इतिहास

जैन धर्म के पतन के कारण | जैन धर्म का भारत में स्थायित्व

जैन धर्म के पतन के कारण | जैन धर्म का भारत में स्थायित्व

जैन धर्म के पतन के कारण

उत्थान तथा पतन प्रकृति का शाश्वत् नियम है। जैन धर्म इस नियम का अपवाद नहीं था। जिन अनेक कारणों से इस धर्म ने प्रगति तथा विकास को प्राप्त किया, उनका अभाव होने तथा विपरीत परिस्थितियों के कारण इस धर्म ने पतन की प्रक्रिया का भी अनुसरण किया। जैन धर्म के पतन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

(1) जनसाधारण के सहयोग का अभाव-

प्रारम्भ काल में जैन धर्म का विस्तार करने में शासकों तथा धनी व्यक्तियों ने बड़ा रहयोग दिया। जब किसी से सहायता ली जाती है तो उसके प्रति आभार भी प्रकट किया जाता है। जैन धर्म ने ऐसा ही किया। जैन धर्म में साधारण गृहस्थ को उतना सम्मान प्राप्त नहीं था जितना कि उच्चवर्गीय गृहस्थों को। कालान्तर में धनी-मानी वर्ग को जैन धर्म में प्रमुखता प्राप्त होने लगी तथा जन-साधारण इस धर्म से होते गये।

(2) अन्य धर्मों का उत्कर्ष-

जैन धर्म के प्रसार को रोकने के लिये, हिन्दू या ब्राह्मण धर्म ने समय के साथ अपना समयानुकूलन कर लिया तथा जैन धर्म को प्रभावित भी किया। दक्षिण भारत के चोल नरेशों ने मदुरा के जैन मन्दिरों में शिवोपासना प्रारम्भ कर दी। रामानुज द्वारा मैसूर राज्य में वैष्णव धर्म का प्रचार किये जाने के कारण जैन धर्म के प्रचार में बड़ी बाधा पहुँची। इसी समय बौद्ध धर्म ने अपने प्रचार तथा प्रसार में वृद्धि की। इन कारणों से जैन धर्म की मान्यता में कमी आने लगी।

(3) धर्म प्रचारकों के उत्साह में कमी-

मध्यकाल आने तक जैन धर्म के प्रचारक शिथिल पड़ने लगे। महावीर स्वामी के पश्चात् जैन धर्म का कोई ऐसा महान धर्म योद्धा नहीं हुआ जो जैन धर्म का समयानुकूलन कर पाता। बौद्ध धर्म दिनों दिन जोर पकड़ता जा रहा था। जब कोई विरोधी सामने होता है तभी शूरता की आवश्यकता पड़ती है परन्तु जैन धर्म में इस समय धर्मवीर योद्धा का अभाव था। फलतः जैन धर्म शिथिल पड़ गया। जैन धर्म के प्रचारकों के उत्साह में कमी आ जाने का एक अन्य कारण यह भी था कि कालान्तर में जैन प्रचारक भोग विलासी जीवन की ओर आकर्षित होने लगे तथा उनमें आत्मसंयम तथा कठोर तपस्या का अभाव हो गया। फलतः जैन धर्म में सरलता, सादगी तथा संयम के स्थान पर जटिलता, आडम्बर तथा असंयमता आ गई।

(4) मतभेदों की उत्पत्ति-

पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी के मतों में कतिपय मतभेद थे परन्तु उनके आधारभूत सिद्धान्त समान थे, परन्तु जैन विद्वानों ने पार्श्वनाथ तथा महावीर स्वामी के मतों का विवेचन करके अनेक मतभेद उत्पन्न कर दिये। फलतः जैन धर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। ये सम्प्रदाय थे-श्वेताम्बर तथा दिगम्बर। पुनश्चः इन सम्प्रदायों में भी पदलोलुपता तथा मतभेद उत्पन्न हो गये। परिणामस्वरूप जैन प्रचारको तथा अनुयायियों की शक्ति पारस्परिक मतभेदों के द्वन्द्व में व्यर्थ होने लगी और जैन धर्म की एकता नष्ट हो गई।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथा अन्य समसामयिक कारणवश जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या क्रमशः कम होती गई। हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान होने तथा जैन धर्म पर इसका प्रभाव पड़ने के कारण, जैन धर्म की व्यावहारिक मौलिकता पूर्ण रूप से विस्तृत हो गई। समय नहीं रुका, परन्तु जैन धर्म की प्रगति रुक गई और 1971 ई० के जनगणनानुसार जैन मतानुयायियों की संख्या केवल सोलह लाख रह गई।

जैन धर्म का भारत में स्थायित्व

जैन धर्म का इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि भारतवर्ष का प्राचीन धर्म होते हुए भी यह धर्म कभी भी अखिल भारतीय धर्म का पद नहीं ग्रहण कर पाया और न ही यह भारत से पूर्णतः विलुप्त ही हुआ। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि जैन धर्म सदैव से भारत में निरन्तर तथा स्थायी बना हुआ है। अति लोकप्रिय न होते हुए भी भारत में जैन धर्म के स्थायित्व के अनेक कारण हैं।

(1) एकता-

जैन मतानुयायियों में विलक्षण एकता है। प्रतीत होता है कि अपनी अल्पसंख्यकता के कारण ही जैन धर्मानुयायी एकता के सूत्र में बँधे हुए हैं। एकता के इस आधारभूत गुण के कारण जैन धर्म भारत में स्थायित्व धारण किये हुए हैं।

(2) जातीय भावना-

जैन मतानुयायियों को प्रायः ‘जैन जाति’ के नाम से पुकारा जाता है। जिस प्रकार एक ही व्यवसाय करने वाले विभिन्न जातीय लोग एक सूत्र में बँध जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जैन धर्म के मानने वालों में इतना अधिक सहयोग तथा सहिष्णुता है कि वे अपने को एक जाति के रूप में संगठित अनुभव करते हैं। जैन मतावलम्बी न तो ब्राह्मण होता है और न ही क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र । वह जैनी होता है। इस प्रकार जातिगत अनेकता में एकता की स्थापना द्वारा जैन धर्म सदैव से स्थायित्व धारण किये हुए हैं।

(3) समन्वयवादी नीति-

जैन धर्म ने समयानुकूलन द्वारा अपने विरोधी मतों से समन्वय किया। ब्राह्मण तथा जैन धर्म का प्रतिद्वन्द्वी धर्म होते हुए भी, जैन धर्म ने उनकी अनेक मान्यताओं को स्वीकार किया। इसका परिणाम यह हुआ कि जैन धर्म के स्थायित्व में कोई कमी नहीं आयी।

निष्कर्ष

जैन धर्म के भारत में स्थायित्व के उपरोक्त कारणों द्वारा यह धर्म भारत भूमि से कभी भी विलुप्त नहीं हुआ और न ही अपनी दीर्घकालीन निरन्तरता के बावजूद यह धर्म भारत का सर्वव्यापी धर्म बन पाया। अतः हम इस कथन से पूर्णतः सहमत हैं कि “जैन धर्म कभी भी भारत में एक अखिल भारतीय धर्म नहीं बन सका, तथापि यह देश से कभी विलुप्त भी नहीं हुआ।”

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Pankaja Singh

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