इतिहास

सिंध सभ्यता का पतन | सिंधु सभ्यता के पतन के कारण

सिंध सभ्यता का पतन | सिंधु सभ्यता के पतन के कारण

सिंध सभ्यता का पतन (Decline of the Indus Civilization)

हडप्पा सभ्यता अपने विकसित स्वरूप में करीब 600 वर्षों (2300-1750) तक चलती रही 1700 ई०पू० के आसपास इस सभ्यता के पतन के लक्षण स्पष्ट तौर पर दिखाई देने लगते हैं। इस सभ्यता के दो प्रमुख केंद्र हड़प्पा और मोहनजोदड़ो इस समय तक नष्ट हो चुके थे। दोनों केंद्रों में नगर-निर्माण व्यवस्था ढीली पड़ चुकी थी, भवनों का निर्माण बिना किसी योजना के हो रहा था। पुराने भवन खंडहर बन चुके थे। सड़कों एवं नालियों की व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी। नए प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का व्यवहार आरंभ हो गया था। इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि उन्नत हड़प्पा सभ्यता अब पतन के मार्ग पर बढ़ चली थी। इसका नागरिक स्वरूप नष्ट हो चुका था। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के अतिरिक्त अन्य अनेक हड़प्पाकालीन स्थलों से जो प्रमाण मिले हैं उनसे यह आभास मिलता है कि यह सभ्यता पतनोन्मुखी स्वरूप में कुछ और अधिक दिनों तक बनी रही परन्तु इसकी विशिष्टता तथा इसकी प्राचीन गरिमा नष्ट हो चुकी थी। हडप्पा सभ्यता के पतन के लिए अनेक कारण सुझाए गए हैं। इन कारणों में प्रमुख हैं विदेशी आक्रमण, सभ्यता के स्वरूप में परिवर्तन, भौगोलिक एवं प्राकृतिक कारण, अर्थव्यवस्था में परिवर्तन इत्यादि। यहाँ हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि इनमें मात्र किसी एक कारण के परिणामस्वरूप इतनी विकसित सभ्यता का अंत अथवा पतन नहीं हुआ। इसी प्रकार कोई एक कारण समान रूप से समस्त सभ्यता के अंत के लिए उत्तरदायी नहीं थी बल्कि विभिन्न हड़प्पा नगरों के पतन में भिन्न-भिन्न कारणों का योगदान रहा है। हड़प्पा सभ्यता के पतन के लिए मुख्यतः निम्नलिखित कारण उत्तरदायी माने जाते हैं-

विदेशी आक्रमण-

अनेक विद्वानों का मानना है कि हड़प्पा सभ्यता का विनाश बाहरी आक्रमण के कारण हुआ। गॅर्डन चाइल्ड, ह्वीलर, स्टुअर्ट पिगॅट इत्यादि अनेक पाश्चात्य विद्वानों की धारणा थी कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो का विनाश आर्य आक्रमणकारियों द्वारा किया गया। इस तर्क का आधार साहित्यिक एवं पुतात्तात्विक साक्ष्य हैं। व्हीलर महोदय का मानना है कि ऋग्वेद में इन्द्र (पुरंदर) द्वारा नष्ट किए गए अनार्यों के अनेक घेराबंद दुर्गों अथवा पुरों का जो उल्लेख मिलता है वे दुर्ग वस्तुतः हडप्पा के नगर ही थे। ऋग्वेद में इंद्र से प्रार्थना की जाती है कि वे आर्यों के शत्रुओं के दुर्ग को नष्ट कर दें। इंद्र द्वारा नष्ट किए गए अनेक पुरों के नाम भी मिलते हैं, जैसे, हरियुपिय, वैलाशथानक, महावैलास्थ इत्यादि। इनमें हरियुपिय की पहचान सामान्यतः हड़प्पा से विद्वानों ने की। [आर्यों के आक्रमण की धारणा की पुष्टि के लिए मोहनजोदड़ो से प्राप्त नरकंकालों का उल्लेख किया जाता है। यहाँ से करीब 38 नरकंकाल उत्खननों के दौरान मिले थे। इनमें स्त्री, पुरुष एवं बच्चों के कंकाल हैं। कुछ कंकालों पर पैने अस्त्र के घाव के निशान दिखाई देते हैं। कुछ कंकाल गहने पहने हुए थे। ये नरकंकाल कुछ तो समूहों में मिले हैं तो कुछ इर्द-गिर्द बिखरे हुए। कुछ सीढ़ियों पर, कुछ कमरों में और कुछ मकान के बाहर पाये गये हैं। शवों शवों को ढंकने का प्रयास नहीं किया। गया था, उन्हें खुला ही छोड़ दिया गया था। इन नरकंकालों की प्राप्ति के आधार पर ह्वीलर का सुझाव है कि किसी बड़े आक्रमण में ये लोग मारे गए तथा नरसंहार के बाद बस्ती उजड़ गई तथा लोगों को शव-विसर्जन करने अथवा गहने लेने का भी समय नहीं मिला। सारे प्रमाण इंगित करते हैं कि 1700 ई० पू० के आसपास मोहनजोदड़ो पर अचानक आक्रमण हुआ जिससे नगर नष्ट हो गया। इन आक्रमणकारियों को ऋग्वेद के आधार पर आर्य माना गया है। इस संदर्भ में अन्य महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह है कि हिक्सॅस आक्रमण के बाद इसी समय ईरान में आर्यों का पदार्पण हुआ। ईरान के बढ़ते हुए आर्य भारत आए और सप्त सैन्धव प्रदेश में बसे जहाँ उनका सिंधुवासियों से संघर्ष हुआ। घोड़े और रथ के व्यवहार द्वारा वे सिंधु सभ्यतावालों पर आसानी से विजय प्राप्त कर सके तथा उनके दुर्गों को नष्ट कर दिया। उत्तरकालीन हड़प्पा अवस्था में नए लोगों के आक्रमण का प्रमाण नए प्रकार के मिट्टी के बर्तनों एवं हथियारों से भी मिलता है। इन नए आगंतुकों की पहचान आर्यों से की गई है।

अनेक आधुनिक विद्वान इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं कि आर्यों के आक्रमण ने सिंधु सभ्यता को नष्ट किया। प्रो० रामशरण शर्मा का मानना है कि नए आक्रमणकारी इतनी बड़ी संख्या में नहीं आए थे कि वे सिंधु घाटी की उन्नत और विकसित सभ्यता को पूरी तरह नष्ट कर दें। इसके साथ-साथ यह तथ्य भी विचारणीय है कि सिंधु निवासियों और आर्यों के बीच किसी बड़े संघर्ष का प्रमाण नहीं मिलता ऋग्वेद जिसकी तिथि ही अनिश्चित है उसके विवरण पर अनावश्यक बल दिया गया है। जॉर्ज डेल्स के अनुसार ऋग्वेद में वर्णित आर्य आक्रमण को प्रमाणित करने वाले साक्ष्यों के पुरावशेष उपलब्ध नहीं है। अग्नि से क्षतिग्रस्त दुर्ग, विशाल संख्या में वाणाग्र, कवच, ध्वस्त रथों के अवशेष और बड़ी संख्या में विजितों और विजेताओं के शव नहीं मिलते हैं। मोजनजोदड़ो की अनुमानित जनसंख्या (फेयर सर्विस के अनुसार) 41250 थी। इसमें से मात्र 38 नरकंकाले ऊपरी स्तर से प्राप्त हुए हैं। इनके आधार पर किसी बड़े नरसंहार की कल्पना नहीं की जा सकती। सभी नरकंकालों पर हथियारों के आघात के चिह्न भी नहीं मिलते हैं। प्राप्त सभी नरकंकाल किसी एक ही काल के नहीं हैं। यह संभावना भी व्यक्त कि गई है कि प्राप्त नरकंकाल वैसे लोगों के हैं जिनकी मृत्यु प्लेग जैसी महामारी के दौरान भागने में असमर्थ होने से हुई अथवा आंतरिक अशांति और आपसी संघर्ष के कारण हुई हो। यह भी संभव है कि ये हत्याएँ पर्वतीय प्रदेशों के लुटेरों द्वारा की गई हों जो समय-समय पर पतनोन्मुखी हड़प्पा सभ्यता पर आक्रमण करते रहते थे। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यों का आक्रमण इस सभ्यता के पतन के लिए उत्तरदायी नहीं था। ज्ञात तिथियों के अनुसार हड़प्पा सभ्यता के पतन(1750 ई०पू०) और ऋग्वेदिक सभ्यता (1500 ई०पू०) के मध्य एक लंबा अतंराल है। यह संभव है कि निकटवर्ती क्षेत्र के लुटेरों द्वारा हड़प्पा सभ्यता के नगरों पर आक्रमण किया जाता रहा हो लेकिन इससे पूरी सभ्यता नष्ट नहीं हो सकती थी। वस्तुतः हड़प्पा सभ्यता के पतन के लिए अन्य कारण उत्तरदायी थे। हड़प्पा सभ्यता को नष्ट करने का श्रेय आर्यों को देना उचित नहीं है।

प्राकृतिक कारण- 

हड़प्पा सभ्यता के पतन के लिए अनेक विद्वानों ने प्राकृतिक कारणों को उत्तरदायी माना है। उनका मानना है कि प्राकृतिक प्रकोप अथवा प्रकृतिक प्रक्रिया जैसे बड़े पैमाने पर आग का लगना, भयंकर महामारी, बाढ़ के प्रकोप, नदियों की जलधारा में परिवर्तन, विवर्तनिक हलचलों, आर्द्रता का हास और भूमि की शुष्कता का विस्तार, जंगलों का नष्ट होना इत्यादि ऐसे कारण थे जिनका सैंधव सभ्यता के अस्तित्व पर गहरा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। मानवीय प्रयासों ने भी प्राकृतिक परिवर्तनों को प्रभावित किया। फलतः हड़प्पा सभ्यता अपना मूल स्वरूप और आर्थिक आधार खो बैठी। इस परिस्थिति में इस नागरी सभ्यता का बने रहना असंभव था। प्राकृतिक कारणों, जिन्होंने हड़प्पा सभ्यता के पतन में योगदान दिया उनमें निम्नलिखित कारण प्रमुख थे-

(क) बाढ़ का प्रकोप- सिंधु सभ्यता के विनाश में नदियों में प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस सभ्यता के केंद्र नदियों के किनारे बसे थे। अतः वार्षिक बाढ़ से सुरक्षा के प्रबंध किए गए थे। बाढ़ से सुरक्षा के लिए भवनों का धरातल बराबर ऊँचा किया जाता था, जैसा कि मोहनजोदडो में; लेकिन यह व्यवस्था लंबे समय तक कारगर सिद्ध नहीं हो सकी होगी। यह सत्य है कि सिंधु एवं अन्य नदियों की वार्षिक बाढ़ से नगर पूरी तरह नष्ट नहीं हुए हों परंतु बार-बार आने वाली बाढ़ से सामान्य जीवन एवं अर्थव्यवस्था पर बुरा असर अवश्य पड़ा होगा। इस परिस्थिति में अनेक लोग नगरों को छोड़कर दूसरी जगह चले गए होंगे। हड़प्पा सभ्यता के अनेक नगरों में बाढ़ आने का पुरातात्विक साक्ष्य भी उपलब्ध है। मोहनजोदड़ो, चन्हूदड़ो, लोथल के उत्खननों से बालू के सतह मिले हैं जो इन स्थानों पर बाढ़ के प्रकोप की पुष्टि करते हैं। के कारण खेती नष्ट हो जाती थी, अर्थव्यवस्था ठप्प पड़ जाती थी और लोगों को बाध्य होकर अन्य स्थानों पर जाना पड़ता था। मैके और राव के अनुसार चन्हूदड़ो और लोथल के नष्ट होने का प्रमुख कारण बाढ़ ही था। राव के अनुसार सिंधु घाटी से सिंधु सभ्यता के लोग घग्गर घाटी और सतलज की ओर गए। उनके अनुसार रोपड़ और सतलज के निकट की कुछ अन्य बस्तियों की स्थापना इन्हीं विस्थापितों ने की थी।

(ख) जलधारा में परिवर्तन- हडप्पा संस्कृति के नगरों के पतन में जलधारा के परिवर्तन का भी योगदान था। यह एक प्राकृतिक नियम है कि नदियों की जलधारा में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रक्रिया के.परिणामस्वरूप अनेक वैसे नगर जो आरंभ में नदियों के किनारे बसे हुए थे बाद में नदी से दूर हो गए। परिणामस्वरूप उनकी अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन पर प्रतिकूल असर पड़ा। वैसे नगर अपना आर्थिक महत्त्व खोने लगे। सिंधु नदी के मार्ग बदलने के अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं। एम० एस० वत्स का तो यहाँ तक मानना है कि रावी नदी की धारा में परिवर्तन ही हड़प्पा के पतन का प्रमुख कारण है। यह ध्यान देने योग्य है कि हड़प्पा सभ्यता के दौरान हड़प्पा रावी नदी के किनारे अवस्थित था, परंतु आज यह नदी हड़प्पा से करीब 6 मील दूर है। डेल्स महोदय ने सुझाव दिया है कि घग्गर क्षेत्र नदी की धारा में परिवर्तन के कारण इस क्षेत्र की अनेक बस्तियाँ उजड़ गईं। कालीबंगा के पतन के लिए भी नदियों के मार्ग-परिवर्तन को उत्तरदायी माना गया है। नदियों के मार्ग परिवर्तन से यातायात और व्यापार तथा नगरों की समृद्धि पर प्रतिकूल असर पड़ा। इसी प्रकार पुरातात्विक प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि सुत्कगेंडोर, सोत्काकोई और बालाकोट जो पहले मकरान के समुद्रतट पर स्थित थे और जलमार्ग द्वारा व्यापार के प्रमुख केंद्र थे, आज समुद्र से काफी दूर हो गए हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सैंधव सभ्यता के काल में जलधारा में लगातार परिवर्तन हुए जिन्होंने नगरों की समृद्धि पर बुरा प्रभाव डाला।

(ग) बड़े पैमाने पर जलप्लावन- अनेक विद्वानों की मान्यता है कि बाढ़ एवं जलधारा में परिवर्तन के अतिरिक्त हड़प्पा संस्कृति के नगरों के विनाश के लिए बड़े स्तर पर जलप्लावन भी उत्तरदायी था। ऐसा भूमिगत जल स्तर के ऊँचा होने और विवर्तिनिक हलचलों (onous disturbances) के कारण हुआ। नदियों द्वारा लाई गई जलोढ़ मिट्टी के जमाव से नदी तल और इर्द-गिर्द का मैदानी क्षेत्र ऊँचा उठता गया जिससे जलप्लावन अथवा बाढ़ का खतरा बढ़ गया। इसी प्रक्रिया द्वारा समुद्र तट का स्तर भी ऊँचा उठा। हवा द्वारा लाई गई रेत के जमाव से भी जल स्तर के ऊँचा उठने में मदद मिली। ऐसी स्थिति में बड़े क्षेत्र में जल का फैलाव हो गया। यह जल स्थायी रूप से ठहर गया। मोहनजोदड़ो, आमरी एवं अन्य स्थलों से बाढ़ की सतह के अतिरिक्त रुके हुए पानी के स्तर के परिणामस्वरूप बारीक बलुई मिट्टी के स्तर मिले हैं। उत्खननों के आधार पर एम० आर० साहनी ने यह मत व्यक्त किया है कि सिंधु सभ्यता के पतन का मुख्य कारण बाढ़ से भिन्न बड़े पैमाने पर जलप्लावन था जिसमें रहना असंभव हो गया। एक अन्य विद्वान आर० एल० राइक्स ने मत व्यक्त किया है कि विवर्तनिक हलचलों के कारण भूमि का स्तर ऊँचा उठ गया। इसके साथ ही भूकंप भी आया। इस विवर्तनिक का केंद्र मोजनजोदड़ो से कुछ दूर सेहवान था, लेकिन इसका प्रभाव मोहनजोदड़ो तक पड़ा। परिणामस्वरूप मोहनजोदड़ो में सिंधु नदी का पूर्वी बांध नष्ट होकर पानी बहना बंद हो गया। फलतः मोहनजोदड़ो के निकट एक झील-सी बन गई। पानी निकल जाने पर भी कीचड़ और दलदल बना रहा। राइक्स का अनुमान है कि मोहनजोदड़ो में ऐसी स्थिति एक से अधिक बार आई। इसी कारण भवनों के पुनर्निर्माण और जीर्णोद्धार की आवश्यकता पड़ी। इस परिस्थिति का अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, कृषि, व्यापार, उद्योग एवं यातायात का विकास ठप्प पड़ गया। ऐसी स्थिति सिंधुवासियों को बाध्य होकर मोहनजोदड़ो छोड़ना पड़ गया।

लैम्ब्रिक नामक विद्वान राइक्स के तकों से सहमत नहीं है। उनका मानना है कि मोहनजोदड़ो की ऊपरी सतह से प्राप्त गाद झील के निर्माण के कारण जमा नहीं हुई बल्कि कच्ची ईंटों और हवा द्वारा उड़ा कर लाई गई मिट्टी से बनी। उनके अनुसार नदी के मार्ग में परिवर्तन के समय मोहनजोदड़ो के निवासी अस्थायी रूप से नगर से हटकर नदी के बदले मार्ग के निकट रहने लगे होंगे और बाद में परिस्थिति सामान्य होने पर पुनः नगर में वापस आ जाते होंगे। लैम्ब्रिक के इस मत को भी स्वीकार करने में अनेक कठिनाइयाँ हैं। उनकी बात अगर मान भी ली जाए तो भी इससे नागरिकों के जीवन में अस्थायित्व की भावना आई होगी और मोहनजोदडो का अस्तित्व प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ होगा।

(घ) अग्नि का प्रकोप- बड़े पैमाने पर अग्नि के प्रकोप को भी सैन्धव सभ्यता के पतन का कारण माना जाता है। यह अनुमान उत्तरी बलूचिस्तान के कुछ स्थलों, जैसे, राना घुंडई, नाल, डाबरकोट के ऊपरी सतह से राख की परतें पाए जाने पर आधारित हैं। अग्नि किस कारण लगी यह निश्चित करना संभव नहीं है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि यह अग्नि आक्रमणकारियों द्वारा लगाई होगी। अग्निकांड भूकंप का भी प्रभाव हो सकता है। अग्नि जिस कारण भी लगी हो उसमें नगरों को क्षति अवश्य पहुँची होगी भले ही वे पूरी तरह नष्ट नहीं हुए। साथ ही यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि हड़प्पा सभ्यता के अन्य केंद्रों से अग्निकांड के प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। अतः अग्नि से अगर नगरों को क्षति पहुँची भी होगी तो उत्तरी बलूचिस्तान क्षेत्र में ही। अग्नि को संपूर्ण हड़प्पा सभ्यता के पतन के लिए उत्तरदायी मानना कठिन है।

(ड.) महामारी का प्रकोपहड़प्पा सभ्यता के पतन के लिए बड़े पैमाने पर मलेरिया या प्लेग जैसी महामारी का भी उल्लेख किया गया है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि सिंधुघाटी में मलेरिया जैसी महामारी फैल गई जिसमें बड़ी संख्या में लोगों की मृत्युहुई। इसका सभ्यता के विकास पर प्रतिकूल असर पड़ा। अनेक पुरात्तत्ववेत्ताओं ने यह धारणा भी व्यक्त की है कि मलेरिया के कारण हड्डियों का समुचित विकास नहीं हो सका और लोगों का स्वास्थ्य धीरे- धीरे गिरने लगा। गिरते स्वास्थ्य के कारण सिंधु नगरों के निवासी अपनी उन्नत नगरी सभ्यता को बचाए रखने में असमर्थ थे।

(च) भूमि की शुष्कता का बढ़ना- सैंधव सभ्यता के नगरों के पतन का एक प्रमुख कारण सिंधु क्षेत्र की बदलती जलवायु को माना जाता है। यह तर्क दिया जाता है कि जिस तीव्र गति से नगरों का उदय और विस्तार हुआ उसके चलते प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन आया। उदाहरण के लिए ईंटों को पकाने के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों को काट कर लकड़ी एकत्रित की गई। इसी प्रकार मवेशियों, विशेषतया बकरियों के लंबे समय तक चरने से वनस्पति नष्ट हुई और हरियाली समाप्त होने लगी। अत्यधिक अनाज उगाने से भूमि की उर्वरता भी कम हुई। इन सभी कारणों से वातावरण में परिवर्तन आया। इसी समय सिंधु क्षेत्र में मानसून हवा के रुख में भी परिवर्तन हुआ। परिणामस्वरूप वर्षा कम होने लगी, भूमि की आर्द्रता में कमी आई तथा शुष्कता बढ़ गई। नदियों के सूखने से भी, जैसे, सरस्वती नदी क्षेत्र, भूमि की शुष्कता बढ़ी और रेगिस्तानी प्रभाव बढ़ने लगा। गुरुदीप सिंह के अनुसार, “कालीबंगा तथा उत्तर-पश्चिमी भारत के शुष्क अथवा लगभग शुष्क क्षेत्रों में हड़प्पा सभ्यता के विनाश के लिए जलवायु परिवर्तन मुख्य रूप से उत्तरदायी था। सिंधु सभ्यता के परिधीय क्षेत्र, जैसे गुजरात अथवा हिमालय की तलहटी के क्षेत्रों में इस जलवायु परिवर्तन का असर बहुत कम हुआ।”

मानवीय कारण :

बढ़ती जनसंख्या और साधनों की कमी- हम पहले देख चुके हैं कि सैन्धव नगरों का उत्थान विकास की प्रक्रिया के द्वारा हुआ था। समय के साथ-साथ नगरों में बसने वाले लोगों की जनसंख्या में वृद्धि हुई। नगरों की आबादी पूर्ण विकसित काल में पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ गई। इससे प्राकृतिक और आर्थिक साधनों पर दबाव बढ़ने लगा। एक ओर तो जनसंख्या में वृद्धि हो रही थी दूसरी ओर प्राकृतिक साधनों की कमी हो रही थी। रेवेले नामक विद्वान ने अनुसंधानों के आधार पर यह दिखाने का प्रयास किया है कि किस प्रकार प्राकृतिक साधनों पर, जनसंख्या में वृद्धि के कारण दबाव बढ़ता जा रहा था। परिणामस्वरूप आर्थिक स्थिति कमजोर होती गई और नगरों का पतन सुनिश्चित हो गया।

प्रशासनिक शिथिलता- सैंधव, के पतन का एक कारण प्रशासनिक शिथिलता भी थी। व्हीलर महोदय द्वारा मोहनजोदड़ो में किए गए उत्खननों से अंतिम प्रकाल के स्तरों में हास्य के लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट हुए। मकानों की योजना, उनके आकार-प्रकार, दीवारों के निर्माण, चबूतरों के निर्माण में पतन के लक्षण दिखाई देते हैं। भवनों के निर्माण में पुरानी और व्यवहार में लाई गई ईंटों का व्यवहार किया गय था। इसी प्रकार पहले के चित्रित मृदभाण्डों की जगह पर सादे बर्तन बनने लगे। मुहरों के निर्माण में भी गिरावट दिखाई देती है। अब न तो सेलखड़ी की मुहरें ही मिलती हैं और न तो मुहरों पर लिपियाँ, बल्कि सिर्फ ज्यामितिक चित्र ही मिलते हैं। सभी लक्षण, पतन की ओर इंगित करते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रशासनिक संयंत्र ढीला और कमजोर पड़ गया था जो नगर-निर्माण एवं नागरी जीवन की विशिष्टताओं को बनाए रख सके। फलतः मोहनजोदडो में शहरीपन का स्थान क्रमशः देहातीपन ने ले लिया। इस प्रकार के पतन के लक्षण मोजनजोदड़ो के अतिरिक्त लोथल, कालींबंगा इत्यादि स्थलों से भी उपलब्ध हैं।

आर्थिक कारण :

व्यापार में गिरावट- हड़प्पा सभ्यता के पतन के लिए मुख्य रूप से आर्थिक कारण उत्तरदायी थे। विभिन्न कारणों से, जिनका उल्लेख पहले किया गया, हड़प्पा सभ्यता की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाने लगी। कृषि उत्पादन में कमी आयी, उद्योग-धंधों एवं व्यापार में गिरावट आई। सिंधु सभ्यता के अंतिम चरण में विदेशी व्यापार में गिरावट के स्पष्ट प्रमाण दिखाई देते हैं। व्यापार में गिरावट का एक प्रमुख कारण यह था कि 1700 ई० पू० के आसपास पश्चिमी और मध्य एशियाई देशों की राजनीतिक स्थिति अशांत थी। ऐसी स्थिति में इन देशों के साथ भारत का व्यापारिक संपर्क कम होने लगा। सैन्धव सभ्यता का मुख्य आर्थिक आधार व्यापार ही था, अतः व्यापार में कमी आने से हड़प्पा की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई।

रूढ़िवादिता (स्थिरता)- सिंधु सभ्यता के पतन के लिए अनेक विद्वानों ने रूढ़िवादिता, विशेषतया आर्थिक स्थिरता को उत्तरदायी माना है। लगभग 600 वर्षों के काल के दौरान भी के चिह्न बहुत कम दृष्टिगोचर होते हैं। नगर विन्यास, भवनों की बनावट, मृदभांडों का व्यवहार, विभिन्न उपकरण लगभग एक ही प्रकार के हैं। इनमें तकनीकी आधार पर कोई भी परिवर्तन अथवा सुधार नहीं किया गया। फलस्वरूप एक निश्चित अवधि के पश्चात् वे अपना महत्त्व खो बैठी। इस स्थिरता का सबसे बुरा प्रभाव अर्थव्यवस्था और विदेशी व्यापार पर पड़ा।

इस प्रकार हड़प्पा सभ्यता के विनाश में विभिन्न कारणों का योगदान रहा है। कोई भी एक कारण इस सभ्यता के विनाश के लिए उत्तरदायी नहीं था। इसी प्रकार क्षेत्र विशेष की अलग-अलग परिधितियाँ और क्षेत्र विशेष में नगरों का पतन विशेष कारणों से हुआ।

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Pankaja Singh

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