प्राचीन भारतीय कला के विकास में विदेशी तत्वों का योगदान | Contribution of foreign elements in the development of ancient Indian art in Hindi
प्राचीन भारतीय कला के विकास में विदेशी तत्वों का योगदान
आर्यों के आगमन से पूर्व की सिन्धु तटवर्ती सभ्यता का सम्बन्ध सुमेरिया और बेबीलोन से रहा, यद्यपि इसका भली भांति निर्णय नहीं हो पाया है कि किस सभ्यता का किस पर अधिक प्रभाव पड़ा, फिर भारत में बाहर से आर्यों का आगमन हुआ। हम जिसे भारतीय सभ्यता के नाम से जानते हैं वह इन्हीं विदेशों से आये आर्यजनों की अपनी सभ्यता थी। उस आर्य सभ्यता को भारतीय भूमि और जलवायु ने अपनी परिपाक शक्ति द्वारा पुष्ट करके अपना बना लिया।
तत्पश्चात् ई० पू० 326 में यूनानी सम्राट सिकन्दर का भारत पर आक्रमण हुआ उसके साथ यूनानी संस्कृति का प्रवेश भी भारत में हुआ। भारतीय व यूनानी संस्कृतियों के संगम से गान्धार मूर्तिशैली का उद्भव हुआ। इस नवीन शैली के पूर्णतः पुष्ट करके अपनाने के लिये 5, 6 शताब्दियों के समय की अपेक्षा थी। गुप्तकाल की मूर्तिकला और भास्कर्य में इन्हीं दोनों धाराओं की सुसामंजस्य पूर्ण परिणति दिखाई देती है। ई० पू० 500 में फारस निवासियों ने उत्तर भारत तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उस समय तथा उसके पश्चात् कुषाण काल के भारतीय भास्कर्य का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित है। वस्तुत: अशोक के स्तम्भ शीर्षों को देखने पर उनमें यूनानी भास्कर्य की विशेषताएँ स्पष्ट परिलक्षित हैं। यह कहना कठिन है कि क्या यूनानी मूर्तिकारों ने भारतीय नरेशों के आदेश से उन शीर्षों की शिक्षा प्राप्त कर उन्हें बनाया था। इसके कुछ समय के पएचात् तिरहुत, सांची मथुरा और वाराणसी के मूर्तिकारों ने इस पद्धति से पृथक निर्माण किया। बाद को सारनाथ, मथुरा और अमरावती के भास्कर्यकारों ने विदेशी प्रभाव को आत्मस्थ करके उसे पूर्णतः भारतीयत्व प्रदान किया, परन्तु यूनानी ईरानी, भास्कर्य उड़ीसा के चन्द्रगिरि, रागनूर, गुहा तथा सांची के तोरण शीर्ष में अक्षुण्ण रहा। सांची के तोरण शीर्ष प्राय: 2,000 वर्ष पुराने हैं। खण्डगिरि की रानीनूर गुहा में संगति सभा और नृत्य के दृश्यों में तथा हार्पवाद की भी मूर्तियों में और स्वर्ग गुफा की बाकेटों में उत्कीर्ण पक्षमान सिंहनियों की मूर्तियों में ईरानी मूर्ति शैली का प्रभाव पूर्णतया विद्यमान है। मूर्तियां सांची के तोरण शीर्ष में भी पाई जाती हैं और इसी प्रभाव का प्रमाण हैं।
इन सब विभिन्न वैदेशिक प्रभावों को आत्मस्थ करके मूर्तिकला के क्षेत्र में गुप्तकाल ने अपने श्रेष्ठ निजत्व की स्थापना की। गुप्तकाल के भास्कर्य एवं अजन्ता चित्रावली में सुदूरागत विदेशी धारा का कुछ-कुछ प्रभाव है, लेकिन वह क्रमश: क्षीण होता हुआ भारतीय धारा में आत्मसात हो रहा था गुप्त परवर्ती काल में मूर्तिकारों के साथ भारत का यह परिचय एकान्त और स्वाभाविक था।
फिर क्रमश: भारत में आर्य संस्कृति की धारा निष्प्रभ हो चली। ईसा की 12वीं सदी में नव जाग्रत सेनेटिक मुस्लिम संस्कृति ने उसे आक्रान्त कर दिया | भारत पर मुहम्मद गोरी के आक्रमण हुए। इनमें उत्तर भारत के समस्त विहार और ग्रन्थागार ध्वंस हो गये अतः आर्य संस्कृति एवं नवोदित इस्लामी सत्ता के मिलन से भारत में एक श्रेष्ठतर संस्कृति की स्थापना कुछ समय के लिये नष्ट हो गई। मुस्लिम धर्म मूर्तियों के पक्ष में नहीं है तथापि मस्जिदों के निर्माण की आवश्यकता से उसे इन्कार नहीं । प्रयोजन की बाध्यता के कारण कुतुबद्दीन के राज्य काल में हिन्दू स्थापत्यकारों द्वारा निर्मित कौतुल इस्लाम के कई तोरण समूहों में भविष्य के पारस्परिक सम्मिलन का सिंहद्वार खुला! जो हिन्दू स्थापत्य मुस्लिम पद्धति के महराब बनाना नहीं जानते थे, उन्होंने मन्दिरों के शिखरों की कारोवेलि शैली पर मेहराबों का गठन किया। पठान राजस्वकाल में मूर्तिकला का परस्पर सान्निध्य सहज न था। इसका कारण तो यह था कि मुस्लिम धर्मानुसार मनुष्य तथा जीव जन्तुओं की प्रतिकृतियों का निर्माण अशास्त्रीय कार्य था। दूसरे विजेताओं की रुचि के सम्बन्ध के लिए ईरान से कलाकारों को बुलाया गया।
मुगल शासन काल के प्रथम भाग में फारस की चित्रकला की उन्नति हुई और पूर्ण मुगल काल में मूर्तिकला जिस प्रकार की थी उसी प्रकार से बनी रही। शाहजहाँ के पश्चात् मुगल शैली की मूर्तिकला पर यूरोपीय मूर्तिशैलियों का प्रभाव पड़ा। इस प्रभाव के अन्तर्गत पर्सपेक्टिव दिखाने की चेष्टा के अन्तर्गत पैजेन्ट की पद्धति का प्रभाव भी देखा जाता है। लेकिन यह प्रभाव दीर्घस्थायी नहीं रह सका। आज भी भारत में कुछ ऐसे मूर्तिकार हैं जिनकी मूर्तियों पर हम विदेशी मूर्तिशैलियों की छाप देखते हैं। इस प्रकार प्राचीन भारतीय कला के विकास में विदेशी तत्वों का महत्वपूर्ण योगदान है।
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