया है। इनके प्रतीकात्मक अर्थ के विषय में अनेक मत दिये गये हैं। वोगेल का विचार किये अलंकरण की वस्तु मात्र है जिनका कोई प्रतीकात्मक अर्थ नहीं है। लाख ने इन्हें चार हिन्दू देवताओं इन्द्र, सूर्य, शिव तथा दुर्गा का प्रतीक माना है। क्योंकि हिन्दू धर्म में हाथी इन्द्र का, अश्व सूर्य का, वृष शिव का तथा सिंह, दुर्गा का वाहन माना गया है। उनके अनुसार इनके कान के पास शिल्पी का उद्देश्य यह था कि इन्हें बुद्ध के दशवर्ती दिखाया जाय। फूशे की धारणा है कि ये पशु बुद्ध के जीवन की चार महान् घटनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। तदनुसार हाथी उनके गर्भस्थ होने (जिसमें उनकी माता माया ने एक श्वेत हाथी को स्वर्ग से उतर कर अपने में प्रविष्ट होते हुए देखा था), वृष जन्म (बुद्धि की राशि वृष थी), अश्व गृह-त्याग तथा सिंह बुद्ध का प्रतीक है (जो स्वयं में शाक्य सिंह थे)। किन्तु वी०एस०अग्रवाल की मान्यता है कि इन पशुओं को किसी संकीर्ण दायरे में सीमित करना उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि इनकी परंपरा सिंधु घाटी से लेकर उन्नीसवीं शती तक मिलती है। भारत के बाहर लंका, बर्मा, स्याम, तिब्बत आदि में भी इनका अंकन मिलता है। महावंश में इन्हें ‘चतुष्पद पंक्ति’ कहा गया है।

(2) स्तूप- महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँटा गया तथा उन पर समाधियों का निर्माण किया गया। सामान्यतः इन्हीं को स्तूप कहा जाता है। स्तूप के निर्माण की प्रथा बुद्ध काल के पूर्व की है। ‘स्तूप’ का शाब्दिक अर्थ होता है ‘ढेर या ‘थूहा’ । चूँकि यह चिता के स्थान पर बनाया जाता था, अतः इसका एक नाम ‘चैत्य भी हो गया। ‘स्तूप’ का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में प्राप्त होता है जहाँ अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को स्तूप कहा गया है। बुद्ध के पहले ही स्तूप का सम्बन्ध महापुरुष के साथ जुड़ गया था। ऐसा लगता है कि अपने मौलिक रूप में स्तूप का सम्बन्ध मृतक-संस्कार से था। शव- दाह के बाद बची हुई अस्थियों को किसी पात्र में रखकर मिट्टी से ढंक देने की प्रथा से स्तूप का जन्म हुआ। कालान्तर में बौद्धों ने इसे अपनी संध-पद्धति में अपना लिया। इन स्तूपों में बुद्ध अथवा उनके प्रमुख शिष्यों की धातु रखी जाती थी, अतः वे बौद्धों की श्रद्धा और उपासना के प्रमुख केन्द्र बन गये।

स्तूपं चार प्रकार के बताये गये हैं..

  1. शारीरिक- इनमें बुद्ध तथा उनके प्रमुख शिष्यों की अस्थियाँ तथा उनके शरीर के विविध अंग (दन्त, नख, केश आदि) रखे जाते थे।
  2. पारिभौगिक- इनमें बुद्ध द्वारा उपयोग में लाई गयी वस्तुयें (भिक्षा पात्र, चरण-पादुका आसन आदि) रखी जाती थी।
  3. उद्देशिका- इनमें वे स्तूप आते थे जिन्हें महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं से सम्बन्धित अथवा उनकी यात्रा से पवित्र हुए स्थानों पर स्मृति रूप में निर्मित किया जाता था। ऐसे स्थान बोधगया, लुम्बिनी, सारनाथ, कुशीनगर आदि है।
  4. संकल्पित- ये छोटे आकार के होते थे और इन्हें बौद्ध तीर्थ स्थलों पर श्रद्धालुओं द्वारा स्थापित किया जाता था। बौद्ध धर्म में इसे पुण्य का काम बताया गया है।

स्तूप का प्रारम्भिक रूप अर्ध-गोलाकार (Hemispherical) मिलता है। इसमें एक चबूतरे (मेधि) के ऊपर उल्टे कटोरे की आकृति का एक थूहा बनाया जाता है जिसे ‘अंड’ कहते हैं। स्तुप की चोटी सिरे पर चपटी होती थी जिसके ऊपर धात-पात्र रखा जाता था। इसे ‘हर्मिका’ कहते हैं। यह स्तूप का सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग होता था। हर्मिका का अर्थ देवसदन अथवा देवताओं का निवास स्थान होता है। हर्मिका के बीच में एक यष्टि लगाई जाती थी। यष्टि के ऊपरी सिरे पर तीन क्षत्र लगाये जाते थे। स्तुप को चारों ओर से बाड अथवा दीवाल से घेर दिया जाता था। इसे ‘वेदिका’ (Railing) कहते हैं। स्तूप तथा वेदिका के बीच परिक्रमा करने के लिये जो खाली स्थान होता था उसे ‘प्रदक्षिणापथ’ कहा जाता था। कालान्तर में वेदिका के चारों दिशाओं में प्रवेशद्वार बनाये गये। प्रवेशद्वार पर मेहराबदार तोरण बनाये जाते थे। इस प्रकार मेधि, वेदिका, अण्ड, प्रदक्षिणापथ, हर्मिका, यष्टि, क्षत्र, तोरण आदि स्तूप वास्तु के प्रमुख अंग होते थे। वी०एस०अग्रवाल ने स्तुप को त्रिलोक का प्रतीक बताया है। अशोक के समय में स्तूपों का विस्तार पूरे देश में किया गया।

बौद्ध परम्परा अशोक को 84 हजार स्तूपों के निर्माण का श्रेय प्रदान करती है। सातवीं शताब्दी ईस्वी के चीनी यात्री ह्वेनसांग ने तक्षशिला, श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, कन्नौज प्रयाग, कौशाम्बी, श्रावस्ती, वाराणसी, सारनाथ, वैशाली, गया, कपिलवस्तु आदि स्थानों में इन स्तूपों को देखा था। परन्तु दुर्भाग्यवश आज ये सभी नष्ट हो चुके हैं। प्रारम्भिक स्तूपों में सांची का स्तूप-समूह साँची की पहाड़ी, मध्य प्रदेश के रायसेन जिला मुख्यालय से 25 किमी० की दूरी पर ऐतिहासिक नगरी विदिशा के समीप स्थित है। 1818 ई० में सर्वप्रथम जनरल रायलट ने यहाँ के स्मारकों की खोज की थी। 1888 में मेजर कोल ने पहाड़ी के ऊपर का जंगल साफ करवाया तथा स्तूप संख्या-1 को भरवाने के साथ ही उसके दक्षिणी-पश्चिमी तोरण द्वारों तथा स्तूप के तीन गिरे हुए तोरणों को पुनः खड़ा करवाया था। यहां से एक बड़ा तथा दो छोटे स्तूप मिले हैं। मार्शल के अनुसार महास्तूप का निर्माण अशोक के शासन-काल में हुआ था। यह ईंटों का बना था जिसके चारों ओर लकड़ी का बाड़ (Railings) लगायी गयी थी। इसके अतिरिक्त सारनाथ तथा तक्षशिला स्थित ‘धर्मराजिका स्तूप’ का निर्माण भी मूलतः अशोक के समय में ही करवाया गया था जिन्हें परवर्ती शासकों ने परिवर्धित करवाया। मौर्यकालीन स्तूप ईंटों के बने थे।

(3) पाषाण वेदिका- मौर्ययुगीन स्तूप तथा विहार वेदिकाओं (Railing) से घिरे होते थे। इनमें से कुछ के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं। बोधगया से एक वेदिका के अवशेष मिले हैं। इनका निर्माण अशोक के समय में हुआ था। इसे ‘बोधिमण्ड’ कहा जाता है। वेदिका के खम्भों तथा उनके जोड़ने वाली लम्बी पाषाण शिलापट्टिकाओं पर कमल की आकृति बनी है। कहीं-कहीं अश्व, हाथी, मकर आदि की आकृतियाँ भी उत्कीर्ण मिलती हैं। सारनाथ से भी अशोक के समय की एक पाषाण वेदिका मिली है। इसे एक ही पत्थर में काटकर चौकोर बनाया गया है। इसके दो स्तम्भों के बीच में तीन सूचियाँ हैं तथा स्तम्भों के ऊपर उष्णीश है। यह आकर्षक, सुन्दर एवं चिकनी है। पाटलिपुत्र की खुदाई से तीन वेदिकाओं के टुकड़े मिले हैं जो अपनी चमकीली पालिश के कारण मौर्ययुगीन माने जाते हैं। सांची के मौर्ययुगीन स्तूप की ईंटों के अतिरिक्त पाषाण का एक खण्डित छत्र भी प्राप्त होता है। पाषाण वेदिकाओं के अवशेष इस बात के प्रमाण हैं कि इस समय वास्तु में पत्थर का प्रयोग प्रारम्भ हो गया था।

(4) गुहा-विहार- मौर्ययुगीन में पर्वत गुफाओं को काटकर निवास स्थान बनाने की कला का पूर्ण विकास हुआ। अशोक तथा उसके पौत्र दशरथ के समय में बराबर तथा नागार्जुनी की पहाड़ियों को काटकर आजीविका के लिये आवास बनाये गये थे। इन गुफाओं की छतों और दीवारों पर चमकीली प्रालिश है। अशोक के समय बराबर पहाडी की गुफाओं में ‘सुदामा’ की  गुफा’ तथा ‘कर्ण चौपड़’ नामक गुफा सर्वप्रसिद्ध है। प्रथम का निर्माण अशोक ने अपने शासन-काल के बारहवें वर्ष में तथा द्वितीय का उन्नीसवें वर्ष में करवाया था। सुदामा की गुफा में दो कोष्ठ है। इनकी छत ढोलाकार है। दोनों कोष्ठों की दीवारों तथा छतों पर शीशे के समान चमकीली पालिश है। इससे सूचित होता है कि इस गुफा की रचना अशोक के समय में ही की गयी थी। दशरथ के समय बनी गुफाओं में ‘लोमश ऋषि’ नाम की गुफा उल्लेखनीय है। यह बराबर-समूह की सबसे प्रसिद्ध गुफा है जिसका वास्तु-विन्यास सुदामा की गुफा के ही समान है। अन्तर केवल यही है कि इसका आन्तरिक कोष्ठ वर्गाकार न होकर अण्डाकार है। इसका निर्माण कार्य बड़ी सावधानी से हुआ है तथा यह कालान्तर के चैत्यगृहों के अग्रभाग को सुसज्जित करने वाले अलंकरणों को वृहद् योजना के प्रारम्भ का प्रतिनिधित्व करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस गुफा का प्रवेश द्वार सर्वोत्तम है। दोनों पंखों पर तिरछे खड़े दो स्तम्भ हैं जिनके ऊपर गोल मेहराब बने हुए हैं। इनके बीचों-बीच एक स्तूप तथा दोनों किनारों पर हाथियों की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं। हाथी स्तूप की पूजा करते हुए दिखाये गये हैं। बराबर पहाड़ी की चौथी गुफा को ‘विश्व झोपड़ी’ कहा जाता है। इसका निर्माण भी अशोक के शासन काल के बारहवें वर्ष हुआ था। इसमें दो कोष्ठ हैं। इनकी दीवारों पर चमकीली पालिश मिलती है।

नागार्जुनी समूह में ‘गोपिका गुफा’ महत्वपूर्ण है जिसे दशरथ ने अपने अभिषेक-वर्ष में बनवाया था। यह सुरंग के आकार की है जिसके दोनों सिरों पर दो गोल-मण्डप बने हैं। इनमें एक गर्भगृह तथा दूसरा मुखमण्डप जान पड़ता है। इसमें मौर्यकालीन गुहा-स्थापत्य की सभी विशेषतायें प्राप्त होती हैं। इस प्रकार मौर्य युग में गुहा-स्थापत्य का पूर्ण विकास हुआ। कालान्तर में इन्हीं गुफाओं के अनुकरण पर पश्चिमी भारत में अनेक चैत्यगृहों का निर्माण किया गया।

मूर्ति-कला-

मौर्ययुगीन मूर्तिकला के सर्वोत्तम नमूने अशोक स्तम्भों को मण्डित करने वाला विभिन्न पशुओं की आकृतियों में दर्शनीय है। उड़ीसा धौली चट्टान को काटकर बनाई गयी हाथी की आकृति पाषाण मूर्तिकला की उत्कृष्टता को सूचित करती है। हाथी अत्यन्त विशाल आकार का है जिसके अग्रभाग को उकेरा गया है। उसके सैंड, पैर आदि की गढ़न अत्यन्त स्वाभाविक है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह अपनी सूंड में कोई वस्तु लपेट कर उठा रहा है। हाथी चट्टान से बाहर निकलते हुए जान पड़ता है। इसी प्रकार कालसी (दहरादून उ०प्र०) की चट्टान पर एक हाथी की आकृति खुदी हुई मिलती है। हाथी के पैरों के बीचो- बीच मौर्यकालीन ब्राह्मी लिपि में ‘गजतमे’ (गजोत्तमः) अर्थात् सर्वोत्तम हाथी खुदा हुआ है। हाथी की दोनों ही आकृतियाँ उत्कीर्ण (रिलीफ) मूर्तिकला का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती है।

लोककला

मौर्ययुगीन कलाकारों ने लोकरुचि की वस्तुओं का भी निर्माण किया। इनका तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था।

लोककला के अन्तर्गत हम सर्वप्रथम विभिन्न स्थानों से मिली हुई पाषाण निर्मित विशालकाय यक्ष-यक्षिणी प्रतिमाओं का उल्लेख कर सकते हैं। इनका विवरण इस प्रकार है-

  1. मथुरा जिले के परखम ग्राम से मिली यक्ष मूर्ति जिसे ‘मणिभद्र’ कहा गया है।
  2. मथुरा जिले के बड़ोदा ग्राम से मिली यक्ष-प्रतिमा।
  3. मथुरा के झींग-का-नगरा ग्राम से प्राप्त यक्षी की प्रतिमा।
  4. मथुरा से प्राप्त यक्ष प्रतिमा।
  5. पद्मावती (ग्वालियर, म०प्र०) से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा।
  6. पटना नगर में दीदारगंज से प्राप्त चामर ग्राहिणी यक्षी की प्रतिमा।
  7. पटना से प्राप्त दो यक्ष प्रतिमायें ।
  8. बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त यक्षी की प्रतिमा।
  9. राजघाट (वाराणसी) से प्राप्त त्रिमुख यक्ष की प्रतिमा।
  10. विदिशा से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा।
  11. शिशुपालगढ़ (उड़ीसा) से प्राप्त यक्ष-प्रतिमायें।
  12. कुरुक्षेत्र में आमीन से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा।
  13. मेहरौली से प्राप्त यक्षी की प्रतिमा।

उपर्युक्त सभी प्रतिमायें विशाल आकार-प्रकार की हैं जिन्हें सभी ओर से तराशकर तैयार किया गया है। इनके शरीर पर वस्त्र तथा आभूषण अत्यन्त मनोहर है। विद्वानों का विचार है कि इन्हीं यक्ष-यक्षी प्रतिमाओं के आधार पर कालान्तर में बुद्ध, बोधिसत्व तथा जैन तीर्थकरों की विशाल मूर्तियों का निर्माण किया गया था। यक्ष-यक्षी प्रतिमायें लोकधर्म का प्रमुख आधार थीं। इन्हें सर्वत्र देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाता था। इन मूर्तियों के अतिरिक्त पटना के निकट लोहानीपुर से दो जैन दिगम्बरों की प्रतिमाओं के धड़ तथा सारनाथ से दो पुरुष मूर्तियों के मसाक प्राप्त होते हैं जिनकी चिकनी पालिश तथा उनार के पलुए पत्थर के आधार पर उन्हें मार्शल, आर०पी०चन्द्रा, कुमारस्वापी आदि विद्वानों ने मौर्यकालीन बताया है।इसी प्रकार सारनाथ, अहिच्छत्र, मथुरा, हस्तिनापुर, कौशाम्बी, बुलन्दीबाग, बसाढ़, कुम्हराहार आदि अनेक स्थानों से विभिन्न पशु-पक्षियों जैसे हाथी, घोड़ा, बैल, भेड़, कुत्ता, हिरण, पक्षियों तथा नर-नारियों की बहुसंख्यक मिट्टी की मूर्तियाँ मिली हैं जिन्हें हाथ से साँचे में ढालकर बनाया गया है। इन मण्मूर्तियों को भी विद्वान मौर्यकालीन मानते हैं।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

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