भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था | भारत की अर्थव्यवस्था | भारत एक विकासशील एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था है?

भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था | भारत की अर्थव्यवस्था | भारत एक विकासशील एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था है?

भारत एक विकासशील अर्थव्यवस्था

(India a Developing Economy)

भारतीय अर्थव्यवस्था का एक और स्वरूप है जिसे हम विकासशील अर्थव्यवस्था कहते हैं। इसमें आयोजन के दौरान कुछ संचागत (Structural) परिवर्तन निम्न शीर्षकों के अंतर्गत दिया गया है।

राष्ट्रीय आय संबंधी प्रवृत्तियाँ

(National Income Trends)

(1) शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि (Rise in Net National Product) 1950-51 से 35 1992-93 की अवधि में शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन की नियमित रूप से वृद्धि हुई है। इस संपूर्ण अवधि में शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन की वृद्धि दर 3.8 प्रतिशत वार्षिक रही है। जो इस अवधि की जनसंख्या वृद्धि दर से ऊँची थी। जिसके फलैस्वरूप न केवल पूंजी संचय को प्रोत्साहन मिला है, बल्कि प्रतिव्यक्ति आय में भी वृद्धि हुई है।

(2) प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि (Rise in Per capita Income) – प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि आर्थिक संवृद्धि का परिचय है। 1950-51 से 1992-93 में प्रतिव्यक्ति राष्ट्रीय आय में 2.2 प्रतिशत वृद्धि हुई। अतः पिछले दस वर्षों में इस वृद्धि को सराहनीय माना जा सकता है।

(23) कांचागत परिवर्तन (Structural Change)- स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में भावात्मक दृष्टि के अलावा कुछ महत्वपूर्ण डाँनागत परिवर्तन हुई है जिनको देखते हुए हम आज भारत को विकासशील अर्थव्यवस्था कह सकते हैं।

(A) कुल राष्ट्रीय उत्पादन के उद्योगवार वितरण में परिवर्तन (Changes is Sectoral Distibution of Net National Products) कृषि व्यवसाय का कुल राष्ट्रीय उत्पाद में योगदान निरंतर कम होता जाता है और कहा जाता है कि आर्थिक विकास का क्रम चल रहा है। 1950-51 में कृषि और सहायक क्रियाओं का कुल राष्ट्रीय उत्पादन में भाग 58 प्रतिशत था जो 1992-93 में घटकर 32.8 प्रतिशत रह गया।

द्वितीयक क्षेत्र में (Secondary Sector) उद्योग निर्माण कार्य बिजली आदि का उत्पादन। आता है। 1950-51 में इस क्षेत्र का कुल राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान लगी।ग 15 प्रतिशत था जो 1992-93 में बढ़कर 40.8 प्रतिशत हो गया। उपरोक्त आकड़ों से पता चलता है कि अर्थव्यवस्था में थोड़ा ढांचागत परिवर्तन हुआ है।

(B) जनसंख्या के व्यावसायिक वितरण में लगभग स्थिरता (Neat Stability in the Occupational Distribution of Population)- प्रत्येक विकासशील अर्थव्यवस्था में जनसंख्या का व्यावसायिक वितरण धीरे-धीरे द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में पक्ष में बदलता है। ऐसा कृषि के महत्व में कमी और औद्योगिक विकास के कारण होता है। भारत में औद्योगिक की प्रक्रिया धीमी रही है साथ ही तृतीयक क्षेत्र का विकास भी धीरे-धीरे ही हुआ है। जिस कारण जनसंख्या के व्यावसायिक वितरण में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ सकना संभव नहीं है।

(C) भूमि संबंधों में परिवर्तन (Changes in Land Relations)- जनसंख्या के व्यावसायिक वितरण में स्थिरता के विपरीत भारत में भूमि संबंधों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। ब्रिटिशकाल में अधिकांश कापे भूमि पर जमीदारी का अधिकार वा जो काश्तकारी से भारी लगान वसूल करते थे। आजादी के बाद जमींदारी प्रथा को खत्म कर दिया गया, लेकिन कृषि भूमि का काश्तकारों और खेतिहर मजदूरों में ठीक तरह से वितरण नहीं हुआ। इसके बावजूद नए भूमि संबंधों के कारण उत्पादन शक्तियों का कृषि में विस्तार हुआ है। बड़े किसान आज अधिकतर कृषि कार्यों में नई तकनीकों का प्रयोग करते हैं साथ ही दूसरे कृषि कार्यों के लिए खेतिहर मजदूरों को काम पर लगाया जाता है।

(1) आधारभूत उद्योगों का विकास (Growth of Basic Industries) – आजादी के समय भारत का औद्योगिक ढाँचा सामान्य रूपसे अल्पविकसित तथा पिछड़ा हुआ था। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में पूँजीगत वस्तुएं उत्पादित करने वाले उद्योगों पर जोर दिया गया था। उसके बाद अनेक आधारभूत उद्योग स्थापित किये गये और औद्योगिक ढाँचे में मतबूती आई है।

(E) सामाजिक उपरिव्यय पूँजी का विस्तार (Expansion in Social Overhead) उपरिव्यय पूँजी के अंतर्गत सामान्य रूप से परिवहन के साधन सिंचाई सुविधाएँ ऊर्जा का उत्पादन करने वाली इकाइयों, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाएँ आती हैं। आयोजन के द्वारा पिछले 43 वर्षों में भारत में सामाजिक उपरिव्यय पूंजी का काफी विस्तार हुआ है।

(F) बैंकिंग और अन्य वित्तीय संस्थाओं का विकास (Expansion in Social Overhead Capital)- आजादी के बाद देश के बैंकिंग और वित्तीय ढाँचे में अनेक प्रगतिशील परिवर्तन हुए। सर्वप्रथम 1949 में रिजर्व बैंक का राष्ट्रीकरण हुआ तथा 1955 में इम्पीरियल बैंक (वर्तमान भारतीय स्टेट बैंक) का तथा 1969 में चौदह अन्य बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। इसके बाद समाज के प्रत्येक वर्ग की साख संबंधी जरूरतों के लिए अनेक बैंकिंग और वित्तीय संस्थाओं का विकास किया गया है।

उपरोक्त सभी कारकों ने आयोजन काल में एक ऐसी गति पैदा की है कि जिसे देखकर आशा की जा सकती है कि आगे आनेवाले वर्षों में भी तेजी के साथ विकास प्रक्रिया जारी रहेगी।

भारत एक मिश्रित अर्थव्यवस्था

(India A Mixed Economy) –

आजादी के बाद एक बड़े सार्वजनिक क्षेत्र का विकास हुआ है। आयोजन के द्वारा आर्थिक विकास की प्रक्रिया अपनायी गयी है। सार्वजनिक क्षेत्र की मौजूदगी तथा आर्थिक आयोजन की व्यवस्था के कारण ही यहाँ की अर्थव्यवस्था मिश्रित अर्थव्यवस्था कहलाती है इसके लक्षण भिन्न प्रकार है।

  1. लाभ प्रेरित वस्तु उत्पादन (Profit-Induced Commodity Production)- भारत में आज उत्पादन मुख्य रूप से बिक्री के लिए किया जाता है। औद्योगिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाले सभी कारखाने तथा बड़े किसान भी अपने उत्पादन का बड़ा भाग बाजार में बेचते हैं।
  2. उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व (Private Ownership of the Means of Production)- भारत में बुनियादी उद्योगों (Basic Industries) को छोड़कर सभी उद्योग निजी क्षेत्र में हैं। इसी कारण सार्वजनिक क्षेत्र का कुल राष्ट्रीय उत्पादन में भाग 20 प्रतिशत से भी कम है।
  3. सार्वजनिक क्षेत्र (Public Sector ) – भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र का स्थान काफी महत्वपूर्ण है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत समस्त निवेश का लगभग 45 प्रतिशत सार्वजनिक क्षेत्र में और शेष निजी क्षेत्र में रहा है।
  4. आर्थिक आयोजन (Economic Planning)- आर्थिक आयोजन भारतीय अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण विशेषता है। सर्वप्रथम भूतपूर्व सोवियत संघ जो समाजवादी राष्ट्र था। जो आर्थिक आयोजन को अपनाया था तब से दुनिया के अधिकतर देशों में आयोजन को अपनाया तथा अब दुनियाँ के अधिकतर देशों में अर्थव्यवस्था का संचालन निश्चित योजनाओं के अनुसार होता है।
  5. बाजार तंत्र द्वारा आर्थिक क्रियाओं का निर्देशन (Direction to Economic Activities by the Market-Mechanism)- भारतीय अर्थव्यवस्था में बाजार तंत्र बहुत प्रभावशाली है। वस्तुओं के साथ-साथ यहाँ श्रम और पूँजी के अंतर्गत संगठित बाजार हैं। वस्तु बाजारों में अधिकांश चीजों की कीमतें माँग (Demand) और पूर्ति (Supply) की शक्तियों के बीच संतुलन द्वारा निर्धारित होती है। भारत में मुद्रा बाजार में विविध प्रकार की वित्तीय संस्थाएँ हैं। परंतु बाजार तंत्र पर सरकार की कई तरह से नियंत्रण है।
  6. एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ (Monopoly Trends ) – भारतीय अर्थव्यवस्था में आयोजन काल में तेजी के साथ एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ विकसित हुई है और आर्थिक शक्ति को केंद्रीकरण बढ़ा है। इस समय बड़ी कंपनियाँ या तो भारत के बड़े उद्योग गृहों से संबद्ध है या फिरवे बहुराष्ट्रीय निगमों की सहायक है।
  7. कृषि क्षेत्र में पूर्व पूँजीवादी उत्पादन संबंध (Pre & Capitalist Relations of Production in Agriculture)- भारती अर्थव्यवस्था में जहाँ औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन के संबद्ध विशुद्ध (Pure) रूप में पूँजीवादी हैं, वहाँ कृषि क्षेत्र में उत्पादन के संबंधों के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने पर पता चलता है कि आयोजन काल में किये गये भूमि सुधारों के बावजूद आज भी कृषि क्षेत्र में उत्पादन संबंध अधिकांश क्षेत्रों में पूर्व-जीवाद (Pre Capitalist) ही है।

भारतरीय अर्थप्रणाली के स्वरूप का निर्धारण करने के लिए अलग-अलग लक्षणों का वर्णन किया जा चुका है। हम इन सभी लक्षणों को मिलाकर भारत की अर्थप्रणाली का स्वरूप निश्चित करेंगे। भारत में आर्थिक आयोजन का स्वरूप समाजवादी होकर आर्थिक आयोजन की पूँजीवादी ढाँचे के भीतर ही अपनाया गया है।

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