इतिहास

वैदिक साहित्य से आप क्या समझते हैं | वैदिक साहित्य का रचना काल | वैदिक साहित्य के अंग

वैदिक साहित्य से आप क्या समझते हैं | वैदिक साहित्य का रचना काल | वैदिक साहित्य के अंग

वैदिक साहित्य

वैदिक साहित्य विश्व साहित्य की अनमोल निधि है। इस साहित्य में ज्ञानदर्शन, सत्यान्वेषण, चरमोद्देश्य की प्राप्ति आदि विषयों का पूर्ण मनन एवं चिन्तन है। कल्पना एवं अनुभूतियों का अभूतपूर्व संगम एवं मानवीय विचारों की पराकाष्ठा का अति गम्भीर तथ्यपूर्ण एवं रोचक निष्कर्ष वैदिक साहित्य की अपूर्व देन है। ज्ञान का जो भण्डार वैदिक साहित्य में निहित है वह अन्यत्र अप्राप्य है। यह एक अनोखी बात है कि प्रायः वैदिक युग की संस्कृति के विषय में तो बहुत कुछ कहा गया है परन्तु स्वयं वैदिक साहित्य के विषय तथा उनमें निहित गूढ़ रहस्यों के विषय में बहुत ही कम विचार किया गया है। मैक्समूलर महोदय ने इस विषय में उचित ही लिखा है कि “वैदिक अध्ययन को प्रोत्साहन देने वाला किसी भी प्रकार का लोभ भारत में सहस्राब्दियों से नहीं है।’

वैदिक साहित्य का रचना काल

वैदिक साहित्य की रचना किसी एक समय में नहीं हुयी थी। वेदों में वैवस्वत मनु के समय से लेकर महाभारत काल तक के लगभग सभी मन्त्र संग्रहीत हैं। इस प्रकार वैवस्वत मनु के समय से लेकर महाभारत तक (लगभग 1500 वर्षों तक) वैदिक सूत्रों की निरन्तर रचना होती रही। इस युग में जिस सभ्यता तथा संस्कृति का निर्माण हुआ-उसे ही वैदिक युग कहा जाता है। वैदिक साहित्य का प्रारम्भिक समय ऋग्वेद की प्राचीनता के आधार पर ही निश्चित किया गया है। दुर्भाग्यवश ऐसा कोई भी सुनिश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर वैदिक साहित्य की इस सर्वप्रथम रचना का काल निर्धारण किया जा सके। विभिन्न मतों के विवेचन के आधार पर तथा अति उदार एवं उग्रविचारों से बच-बचाकर हम अनुमान के आधार पर कह सकते हैं कि वैदिक साहित्य का प्रारम्भ 2000 या 2500 वर्ष ई० पू० के लगभग हुआ था तथा महात्मा बुद्ध के समय तक इस साहित्य में निरन्तर अभिवृद्धि होती रही। तथागत के उपरान्त वैदिक साहित्य की रचना में अभिवृद्धि तो अवश्य हुई परन्तु यह ‘ऐतिहासिक वैदिक युग’ की अपेक्षा अति मन्द थी।

वैदिक साहित्य के अंग

वैदिक साहित्य के अन्तर्गत वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद, वेदांग तथा दर्शन ग्रन्थ आदि हैं। इस साहित्य के विभिन्न अंगों का वर्णन निम्नलिखित है-

वेद

वेद का अर्थ है ज्ञान। यह शब्द ‘विद’ धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। इस प्रकार वेद शब्द का संकेतात्मक अर्थ ज्ञान प्राप्त करना है। हिन्दुओं की धारणा है कि वेद सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के मुख से निकले हुए शब्द हैं। अनेक विद्वानों का विचार है कि वेदों के रचयिता प्राचीन सत्यान्वेषी ऋषि थे। वेदों का अधिकांश पद्य शैली में है तथापि उनमें गद्य शैली का भी प्रयोग किया गया है। वैदिक पद्य को, ‘ऋचा’ तथा गद्य को ‘यजुष’ कहते हैं। वेदों की संख्या चार है-(1) ऋग्वेद, (2) यजुर्वेद, (3) सामवेद, तथा (4) अथर्ववेद । ऋग्वेद में केवल तीन प्रथम वेदों का ही उल्लेख है तथा उन्हें ‘त्रयी’ कहा गया है। आचार्य कौटिल्य ने अपनी रचना ‘अर्थशास्त्र’ में ‘अथर्ववेद’ को इतिहास माना है। इन चार वेदों का परिचय निम्नलिखित है-

(1) ऋग्वेद- ‘ऋक’ अथवा ‘ऋचा’ शब्द का अर्थ है ‘स्तुति मन्त्र।’ ऋग्वेद में ‘ऋचाओं’ अथवा स्तुति मन्त्रों का संकलन किया गया है। इसमें विभिन्न आर्य देवताओं की स्तुतियाँ हैं। ऋग्वेद में 1017 सूक्त हैं। सूक्त का अर्थ है ‘अच्छी उक्ति’। इन सूक्तों में यदि हम 11 बालखिल्य सूक्त भी जोड़ दें तो ऋग्वेद के कुल सूक्तों की संख्या 1028 हो जायेगी। इसमें 10 मण्डल हैं तथा कुल  10580 ऋचाएं । ऋग्वेद का प्रत्येक ऋचा के साथ उसके कांप तथा देवता का नाम भी दिया गया है। ऋषि का अर्थ है ‘मन्त्र द्रष्टा’ अथवा मन्त्र का दर्शन कराने वाला। इस प्रकार ऋग्वेद की रचना तो ईश्वर के मुख से निकले हुए शब्दों से हुई परन्तु इनके द्रष्टा ऋषि थे। ऋग्वैदिक देवता प्रकृति के विभिन्न अवयवों के प्रतिनिधि रूप हैं, जैसे सूर्य, वायु, अग्नि, चन्द्र आदि। ऋग्वेद में अनेकानेक ऐसे सूक्त भी है जिनके द्वारा तत्कालीन संस्कृति तथा सभ्यता का परिचय मिलता है। ऋग्वेद के ऋषियों में गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज तथा वशिष्ठ हैं। ये ऋषि तथा उनके वंशज ऋग्वेद के दूसरे मण्डल से लेकर सातवें मण्डल तक के मन्त्रों के द्रष्टा थे। आठवें मण्डल के ऋषि कण्व तथा अंगिरस वंश के थे। प्रथम, नवें तथा दसवें मण्डलों के मन्त्र द्रष्टा ऋषि अनेक हैं। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि ऋग्वेद के मन्त्र रचयिता ऋषियों के रूप में लोपामुद्रा, घोषा, शची तथा काक्षावृत्ति आदि स्त्रियाँ भी प्रमुख हैं।

(2) यजुर्वेद- इसमें याज्ञिक मन्त्रों का संकलन है। इसकी शैली गद्यात्मक है। इसके मन्त्र ऋग्वेद तथा अथर्ववेद से लिये गये हैं। मूलरूप से यह कर्मकाण्ड प्रधान ग्रन्थ है। यजुर्वेद में चालीस अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय का किसी न किसी याज्ञिक क्रिया से सम्बन्ध है। प्राचीनकाल से ही यजुर्वेद दो भागों में विभक्त था-पहला कृष्ण यजुर्वेद तथा दूसरा शुक्ल यजुर्वेद। पातंजलि के समय में यजुर्वेद 101 शाखाओं में उपलब्ध था परन्तु आज केवल 6 शाखायें ही प्राप्त हैं। इनमें कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखायें यथा- कठक, कपिष्ठल, मैत्रेयी तथा तैत्तिरीय शाखायें तथा शुक्ल यजुर्वेद की कण्व एवं माध्यन्दिन शाखायें हैं। यजुर्वेद की विभिन्न शाखाओं तथा भेद का कारण इसके मन्त्रों का ऋषियों द्वारा श्रवण के अनुसार कण्ठस्थ किया जाना है। इस विधि द्वारा मूल रूप में कुछ-न-कुछ भेद अथवा अन्तर हो जाना स्वाभाविक ही है। यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय ईषोपनिषद है- जिसका विषय याज्ञिक न होकर दार्शनिक है।

(3) सामवेद- यह संगीतमय वेद है। आर्यों के संगीत प्रेम का परिचय देने वाले इस वेद में यज्ञ के समय गीत की शैली में उच्चारण किये जाने वाले मन्त्रों का संकलन है। महाभाष्य से पता चलता है कि सामवेद की एक सहस्र शाखायें थीं। परन्तु हमें केवल तीन शाखाओं का ही बोध है

श यथा-कौथुम, राणायनीय तथा जैमिनीय। सामवेद में 99 मूल मन्त्र हैं-तथा शेष मन्त्र, ऋग्वेद से लिये गये हैं। सामवेद के दो भाग हैं-पूर्वार्चिक तथा उत्तरार्चिक! पहले भाग के 6 अनुभाग हैं-जिन्हें प्रपाठक कहा गया है। दूसरे भाग में 9 प्रपाठक हैं। सामवेद को भारतीय संगीत का प्रथम ग्रन्थ भी कहा जाता है।

(4) अथर्ववेद- भाषा, विषय तथा स्वरूप के आधार पर प्रकट होता है कि अथर्ववेद, वेदों की अन्तिम कड़ी है। इस वेद में सामान्य भौतिकवादी विषयों तथा दर्शन एवं आध्यात्मवाद जैसे गूढ़ विषयों का समन्वय है। आजकल अथर्ववेद की केवल दो ही शाखायें उपलब्ध हैं-शौनक तथा पैप्लाद । अथर्ववेद में 20 काण्ड, 34 प्रपाठक, 111 अनुवाक, 731 सूक्त तथा 5839 मन्त्र हैं। इसमें अनेक ऋग्वैदिक मन्त्र भी संकलित हैं। अथर्ववेद में मारण, मोहन तथा उच्चाटन आदि से सम्बन्धित मन्त्र भी संगृहीत हैं।

ब्राह्मण ग्रन्थ

ब्राह्मण ग्रन्थ वैदिक संहिताओं के विकास के परिचायक हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में वेदों के तथ्यों का स्पष्टीकरण किया गया है। इनमें वैदिक कर्मकाण्ड तथा अनुष्ठानों का वर्णन तो है ही, साथ ही इनमें शब्दों की व्युत्पत्ति तथा अनेक रोचक गाथाएँ भी संग्रहीत हैं। प्रत्येक ब्राह्मण ग्रन्थ किसी न किसी वेद का प्रतिनिधित्व करता है। ब्राह्मण ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित है-

(1) ऐतरेय ब्राह्मण- इसका सम्बन्ध ऋग्वेद से है। इसके रचयिता महीदास ऐतरेय थे- तथा इसमें चालीस अध्याय हैं।

(2) कौषीतकी (सांख्यायन) ब्राह्मण- इसका विषय ऐतरेय ब्राह्मण के समान है अतः यह भी ऋग्वेद का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। इसमें तीस अध्याय हैं।

(3) तैत्तिरीय ब्राह्मण- इस ब्राह्मण ग्रन्थ का सम्बन्ध यजुर्वेद की कृष्ण शाखा से है।

(4) शतपथ ब्राह्मण- यह शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण ग्रन्थ है। इसमें शत अध्याय तथा चौदह काण्ड है। यद्यपि इसके रचयिता याज्ञवल्क्य ऋषि माने जाते हैं, परन्तु प्रतीत होता है कि इसकी रचना में कई मनीषि ऋषियों का सहयोग रहा होगा। इस ग्रन्थ में यान्त्रिक अनुष्ठानों के साथ-साथ उनका प्रयोजन भी निर्दिष्ट किया गया है।

(5) ताण्डव महाब्राह्मण- यह सामवेद से सम्बन्धित है।

(6) षड्विंश ब्राहाण- इसका सम्बन्ध भी सामवेद से है।

(7) जैमिनीय ब्राहाण- यह ग्रन्थ भी सामवेद का प्रतिनिधित्व करता है।

(8) गोपथ ब्राह्मण- यह ग्रन्थ अथर्ववेद से सम्बन्धित है तथा इसमें मारण, मोहन, उच्चाटन तथा चिकित्सा सम्बन्धी मन्त्रों के याज्ञिक अनुष्ठानों का विस्तृत वर्णन है।

आरण्यक

‘अरण्य’ का अर्थ है वन अथवा जंगल। आध्यात्मिक, पारलौकिक तथा दार्शनिक चिन्तन करने वाले ऋषि प्रायः वनों, पर्वत कन्दराओं तथा एकाकी स्थानों में निवास तथा मनन किया करते थे। फलतः इस प्रणाली तथा विधि द्वारा जिन ग्रन्थों की रचना हुई-वे ‘आरण्यक’ कहे जाते हैं। मूल रूप से आरण्यक ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तिम भाग हैं। भाषा, शैली तथा विषयानुसार ये ब्राह्मणों से मिलते- जुलते हैं। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि जिस प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थ वेदों के अंग हैं, ठीक उसी प्रकार आरण्यक ब्राह्मणों के अंग अथवा अन्तिम भाग हैं। आरण्यक में दार्शनिक मीमांसा, कर्मकान्डी अनुष्ठानों का विधि वर्णन तथा वैदिक संहिताओं के रहस्यमय विषयों की व्याख्या की गई है। आरण्यक अति पवित्र माने जाते थे तथा इनका पठन-पाठन, अरण्य के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान पर किया जान निषिद्ध था।

उपनिषद्

‘उप’ का अर्थ है ‘निकट’ और ‘निषद्’ का अर्थ है ‘बैठना’ । कुछ विद्वानों का विचार है कि उपनिषदों का सम्बन्ध उस ज्ञान से है जो गुरु के निकट बैठ कर प्राप्त किया जाता था। कतिपय विद्वानों के अनुसार उपनिषदों का अर्थ उस ज्ञान से है जो मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान अथवा आत्म ज्ञान कर। देता था। डा० राधाकृष्णन के अनुसार-“उपनिषदों में परमात्मन् और वैयक्तिक ईश्वर के बीच, शाश्वत् के अन्तिम सत्य और नश्वर अस्तित्व के सापेक्ष सत्य के बीच का अन्तर स्पष्ट बताया गया है।” उपनिषदों का प्रमुख विषय आध्यात्मिक ज्ञान है। इनके अनुसार ब्रह्म ही विश्व का कारण, धारण एवं संचारण शक्ति है, वही आत्मा है तथा मानव की आत्मा में वही ब्रह्म ‘स्व’ के रूप में स्थित है। सार्वभौमिक जगत के लिये ऐसा पराकाष्यपूर्ण चिन्तन अन्यत्र अप्राप्य है। श्री शॉपन हायर महोदय ने उपनिषदों के विषय में लिखा है-

“In the whole world there is no study so beneficial and so elevating as that of Upnishads. It has been the solace of my life and it will be the solace of my death.”

उपनिषदों की कुल संख्या 108 बताई गई है। उपनिषदों में ऐतरेय उपनिषद् (ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण से सम्बन्धित), ईषोपनिषद् (यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय), बृहदारण्यकोपनिषद् (शतपथ ब्राह्मण से सम्बन्धित), केनोपनिषद्, कठोपनिषद्, प्रश्न मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, श्वेताश्वतर, छान्दोग्य, कौषीतिकी आदि विशेष उल्लेखनीय तथा महत्वपूर्ण है।

वेदांग

वेदों के ज्ञान तथा रहस्य को और अधिक स्पष्ट करने के लिये कालान्तर में वेदांगों की रचना की गई। ये उत्तर वैदिककाल की रचना हैं। वेदांग 6 है-

(1) व्याकरण- वेदों का सहज तथा नियमपूर्ण ज्ञान सुलभ कराने के लिये भाषा के नियमों का विकास तथा प्रतिपादन किये जाने के लिये व्याकरण का जन्म हुआ। व्याकरण द्वारा रचना, सन्धि, शब्द रूप, धातु रूप आदि की व्याख्या की गई।

(2) शिक्षा- मन्त्रों का ज्ञान तथा उनके उच्चारण के लिये वेदांग के रूप में शिक्षा का विकास किया गया।

(3) कल्पशास्त्र- प्राचीन आर्यों के जीवन में नियम, कर्त्तव्य, संस्कारों, कर्मकाण्ड तथा धर्म व्यवस्था का विशेष महत्व था। इन विषयों का नियमन तथा ज्ञान प्राप्त करने के लिये कल्प की रचना की गई।

(4) छन्दशास्त्र- इसमें वैदिक छन्दों की व्याख्या है। इस शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ आचार्य पिंगल रचित ‘छन्द सूत्र’ है।

(5) निरुक्त- इसमें वेदों का शब्द निरूपण किया गया है। इस विषय का प्रमुख ग्रन्थ यास्काचार्य रचित ‘निरुक्त’ है।

(6) ज्योतिष- इसमें यज्ञों को अधिकाधिक उपयोगी तथा उनके द्वारा अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने के लिये मुहूर्त, स्थान, वेदि निर्माण के नियमों तथा स्थान के चयन का पता लगाने की विधि दी गई है। यह अंक गणना तथा ज्योमितीय विधि का विज्ञान था।

धर्मशास्त्र

धर्मशास्त्र की गणना भी वैदिक साहित्य के अन्तर्गत की जाती है। धर्मशास्त्रों में विष्णु धर्मशास्त्र, मानव धर्मशास्त्र, याज्ञवल्क्य स्मृति तथा नारद स्मृति प्रमुख हैं। इन धर्मशास्त्रों में धर्म विषयक नियमों, सिद्धान्तों, विषयों तथा उपदेशों का संकलन है। इस साहित्यिक वर्ग द्वारा आर्य धर्म की संस्थाओं तथा दर्शन शाखाओं के विषय में जानकारी प्राप्त होती है।

पुराण

पुराण अपेक्षाकृत बाद में लिखे गये थे। कतिपय पुराण मूलतः वैदिक युग में रचे गये थे तथा अनेक पुराण प्रारम्भिक ईसवी सदियों में रचे गये। पुराणों के विषयों, वर्णनों तथा कथा सामग्री की विवेचना द्वारा हमें इस निष्कर्ष की प्राप्ति होती है कि इनकी रचना में अनेक विद्वानों का योगदान था तथा ये एक लम्बी अवधि तक रचे जाते रहे थे। पुराण 18 हैं तथा उनमें आर्यों के विभिन्न राजवंशों का रोचक तथा विस्तृत विवरण है। ऐतिहासिक तथ्यों के अलावा इनमें धार्मिक, सांस्कृतिक तथा कला जगत के भी वर्णन मिलते हैं। कुल मिलाकर इनमें इतिहास, धर्म, दृष्टान्त, आख्यायिकाओं का मिलाजुला वर्णन है। पुराणों में विष्णु पुराण, स्कन्द पुराण, भागवत, पुराण, तथा मत्स्य पुराण विशेष उल्लेखनीय हैं।

महाकाव्य

महाकाव्यों यथा-रामायण तथा महाभारत की गणना वैदिक साहित्य एवं दर्शन ग्रन्थों में की जाती है; इन महाकाव्यों में वर्णित घटनाओं के काल को महाकाव्य काल कहा जाता है। इनकी गणना उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता के अन्तर्गत की जाती है।

वैदिक साहित्य का महत्व

वैदिक साहित्य अपनी श्रेष्ठता तथा उपलब्धियों में अद्भुत, अनोखा एवं आश्चर्यजनक है! यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि साहित्यिक विकासावस्था की प्रारम्भिक अवस्था में ही वैदिक ग्रन्थों ने ऐसा ज्ञान प्रकाश फैला दिया जिसका अनुभव आज भी किया जा सकता है। एडोल्फ गाल्गी महोदय ने वैदिक साहित्य का महत्व स्पष्ट करते हुए लिखा है-

“The chief importance of Vedas is not indeed in the history of literature, but: it lies elsewhere. It lies in the very extra-ordinary fullness of disclosures which it gives to the students of Philosophy and history of civilisation.”

वैदिक साहित्य अपने विषयों, अर्थों, रहस्यों तथा उनका उद्घाटन करने में अपूर्व है। भारतीय भूमि पर रचित साहित्य की सम्पूर्ण रचनाओं की यह पहली कड़ी ही सर्वश्रेष्ठ तथा सदैव से अनुकरणीय रही है। वैदिक साहित्य सर्वांगीण है तथा सृष्टि का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं है। इसे केवल साहित्य मात्र ही समझना भारी भूल होगी-वस्तुतः यह भारतीय आत्मा एवं सम्पूर्ण भारतीय सभ्यता और सांस्कृतिक निधि का भण्डार है।

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Pankaja Singh

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