इतिहास

वैदिककालीन सामाजिक जीवन | उत्तर वैदिक काल का सामाजिक जीवन

वैदिककालीन सामाजिक जीवन | उत्तर वैदिक काल का सामाजिक जीवन

वैदिककालीन सामाजिक जीवन

भारतीय आर्यों की जिस संस्कृति का विकास ऋग्वैदिक काल से प्रारभ हुआ उत्तर  वैदिक काल में वह और अधिक परिपक्व हो गई। ऋग्वैदिक तथा उत्तर वैदिक काल के बीच किसी समय अथवा काल का अन्तर नहीं था- अपितु संस्कृति की धारा निरन्तर अबाध गति से प्रवाहित होती चली आ रही थी। उत्तर वैदिक काल से हमारा तात्पर्य उस युग से है जिसमें यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों की रचना हुई थी। यह युग अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत था। यद्यपि उत्तर वैदिक सभ्यता के आधारभूत सिद्धान्त न्यूनाधिक रूप से ऋग्वैदिक युग के समान ही थे तथापि विकासक्रम की प्रवृत्ति के अनुसार इस युग की संस्कृति अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत तथा समृद्ध थी।

वैदिककालीन सामाजिक जीवन

ऋग्वैदिक कालीन समाज की धारा निरन्तर प्रवाहित होते हुए उत्तर वैदिककाल में अत्यधिक विस्तृत एवं प्रवाहमयी हो गयी थी। यह युग सामाजिक जीवन के उत्तरोत्तर विकास का युग था। अब सामाजिक जीवन स्थिरता प्राप्त करने लगा था। इस काल की सामाजिक दशा एवं सामाजिक परिवर्तनों तथा उपलब्धियों का विवरण निम्नलिखित है-

(1) कुटुम्ब

सामाजिक व्यवस्था की इकाई अथवा आधारशिला परिवार था। पितृ सत्तात्मक परिवार का कर्ताधर्ता, पालक तथा स्वामी भी पिता था। परिवार का प्रमुख होने के कारण सभी सदस्य उसकी आज्ञा का पालन करते थे तथा उसमें निष्ठा रखते थे। परिवार का प्रधान होने के नाते पिता ग्राम-परिषद् तथा पंचायत में परिवार का प्रतिनिधित्व करता था। पैतृक सम्पत्ति संयुक्त परिवार की निधि होती थी तथा इसकी बढ़ोत्तरी के लिये परिवार के सदस्य संयुक्त प्रयास करते थे। सम्पत्ति के उत्तराधिकारी पुत्र थे। अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं जिनसे ज्ञात होता है कि पिता अपने जीवनकाल में अपने पुत्रों के मध्य सम्पत्ति का विभाजन कर देता था। उपलब्ध प्रमाणों से पता चलता है कि पिता को पुत्र से विशेष अनुराग होता था किन्तु पुत्र के दुश्चरित्र तथा व्यसनी होने पर वह पिता द्वारा दण्डित होता था। ऋग्वेद में उल्लेख है कि ऋजरास्व की आँखें उसके पिता ने फोड़ दी थीं क्योंकि उसे द्यूत का व्यसन था। परिवार के सभी सदस्य एक ही घर में साथ-साथ रहते थे। पति-पत्नी के सम्बन्ध बहुत सुखद थे। अनेक मन्त्रों में इनके प्रेम के बड़े सुन्दर वर्णन मिलते हैं। माता का बड़ा आदर था। ऋग्वेद के अनुसार पत्नी घर को सम्भालती थी तथा सास-ससुर, देवर, ननद आदि उसका बहुत आदर करते थे। कुटुम्ब सत्य, धर्म तथा शान्ति की पवित्र संस्था मानी जाती थी।

(2) ग्रामीण जीवन

परिवार के पश्चात् सामाजिक जीवन की आधारशिला ग्रामीण जीवन थी। प्रत्येक ग्राम में अनेक कुटुम्ब रहते थे तथा इनके पारस्परिक सम्बन्ध सुखद, शान्तिमय तथा प्रेमपूर्ण थे। आर्यों का जीवन ग्रामों में सुसंगठित था। ग्राम के विभिन्न कार्यों तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न परिवार संयुक्त प्रयास करते थे।

(3) नगर जीवन

ऋग्वैदिक युग में हमें किसी नगर का उल्लेख अथवा प्रमाण नहीं मिलता है परन्तु उत्तर वैदिककाल में हमें अनेक नगरों की स्थिति एवं महत्व के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। यह विकास क्रम का परिणाम थे। आर्य विस्तार के कारण जंगलों की सफाई होने, जनसंख्या की वृद्धि होने तथा उद्योग-धन्धों का विकास होने के कारण विशिष्ट ग्राम नगरों के रूप में खिल उठे। गंगा यमुना के मध्यवर्ती प्रदेशों में आर्यों के अनेक नगर थे जो धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक तथा सामाजिक गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे।

(4) आहार

आर्यों के आहार सामग्री के प्रमुख स्रोत कृषि एवं पशुपालन थे। भोजन साधारण, पौष्टिक तथा विविधतापूर्ण था। वे गेहूँ, जौ के आटे की रोटी खाते थे तथा शाक-सब्जियों एवं फलों का भी प्रयोग करते थे। गोवध का निषेध था परन्तु भेड़ बकरे का मांस खाया जाता था। डा० आर० सी० मजूमदार ने लिखा है-

“The use of animal food was common, specially at the great feasts and family gatherings. The slaying of cow was, however, gradually looked upon with disfavour as is apparent from the name ‘Aghnya’ (not to be killed) applied to it in several passages.

गौपालन से प्राप्त दुग्ध द्वारा विविध खाद्य पदार्थ बनाये जाते थे। विशेष अवसरों पर सोमरस का पान किया जाता था, यद्यपि समाज में सुरापान निन्दनीय एवं घृणित समझा जाता था। जौ द्वारा विशेष प्रकार की शराब बनाई जाती थी। शहद का प्रयोग किया जाता था। बाजरा एवं सत्तू की रोटियाँ बनाने का उल्लेख भी प्राप्त है। गन्ने के रस से गुड़ बनाया जाता था। खाद्य व्यंजनों में क्षीरोदन’ (खीर), तिलोदन, मुदगोदन (लड्ड), घृतौदन, पंक्ति, करसम्य, पुरोपाष, यवगु, लाज तथा सक्तु आदि नामों का उल्लेख विभिन्न ग्रंथों में प्राप्त है।

(5) वस्त्राभूषण

ऋग्वैदिककाल में प्रयुक्त तीन प्रकार के वस्त्रों के अतिरिक्त अब चीर, चेवर एवं चेल नामक वस्त्रों का प्रचलन हो गया था। अब वे कई प्रकार की नीची धोतियों, गमछे, कम्बलों तथा शालों का प्रयोग करने लगे थे। स्त्रियों की साड़ियाँ किनारेदार, बहुरंगी तथा कढ़ी हुई होती थीं। ऋषि तथा ब्रह्मचारी पशुचर्म का प्रयोग करते थे। पुरुष प्रायः लम्बे बाल रखते थे। दाढ़ी मूंछ मुड़ाने तथा रखने की प्रथा समान रूप से थी। स्त्रियाँ केशों को विभिन्न प्रकार से सजाती थीं तथा पुष्प द्वरा वेणियों का अलंकरण करती थीं। अंगों का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए विभिन्न लेपों का प्रयोग होता था। सिर में तेल डालना, आँखों में काजल लगाना सौन्दर्य सूचक था स्वच्छता का प्रतीक माना जाता था। सुअर के चमड़े से निर्मित जूते पहने जाते थे। सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग किया जाता था। सोना, चाँदी, मोती, माणिक्य तथा शंखों द्वारा विभिन्न आभूषण बनाये जाते थे। निष्क, प्रवर्न, प्रकाश, विमुक्ता आदि स्त्रियों के प्रिय आभूषण थे।

(6) मनोरंजन

सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव अभिरुचियों में विविधता आना स्वाभाविक है। उत्तर वैदिककाल भी इसका अपवाद नहीं था। यद्यपि रथों की दौड़, आखेट, आखेट,  द्युत, चौपड़ आदि अभी भी मनोरंजन के प्रमुख साधन थे तथापि इन विषयों में अब अधिक उत्सुकता एवं प्रवीणता उत्पन्न हो गयी थी। उत्सवों, पर्वो, यज्ञों तथा सामाजिक अनुष्ठानों के आयोजनों पर संगीत तथा नृत्य के कार्यक्रम होते थे। स्त्री-पुरुष समान रूप से इनमें भाग लेते थे। वाजपेय यज्ञ के अवसर पर रथों की दौड़ होती थी। सामाजिक उत्सवों में वीणावादन तथा अन्य संगीत वाद्यों के लय-ताल पर गाथा तथा गीत गाये जाते थे। सामवेद तो स्वयं में ही एक गीति काव्य की भाँति है। विभिन्न स्थानों पर ‘शैलप’ (अभिनेता) शब्द के प्रयोग से अनुमान लगाया जाता है कि इस समय संगीत प्रधान नाटकों का अभिनय प्राराम्भ हो गया था। वाद्य यन्त्रों के कतिपय नाम मिले हैं जिनमें वीणा, शंख तथा मृदंग आदि हैं। नगर तथा ग्रामों के निकट खेलकूद तथा अन्य क्रीड़ाओं के लिए विशेष मौदान होते थे। यहाँ पर शारीरिक व्यायाम, कुश्ती तथा अस्त्र-शस्त्र प्रयोग के प्रदर्शन होते थे। धनी तथा समृद्ध वर्ग के लोग ‘द्यूत’ नामक जुआ खेलते थे। पासे तथा चौपड़ का खेल भी प्रचलित हो चुका था। आखेट भी मनोरंजन का साधन था।

(7) स्त्रियों की दशा

पुत्री के जन्म पर खिन्नता व्यक्त करने का उल्लेख ऋग्वेद में उपलब्ध है। ऐतरेय ब्राह्मण में उसे ‘कृपण’ कहा गया है। इससे विदित होता है कि पुत्र प्राप्ति पर विशेष सुख एवं पुत्री के जन्म पर उदासीनता अनुभव की जाती थी। पुत्र का जन्म होने पर आर्य उसे गोद में उठा लेते थे किन्तु पुत्री के जन्म होने पर उसे भूमि पर रख देते थे। इसके विपरीत इस बात के प्रमाण भी उपलब्ध हैं जिनके अनुसार पुत्री जन्म की कामना की गई है। पुत्री भी सौभाग्य तथा समृद्धि की सूचक मानी जाती थी।

वैदिक संहिताओं तथा ब्राहम्णों के अनेक कथनों से पता चलात है कि स्त्रियों को बहुत आदर एवं सम्मान प्राप्त था। अनेक स्त्रियाँ तत्वज्ञान के बाद विवाद में पुरुषों से होड़ लेती थीं। ऐतरेय ब्राह्मण तथा कौशितिकी ब्राह्मण में अनेक विदुषी स्त्रियों का नाम उपलब्ध होता है। वृहदारण्यक उपनिषद में स्त्री शिक्षकों का भी उल्लेख है, याज्ञवलक्य ऋषि की पत्नी को ब्रह्मविद्या में रुचि थी। ऋग्वेद में कहा गया है कि ऋषि मुद्गल को डाकुओं का सामना करने में उनकी स्त्री ने बड़ी सहायता की थी।

उत्तर वैदिक ग्रंथों में नारी रूप का दूसरा चित्रण उनका पद ह्रास बताता है। मैत्रायिणी संहिता स्त्रियों को जुए तथा मद्य के समान खराब मानती हैं। यही संहिता उन्हें ‘अनृत्य’ ‘निऋति’ या आयन्ति बताती है। तैत्तिरीय संहिता में स्त्री को बुरे शूद्र से भी निम्न बताया गया है। अनेक धार्मिक तथा सामाजिक कृत्य, जो अभी तक स्त्री की सूची में थे, पुरुष सूची में जोड़ दिये गये। डा० बेनीप्रसाद के अनुसार, “ऋग्वेद की अपेक्षा अब जीवन का आनन्द कम हो गया था और तपस्या की प्रवृत्ति बढ़ रही ।। जब संसार त्याग एक आदर्श बनने लगा तो जो इस त्याग में सबसे बड़ी बाधा है, अनादर की दृष्टि से देखी जाने लगी।”

उपरोक्त परस्पर विरोधी प्रमाणों के आधार पर हम यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि समाज में स्त्रियों को आदर सम्मान तो प्राप्त था परन्तु अपेक्षाकृत उनका पद कुछ गिर गया था। अब स्त्रियों के अधिकार सीमित थे। कम बोलने वाली तथा पति के भोजनोपरान्त भोजन करने वाली स्त्री अब आदर्श थी। चल तथा अचल सम्पत्ति पर उसको कोई अधिकार प्राप्त नहीं था।

(8) विवाह की स्वतन्त्रता

ऋग्वेद के दसवें मण्डल में युवक युवतियों के प्रेम सम्बन्धों का उल्लेख है। एक मन्त्र के अनुसार धनी कन्या से विवाह के लिए अनेक युवक इच्छुक रहते थे। अथर्ववेद में प्रेम प्रयासों की सफलता के लिये मन्त्र, जादू तथा टोने के प्रयोग का वर्णन है। इन वर्णनों से यह प्रमाणित होता है कि एक तो उस समय बाल-विवाह की प्रथा नहीं थी, दूसरे स्त्री-पुरुष अपनी इच्छानुसार विवाह करते थे।

(9) विवाह प्रथा

सामाजिक दृष्टि से विवाह का बड़ा महत्व था। अविवाहित व्यक्ति को तो यज्ञ करने का भी अधिकार नहीं था। एक मान्यता के अनुसार स्त्री ही पुरुष को पूर्णता प्रदान करती थी। पुत्र प्राप्ति की आकांक्षा प्रबल थी अतः पुत्र प्राप्ति के लिए विवाह आवश्यक था। “ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम” अर्थात् पति की प्राप्ति के लिए कन्या ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करती थी। इससे भी यही स्पष्ट होता है कि युवावस्था आने पर कन्या का विवाह कर दिया जाता था।

विवाह संस्कार पर उत्सवों जैसा आयोजन किया जाता था। वर पक्ष के लोग बारात लेकर कन्या पक्ष के यहाँ जाते थे तथा वहीं पर वैवाहिक सम्बन्ध सम्पन्न किए जाते थे। ऋग्वेद में दहेज का वर्णन नहीं है। दामाद द्वारा श्वसुर को द्रव्य देने का उल्लेख मिलता है किन्तु इस उल्लेख मात्र से इसे सामान्य प्रथा स्वीकार करना सर्वथा भूल होगी। विवाह को धार्मिक महत्व भी प्राप्त था तथा “स्वयं देवता भी इसमें सम्मिलित होते थे।”

(10) अन्तर्जातीय विवाह

अभी जाति प्रथा इतनी कठोर नहीं हो पायी थी जितनी कि सूत्रों के काल में हो गई थी। यह कुछ मिली-जुली जाति व्यवस्था थी। अतः हमें कई अन्तर्जातीय विवाहों का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में केवल भाई-बहन, पिता-पुत्री आदि के विवाहों का निषेध है। शतपथ ब्राह्मण में यह निषेध तीसरी या चौथी पीढ़ी तक के लिए था। ब्राह्मण तथा क्षत्रिय अपने से छोटी जातियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ते थे। क्षत्रिय राजा शर्यात की पुत्री सुकन्या,- ब्राह्मण च्यवन ऋषि के साथ ब्याही गई थी।

(11) बहु विवाह

मैज्ञायिणी संहिता में मनु की दस पलियों का उल्लेख है। वैदिक साहित्य में राजाओं की अनेक पलियों के उल्लेख भी उपलब्ध हैं। अनेक स्थानों पर सौतों के देवासुर संग्रामों का उल्लेख प्राप्त होता है। अथर्ववेद में एक पत्नी अपनी सौत को शाप देती हुई कहती है कि “तेरे कभी सन्तान न हों, तू बाँझ हो जाये।” इन प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बहु विवाह की प्रथा थी किन्तु समर्थ पुरुष ही ऐसा करते थे अन्यथा कौटुम्बिक जीवन दुःखद एवं कलहपूर्ण हो जाता था।

(12) विधवा विवाह

ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि एक पुरुष अनेक पलियाँ रख सकता था किन्तु एक स्त्री एक ही समय में अनेक पति नहीं रख सकती थी।’ ‘एक ही समय में’ शब्द से यह प्रकट होता है कि भिन्न समयों पर एक स्त्री के अन्य पति हो सकते थे- अर्थात् विधवा विवाह होता था। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद के अनेक मन्त्रों में सती प्रथा का विधान मिलता है, जो विधवा विवाह होने की प्रथा का परोक्ष रूप से समर्थन करता है। अन्य प्रमाण भी उपलब्ध हैं- जैसे अथर्ववेद में “दिधुष’ के प्रयोग से पता चलता है कि विधवा अपने देवर से विवाह करती थी। “पर पूर्वा” शब्द से प्रतीत होता है कि स्त्री दूसरा विवाह कर सकती थी।

वृहदारण्यक उपनिषद में स्त्री शिक्षकों का उल्लेख मिलता है। याज्ञवलक्य की स्त्री को ब्रह्मविद्या में बड़ी रुचि थी। बौद्धिक क्षेत्रों में स्त्रियाँ महत्वपूर्ण भाग लेती थीं। गार्गी द्वारा दार्शनिकों की परिषद में भाषण देने का उल्लेख प्राप्त है। ऋग्वेद में विश्ववारा, घोषा, अपाला आदि स्त्रियों द्वारा मन्त्रों की रचना करने का वर्णन भी मिलता है।

(14) आतिथ्य

अथर्ववेद में अतिथ्य को बड़े यज्ञ के समकक्ष माना गया है। आतिथ्य की भिन्न-भिन्न क्रियाओं की तुलना यज्ञ की विभिन्न रीतियों से की गयी है। इससे प्रतीत होता है कि कुटुम्ब में अतिथि के आगमन को सौभाग्यसूचक तथा कृपास्वरूप माना जाता था।

(15) नैतिकता

अथर्ववेद के एक उल्लेख के अनुसार ‘ऋण’ चुकाना बहुत आवश्यक है, न चुकाने से पाप होता है जिसेक लिए प्रायश्चित करना चाहिए। अथर्ववेद के एक अन्य विवरण के अनुसार ‘देवताओं तथा मनुष्यों से की गई प्रतिज्ञाओं का पालन करना ही चाहिए अन्यथा प्रायश्चित करना पड़ेगा।’ सामाजिक शान्ति, व्यवस्था तथा सहयोग के अनेक आदर्शों का स्पष्ट वर्णन मिलता है तथा तत्कालीन ग्रन्थों में जन-कल्याण के लिए अनेक प्रार्थनायें की गई हैं।

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Pankaja Singh

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