संगठनात्मक व्यवहार

व्यवहार से आशय | व्यक्तिगत व्यवहार के आधार | व्यक्तिगत बिहार के विभिन्न आधार | Meaning of Behaviour in Hindi | Basic of Individual Behaviour in Hindi

व्यवहार से आशय | व्यक्तिगत व्यवहार के आधार | व्यक्तिगत बिहार के विभिन्न आधार | Meaning of Behaviour in Hindi | Basic of Individual Behaviour in Hindi

व्यवहार से आशय

(Meaning of Behaviour)

‘व्यवहार’ शब्द को ‘प्राणी’ की उन क्रियाओं के रूप से परिभाषित किया जा सकता है जिन्हें बाहर से देखा जा सकता है या जिनका निरीक्षण किया जा सकता है।

व्यवहार के विवचेन में निम्न दो तथ्य महत्वपूर्ण हैं – (i) व्यवहार का तथ्यात्मक पक्ष तथा (ii) व्यवहार उत्पन्न करने वाली अवस्थाओं का अध्ययन प्रथम का सम्बन्ध इस बात से है कि व्यक्ति क्या करता है या किस प्रकार अपनी प्रतिक्रिया प्रकट करता है जबकि दूसरे का सम्बन्ध इस बात से है कि व्यक्ति जो भी करता है, ‘क्यों’ करता है। व्यवहार का तथ्यात्मक वर्णन व्यवहार के कारणों की खोज के लिये आधार प्रस्तुत करता है। इनके अध्ययन एवं विश्लेषण के आधार पर जाना जाता है कि व्यक्ति जो करता है, क्यों करता है तथा उसके व्यवहार को किस प्रकार से परिवर्तित किया जा सकता है। संगठनात्मक व्यवहार के गन्दर्भ में व्यवहार को किसी लक्ष्य के प्रति निर्देशित क्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो प्रायः वैवीय नहीं होता है तथा जिसमें व्यक्ति विश्वास करता है। चूंकि संगठनात्मक व्यवहार में ‘व्यक्ति’ तथा ‘समूह’ का अध्ययन सम्मिलित है, अतः प्रबन्धक के लिये यह जानना आवश्यक होता है कि व्यक्तिगत तथा समूह व्यवहार के आधार क्या हैं?

व्यक्तिगत व्यवहार के आधार

(Basic of Individual Behaviour)

औद्योगिक संगठन एक जटिल संगठन होता है। इसमें कार्यरत व्यक्तियों के आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण में होने वाली अन्तर्क्रियाओं के फलस्वरूप संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति होती है। संगठन में कार्यरत व्यक्ति मूलतः दो कारकों द्वार प्रभावित होता है- शारीरिक कारक एवं मनोवैज्ञानिक कारक।

यद्यपि व्यक्ति की शारीरिक बनावट उसके व्यवहार को प्रभावित करती है, फिर भी मानवीय व्यवहार अत्यधिक जटिल होता है तथा उस पर दूसरे अन्य कारणों का भी प्रभाव पड़ता है जिसमें व्यक्तित्व, दबाव, अवबोधन, अभिपेरण, सीखना आदि सम्मिलित हैं। अनुमानित रूप से मानवीय व्यवहार के कुछ कारण होते हैं जो लक्ष्य-उन्मुख होते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कारक भी व्यक्ति को कार्य हेतु अभिप्रेरित करते हैं। महत्वपूर्ण तथ्य है यह है व्यक्ति का व्यवहार आकस्मिक रूप से परिचालित नहीं होता है, वरन् वह कुछ लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उन्मुख होता है। व्यक्ति का व्यवहार कुछ सूचनाओं पर आणित होता है जो उनके कार्य परिवेश से आता है। बिना किसी उत्तेजक के कोई निवेश नहीं होता है। ‘उत्तेजक’ के द्वारा जो ‘प्रतिक्रिया’ की जाती है, उसे ही ‘व्यवहार’ कहा जाता है। उत्तेजक एवं प्रतिक्रिया के साथ भौतिक एवं सामाजिक परिवेश तथा परिस्थिति भी व्यक्ति के व्यवहार को महतवपूर्ण रूप से प्रभावित करती है जिसमें केवल शारीरिक परिवेश ही नहीं वरन् व्यक्तित्व एवं मानसिक क्रियायें भी सम्मिलत हैं। यद्यपि यह प्रक्रिया काफी जटिल है, फिर भी इनकी अन्तर्कियाओं के द्वारा मानवीय व्यवहारों की उत्पत्ति होती है। कोलास ने व्यवहार को ‘इनपुट- आउटपुट सिस्टम’ के परिप्रेक्ष्य में वाताने का प्रयास किया है जिसमें एक केन्द्रीय प्रक्रिया (अवबोधन, चिन्तन, तर्क-वितर्क, निर्णय आदि) की विशिष्ट भूमिका होती है। इसके माध्यम से व्यक्ति के भीतर सूचनाओं का संगठन किया जाता है जिसके द्वारा अर्थपूर्ण प्रतिफल की प्राप्ति होती है। इस प्रक्रिया के विश्लेषण द्वारा व्यवहार को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। व्यक्तिगत व्यवहार के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं-

(1) व्यक्तित्व (Personality)- व्यवहार व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति है। कोई भी व्यक्ति जैसा व्यवहार करता है, वैसा ही उसका व्यक्तित्व प्रकट होता है। प्रत्येक संगठन कर्मचारियों के व्यक्तित्व के विकास में रुचि लेता है। व्यक्तित्व का समुचित विकास योग्यता एवं समायोजन की क्षमता को पुष्ट करता है तथा नियोक्ता एवं कर्मचारी के मध्य बेहतर सम्बन्धों की स्थापना करता है। व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यवहार उसके व्यक्तित्व का निर्माण करता है। प्रबन्धक के लिये व्यक्तित्व का अध्ययन आवश्यक होता है, क्योंकि मनुष्य का व्यक्तित्व अनेक कारकों से निर्मित होता है और इसकेक्षद्वारा परिवर्तन की एक प्रक्रिया का बोध होता है जिसका सम्बन्ध व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक विकास से होता है।

वेबस्टर शब्दकोष के अनुसार, “व्यक्तित्व से किसी व्यक्ति के अस्तित्व का बोध होता है। इसके द्वारा शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक गुणों के एकीकरण का बोध होता है, जिसके आधार पर एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से भिन्न किया जा सकता है।” वास्तव में व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यवहार उसके व्यक्तित्व का निर्माण करता है। व्यवहार में निहित व्यक्तिगत भिन्नताओं के पर व्यक्तित्व को समझने में सहायता मिलती है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ‘व्यक्तित्व’ और ‘व्यवहार’ परिवर्तनशील होता है और उसमें समायोजन होता रहता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कार्यस्थिति में मानवीय व्यवहार के अनुरूप परिवर्तन किया जाना वांछित होता है। इसके अतिरिक्त, प्रत्येक व्यक्ति दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों तथा जीवन की स्थितियों के साथ एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया करता है जिसका आशय यह है कि व्यक्तित्व के अन्तर्गत केवल गतिशील विशेषतायें ही नहीं, वरन् समस्त संरचना को सम्मिलित किया जाता है।

एक व्यक्ति संगठनात्मक स्थिति में अनेक प्रकार के जटिल व्यवहारों के माध्यम से अपने क्रियालापों का सम्पादन करता है। उसका व्यवहार लक्ष्य-अभिमुखी होता है और वह अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में पूर्णतया संलग्न रहता है। चूँकि प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न होता है। अतः उसका व्यवहार भी एक-दूसरे से भिन्न होता है। उदाहरण के लिये, एक व्यक्ति अपने सहयोगियों में विद्रोह एवं क्रोध की उत्पत्ति कर सकता है। जबकि एक दूसरा व्यक्ति अपने सहयोगियों के बीच सहानुभूति एवं सहयोग की भावना उत्पन्न कर सकता है। इसी प्रकार एक व्यक्ति अपने अधीनस्थों के साथ खुले एवं स्वतन्त्र सम्प्रेषण का बढ़ावा देता है जबकि दूसरा व्यक्ति इस प्रवृत्ति को हतोत्साहित कर सकता है। दबाव आदि में भी व्यक्तित्व की भिन्नताओं के कारण व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतिक्रिया करता है। एक व्यक्ति तनावपूर्ण स्थिति को सहन कर लेता है, जबकि दूसरा व्यक्ति इस स्थिति में तनाव एवं परेशानी से विक्षिप्त हो सकता है।

सार में, एक व्यक्ति का व्यवहार उसके व्यक्तित्व द्वारा प्रभावित होता है। चूँकि व्यक्तित्व एवं व्यवहार परिवर्तनशील होता है और उसमें समायोजन होता रहता है, अतः एक प्रबन्धक के लिये कार्य-स्थिति के अनुरूप मानवीय व्यवहार में परिवर्तन लाना आवश्यक होता है। प्रबन्धक को समझना आवश्यक है कि कुछ अंश तक एक व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे से मिलता-जुलता है, जबकि कुछ अंश में एक व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरों से थोड़ा बहुत मिलता है। कुछ अंश में एक व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरों से बिल्कुल ही नहीं मिलता है। अतः व्यक्तित्व के अन्तर्गत बाह्य आकार और व्यवहार, आन्तरिक विशेषताओं तथा अन्य परिभाषित विशेषताओं को सम्मिलित किया जाता है। जिनके मद्देनजर वह एक विशिष्ट किस्म का व्यवहार करता है।

(2) दबाव (Stress)- व्यक्तिगत व्यवहार कार्य दबाव से भी प्रभावित होता है। कार्य करना मनुष्य के जीवन में एक प्राकृतिक क्रिया है। प्रत्येक व्यक्ति अनेक आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कार्य करता है। जब इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि में उसे कोई असफलता या खतरा नजर आता है तो दबाव की स्थिति महसूस करता है। “बीयर एवं न्यूमैन के अनुसार, “दबाव एक व्यक्ति एवं उसके जॉब की अन्तर्क्रिया के परिणामस्वरूप उत्पन्न होता है जो एक व्यक्ति के भी परिवर्तन के कारण उत्पन्न होता है तथा उसे सामान्य कार्य से विचलन हेतु बाध्य करता है।”

एक व्यक्ति अनेक कारणों से कार्य दबाव महसूस कर सकता है। उदाहरण के लिये, आर्थिक सुरक्षा के कारण व्यक्ति दबाव की स्थिति में हो सकता है या फिर विभिन्न संगठनात्मक घटकों (कार्य, माँगे, भूमिका, संगठन, संरचना, नेतृत्व आदि) के कारण दबाव महसूस करता है। अति या न्यून कार्यभार, कार्य सम्बन्धी नैराश्य आदि के कारण व्यक्ति दबाव महसूस करता है जिसके फलस्वरूप वह असहयोगात्मक प्रकृति का हो जाता है तथा शारीरिक, मानसिक एवं व्यवहारवादी रूप से असामान्य हो जाता है। सतत् दबाव के कारण व्यक्ति क्रोधी, चिड़चिड़ा, उच्च रक्तचाप तथा कैंसर का रोगी हो जाता है जो उसकी निष्पादन क्षमता एवं उत्पादकता को प्रभावित करता है। अत्यधिक दबाव का व्यक्ति के व्यवहार पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। ऐसा व्यक्ति अत्यधिक या काफी कम भोजन करने लगता है, धूम्रपान तथा दवाओं का आदी हो जाता है तथा असामान्य व्यवहार करने लग जाता है। प्रबन्धक के लिये व्यक्तिगत एवं संगठनात्मक दबाव सम्बन्धी कारणों को जानना एवं उन्हें यथाशीघ्र दूर करना आवश्यक होता है। तभी वह कार्य स्थिति के अनुरूप व्यक्ति के व्यवहार को समझने एवं परिवर्तित करने में सफल हो सकता है।

(3) अवबोधन (Perception) – एक व्यक्ति का व्यवहार इस बात पर भी निर्भर करता है कि वह जगत् की घटनाओं को किस रूप में देखता है तथा उनका प्रत्युत्तर किस रूप में देता है। व्यक्ति एक परिवेश में रहता है जिससे उसको उत्तेजनायें मिलती हैं तथा जिसके प्रति उसमें अनुक्रियायें होती रहती हैं जो आन्तरिक एवं बाह्य रूप में हो सकती हैं। इन्हीं अनुक्रियाओं का नाम व्यवहार है। परिवेश के प्रति व्यक्ति की पहली अनुक्रिया ‘संवेदना’ है, किन्तु संवेदना शुद्ध रूप में नहीं होती। संवेदना अवबोधन के अंग के रूप में होती है। अतः वास्तव में परिवेश के प्रति व्यक्ति की प्रथम अनुक्रिया अवबोधन है। इसी से उसके व्यवहार की अन्य सब क्रियायें प्रारम्भ होतीं। व्यक्ति जगत् को जिस रूप में देखता है तथा जैसा अर्थ प्रदान करता है, वैसा ही व्यवहार करने लग जाता है।

(4) अभिप्ररेणा (Motivation) – अभिप्रेरणा प्रक्रिया भी व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करती है। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कार्य करने हेतु प्रेरित होता है तथा उसे तब तक जारी रखता है जब तक उसके लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो जाती। लक्ष्य की प्राप्ति के साथ आवश्यकता की सन्तुष्टि हो जाती है और अभिप्रेरणा की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। एक संगठन में प्रबन्धक सुचारु रूप से कार्य तभी कर सकता है जब उसे उन बातों की जानकारी हो जो व्यक्तियों को अभिप्रेरित करती है। तभी वह व्यक्ति के व्यवहार को वांछित दिशा में निर्देशित कर उनका अधिकतम योगदान प्राप्त कर सकता है। अन्य शब्दों में, किसी व्यक्ति की उस अभिप्रेरणा की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया जाये जो निरन्तर उसे अपने व्यवहारों के माध्यम से लक्ष्य प्राप्ति की ओर प्रयत्नशील बनाती है। अभिप्रेरणा एक प्रक्रिया है जिसका अनुमान परिलक्षित व्यवहारों के आधार पर किया जाता है। इसे व्यवहार के कारण एक रूप में भी देखा जा सकता है जिसमें शारीरिक एवं सामाजिक- मनोवैज्ञानिक कारण सम्मिलित हैं। शारीरिक अभिप्रेरणा वह स्थिति है जिसका सम्बन्ध व्यक्ति की एक विशेष शारीरिक आवश्कयता से होता है जबकि सामाजिक-मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणा का सम्बन्ध व्यक्ति में मानसिक आवश्यकता एवं सन्तुष्टि से सम्बद्ध होता है। व्यक्ति का व्यवहार इस बात पर निर्भर करता है कि आवश्यकता क्रमबद्धता में यह किस स्तर पर स्थित है तथा किस आवश्यकता को कितना महत्व प्रदान करता है।

(5) सीखना (Learning) – सीखने की प्रक्रिया भी व्यक्तिगत व्यवहार को प्रभावित करती है। सीखने से तात्पर्य व्यवहार में होने वाले स्थायी परिवर्तन से हैं जो अनुभव के द्वारा प्राप्त होता है। प्रायः सीखने की क्रिया सभी समयों में जारी रहती है जिससे प्रत्यक्षतः व्यक्ति का व्यवहार प्रभावित होता है तथा परिवर्तित होता रहता है। मनौवैज्ञानिकों का मत है कि बाह्य संसार से निश्चित प्रकार की उत्तेजना जब बार-बार प्राप्त होती है तो उनके आधार पर एक निश्चित प्रकार की प्रक्रिया भी बार-बार होने लगती है। सीखने की प्रक्रिया के निम्नलिखित चार चरण हैं- उत्तेजक, प्रतिक्रिया, अभिप्रेरणा तथा पुरस्कार। सीखने वाले व्यक्ति के सम्मुख कुछ उत्तेजकों का होना आवश्यक है जिन्हें वह स्पष्ट रूप से समझता हो, अन्यथा वह सही दिशा में प्रभावित नहीं हो सकता है। प्रतिक्रिया से आशय उस कार्य से होता है जिसे सीखने वाले व्यक्ति को पूरा करना होता है। तृतीय महत्वपूर्ण चरणक्षसही अभिप्रेरणा है। ऐसा हो सकता है कि एक व्यक्ति में सीखने की क्षमता होने के बावजूद सीखने की प्रवृत्ति एवं अभिरुचि न हो। ऐसी दशा में वह नहीं सीख सकता है। सीखने की प्रक्रिया का अन्तिम चरण पुरस्कार है। सीखने वाले व्यक्ति को यह ज्ञान होना आवश्यक है कि उस कार्य सेज्ञतत्काल ही या एक निश्चित समय के भीतर उसे अमुक पुरस्कार मिलेगा। इस प्रकार के पुरस्कार के अभाव में वह नहीं सीख सकता है। सीखने की प्रक्रिया के इन चरणों का संगठनात्मक वातावरण में प्रशिक्षण से सीधा सम्बन्ध होता है तथा उसी के अनुरूप व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित किया जा सकता है।

(6) संगठनात्मक व्यवहार संशोधन (Organisational Behaviour Modification)- परम्परागत रूप से व्यक्ति के विश्लेषण हेतु उत्तेजक एवं प्रत्युत्तर मॉडल (Stimulus Response Model) का प्रयोग किया जाता रहा है। आधुनिक व्यवहारविदों का मत है कि बाह्य पर्यावरणीय घटकों की भी व्यवहार में अहं भूमिका होती है। इनका मत है कि संगठनात्मक व्यवहारों के परिणामों के द्वारा पर्यावरणीय परिवेश में परिवर्तन हो जाता है और उसका कर्मचारी के व्यवहार पर भी प्रभाव पड़ सकता है। इसी अवधारण को संगठनात्मक व्यवहार संशोधन’ के नाम से जाना जाता है। आधुनिक संगठनों में कार्यरत व्यक्तियों के व्यवहार को प्रभावित करने हेतु इस तकनीक का व्यापक रूप में प्रयोग किया जाता है जिससे प्रथम चरण के अन्तर्गत उन महत्वपूर्ण व्यवहारों का पता लगाया जाता है जिनका निष्पत्ति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक संगठन में एक ही समय पर अनेक प्रकार के व्यवहार सम्पन्न होते हैं जिनमें से कुछ का निष्पत्ति पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है जबकि अन्य का कोई विशेष प्रभाव नहीं होता है। द्वितीय चरण में जटिल तथा आलोच्य व्यवहारों को परिभाषित किया जाता है। वर्तमान स्थिति में कोई व्यवहार कितनी बार घटित होता है, इसका पता प्रत्यक्षतः देखने या गणना के माध्यम से किया जाता है। इसी आधार पर व्यवहार के मूल कारणों का पता लग जाता है जिसके कारण वस्तुगत तथ्यों की प्राप्ति होती है। पश्चात कार्यात्मक विश्लेषण किया जाता है जिसके लिए एस०ओ०बी०सी० मॉडल या अन्य मॉडल का प्रयोग किया जाता है तत्पश्चात् हस्तक्षेप का व्यूह रचना का विकास किया जाता है ताकि अपेक्षित जटिल व्यवहारों को अवरुद्ध किया जा सके। इस हेतु धनात्मक पुनर्बलन व्यूहरचना या ऋणात्मक पुनर्बलन व्यूहरचना का प्रयोग किया जा सकता है।

इस तकनीक का अन्तिम चरण मूल्यांकन से सम्बन्धित है जो चार स्तरों पर किया जाता है, प्रक्रिया, सीखना, व्यवहार में परिवर्तन एवं निष्पत्ति में सुधार प्रतिक्रिया का आशय यह है कि व्यक्ति इस तकनीक को पसन्द करता है या नहीं। व्यक्तियों की प्रतिक्रिया अनुकूल होने की दशा में ही यह तकनीक प्रभावपूर्ण ढंग से प्रयुक्त की जा सकती है। सीखने का आशय यह है कि जो व्यक्ति इस मॉडल का प्रयोग कर रहा है, वह इसकी वैचारिक पृष्ठभूमि, मान्यताओं एवं सिद्धान्तों को समझता एवं जानता है या नहीं। तीसरी कसौटी व्यवहार में परिवर्तन की है जिसका आशय यह है कि इस मॉडल के प्रयोग द्वारा व्यवहार में वास्तविक रूप में कुछ परिवर्तन होता है या नहीं। अन्तिम कसौटी यह है कि क्या इस मॉडल के प्रयोग से निष्पादन में कुछ सुधार हुआ है? वास्तव में, इस तकनीक का मूल लक्ष्य धनात्मक प्रतिक्रिया को प्राप्त करना, सीखने की क्षमता का विकास करना, व्यवहार में परिवर्तन लाना तथा निष्पादन में सुधार करना है।

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Pankaja Singh

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