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मालवा की ताम्र संस्कृति | नवदाटोली की ताम्र संस्कृति | मालवा की ताम्र संस्कृति की विशेषताएँ

मालवा की ताम्र संस्कृति | नवदाटोली की ताम्र संस्कृति | मालवा की ताम्र संस्कृति की विशेषताएँ

मालवा या नवदाटोली की ताम्र संस्कृति

मालवा की ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के लिए यदि पुरातत्त्व की मानक शब्दावली का प्रयोग किया जाए तो ‘हड़प्पा सभ्यता’ और ‘अहाड़ संस्कृति’ की तरह इसको ‘नवदाटोली ताम्र-पाषाणिक संस्कृति’ कहना अधिक समीचीन होगा क्योंकि मध्य प्रदेश के खरगोन जिले में स्थित नवदाटोली और माहेश्वर के उत्खननों से सर्वप्रथम इस संस्कृति का विशिष्ट स्वरूप ज्ञात हुआ। नर्मदा नदी के दक्षिणी तट पर नवदाटोली (221°1′ उ०अक्षांश; 75° 36′ पू० देशान्तर) और उत्तरी तट पर माहेश्वर नामक पुरास्थल स्थित है। ‘दकन कालेज एण्ड पोस्टग्रेजुएट रिसर्च इंस्टीट्यूट’, पुणे तथा एम०एस०विश्वविद्यालय बड़ौदा ने यहाँ पर विस्तृत पैमाने पर उत्खनन सन् 1952-54 और 1957-59 में कराया जिसके फलस्वरूप पाँच सांस्कृतिक कालों के विषय में जानकारी प्राप्त हुई। अब तक इस संस्कृति से सम्बन्धित अनेक पुरास्थलों का उत्खनन हो चुका है। मध्य प्रदेश के नवदाटोली, माहेश्वर, नागदा, कायथा, एरण, मनोती और डंगवाड़ा उल्लेखनीय हैं।  मालवा संस्कृति के मृद्भाण्ड महाराष्ट्र प्रदेश के बहाल, सोनगाँव, चन्दोली, प्रकाश, इनाम गाँव और दायमाबाद से भी उपलब्ध हुए हैं लेकिन दायमाबाद के पुरास्थल को छोड़कर शेष सभी पुरास्थलों से मालवा संस्कृति की विशिष्ट पात्र- परम्परा के साथ ही साथ जोर्वे संस्कृति के पात्र-खण्ड भी उपलब्ध हुए हैं। दायमाबाद के उत्खनन से ज्ञात हुआ कि पश्चिमी महाराष्ट्र के क्षेत्र में जोर्वे संस्कृति के आविर्भाव के पहले ही मालवा संस्कृति का प्रसार हो चुका था।

इन समस्त पुरास्थलों के उत्खनन से मालवा संस्कृति का जो स्वरूप हमारे सामने आता है उसकी झाँकी सर्वप्रथम मध्यप्रदेश के खारगोन जिले में स्थित नवदाटोली तथा माहेश्वर के उत्खनन के फलस्वरूप देखने को मिली। इसके पश्चात् अन्य अनेक पुरास्थलों से भी इसी प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हुए लेकिन मालवा की ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के सम्बन्ध में जानकारी अभी भी नवदाटोली के उत्खनन पर ही प्रधानरूपेण आधारित है। नवदाटोली के उत्खनन से मालवा संस्कृति के चार चरण पात्र-परम्परा के आधार पर उद्घाटित हुए हैं। प्रथम चरण में एक विशिष्ट प्रकार की मृद्भाण्ड परम्परा प्रचलित थी, काले रंग से चित्रित लाल रंग की पात्र परम्परा जिसे भारतीय पुरातत्त्व में ‘मालवा पात्र-परम्परा’ के नाम से अभिहित किया जाता है। संस्कृति के द्वितीय चरण में श्वेत चित्रित कृष्ण लोहित पात्र परम्परा समाप्त हो जाती है लेकिन प्रथम उपकाल की अन्य पात्र-परम्पराएं चलती रहती हैं। इस उपकाल का अन्त एक भीषण अग्नि-काण्ड में हुआ। तृतीय चरण में दूधिया पात्र-परम्परा (Cream Slipped Ware) समाप्त हो जाती है। अन्य पात्र-परम्पराओं के साथ ‘जोवे’ पात्र-परम्परा के टोंटीदार पात्र मिलने लगते हैं। चतुर्थ चरण में उपर्युक्त पात्र-परम्पराएँ चलती रहती हैं। साथ ही साथ मटकों में चिपकवाँ अलंकरण (Applique designs) मिलने लगते हैं।

मालवा की ताम्र संस्कृति की विशेषताएँ

मालवा संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना निम्न शीर्षकों के अंतर्गत की जा सकती है-

  1. मृद्भाण्ड परम्पराएँ- मालवा की तान-पाषाणिक संस्कृति में मुख्यतः चार प्रकार की पात्र-परम्पराएँ प्रचलित थीं जिनमें से हल्के लाल रंग या गुलाबी रंग की मृद्भाण्ड परम्पराओं को जिसके ऊपर काले रंग में चित्रण-अभिप्राय सँजोये गए हैं, इस संस्कृति की विशिष्ट पात्र- परम्परा माना जा सकता है। इसे मालवा मृद्भाण्ड-परम्परा की संज्ञा भी दी जाती है। मालवा संस्कृति के प्रमुख पात्र-प्रकारों में साधार तश्तरियाँ, पेंदीदार कटोरे (Pedestalled Cups), तसले, छिछली थालियाँ, लोटे, घड़े तथा मटके आदि हैं। मालवा पात्र-परम्परा के मृद्भाण्ड ताम्र-पाषाण काल के सभी चरणों में मिलते हैं। इन मृद्भाण्डों पर ज्यामितीय और प्राकृतिक दोनों प्रकार के अलंकरण-अभिप्राय सँजोये हुए मिलते हैं। प्रमुख अलंकरणों में त्रिभुज, जालकयुक्त हीरक, लहरदार रेखाएँ, संकेन्द्री वृत्त, कट्टमकट्टे, एक दूसरे को काटते हुए खड़े तथा पड़े चाप, सूर्य, मानव एवं पशु आकृतियों का उल्लेख किया जा सकता है। चित्रण अभिप्रायों के संयोजन में मालवा संस्कृति के कुम्भकारों ने अपनी दक्षता का अच्छा परिचय दिया है क्योंकि इनके चित्रण में सहज स्वाभाविकता दृष्टिगोचर होती है।

प्रथम चरण में मालवा मृद्भाण्डों के अतिरिक्त श्वेत रंग के चित्रण से युक्त कृष्ण- लोहित मृद्भाण्ड पात्र-परम्परा का प्रचलन अल्प मात्रा में मिलता है। श्वेत रंग के चित्रण से युक्त कृष्ण-लोहित पात्र केवल प्रथम चरण में ही प्रचलन में थे। श्वेत रंग के चित्रण से युक्त कृष्ण-लोहित पात्र परम्परा के बर्तनों में कटोरे, कुल्हड़, करई तथा थालियाँ, छोटे आकार के पात्र प्रमुख हैं। इस पात्र-परम्परा के ज्यामितीय अलंकरणों में सीधी और वक्र रेखाएँ, लहरदार खड़ी रेखाएँ, त्रिभुज तथा ठोस हीरक उल्लेखनीय हैं।

तृतीय पात्र-परम्परा दूधिया स्लिप वाली मृद्भाण्ड परम्परा है जिसके प्रमुख पात्र-प्रकारों में कटोरे, करई (Cups), साधार कटोरे एवं तश्तरियाँ प्रमुख हैं। एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए नृत्यरत मानव समूह, मुड़े हुए सींगों वाले बकरे, हिरण वक्र रेखाएँ, त्रिभुज, लहरदार खड़ी रेखाएँ, ठोस हीरक आदि अलंकरण-अभिप्राय सँजोये हुए मिलते हैं।

चौथी प्रमुख पात्र-परम्परा जोर्वे मृद्भाण्ड परम्परा है जिसके पात्रों के ऊपर गहरे लाल रंग का प्रलेप दिखलाई पड़ता है। टोंटीदार नली वाले बर्तन, छोटी और लम्बी गर्दन वाले घड़े, तसले तथा गहरे कटोरे आदि प्रमुख पात्र-प्रकार हैं। इस परम्परा के बर्तनों में टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ, त्रिभुज, चतुर्भुज आदि ज्यामितीय अलंकरण मुख्य रूप से मिलते हैं। मालवा संस्कृति की अन्य पात्र-परम्पराओं में धूसरित कृष्ण पात्र-परम्परा (Greyish Black Ware) रुक्ष लाल, काली तथा ताम्र रंग की पात्र-परम्परा (Tan Ware) का उल्लेख किया जा सकता है।

  1. मकान- इस संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न पुरास्थलों के उत्खनन से आवास के जो साक्ष्य प्राप्त हुए हैं, उनसे यह इंगित होता है कि ये लोग अपने मकानों के निर्माण में लकड़ी के लट्ठों का प्रयोग खम्भों के रूप में करते थे। मकानों की दीवाले बाँस-बल्ली की बनाई जाती थीं जिसमें अन्दर और बाहर दोनों ओर से मिट्टी का लेपन कर दिया जाता था। पक्की या कच्ची ईंटों के प्रयोग का कोई उदाहरण नहीं मिलता है। मकान चौकोर, गोल अथवा वर्गाकार होते थे। कमरों की औसत माप 3×3.40 मीटर मिलती है। कमरों के फर्श को गोबर-मिट्टी से लीप-पोत कर साफ-सुथरा बनाया जाता था। इसके बाद स्वच्छता तथा सफाई के लिये फर्श की चूने से पोताई की जाती थी। मकान पास-पास बने होते थे। भवनों के अन्दर खाने-पीने और अनाज भरने के लिए प्रयुक्त होने वाले मिट्टी के बर्तन, सिल-बट्टे और चूल्हे मिले हैं।
  2. औजार, उपकरण तथा पुरानिधियाँ- मालवा की ताम्र-पाषाणिक संस्कृति में ताँबे का उपयोग अपेक्षाकृत सीमित मात्रा में किया जाता था। ताँबे के उपकरणों में चिपटी कुल्हाड़ियाँ, मत्स्य-काँटे, खंजर और चूड़ियाँ आदि प्राप्त हुई हैं। दन्तुर कटक प्रविधि से निर्मित लघु पाषाण उपकरण नवदाटोली के प्रायः प्रत्येक घर से प्राप्त हुए हैं इसलिए यह सम्भावना व्यक्त की जा सकती है कि हर परिवार लघु पाषाण उपकरणों का निर्माण अपनी आवश्यकतानुसार करता था। नवदाटोली के ताम्र-पाषाणिक काल के ऊपरी स्तरों से नव पाषाण काल की प्रस्तर- कुल्हाड़ियाँ भी उपलब्ध हुई हैं। अगेट, जैस्पर, कार्नेलियन, शंख, कांचली मिट्टी आदि के मनके मिले हैं। ताम्र और मिट्टी की चूड़ियां, ताँबे के.छल्ले, कुण्डल आदि अन्य महत्त्वपूर्ण पुरानिधियाँ हैं।
  3. कृषि तथा पशु-पालन- नवदाटोली की ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के लोगों का आर्थिक जीवन कृषि तथा पशु-पालन पर आधारित था। जौ, गेहूँ, चना, मसूर, मटर, धान, मूंग, उड़द आदि खाद्यान्नों की खेती होती थी। पालतू पशुओं में गाय, बैल, भैंस, भेड़-बकरी आदि प्रमुख पशु थे। हिरण और सुअर की हड्डियों से यह इंगित होता है कि जंगली जानवरों का शिकार किया जाता था। जल-जीवों में कछुएं तथा मछली की हड्डियाँ भी मिली हैं। इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि मालवा संस्कृति से सम्बन्धित पुरास्थलों से मिलने वाली पशुओं की हड्डियों की मात्रा पश्चिमी महाराष्ट्र और उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्रों में स्थित जोर्वे संस्कृति के पुरास्थलों से प्राप्त हड्डियों की तुलना में अपेक्षाकृत कम हैं।
  4. अन्त्येष्टि- मध्य प्रदेश में मालवा संस्कृति के लोग अपने मृतकों का अन्तिम संस्कार कैसे कहते थे, इसके विषय में अभी तक कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं। महाराष्ट्र के क्षेत्र में दफनाकर अन्त्येष्टि संस्कार के प्रमाण इनामगाँव तथा दायमाबाद की मालवा संस्कृति के स्तरों से मिले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दक्षिण भारत की नव पाषाण काल की संस्कृति के सम्पर्क के फस्वरूप यह परिवर्तन आया होगा। मालवा संस्कृति के सन्दर्भ में केवल बच्चों के दफनाने के साक्ष्य मिले हैं। वयस्क लोगों के शव-विसर्जन के विषय में अभीतक साक्ष्य नहीं मिले हैं। इनामगाँव से 23 तथा दायमाबाद से 16 शवाधान मिले हैं। बच्चों को दफनाने के लिए मिट्टी के बने दो अन्त्येष्टि कलश उपयोग किये जाते थे जिनमें शव को रखकर कलशों के मुख से मुख जोड़ दिये जाते थे। इनामगाँव से 15 ऐसे उदाहरण मिले हैं। शेष 7 को एक-एक घड़ों में भरकर गड्ढे में सिर उत्तर की ओर तथा पैर दक्षिण की ओर करके दफनाया गया था। अन्त्येष्टि सामग्री के रूप में गड्ढे में मिट्टी के कटोरे तथा टोंटीदार पात्र रखे हुए मिले हैं जिनमें खाद्य तथा पेय पदार्थ रखे गये रहे होंगे।

कालानुक्रम-

मालवा संस्कृति के कालानुक्रम-निर्धारण के लिए सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों प्रकार के साक्ष्य प्राप्त हैं। कार्यथा के उत्खनन से ज्ञात हुआ है कि मालवा संस्कृति का विकास अहाड़ संस्कृति के बाद हुआ। महाराष्ट्र प्रान्त के दायमाबाद तथा इनामगाँव नामक पुरास्थलों के उत्खनन से उपल साध्या से यह इंगित होता है कि मालवा संस्कृति जोर्वे से पहले विकसित हुई। प्रारम्भ में एच० डी० सांकलिया ने पुरातात्त्विक प्रमाणों के आधार पर मालवा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति का समय 1,000 ई०पू० से 500 ई०पू० के मध्य आँका था। कालान्तर में उन्होंने इसको 1200 ई०पू० से 700 ई०पू० के बीच में रखने का आग्रह किया।

कायथा, नवदाटोली, एरण तथा इनामगाँव से अनेक रेडियो कार्बन तिथियाँ उपलब्ध हैं जिनके आधार पर नवदाटोली का मालवा ताम्र-पाषाणिक संस्कृति का कालानुक्रम प्रस्तावित किया जा सकता है। नवदाटोली नामक पुरास्थल के ताम्र पाषाणिक काल के स्तरों से आठ रेडियो कार्बन तिथियाँ प्राप्त हैं जिनमें से अधिकांश 1600 ई०पू० के आस-पास हैं। यदि इनमें एक मानक विचलन जोड़ दिया जाये तो मालवा संस्कृति के आरम्भ की तिथि 1700 ई०पू० प्रस्तावित की जा सकती है। इस प्रकार उपलब्ध साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में मालवा संस्कृति का समय 1700 ई०पू० से लेकर 1200 ई०पू० के मध्य में माना जा सकता है।

मालवा संस्कृति का उद्भव-

मालवा संस्कृति के निर्माता कौन थे? यह एक उलझा हुआ प्रश्न है। इस संस्कृति के अधिकांश पुरास्थलों से मानव कंकाल नहीं मिले हैं इसलिए इसके निर्माताओं की शारीरिक बनावट के विषय में हमें कोई जानकारी नहीं है। एच०डी०सांकलिया ने मालवा संस्कृति के कतिपय पात्र प्रकारों के समरूप पश्चिमी एशिया के पुरास्थलों पर खोज निकाले हैं। नवदाटोली के टोंटीदार मृद्भाण्डों से मिलते-जुलते टोंटीदार पात्र स्याल्क ‘ब’, गियान के प्रथम काल’ तथा हिसार के तृतीय ‘अ’ काल से प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार साधार कटोरों पर भी ईरान के मृद्भाण्डों का प्रभाव स्वीकार किया गया है। सांकलिया नवदाटोली के कतिपय पात्र-प्रकारों पर सामूहिक मानव-नृत्य के दृश्य को भी पश्चिमी एशिया से अनुप्राणित मानते हैं। इनके अनुसार इस तरह के उदाहरण ईरान के स्याल्क ‘ब’ एवं चगर बाजार नामक पुरास्थलों से प्राप्त पात्रों पर मिलते हैं। इस आधार पर मालवा संस्कृति के उद्भव के लिए पश्चिमी एशिया की संस्कृति को उत्तरदायी माना जा सकता है। एस०आर०राव तथा स्वराज्य प्रकाश गुप्त आदि कतिपय पुरातत्त्ववेत्ता इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं। ईरान में टोंटीदार बर्तनों की तिथि 900 ई०पू० से पहले की नहीं है। ईरान में इन मृद्भाण्डों के साथ लोहे के उपकरण प्राप्त हुए हैं, जबकि मालवा की संस्कृति ताम्र-पाषाणिक है और मालवा में यह संस्कृति 900 ई०पू० के पहले ही समाप्त हो चुकी थी। दूसरी कठिनाई यह है कि मालवा संस्कृति में टोंटीदार बर्तन उसके प्रारम्भिक स्तरों से नहीं बल्कि तृतीय चरण से मिलते हैं, उस समय तक मालवा संस्कृति शताब्दियों पुरानी हो चुकी थी। कतिपय पुराविदों की यह मान्यता है कि प्राचीन भारत में साधार कटोरों की एक लम्बी परम्परा मिलती

् है। राजस्थान में कालीबंगा के ‘प्रथम काल’ तथा सिन्ध में चान्हुदड़ों के झूकर काल के स्तरों से इस तरह के पात्रों के उदाहरण मिलते हैं। अगर हम यह मान भी लें कि मालवा संस्कृति के लोग पश्चिमी एशिया से यहां आए, तो ऐसी स्थिति में मालवा के उत्तर-पश्चिम में ऐसे पुरास्थलों का मिलना आवश्यक है जहाँ से इस संस्कृति के पुरावशेष प्राप्त हो सकें। अभी तक ऐसे साक्ष्य नहीं मिले हैं।

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Pankaja Singh

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