इतिहास

सैंधव लोगों का धार्मिक जीवन | सैंधव लोगों के धार्मिक जीवन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी

सैंधव लोगों का धार्मिक जीवन | सैंधव लोगों के धार्मिक जीवन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी

सैंधव लोगों का धार्मिक जीवन

परिचय- सिन्धु प्रदेश के ध्वंसावशेषों, मूर्तियों, मोहरों, ताबीजों आदि के आधार पर इतिहासकारों ने सिन्धु निवासियों के धार्मिक जीवन की रूपरेखा प्रस्तुत की है। इसका कोई लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं हुआ। परन्तु इसके बावजूद भी बिना किसी सन्देह के कहा जा सकता है कि सैंधव लोगों का धर्म काफी विकसित था। उसके विविध अंगों को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वहां के धर्म के विकास के पीछे एक दीर्घकालीन परम्परा थी तथा वह अनेक क्रमिक स्थितियों को पार करता हुआ उस अन्तिम स्थिति को पहुंचा, जिसकी झलक हमें सिन्धु सभ्यता में मिलती है। सैंधव लोगों तथा हिन्दुओं के धर्मों में काफी समानता देखने को मिलती है।

सर जॉन मार्शल के अनुसार, “सिन्धु घाटी के लोगों के धर्म की बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जिनसे मिलती-जुलती बातें हमें अन्य देशों के धर्मों में भी मिल सकती हैं और यह बात सभी प्रागैतिहासिक धर्मों के विषय में सत्य सिद्ध होगी।” परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी उनका धर्म इतनी विशेषता के साथ भारतीय है कि वर्तमान युग में प्रचलित धर्म से कठिनता से उनका भेद किया जा सकता है।”

सैंधव लोगों का धार्मिक जीवन

(Religious Life of the Indus People)

सैंधव लोगों के धार्मिक जीवन का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

  1. परम पुरुष (शिव) की उपासना-

सिन्धु प्रदेश में एक मोहर मिली है, जिस पर तीन मुख वाले एक नर देवता का चित्र अंकित है। इसके प्रत्येक मुख की तीन-तीन आँखें हैं और वह देवता पशुओं से घिरे एक मंच पर योगी की मुद्रा में बैठा है। इस चित्र को ‘ऐतिहासिक शिव का प्रारूप” माना गया है। इस चित्र में चारों ओर पशुओं की उपस्थिति शिव के ‘पशुपति” नाम को सार्थक सिद्ध करती है, एक मोहर पर योगासीन एक व्यक्ति का चित्र है, जिसके पास नाग बैठे हैं। शिव भी अपने गले में नाग धारण करते हैं। अतः विद्वानों का मत है कि यह चित्र शिव का ही है। एक अन्य मोहर पर धनुर्धारी शिकारी अंकित है, कुछ विद्वानों ने इसे किरातवेशधारी शिव माना है।

इस प्रकार सिन्धु प्रदेश में शिव के रूप में परमपुरुष की उपासना होती थी। हिन्दू धर्म में शिव की उपासना द्रविड़-सिन्धु-सभ्यता की ही देन प्रतीत होती है।

  1. परम नारी की उपासना-

सिन्धु प्रदेश में मिट्टी की बनी हुई नारी की मूर्तियाँ बडी संख्या में मिली हैं। इसमें नारी प्रायः नग्नरूप में प्रदर्शित की गई है। अधिकांश विद्वानों का मत है कि यह नारी मातृदेवी है। नारी की कुछ ऐसी मूर्तियाँ मिली हैं जो शिशु को स्तनपान करा रही है। यह जननी का देवीकरण है। सिन्ध प्रदेश की मातदेवी सम्पूर्ण मानव लोक की पोषिका, पालिका, जननी तथा सम्पूर्ण वानस्पतिक जगत की देवी थी। मोहनजोदड़ो में मातृदेवी की एक मूर्ति मिली है, जिनके शीश पर एक पक्षी पंख फैलाए बैठा है। मातृदेवी के कुछ चित्र पशुओं के साथ भी मिले हैं। इनसे सिद्ध होता है कि पाशविक जगत के ऊपर भी मातृदेवी का आधिपत्य था।

  1. लिंग एवं योनि पूजा-

मोहनजोदड़ो और हड़प्या में बड़ी संख्या में लिंग मिले हैं। इस आधार पर विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सैंधव लोग लिंग की पूजा करते थे। लिंग- पूजा मिस्त्र, यूनान, रोम आदि में भी प्रचलित थी। हिन्दू धर्म में लिंग-पूजा सिन्धु निवासियों की ही देन प्रतीत होती है। लिंग पूजा के अतिरिक्त सिन्धु प्रदेश में योनि पूजा के भी प्रचलित होने का अनुमान लगाया गया है। वहाँ बड़ी संख्या में छल्ले मिले हैं, जिन्हें अधिकांश विद्वानों ने योनि माना है। ऋग्वेद में योनि पूजा का उल्लेख नहीं है। अतः योनि पूजा सैंधव लोगों की ही देन है।

  1. वृक्ष पूजा-

सिन्धु प्रदेश में विविध वृक्षों की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं, जिनके आधार पर कहा गया है कि वहाँ के लोग वृक्ष पूजा भी करते थे। पीपल के वृक्षों को सबसे अधिक पवित्र समझा जाता था। अन्य वृक्षों में नीम, खजूर, बबूल और शीशम के वृक्ष सरलतापूर्वक पहचाने जा सकते हैं। भारत में वृक्ष पूजा की दीर्घ परम्परा है। कालांतर में भरहुत, सांची, अमरावती आदि के स्तूपों पर भी वृक्ष, पुष्प, पत्ते आदि अंकित किये गये। आज भी हिन्दू पीपल, नीम आदि वृक्षों को धार्मिक महत्व देते हैं।

  1. पशु पूजा-

सिन्धु प्रदेश में प्राप्त सामग्री के आधार पर कहा जा सकता है कि यहाँ पशु पूजा भी प्रतिष्ठित थी। बैल को पूजा जाता था। वह शक्ति का प्रतीक समझा जाता था। अनेक मुद्राओं पर भैंस-भैंसा अंकित हैं, जिससे अनुमान लगाया गया है कि उन्हें भी पूजा जाता था। नागों का हिन्दुओं में आज भी धार्मिक महत्व है। कुछ विद्वानों का मत है कि सिन्धु प्रदेशों में पक्षियों, विशेषतः बतख की भी पूजा की जाती थी।

सिन्धु प्रदेश में अन्य मुद्रायें भी मिली हैं, जिन पर हाथी, बाघ, भेड़, बकरी, गैंडा, हिरन, ऊँट, घड़ियाल, बिल्ली, कुत्ता, गिलहरी, तोता, मुर्गा, मोर आदि पशु-पक्षियों के चित्र अंकित हैं। हिन्दू धर्म में अनेक पशु देवताओं के वाहन समझे गये हैं। बहुत सम्भव है कि सिन्धु प्रदेश में भी अनेक पशु-पक्षी उनके देवताओं के वाहन हों। कुछ विद्वानों का यह मत है कि इन सभी पशु-पक्षियों का धार्मिक महत्व नहीं था। उनमें से अनेक अपनी उपयोगिता के कारण सैंधव लोगों के लिए महत्वपूर्ण बन गये होंगे। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अनेक पशु-पक्षी सैंधव लोगों के मनोरंजन, शिक्षा, घर की सुरक्षा, बाल-विनोद, बालु-शिक्षा आदि के साधन थे।

  1. जल पूजा-

अनेक विद्वानों का मत है कि सिन्धु प्रदेश के जल-कुण्ड धार्मिक स्नानों के काम आते थे। जल-कुण्डों के समीप पाये जाने वाले कुओं के सम्बन्ध में अनुमान लगाया जाता है कि उनके जल से लोग शुद्धि करते होंगे। इस प्रकार सिंधु सभ्यता में सम्भवतः पवित्र स्थान एवं जल-पूजा का भी विशेष महत्व था।

  1. प्रतीक पूजा-

सिन्धु प्रदेश में अनेक स्थानों पर सींग, स्तम्भ और स्वास्तिक के चित्र मिले हैं। सम्भवतः ये किसी देवी-देवता अथवा भावना के प्रतीक हों और उनकी पूजा होती हो। कुछ मुद्राओं पर अंकित स्तम्भों के ऊपरी दीप जलते दिखाये गये हैं, कभी-कभी उनके नीचे जलती आग भी दिखाई गई है। अनेक मुद्राओं पर स्वास्तिक, चक्र और क्रॉस के चिह्न अंकित मिलते हैं। हिन्दू धर्म में स्वास्तिक का चिह्न, आज भी पवित्र व शुभ माना जाता है।

  1. मूर्ति पूजा एवं मन्दिर-

देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों, स्तम्भों और प्रतीक चिन्हों के निर्माण व अंकन से सिद्ध होता है । सधव लोग साकार की उपासना करते थे। प्रत्यक्ष रूप से किसी मन्दिर के अवशेष नहीं मिले हैं, परन्तु सर जॉन मार्शल का अनुमान है कि ‘मोहनजोदड़ो में लकड़ी से निर्मित मन्दिर होते थे। कालातिपात से लकड़ी नष्ट हो गई और इसी से मन्दिर के अवशेष नहीं मिले हैं। परन्तु अधिकांश विद्वान सर मार्शल के मत को स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि सिन्धु प्रदेश की अन्य इमारतों में ईंटों व पत्थरों का प्रयोग किया गया तो मन्दिरों में ही इनका प्रयोग क्यों नहीं किया गया?

  1. उपासिकायें एवं देवदासियाँ-

सिन्धु प्रदेश में अनेक मूर्तियाँ नारियों की मिली हैं। एक मूर्ति आहुति पत्र लिये खड़ी है। एक अन्य मूर्ति पर एक नारी शीश पर खाद्य सामग्री से भरा कोई पात्र रखे हुए है। अनेक विद्वानों का मत है कि ये सब मूर्तियाँ मन्दिरों की उपासिकाओं की हैं।

मोहनजोदड़ो में एक नग्न रूप से नृत्य करती हुई नर्तकी की मूर्ति मिली है जिसने गले और हाथों में आभूषण धारण कर रखे हैं। कुछ विद्वानों ने इसे देवदासी की मूर्ति माना है और उनके मतानुसार उस समय देवदासी की प्रथा प्रचलित थी।

  1. पूजा विधि-

उपलब्ध सामग्री के आधार पर अनेक विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पूजा अथवा धार्मिक कर्म के पूर्व स्नान द्वारा शारीरिक शुद्धि आवश्यक समझी जाती थी। पूजा में धूप, दीप और अग्नि का प्रयोग होता था। कुछ मुद्राओं में सामूहिक नृत्य, गायन आदि के चित्र अंकित हैं, जिनसे धार्मिक समारोह होने का अनुमान लगाया गया है। देवदासी प्रथा भी पूजा-विधि का एक अंग होगी। कुछ मुद्राओं से सिद्ध होता है कि उस समय पशु बलि भी होती होगी। सिन्धु-प्रदेश की देवी को सन्तुष्ट करने के लिए दी जाने वाली पशु बलि में हिन्दू धर्म के शक्ति-सम्प्रदाय के बीज अन्तर्निहित हैं।।

  1. योग-

सिन्धु प्रदेश में शिव की अनेक मूर्तियां योगी के रूप में मिली हैं, वे योगासन में बैठे दिखाये गये हैं। मोहनजोदड़ो में योग-मुद्रा में बैठे पुजारी की मूर्ति मिली है। इन उदाहरणों के आधार पर कहा जा सकता है कि सिन्धु सभ्यता में योग किसी न किसी रूप में प्रतिष्ठित था।

निष्कर्ष-

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि सैंधव लोगों का धार्मिक जीवन काफी विकसित था। ऐसा प्रतीत होता है कि बहुदेववाद होते हुए भी सिन्धु निवासी एक ईश्वरीय सत्ता से परिचित थे। इस सत्ता को वे विश्व की सृजनात्मक शक्ति मानते थे। इसी सृजन शक्ति के रूप में उन्होंने परम पुरुष और परम नारी के द्विदेववाद धर्म का विकास किया था। हिन्दू धर्म के परमेश्वर-पार्वती की कल्पना का आदि रूप सम्भवतः सैंधव लोगों के धर्म से ही प्रभावित है। (व्हीलर के अनुसार, “सिन्धु-धर्म ईसा पूर्व तीसरी सहस्त्राब्दी में एशिया में प्रचलित धार्मिक रीतियों का ही मिश्रित रूप था, जिसमें बाद के हिन्दू-धर्म की रीतियाँ भी प्रवेश पा गई थीं।

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Pankaja Singh

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