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जैन धर्म के सिद्धान्त | जैन धर्म के दार्शनिक तथा आध्यात्मिक सिद्धान्त | जैन धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्त | जैन धर्म के सिद्धान्तों का सामान्य विवेचन

जैन धर्म के सिद्धान्त | जैन धर्म के दार्शनिक तथा आध्यात्मिक सिद्धान्त | जैन धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्त | जैन धर्म के सिद्धान्तों का सामान्य विवेचन

जैन धर्म के सिद्धान्त

जैन धर्म के सिद्धान्तों को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है- (1) आध्यात्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्त, (2) व्यावहारिक सिद्धान्त, तथा (3) अन्य विभिन्न दृष्टिकोण। इस वर्गीकरण के अनुसार जैन धर्म के सिद्धान्तों तथा मान्यताओं का वर्णन निम्नलिखित हैं-

जैन धर्म के दार्शनिक तथा आध्यात्मिक सिद्धान्त

(1) निवृत्ति मार्ग- जैन धर्म के अनुसार सारे सुख, प्राप्तियाँ, भोग, काम आदि दुखमूलक हैं तथा मनुष्य का जीवन मृत्यु के भय से सन्त्रस्त है। शरीर नाशवान है, क्षणभंगुर है, अतः भौतिक सुखों की प्राप्ति निरर्थक, निराधार तथा अर्थहीन है। महावीर स्वामी का सन्देश है कि वास्तविक सुख की प्राप्ति संसार त्याग में है। मानव को उस संसार से विमुख हो जाना चाहिये जिसमें अन्तहीन दुख भरे हुए हैं। “सम्पत्ति, परिवार, समाज आदि का त्याग कर, भिक्षु बनो एवं परिभ्रमण करते रहो।” इस प्रकार जैन धर्म में निवृत्ति मार्ग की प्रस्तावना की गई है।

(2) कर्म तथा पुनर्जन्म- जैन धर्मानुसार कर्म ही जीवन का कारण है तथा कर्म ही मृत्युदायी भी है। मनुष्य को कर्मानुसार फल की प्राप्ति होती है। मनुष्य का जीवन आठ कर्मों में बँधा हुआ है- यथा (1) ज्ञानावरणीय कर्म, (2) दर्शनावर्णीय कर्म, (3) वेदनीय कर्म, (4) मोहनीय कर्म, (5) आयु कर्म, (6) नाम कर्म, (7) गोत्र कर्म, तथा (8) अन्तराय कर्म। जैन मतानुसार कर्म द्वारा ही पुनर्जन्म होता है। मोक्ष प्राप्ति के लिये कर्म विमुख होना आवश्यक है। यदि कर्म नहीं होगा तो पुनर्जन्म भी नहीं होगा और इस प्रकार भोक्ष प्राप्त हो जायेगा।

(3) त्रिरत्न- क्योंकि मोक्ष प्राप्ति के लिये कर्मविमुख होना आवश्यक है अतः पूर्वजन्म के कर्मों से मक्ति पाने के लिये त्रिरत्नों का पालन आवश्यक है। सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन तथा सम्यक चरित्र त्रिरत्न हैं । त्रिरत्नों का पालन करने से सांसारिक विषयों में आत्मा का प्रवेश नहीं होगा तथा मुक्ति प्राप्त हो जायेगी।

(4) स्याद्वाद तथा अनेकान्तवाद- ज्ञान क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर प्रत्येक व्यक्ति अपने दृष्टिकोण तथा अनुभव द्वारा देता है। ज्ञान की यह विभिन्नता सात प्रकार की होती है। जैन मतानुसार व्यक्तिगत दृष्टिकोण ही ज्ञान भेद का कारण है। अतः मनःस्थिति, वैचारिक शक्ति एवं योग्यता की क्षमता सभी मे समान नहीं होती।

(5) अनेकात्मवाद- जैन धर्म आत्मा की एकता में विश्वास नहीं रखता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि “यदि सारे जीवित प्राणियों में एकात्मता होती, तो वे, उनका रूप रंग, गतिविधि एक समान होती। पृथक-पृथक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, कीड़े-मकोडे, पक्षी और सर्प न होते । सभी या तो मनुष्य होते या देवता।” इस प्रकार, जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है परन्तु परम-आत्मिकता को अस्वीकार करता है। जैन मतानुसार आत्मा तथा धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। उनका विश्वास है कि कर्मों के कारण आत्मा मुक्ति से विमुख हो जाती है।

(6) अनीश्वरवाद- जैन धर्म अनीश्वरवादी है। वे ईश्वर को सृष्टि का निर्माता नहीं मानते हैं। उनके अनुसार ईश्वर आत्मा के श्रेष्ठतम गुणों एवं ज्ञान का व्यक्तिकरण मात्र है। इस मत के आधार पर जैन मतावलम्बी ईश्वर की अपेक्षा उन जैन तीर्थकरों की पूजा-अर्चना करते हैं जिनकी आत्माएँ बन्धन मुक्त हो गई हैं।

(7) निर्वाण- जैन धर्म का परम उद्देश्य निर्वाण प्राप्त करना है। उनके अनुसार कर्म फल से मुक्ति मिलने पर ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। निर्वाण वह अवस्था है जबकि न तो सुख होता है और न ही दुख, न कर्म होता है और न ही उसका फल ! निर्वाण के पश्चात् पूर्ण निर्बन्धता, अनन्त शान्ति तथा असीमित ज्ञान प्राप्त करके आत्मा को जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा मिल जाता है।

(8) अहिंसा- जैन धर्म में अहिंसा पर अतिशय जोर दिया गया है। जैन मतानुसार 6 प्रकार के जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार अहिंसा है। ये जीव हैं-(1) पृथ्वीकाय, (2) जलकाय, (3) वायुकाय, (4) अग्निकाय, (5) वनस्पतिकाय, तथा (6) जसजीवा (चलने-फिरने वाले जीव)। उनके अनुसार मन, वचन तथा शरीर का हिंसा करना अनुचित तथा धर्म विरुद्ध है।

जैन धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्त

धर्म के व्यावहारिक नियमों के पालन द्वारा ही चिन्तनशील अवस्था को प्राप्त किया जाता है। जब जीवन नियमित तथा कर्म-फल कामना हित होगा तभी ज्ञान प्राप्ति संभव है। इस मान्यतानुसार, जैन तीर्थंकरों ने जिन व्यावहारिक सिद्धान्तों की व्यवस्था की-वे निम्नलिखित हैं-

(1) पंच महाव्रत

(i) अहिंसाव्रत- जैन मान्यतानुसार अहिंसा ही परम धर्म है। अहिंसा व्रत का पालन करने के लिये निम्नलिखित उपनियमों का निर्धारण किया गया-

(क) ईर्या समिति- जाने या अनजाने में हिंसा न हो।

(ख) भाषा समिति- कठोर, अप्रिय, असत्य तथा दुर्वचन न बोले जायें।

(ग) एषणा समिति- भिक्षा तथा भोजन करते समय किसी प्राणी के प्रति हिंसा न की जाये।

(घ) आदान क्षेपक्षा समिति-मुनि के दैनिक व्यवहार में आने वाली सामग्री में किसी प्रकार की हिंसा नहीं होनी चाहिये।

(च) व्युत्संग समिति- शौचादि क्रिया ऐसे स्थान पर की जाये जहाँ पर किसी जीव के प्रति हिंसा की संभावना न हो।

(ii) असत्यरहित त्यागव्रत-भाषण एवं कर्मक्षेत्र में सत्य का पालन करने के लिये निम्नलिखित पाँच व्रतों का पालन करना चाहिये।

(क) अनुभिव भाषी- सोच-विचार कर सत्य भाषण करें।

(ख) कोहं परिजानाति- क्रोध आने पर मौन धारण करें।

(ग) लोभं परिजानाति- लोभ होने पर मौन धारण करें।

(घ) भयं परिजानाति- भय होने पर भी सत्य बोलें।

(च) हास परिजानाति- हास-परिहास में भी सत्य ही बोले।

(iii) अस्तेय महाव्रत- किसी भी दशा में पराई वस्तु को ग्रहण न करके उसे वास्तविक स्वामी को लौटा देना-अस्तेय कहलाता है। इस व्रत के अन्तर्गत निम्नलिखित पाँच उपव्रत हैं-

(क) बिना आज्ञा किसी के गृह में प्रवेश न करें।

(ख) गुरु की आज्ञा से ही भिक्षार्जित भोजन ग्रहण करें।

(ग) बिना आज्ञा किसी के गृह में निवास न करें।

(घ) बिना स्वामी की आज्ञा के किसी भी वस्तु का उपभोग न करें।

(च) किसी भी गृह में बिना स्वामी की आज्ञा के कोई कार्य न करें।

(iv) ब्रम्हचर्य महाव्रत- जैन धर्म ने ब्रह्मचर्य व्रत के पालन पर विशेष बल दिया। इस विषय में पाँच उपव्रतों का पालन आवश्यक है-

(क) पराई स्त्री से वार्तालाप न करें।

(ख) पराई स्त्री की ओर दृष्टिपात न करें।

(ग) स्त्री से संसर्ग अथवा समागम का ध्यान करना वर्जित है।

(घ) ब्रम्हचर्य को डिगाने वाले खाद्य-पदार्थ न खायें।

(च) जिस गृह में स्त्री रहती हो, उसमें निवास करना निषिद्ध है।

(v) अपरिग्रह व्रत- अपरिग्रह का अर्थ है बिना आवश्यकता के किसी भी प्रकार के धन का संग्रह न करना । जैन मतानुसार गृहस्थ तो धन-संग्रह कर सकते हैं परन्तु भिक्षुओं के लिये ऐसा करना निषिद्ध है।

(2) गृहस्थों के लिये अनिवार्य व्रत

उपरोक्त पंच महाव्रतों का पालन गृहस्थों के लिये संभव नहीं था। अतः गृहस्थ अनुयायियों के लिये पंच अणुव्रतों के पालन का नियम बनाया गया। ये व्रत निम्नलिखित हैं-

(1) पंच अणु व्रत- ये व्रत पाँच हैं-

(क) अहिंसाणुव्रत- जहाँ तक संभव हो, हिंसा न करें।

(ख) सत्याणुव्रत- जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सत्य का अनुसरण करें।

(ग) अस्तेयाणु व्रत- कोई ऐसा कार्य न करें जिससे दूसरे गृहस्थ के कार्यों में हस्तक्षेप हो।

(घ) ब्रम्हचर्याणु व्रत- पर-स्त्री के विषय में न सोचें तथा गृहस्थ सीमाओं में ही ब्रम्हचर्य की पालन करें।

(च) अपरिग्रहाणु व्रत- जितना आवश्यक हो केवल उतने ही धन का संग्रह करें।

(ii) तीन गुणव्रत- उपरोक्त पंच अणु व्रतों के अतिरिक्त गृहस्थों को समय-समय पर निम्नलिखित तीन गुणव्रतों का पालन करना चाहिये-

(क) प्रत्येक गृहस्थ को सुविधानुसार अपने कार्यक्षेत्र की सीमा निर्धारित करनी चाहिये।

(ख) केवल योग्य तथा अनुकरणीय कार्य करें।

(ग) अपने भोजन तथा भोग की सीमा निर्धारित करके, उसका उल्लंघन न करें।

(iii) चार शिक्षाव्रत- प्रत्येक गृहस्थ के लिये निम्नलिखित चार शिक्षा व्रतों का भी पालन करना आवश्यक है-

(क) देश विरति- एक ऐसे क्षेत्र का निर्धारण करें जिसमें कभी भी पदार्पण न करें और न ही उसके विषय में सोचें।

(ख) सामयिक व्रत- तीनों संध्याओं को सांसारिक कार्यों से विरत होकर चिन्तन करें।

(ग) अष्टमी तथा चतुर्दशी को मुनियों के समान जीवन व्यतीत करें तथा धार्मिक कथाओं का श्रवण करें।

(घ) विद्वानों, भिक्षुओं तथा मुनियों का सदैव अभिनन्दन तथा स्वागत करें।

जैन धर्म के अन्य विभिन्न दृष्टिकोण

(i) नारी स्वातन्त्र्य- जैन मान्यतानुसार नारी को भी आध्यात्मिक क्षमता के विकास द्वारा निर्वाण प्राप्त करने का उतना ही अधिकार प्राप्त था, जितना पुरुष को। पार्श्वनाथ तथा महावीर नारी स्वातन्त्र्य के समर्थक थे। इस कारण से अनेक सम्भ्रान्त तथा विलक्षण नारियों ने जैन धर्म की दीक्षा ली। श्रवण तथा श्राविका के रूप में जैन धर्म में दो नारी वर्गों की स्थापना की गई थी।

(ii) आचार तत्व- जैन धर्म आचार तत्व प्रधान है। व्रतबद्ध, संयमित तथा सदाचारी जीवन को निर्वाण प्राप्ति का साधन मानते हुए, जैन धर्म ने बाह्य शुद्धि की अपेक्षा अन्तःकरण की शुद्धि पर विशेष बल दिया। जैन ग्रन्थ उत्तराध्ययन में कहा गया है कि “धर्म मेरा जलाशय है, ब्रम्हचर्य मेरा शान्तिवीर्य है तथा जो चरित्राचार के गुणों से सम्पन्न है, जो सर्वोत्तम संयम का पालन करता है, जिसने समस्त आश्रयों पर नियन्त्रण पा लिया है-वही विपुल, उत्तम तथा परम मोक्ष को प्राप्त करता है।” जैन धर्म के इस दृष्टिकोण से स्पष्ट होता है कि इसने जन्मगत आधार पर मान्य वर्ण व्यवस्था का घोर विरोध किया तथा आचारतत्व को प्रमुख माना।

(iii) नग्नता- जैन मतानुसार आसक्ति तथा लज्जा को त्याग कर आत्मबल एवं कठोर तपस्या करने की शक्ति प्राप्त करने के लिये नग्नता आवश्यक मानी गई है। जैन धर्म द्वारा नग्नता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने का उद्देश्य यह था कि इसके द्वारा मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति तथा कर्म से विमुखता प्राप्त होगी एवं वह लज्जा, अपरिग्रह और कायाक्लेश का परित्याग कर देगा। पार्श्वनाथ ने अपने अनुयायियों को वस्त्र धारण करने की अनुमति दे दी थी, परन्तु महावीर स्वामी ने पूर्ण नग्नता का समर्थन किया।

(iv) पाप- जैन धर्म में जहाँ एक ओर पालन योग्य व्रतों का निर्धारण किया गया है, वहीं दूसरी ओर उन पापों का भी उल्लेख किया गया है जो निर्वाण प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करते हैं। जैन मतानुसार पापों के भार से जीव भारी होकर नरकगामी हो जाता है। व्यावहारिक तथा दार्शनिक दृष्टि से पाप अमानवीय माने गये हैं। आवश्यक सूत्र में 18 प्रकार के पापों की सूची दी गई है- जो इस प्रकार है-(1) प्राणतिपात, (2) असत्य, (3) मैथुन, (4) चोरी, (5) अपरिग्रह, (6) मान, (7) क्रोध, (8) माया मोह, (9) लोभ, (10) राग, (11) दोषारोपण, (12) निन्दा, (13) द्वेष, (14) कलह, (15) चुगली, (16) असंयम, (17) छल कपट, (18) मिथ्यादर्शन।

जैन धर्म के सिद्धान्तों का सामान्य विवेचन

जैन धर्म के उपरोक्त सिद्धान्तों का निलपण करके हमें यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि इस धर्म के आध्यात्मिक तथा दर्शन सम्बन्धी सिद्धान्तों को व्यावहारिकता का सुदृढ़ आधार प्राप्त था। ऐसा प्रतीत होता है कि जैन धर्म के तीर्थकरों तथा प्रतिपादकों ने वैज्ञानिक आधार पर अपने सिद्धान्तों का निर्धारण किया था। वे इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे कि वह धर्म जो मात्र दार्शनिक सिद्धान्तों पर आधारित होगा, कभी भी सफल धर्म नहीं बन सकता। अतः दार्शनिक सिद्धान्तों की आवश्यकता से भी अधिक आवश्यकता इस बात की है कि धार्मिक सिद्धान्त सामान्य जीवन के व्यावहारिक पहलुओं के प्रति उदासीन न हों। आचरण एवं व्यवहार की क्षमता द्वारा जीवन-यापन की सुसंगठित, सुनियोजित तथा आवश्यक व्यवस्था हमें जैन धर्म में ही प्राप्त होती है।

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Pankaja Singh

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