इतिहास

जैन धर्म का प्रसार | जैन धर्म के सीमित विस्तार के कारण

जैन धर्म का प्रसार | जैन धर्म के सीमित विस्तार के कारण

जैन धर्म का प्रसार

जैन धर्म के प्रसार के विषय में जो प्रमाण प्राप्त हुए हैं उनसे विदित होता है कि भारत में इस धर्म को अधिक व्यापकता प्राप्त नहीं हुई। अपने उत्पत्ति काल से लेकर आज तक इसका क्षेत्र सीमित रहा है। महावीर स्वामी ने अपने सतत प्रयासों द्वारा इस धर्म के कई केन्द्र बनाये तथा अनेक तत्कालीन नरेशों का संरक्षण एवं सहानुभूति भी प्राप्त की। मगध तथा अनेक गणराज्यों में अपनी जड़ें जमाने के बाद इस धर्म ने दक्षिण भारत की ओर भी प्रसार किया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण भारत में जाकर जैन धर्म को अंगीकार किया था। कुषाण वंश के समय मथुरा, जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र थी। कालान्तर में इस धर्म का प्रसार गुजरात, काठियावाड़ तथा राजस्थान की ओर भी हुआ। ह्वेनसांग के वर्णन से विदित होता है कि उसके भारत आगमन तक इस धर्म का प्रसार तामिलनाडु से लेकर बंगाल तक हो चुका था। बारहवीं शताब्दी तक इस धर्म ने अपने प्रसार क्षेत्र में काफी वृद्धि कर ली थी परन्तु इतना सब होते हुए भी जैन धर्म कभी भी अखिल भारतीय धर्म नहीं बन पाया।

जैन धर्म के सीमित विस्तार के कारण

जैन साहित्य में महावीर स्वामी के उपरान्त श्रवक तथा श्राविकाओं की जो संख्या बताई गई है वह भारतीय जनसंख्या के अनुपात में बहुत कम है। हमारा विचार है कि अपनी दीर्घकालीन निरन्तरता के विपरीत भी यह धर्म भारत भूमि पर सर्वव्यापी नहीं हो पाया। अपनी व्यावहारिक, वैचारिक तथा सैद्धान्तिक श्रेष्ठता के बावजूद भी इस धर्म को अखिल भारतीय धर्म न होने के अनेक कारण हैं। ये कारण निम्नलिखित हैं:-

(1) जैन धर्म के व्यावहारिक नियमों की कठोरता-

जैन धर्म में जिन व्यावहारिक सिद्धान्तों को मान्यता दी गई है उनमें से अनेक मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति के विरुद्ध हैं। जैन धर्म  के अनुसार गृहस्थ जीवन में जिन अहिंसा के नियमों के पालन को आवश्यक बताया गया-वे बड़े ही कठोर हैं। इस धर्म के अहिंसा व्रतों का पालन अनेक अर्थों में अव्यावहारिक है। वस्त्रविहीनता, केश विहीनता, कष्टप्रद जीवन तथा आमरण अनशन आदि सिद्धान्त जनसाधारण के लिये अनाकर्षक हैं। इस प्रकार अपने व्यावहारिक नियमों की कठोरता के कारण जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या अपेक्षाकृत कम ही रही।

(2) मानव स्वभाव का असन्तुलित वर्गीकरण-

महावीर स्वामी ने वर्ण-व्यवस्था तथा जातिगत भेद-भाव का विरोध करते हुए, कर्म को प्रधानता दी, जो एक अच्छी बात थी। परन्तु, उन्होंने मानव स्वभाव के आधार पर मनुष्यों को तीन वर्गों में वर्गीकृत कर दिया-यथा, अव्रती, अणुव्रती तथा सर्वव्रती। वास्तविकता तो यह है कि कोई भी मनुष्य न तो पूर्णतः अवगुणी होता है और न ही पूर्णतः सद्गुणी । जैन धर्म ने केवल सर्वव्रती स्वभाव वालों को संघ प्रवेश की अनुमति देकर, भेदभाव को समाप्त करने की बजाय उसे मूक रूप से स्वीकार कर लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि जैन धर्म में उच्च जातीय वर्ण को प्राथमिकता मिली। फलतः इस धर्म को समाज के जनसाधारण का पूर्ण सहयोग नहीं मिल पाया और इसका विशेष प्रसार नहीं हो पाया।

(3) जैन सिद्धान्तों पर ब्राह्मण सिद्धान्तों का प्रभाव-

यद्यपि जैन धर्म ने प्रारम्भ में ब्राह्मण धर्म का घोर विरोध किया परन्तु कालान्तर में ब्राह्मण धर्म ने जैन धर्म को बहुत प्रभावित किया। ब्राह्मणों के भक्तिवाद तथा सामाजिक संस्कारों को जैन धर्म ने भी स्वीकार करना शुरू कर दिया तथा अनेक जैन मतानुयायी ब्राह्मण देवी-देवताओं की उपासना करने लगे। इस प्रभाव के परिणाम स्वरूप जैन धर्म के मूल सिद्धान्तों में परिवर्तन आने लगा। ब्राह्मण जैन मतों के सम्मिश्रण द्वारा, जैन धर्म के प्रसार में बाधा उत्पन्न होने लगी तथा इसका विस्तार क्षेत्र सीमित ही बना रहा।

(4) उत्साही प्रचारकों का अभाव-

जैन धर्म ने जब ब्राह्मण धर्म की विरोधी प्रतिक्रिया के रूप में विकास करना प्रारम्भ किया तो उसके प्रचारकों में बड़ा उत्साह था। परन्तु जब ब्राह्मण धर्म ने समय के साथ अनुकूलन स्थापित किया तो जैन धर्म के प्रचारकों के उत्साह में कमी आ गई। साथ ही, अनेक दोषों के होते हुए भी ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों की संख्या काफी थी। अपने मत का प्रचार एवं प्रसार करने के लिये जैन धर्म को काफी बड़ी संख्या में प्रचारकों की आवश्यकता थी परन्तु ऐसे उत्साही व्यक्तित्वों की कमी के कारण जैन धर्म का अधिक प्रचार न हो सका। यदि अश्वघोष, नागार्जुन, असंग, धर्मकीर्ति तथा कुमारजीव जैसे प्रचारक अधिक संख्या में रहे होते तो जैन धर्म अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक विस्तृत तथा स्थायी बन सकता था।

(5) अप्रजातान्त्रिक स्वरूप-

सभी जैन मतानुयायियों को समान स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं थी। उच्चपदस्थ भिक्षुओं ने प्रायः निरंकुश दृष्टिकोण भी अपनाया था। इस कारण से साधारण अनुयायी तथा भिक्षु, धर्म से विमुख होते रहते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि जैन धर्म के प्रचार साधन सीमित तथा प्रसार अतिसीमित हो गया।

(6) उच्चवर्ग को प्रमुखता-

प्रत्येक धर्म के प्रसार के लिये जिस धन तथा सामग्री की आवश्यकता होती है-जैन धर्म को वह सब कुछ उपलब्ध थी। परन्तु जैन धर्म ने इस सामग्री की प्राप्ति के लिये अनेक उच्चवर्गीय श्रद्धालुओं तथा शासकों का सहारा लिया। फलस्वरूप इस धर्म में उच्च वर्ग को प्रमुखता प्राप्त हो गई, जिसका परिणाम यह हुआ कि धनी तथा साधारण मतानुयायी में भेद किया जाने लगा। जैन धर्म के सीमित प्रसार का यह एक प्रमुख कारण था।

(7) राज्याश्रयं का अभाव-

महावीर स्वामी के स्वयं राजकुल से सम्बन्धित होने के कारण, उनके जीवन काल में अनेक राजाओं ने जैन धर्म को राज्याश्रय प्रदान किया, परन्तु उसके बाद के अनेक राजाओं ने जैन धर्म स्वयं तो स्वीकार किया परन्तु उसे राजधर्म की मान्यता नहीं दी। इसके अलावा कई नरेश जैन धर्म के प्रति सहिष्णु तो थे परन्तु उन्होंने इसके प्रचार तथा प्रसार में कोई सहायता नहीं दी।

(8) कला अभिव्यक्ति का अभाव-

साधारण जनता धर्म के विशाल रूप के प्रति आकृष्ट होती है तथा इस विशाल रूप की अभिव्यक्ति कला द्वारा ही की जा सकती है। जैन धर्म की दुर्बलता यह थी कि उसमें अपने रूप की कलाभिव्यक्ति का सर्वथा अभाव था। जैन धर्म के उत्कर्ष काल में भी उसके किसी भी धर्म प्रधान भवन या स्थापत्य कला के निर्माण आदि के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाई गई। इसका परिणाम यह हुआ कि यह धर्म कलाभिव्यक्ति द्वारा जनसाधारण को अपनी ओर नहीं खींच पाया।

निष्कर्ष

जैन धर्म के सीमित प्रसार के कारणों के उपरोक्त वर्णन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कोई भी धर्म केवल अपनी सैद्धान्तिक श्रेष्ठता तथा व्यावहारिकता के आधार पर ही विस्तृत प्रसार पाने में सफल नहीं हो सकता। प्रसार के लिये जिन आवश्यक साधनों की आवश्यकता होती है, उनमें जनसाधारण को प्रभावित करने की क्षमता होना आवश्यक है। जैन धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्त कष्टमय तथा कठोर होने के कारण, जनसाधारण इसे कौतूहलवश अपना तो सकते थे, परन्तु उनको जीवनपर्यन्त निभा नहीं सकते थे।

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Pankaja Singh

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