इतिहास

नेपोलियन बोनापार्ट की विदेश नीति | प्रथम कान्सल के रूप में नेपोलियन बोनापार्ट की विदेश नीति (1799-1804)

नेपोलियन बोनापार्ट की विदेश नीति | प्रथम कान्सल के रूप में नेपोलियन बोनापार्ट की विदेश नीति (1799-1804)

नेपोलियन बोनापार्ट की विदेश नीति

(Foreign Policy of Nepoleon Bonaparte 1799-1804)

(1) भूमिका (Introduction)-

 जैसा कि हम पिछले अध्याय में बता चुके हैं कि जिस समय नेपोलियन् मिस में फंसा हुआ था, उस समय इंग्लैंड ने यूरोपीय राष्ट्रों को अपनी ओर मिलाकर फ्रांस के विरुद्ध द्वितीय मित्र गुट का निर्माण कर लिया था और नेपोलियन को इटली विजय को पराजय में बदल दिया था। अत: नेपोलियन ने फ्रांस वापस आकर सर्वप्रथम द्वितीय मित्र गुट के विरुद्ध अभियान करने की योजना बनाई। इस समय फ्रांस की स्थिति बड़ी शोचनीय थी और चारों ओर युद्ध के बादल छाये हुए थे।

नेपोलियन ने कूटनीति से काम लेकर रूस के जार को इस बात के लिए राजी कर लिया कि युद्ध में तटस्य रहेगा और प्रशा स्वीडनु तथा डेनमार्क को भी युद्ध से पृथक रखेगा। इसके उपरान्त नेपोलियन ने आस्ट्रिया और इंग्लैंड के सम्राटों को लिखा कि यूरोप में शान्ति एवं सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए परस्पर युद्ध में न उलझना चाहिए। उसके उत्तर में आस्ट्रिया तथा इंग्लैड ने फ्रांस को ही युद्ध के लिए उत्तरदायी ठहराया और इस बात की मांग को कि यदि फ्रांस में पुन: बूबों वंश की सत्ता स्थापित कर दी जाये तो युद्ध को टाला जा सकता है। ऐसा होना असम्भव था, क्योंकि फ्रांस की जनता राजतन्त्र के विरुद्ध थी और नेपोलियन को सत्ता भी तभी तक स्थापित रह सकती थी, जब तक कि फ्रांस में प्राचीन राजवंश की स्थापना न हो। इन परिस्थितियों में युद्ध का होना अनिवार्य हो गया।

नेपोलियन ने शीघ्र ही जनरल मोरो को अध्यक्षता में एक सेना जर्मनी की ओर से आस्ट्रिया पर आक्रमण करने के लिए भेज दी और स्वयं इटली के अभियान पर निकल पड़ा।

(2) इटली पर नेपोलियन का दूसरा आक्रमण-

नेपोलियन का इटली पर द्वितीय आक्रमण उसके अपूर्व साहस एवं विलक्षण प्रतिभा को एक उल्लेखनीय घटना है। इस बार नेपोलियन ने आल्पस के दुर्गम दरों को पार कर आस्ट्रियन सेनाओं पर आक्रमण करने की योजना बनाई। 1800 ई. की बसन्त ऋतु में नेपोलियन ने एक विशाल सेना के साथ इटली की ओर प्रस्थान किया। नेपोलियन को मार्ग में भीषण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा उसे सेन्ट वरनर्ड तथा अन्य दरों को पार करने के लिए वृक्षों के तनों को खोखला कराकर उनमें तोपें रखनी पड़ीं और उन्हें लुढ़काकर ले जाना पड़ा नेपोलियन की इस दूरदर्शिता और साहस का उदाहरण विश्व के इतिहास में कहीं नहीं मिलता है। उसके इस दुस्साहसपूर्ण कार्य ने सम्पूर्ण संसार को आश्चर्यचकित कर दिया और आस्ट्रिया पर उसका आतंक स्थापित हो गया।

नेपोलियन ने इस भीषण आक्रमण को आस्ट्रियन सेनाएँ रोकने में असमर्थ रहीं और अन्त में जून 1800 ई० में दोनों सेनाओं के मध्य मोरेंग (Moreng) नामक स्थान पर भीषण युद्ध हुआ। इस युद्ध में फ्रांसीसी सेनापति देसे मारा गया किन्तु अन्त में आस्ट्रियन सेनाओं ने हथियार डाल दिए और नेपोलियन को निर्णायक विजय प्राप्त हुई। इसके उपरान्त नेपोलियन कुछ दिन तक ‘मौलान’ में रहा और सम्पूर्ण इटली पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके पेरिस लौट आया।

उधर फ्रांसीसी जनरल मोरो ने जर्मनी में महत्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त की। उसने दिसम्बर 1800 ई० में होयेनलिडैन के प्रसिद्ध युद्ध में आस्ट्रिया की सेनाओं को बुरी तरह पराजित किया और तत्पश्चात् वह ‘वियाना के निकट पहुँच गया। आस्ट्रिया फ्रांसीसी जनरल को वियाना से केवल 72 मील दूर पर देखकर भयभीत हो गया और उसने सन्धि करना स्वीकार कर लिया।

(3) लनेविल का सन्धि (Treaty of Luneville-Feb. 1801)-

फरवरी 1801 ई. में आस्ट्रिया और फ्रांस के मध्य लूनेविल की सन्धि हुई। इस सन्धि में आस्ट्रिया के सम्राट ने कैम्पोफर्मियों की सन्धि (1797) की शर्तों को पुनः स्वीकार किया। इस सन्धि की प्रमुख शतें निम्नलिखित थीं-

(i) राइन नदी के पश्चिमी तट पर फ्रांस का अधिकार हो गया।

(ii) होली रोमन साम्राज्य के मुख्य नगर माइट्ज, कोलोन, आचेन आदि आस्ट्रिया के हाथ से निकल गए।

(iii) इटली में टस्कनी तथा एल्चा सिस एल्वन गणराज्य में शामिल कर दिए गए।

(iv) हालैंड में बटेवियन गणराज्य और स्विटजरलैंड में हल्बेटिक गणराज्य स्थापित किए गए।

इस सन्धि ने आस्ट्रिया की शक्ति चकनाचूर कर दी और द्वितीय गुट में केवल इंग्लैंड ही फ्रांस का शत्रु रह गया।

(4) इंग्लैंड से युद्ध-

सन् 1800 ई० में रूस के जारपाल ने यूरोपीय गुट से पृथक होकर इंग्लैंड के विरुद्ध द्वितीय सशस्त्र निर्हस्तक्षेपी गुट बना लिया था। इस गुट में रूस डेन्मार्क तथा प्रशा शामिल हुए थे। इस गुट के निर्माण का मुख्य कारण यह था कि इंगलिश चैनल में अंग्रेजी जहाजों द्वारा तटस्थ देशों के जहाजों की तलाशी ली जाती थी और आपत्तिजनक वस्तु मिलने पर उन्हें जब्त कर लिया जाता था। मार्च 1801 ई० में रूस के जारपाल की मृत्यु हो गई और इसी समय अंग्रेजी जल सेनापति नेल्सन के कोपेनहैगन’ के युद्ध में डेनमार्क के जहाजी बेड़े को बुरी तरह नष्ट कर दिया।

इसके साथ ही इंग्लैंड की समस्या और नेपोलियन गृह सुधार एवं सैनिक तैयारियों के लिए सन्धि करना चाहता था। अतः कुछ समय तक इंग्लैंड और फ्रांस के बीच निरन्तर युद्ध चलता रहा, किन्तु ज्य और पराजय का कोई निर्णय न हो सका। अन्त में दोनों के मध्य आमीए की सन्धि हो गई और युद्ध बन्द हो गया।

(5) आमीए की सन्धि (Treaty of Amiens-March 1802)-

मार्च 1802 ई० को आमीए की सन्धि की प्रमुख शर्ते निम्नलिखत थीं-

(i) इंग्लैंड ने लंका तथा त्रेनीदाद को छोड़कर समस्त जीते हुए औपनिवेशिक प्रदेशों को लौटाना स्वीकार कर लिया।

(ii) इंग्लैंड ने माल्टा सेन्टजोन के नाइटो को और माइनर को स्पेन को लौटा देने का वचन दिया।

(iii) नेपोलियन ने मिस्र से अपनी सेनाएँ हटाना स्वीकार कर लिया।

वास्तव में आमीए की सन्धि केवल मात्र एक युद्ध विराम सन्धि थी क्योंकि इस सन्धि के 11 महीने के बाद ही 1803 ई० में पुन: इंग्लैंड और फ्रांस के मध्य युद्ध प्रारम्भ हो गया। इस सन्धि के विषय में शेरिडन (Sheridan) ने लिखा है-

“इस सन्धि से सभी व्यक्ति संतुष्ट थे, परन्तु कोई भी व्यक्ति इस पर अभिमान नहीं कर सकता था।”

इसी प्रकार ‘फाइफ’ (Fiffe) ने लिखा है-

“हालैण्ड और बेल्जियम एक पिस्तौल के समान थे, जिसे लन्दन की ओर तान दिया गया था।”

यह सन्धि अस्थायी और अल्पकालीन सिद्ध हुई। इसके भंग होने के विषय में इतिहासकार ‘मारकहम’ ने लिखा है-

“यथार्थ रूप से ब्रिटिश सरकार गलती पर थी और उसने माल्टा द्वीप को खाली न करके इस सन्धि को भंग किया इस सन्धि को आरम्भ से ही ‘अवकाश काल’ ‘रद्दी कागज का टुकड़ा’ तथा प्रयोगात्मक सन्धि माना जा रहा था।”

इस प्रकार नेपोलियन द्वितीय मित्र गुट को भंग करने में सफल रहा।

(6) नेपोलियन की औपनिवेशिक नीति-

नेपोलियन ने प्रथम कान्सल के रूप में फ्रांस का औपनिवेशिक विस्तार करने का भी प्रयत्न किया। 1800 ई० में उसने लूसियाना का प्रदेश स्पेन से शक्तिपूर्वक छीन लिया तथा हेती के उपनिवेश पर अधिकार करने के लिए एक सेना भेजी किन्तु नेपोलियन को अपने प्रयलो में सफलता न मिल सकी। जनरल लेकलर्क को हेति की जनता के विद्रोह के कारण 1803 ई० में फ्रांस वापिस आना पड़ा लूसियाना का प्रदेश भी अमेरिका के हाथ में चला गया।

नेपोलियन ने पूर्व की ओर अपने औपनिवेशिक विस्तार के लिए सौरिया, मिस्र तथा भारत में अपनी सेनायें भेजी और दक्षिणी भारत के मैसूर के शासक टीपू सुल्तान के साथ पत्र-व्यवहार भी किया। उसने भारत विजय की योजना को सफल करने के लिए केप ऑफ गुड होप तथा मारीशस टापू पर अधिकार भी स्थापित कर लिया किन्तु अन्त में सारी योजना विफल रही और उसे अपनी औपनिवेशिक विस्तार की योजना त्यागनी पड़ी।

नेपोलियन की इन विजयों ने फ्रांस की जनता पर उसका पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर दिया और फ्रांस की जनता नेपोलियन को देवता के समान पूजने लगी। जनता को अगाध प्रया का लाभ उठाकर महत्वाकांक्षी नेपोलियन 1804 ई० में फ्रांस का निरंकुश सम्राट बन गया।

इतिहास – महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: e-gyan-vigyan.com केवल शिक्षा के उद्देश्य और शिक्षा क्षेत्र के लिए बनाई गयी है। हम सिर्फ Internet पर पहले से उपलब्ध Link और Material provide करते है। यदि किसी भी तरह यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है तो Please हमे Mail करे- vigyanegyan@gmail.com

About the author

Pankaja Singh

Leave a Comment

(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
error: Content is protected !!