इतिहास

सिन्धु सभ्यता का विस्तार | सिन्धु सभ्यता की नगर योजना

सिन्धु सभ्यता का विस्तार | सिन्धु सभ्यता की नगर योजना

सिन्धु सभ्यता का विस्तार

परिचय- भारतीय पुरातत्व विभाग के डाइरेक्टर जनरल सर जान मार्शल ने 1924 में सिन्धु घाटी की एक नवीन खोज एवं घोषणा कर विद्वत्-जगत में हलचल मचा दी। सर मार्शल ने1921 से 1927 तक अपने साथियों के साथ मोहनजोदड़ो में खुदाई का काम किया। सर मार्शल ने सिन्धु-सभ्यता के सम्बन्ध में तीन महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी लिखे। 1927 से 1931 तक जे० एच० मैके ने इस क्षेत्र में खुदाई का कार्य किया। जी० एफ० डेल्स ने भी 1963 में इस स्थान पर कुछ कार्य किया। मोहनजोदड़ो (मृतकों की टीला) सिन्धु में लरकाना जिले के एक मैदान में एक ऊँचे टीले का स्थानीय नाम है तथा कराची से लगभग 300 मील उत्तर में स्थित है। सर मार्शल व मैके के अतिरिक्त जिन अन्य लोगों ने सिन्धु-सभ्यता के अवशेषों की खोज में योगदान दिया, उनमें प्रमुख हैं– डॉ० मोर्टीमर व्हीलर, श्री राखालदास बनर्जी, श्री दयाराम साहनी आदि।

सिन्धु सभ्यता का विस्तार

(Extent of the Indus Valley Civilization)

मोहनजोदड़ो- मोहनजोदड़ो, जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है तथा हड़प्पा में की गई खुदाई ने ही सिन्धु सभ्यता पर सर्वप्रथम प्रकाश डाला। यह विश्वास किया जाता है कि मोहनजोदड़ो 5,000 वर्ष पूर्व एक बड़ा नगर था, जो कम से कम सात बार उजड़ा और सात बार पुनः बसा । यद्यपि सातों तहों को खोद लिया गया है, किन्तु मोर्टीमर व्हीलर का विश्वास है कि इससे भी अधिक सभ्यताओं के प्रमाण इसके नीचे हो सकते हैं। आज यह नगर दो टीलों पर स्थित है, जिनमें से एक1300 गज लम्बा व 600 गज चौड़ा है तथा दूसरा 400 गज लम्बा व 300 गज चौड़ा है। सम्भव है कि पुनर्निर्माण से काफी समय पहले तक यह नगर खण्डहर रहा हो और अन्तिम रूप से उजड़े हुए भी अनेक शताब्दियाँ बीत गई हों।

हड़प्पा- जिन दिनों मोहनजोदड़ो की खुदाई का काम शुरू हुआ, लगभग उसी समय हड़प्पा में खुदाई का काम शुरू हुआ। हड़प्पा मोन्टगुमरी जिले में, रावी के किनारे लाहौर से लगभग 100 मील दूर स्थित है। हड़प्पा में मिली वस्तुओं का उल्लेख जनरल कर्निघम ने किया और ठेकेदारों ने इस स्थान से खोदे गये पत्थरों का प्रयोग इस क्षेत्र से गुजरने वाली रेलवे लाइन में किया। अनुमान है कि यह नगर मोहनजोदड़ो से बड़ा था किन्तु इसकी ठीक प्रकार से देखरेख नहीं हो सकी और ठेकेदारों तथा अन्य लोगों ने इसे आंशिक रूप से नष्ट कर दिया।

सिन्धु के अन्य स्थान- मोहनजोदड़ो से लगभग 80 मील दक्षिण तथा जमाल किरियों गाँव के दक्षिण में आधे मील पर तीन समीपवर्ती टीले हैं, जिन्हें चन्हूदड़ो कहते हैं। इसकी खोज 1931 में हुई। यहां हड़प्पा से मिलती-जुलती कुछ वस्तुएं मिली हैं। तीन मकानों की हडप्पा सभ्यता से सम्बद्ध परतें यहाँ मिली हैं। झुकर एवं झांगर में भी सिन्धु-सभ्यता के अवशेष मिले हैं।

1953 से एवं 1957 में फजल अहमद खां ने कोट दीजी में खुदाई करवाई तथा यहाँ से सिन्धु-सभ्यता के अवशेष प्राप्त किये। यह स्थान मोहनजोदड़ो के पूर्व में लगभग 40 मीटर की दूरी पर स्थित है।

बलूचिस्तान- बलूचिस्तान में सिन्धु सभ्यता के अवशेष सोत्काकोह, सुत्कागेन्डोर तथा डाबरकोट से प्राप्त हुए हैं।

पूर्वी पंजाब- अम्बाला जिले में रोपड़ नामक स्थान पर भारतीय पुरातत्व विभाग ने खुदाई की। यहाँ हड़प्पा से मिलती-जुलती वस्तुएँ प्राप्त हुई। 1970 में चण्डीगढ़ में की गई खुदाई में चार मनुष्य के ढांचे और कुछ बर्तन मिले। ऐसा विश्वास है कि यहाँ पाई जाने वाली सभी खोपड़ियाँ उत्तर की ओर संकेत करती हैं और ढाँचे सुव्यवस्थित रीति से रखे गये हैं। ये राजस्थान में कालीबंगा, हड़प्पा और रोपड़ के कब्रिस्तानों से मिले हैं। पंजाब के लुधियाना जिले में स्थित संघोल से मनके, चूड़ियाँ, बाली आदि प्राप्त हुए हैं।

हरियाणा- के बरावली तथा मीत्ताथल नामक स्थानों से सिन्धु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

उत्तर प्रदेश- उत्तर प्रदेश में सिन्धु सभ्यता के अवशेष मेरठ से लगभग 30 किलोमीटर दूर आलमगीरपुर तथा इलाहाबाद से 56 किमी० दूर कौशाम्बी से प्राप्त हुए हैं।

सौराष्ट्र- सौराष्ट्र में रंगपुर और लोथल में भी सिन्धु-सभ्यता के अवशेष मिले हैं। रंगपुर में तांबे के कुल्हाड़े, मटके और बहुत-से मिट्टी के बर्तन मिले हैं। रंगपुर और हड़प्पा की नालियों की बनावट में भी समानता है। यह विश्वास किया जाता है कि रंगपुर की खुदाई हड़प्पा सभ्यता और बुद्ध काल की कमी को पूरा करती है। लोथल में एक भट्टे से सिन्धी अक्षरों में अंकित 107 मोहरें मिली हैं। इनके अतिरिक्त सोने के मनके, मूल्यवान पत्थर, मछली फंसाने की बंशी, तीरों के तांबे के सिर, टेराकोटा के पशुओं की मूर्तियाँ व खिलौने, चार्ट फलक; हाथी-दाँत की वस्तुएँ घरेलू तथा अन्त्येष्टि-क्रिया में काम आने वाले बर्तन आदि मिले हैं।

राजस्थान- 1961 और 1969 के बीच श्री बी० बी० लाल और बी० के० थापर ने राजस्थान में कालीबंगा पर खुदाई करवाई। कालीबंगा सरस्वती नदी के किनारे पर स्थित है वहां दो टीले हैं। कालीबंगा से सिन्धु सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

निष्कर्ष- इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सिन्धु सभ्यता केवल सिन्धु नदी की घाटी तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि उसके क्षेत्र के अन्तर्गत बलूचिस्तान, उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रान्त, पंजाब, सौराष्ट्र का अधिकांश भाग राजस्थान, गंगा घाटी का उत्तरी भाग आदि समाविष्ट थे। इस सभ्यता के प्रमुख केन्द्रों में दबार कोट पेरियानी घुण्डई, कुल्ली, मैही, चंहूदड़ों, अमरी, लोहुमजोदड़ो, अली मुराद, रोपड़, रंगपुर और सुत्कगेन्डोर उल्लेखनीय हैं। डॉ० आर० सी० मजूमदार के मतानुसार, “इस सभ्यता का विस्तार दक्षिण में हैदराबाद से लेकर उत्तर में जैकोबाबाद तक था। अनेक विद्वानों का अनुमान है कि सिंधु-सभ्यता के अन्तर्गत इस विशाल प्रदेश का शासन दो राजधानियों से होता था। पंजाब में स्थित हड़प्पा उत्तर प्रदेश की राजधानी थी और सिन्ध में स्थित मोहनजोदड़ो दक्षिण प्रदेश की।’ प्रो० आर० एन० राव के अनुसार सिन्धु सभ्यता का विस्तार पूर्व से पश्चिम में 1600 किलोमीटर व उत्तर से दक्षिण में 1100 किलोमीटर के क्षेत्र में था। डॉ. राजबली पाण्डेय का कथन है कि “सिन्धु सभ्यता पूर्व में काठियावाड़ से प्रारम्भ होकर पश्चिम में मकराना तक फैली हुई थी।”

नगर योजना (Town Planning)

सिन्धु सभ्यता की नगर योजना का वर्णन निम्न बिन्दुओं में स्पष्ट किया गया है-

  1. नगर- सिन्धु प्रदेश के प्रमुख नगर नदियों के तट पर बसे हुए थे। इस योजना में जहाँ अनेक प्रकार के लाभ थे, वहाँ पर बड़ी हानि भी थी कि इस प्रदेश की नदियाँ समय-समय पर अपना मार्ग बदलकर बाढ़ों द्वारा नगरों को पूर्ण या आंशिक रूप से नष्ट कर देती थीं। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा किसी समय सिन्धु और रावी के तट पर बसे हुए थे। सिन्धु प्रदेश के प्रायः सभी बड़े-बड़े नगरों का निर्माण एक निश्चित योजना के आधार पर हुआ था। इस योजना के अन्तर्गत, सड़कें पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण की ओर जाती थीं। इस प्रकार प्रत्येक नगर कई खण्डों में विभक्त हो जाता था। प्रत्येक खण्ड प्रायः 800×1200′ के माप का होता था। सड़कें प्रायः सीधी होती थीं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई आगे बढ़ती थीं। मोहनजोदड़ो में उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाला राजपथ कहीं-कहीं पर 33 फीट चौड़ा था। सभी सड़कें मिट्टी द्वारा निर्मित थीं और उनकी सफाई का बहुत ध्यान रखा जाता था। इसके किनारे स्थान-स्थान पर कूड़ा-करकट डालने के लिए मिट्टी के पात्र रखे जाते थे। कहीं-कहीं इसके लिए गड्ढों की भी व्यवस्था थी। मोहनजोदड़ो में एक सड़क के दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे चबूतरे बने हुए मिले हैं जो सम्भवतः दुकानदारों द्वारा काम में लाये जाते थे। कहीं-कहीं सड़कों के किनारे भोजनालय भी स्थित थे।
  2. नालियाँ – प्रायः प्रत्येक सड़क और गली के दोनों ओर पक्की नालियाँ बनाई गई थीं। चौड़ी नालियों की पटान के लिए कहीं-कहीं ईंटों या पत्थरों का प्रयोग किया गया था। मकानों से आने वाली नालियाँ या परनाले सड़क या गली की नालियों में मिल जाते थे, ऐसी योजना के द्वारा घर और नगर स्वच्छ रहता था। समय-समय पर इन नालियों को साफ किया जाता था। कहीं-कहीं लम्बी नालियों के बीच में गड्ढे बना दिये जाते थे, जिनमें कूड़ा-कंरकट जमा हो जाता था और नालियों का प्रवाह अबाध बहता था। गोर्डन चाइल्ड के अनुसार, “सिन्धु प्रदेश की इस योजना को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ के प्रत्येक नगर में कोई-न-कोई स्थानीय सरकार अवश्य कार्य करती रही होगी।”
  3. कुएँ- मोहनजोदड़ो में कुएँ पाए गए हैं, किन्तु हड़प्पा में वे नहीं मिले हैं। ये कुएं उस समय के निर्माताओं की शिल्पीय कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। इन कुओं की मुँडेर फर्श से कुछ ही इंच ऊंची है, जिससे उनमें गिरने का भय बना रहता होगा।
  4. भवन- मोहनजोदड़ो एक योजना के अन्तर्गत बनाया हुआ नगर प्रतीत होता है। सिन्धु घाटी के लोगों के मकान प्रायः पक्की ईंटों के बने होते थे। सिन्धु घाटी की खुदाई में छोटे-बड़े दोनों प्रकार के मकान मिले हैं। छोटे मकानों में चार-पांच कमरे होते थे तथा बड़े मकानों में अनेक कमरे होते थे। मकान प्रायः दो मंजिले होते थे। छतों अथवा दुमंजिले पर जाने के लिए मकानों में सीढियाँ होती थीं। प्रायः मकानों में रसोईघर, स्नान घर, आंगन, शौचगृह, दरवाजों, खिड़कियों, रोशनदानों आदि की व्यवस्था रहती थी। मकानों के दरवाजे और खिड़कियाँ मुख्य सड़क की ओर न खुलकर गलियों की ओर खुलते थे। छतों के ऊपर का पानी निकालने के लिए मिट्टी अथवा लकड़ी के परनाले होते थे। प्रायः मकानों में कुएँ भी होते थे।

फर्श आदि बिछाने के लिए ईंटों का प्रयोग किया जाता था। ईंटें सीधी सतर होती थीं। उनको रगड़ कर साफ कर दिया जाता था। स्नानागार का फर्श ऐसा बनाया जाता था जिसमें पानी की बूंद तक न समा सके। कुछ इटें ‘एल’ अक्षर के आकार की मिली हैं, जिनका प्रयोग सम्भवतः कोण बनाने के लिए किया जाता था। गारे का प्रयोग भी किया जाता था। खडिया मिट्टी और गारे का प्रयोग पलस्तर करने के लिए किया जाता था। प्रायः पक्की ईंटों का ही प्रयोग होता था। नालियों के निर्माण में चूने और खड़िया मिट्टी का प्रयोग होता था। डॉ. राजबली पाण्डेय के मतानुसार सब मकानों को चार भागों में बाँटा जा सकता है- (i) नागरिकों के रहने के मकान, (ii) सार्वजनिक भवन, (iii) सार्वजनिक स्थान व कुण्ड तथा (iv) मन्दिर एवं धर्म स्थान ।

  1. स्नानागार- मोहनजोदड़ो के प्रत्येक घर में एक या उससे अधिक स्नानागार मिले हैं। . ये पक्की ईंटों द्वारा निर्मित हैं तथा इनका सम्बन्ध सीधी नालियों से है। स्नानागार वर्गाकार भी हैं और आयताकार भी। उनका फर्श ढलवाँ बना हुआ और पानी निकलने की मोरी की ओर झुका हुआ है।

मोहनजोदड़ो का “विशाल सार्वजनिक स्नानागार’ विशेष रूप से देखने योग्य है। यह चौरस है तथा इसके चारों ओर बरामदें हैं जिनके पीछे कमरे और रास्ते हैं। यह स्नानागार भी ईंटों का बना हुआ है। तैरने के लिए तालाब और बड़े-बड़े कुएँ भी हैं जिनसे पानी लेकर सम्भवतः तालाब को भरा जाता था। यह तालाब 39 फीट लम्बा, 23 फीट चौड़ा और 8 फीट गहरा है। इसके ऊपर लकड़ी की बनी एक और मंजिल भी है। कुण्ड के प्रत्येक कोने में एक सीढ़ी है तथा इसके किनारे सुन्दर ईंटों के बने हैं। ये 4 फीट मोटे हैं और ईंटें खड़िया मिट्टी के साथ लगाई गई हैं। नमी को रोकने के लिए एक इंच मोटे राल के पलस्तर का प्रयोग किया गया है। उसे सुस्थिर करने के लिए भीतरी भाग में पक्की ईंटों की ओर और पतली तह चढ़ा दी गई है। इसके बाद फिर एक कच्ची ईंटों की और एक पक्की ईंटों की परत चढ़ी है। स्नान कुंड का पानी निकालने के लिए कुंड के दक्षिणी भाग में एक मोरी बनी हुई है। मोरी का पानी बाहर बनी हुई एक नाली में गिरता था। स्नान कुंड के निकट ही एक कुआं है जिससे स्नान कुंड में पानी भरा जाता था। इस स्नान कुंड के साथ एक हमाम (स्नानघर) भी बना हुआ है जिसमें शायद स्नान के लिए गर्म पानी की व्यवस्था थी।

  1. विशेष भवन- सिन्धु प्रदेश की खुदाई में सार्वजनिक महत्त्व के कुछ विशेष भवन भी मिले हैं। मोहनजोदड़ो में एक विशाल भवन के अवशेष मिले हैं जो 242 फीट लम्बा तथा 112 फीट चौडा है। व्हीलर महोदय ने इसे सार्वजनिक सभा भवन की संज्ञा दी है। मोहनजोदडो के उत्तर पूर्व में एक विशाल भवन मिला है जो 230 फीट लम्बा तथा 78 फीट चौड़ा था। इसके भीतर एक आंगन था जो33 फीट लम्बा और इतना ही चौड़ा था। मोहनजोदड़ो के स्नानकुंड के समीप एक 80 फीट लम्बा तथा 80 फीट चौड़ा भवन मिला है। इसकी छत 20 स्तम्भों के ऊपर टिकी हुई थी।
  2. भण्डारागार- हड़प्पा में कुछ भण्डारागार भी पाये गये हैं, जो 6-6 की पंक्तियों में निर्मित किये गये थे। दोनों पंक्तियों के बीच 13 फुट चौड़ा एक मार्ग था, इस मार्ग के दोनों ओर 4-4 फीट ऊँची एक-एक पीठिका बनाई गई थी। इन्हीं पीठिकाओं के ऊपरी मार्ग के दोनों ओर 6-6 भवनों की दो पंक्तियाँ बनी थीं। प्रत्येक भण्डारागार लगभग 50 फीट लम्बा और 20 फीट चौड़ा था। इन भंडारागारों का प्रमुख प्रवेश द्वार नदी की ओर था। सम्भवतः नदी मार्ग से ही भंडारागारों की सामग्री आती-जाती थी। कदाचित् ये भंडारागार राजकीय थे, यहाँ राज्य की ओर से अन्नादि संग्रहित होता रहा होगा और आवश्यकतानुसार जनता में वितरित किया जाता रहा होगा। इस प्रकार के भंडारागार मेसोपोटामिया के नगरों में भी थे। उस समय क्रय-विक्रय का साधन अन्न ही था। अतः अन्न भंडारागार राजकोष के रूप में भी काम करते थे।
  3. विविध- इन भण्डारागारों से लगभग 100 गज दक्षिण में ईंटों के बने अनेक गोलाकार चबूतरे मिले हैं। प्रत्येक चबूतरे का व्यास लगभग 11 फीट होता था। उनके बीच में एक छेद होता था। इस छेद में एक लकड़ी लगी रहती थी और इस प्रकार से इन चबूतरों से अन्न पीसा जाता रहा होगा। एक चबूतरे के छेद के भीतर गेहूँ और जौ के कुछ अंश मिले हैं।
  4. श्रमजीवियों के निवास- इन चबूतरों के दक्षिण में अनेक भवनों के ध्वंसावशेष भी मिले हैं। विद्वानों का मत है कि ये भवन श्रमजीवियों के निवास स्थान थे। इन्हीं निवास स्थानों के निकट कुछ भट्टियाँ भी मिली हैं जिनमें धातुयें गलाई जाती होंगी।

हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की एक-एक गढ़ी के ध्वंसावशेष भी मिले हैं। हड़प्पा की गढ़ी लगभग समान्तर चतुर्भुज के आकार की थी, जो उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग 460 गज लम्बी और पूर्व से पश्चिम की ओर 215 गज चौड़ी थी। गढ़ी के भीतरी भागों का निर्माण 20-25 फीट ऊँची एक पीठिका के ऊपर हुआ था। वह गढ़ी कच्ची ईंटों की बनी थी। गढी की बाहरी दीवार पर स्थान-स्थान पर मीनारों व द्वारों का निर्माण किया गया था। मोहनजोदड़ों की गढी 20 फीट से लेकर 40 फीट ऊँची एक कृत्रिम पहाड़ी पर बनाई गई थी। बाढ़ से रक्षा के लिए इस गढ़ी के चतुर्दिक भी 43 फीट चौड़ा एक बाँध बना दिया गया था। गढ़ी के दक्षिण-पूर्व में तथा पश्चिम में पक्की ईंटों की बनी मीनारों के ध्वंसावशेष भी मिले हैं।

निष्कर्ष- इस प्रकार हम देखते हैं कि सिन्धु प्रदेश में नगर-योजना उन्नत कोटि की थी। नगरों का निर्माण योजना के अनुसार किया जाता था तथा भवनों का निर्माण भी कुछ राजकीय आदेशों के अनुसार होता था। योजनानुसार बनाई गई गलियाँ, नालियाँ और उनकी समय-समय पर सफाई इस बात का प्रमाण हैं कि नगरों की स्थानीय सरकारें इस ओर काफी ध्यान देती थीं। इन सरकारों का नियम व उपनियमों का पालन करवाने का नियन्त्रण अवश्य प्रभावकारी होगा। सिन्धु प्रदेश के नगर, भवन; कुएँ, स्नानागार, भण्डारागार आदि सभी उन्नत शिल्पकला के नमूने हैं, जिनका प्रभाव सिन्ध व पंजाब में भी दृष्टिगोचर होता है।

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Pankaja Singh

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