विवाह संस्था में होने वाले परिवर्तन के कारण | नगरीय समाज में विवाह संस्था में होने वाले परिवर्तन के कारण स्पष्ट कीजिए।

विवाह संस्था में होने वाले परिवर्तन के कारण | नगरीय समाज में विवाह संस्था में होने वाले परिवर्तन के कारण स्पष्ट कीजिए | Reasons for changes in the institution of marriage in Hindi | Explain the reasons for the change in the institution of marriage in urban society in Hindi

विवाह संस्था में होने वाले परिवर्तन के कारण

नगरीय परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित कारकों का संक्षेप में उल्लेख किया जायेगा। ये कारक निम्नलिखित हैं-

(1) विवाह की आयु में परिवर्तन –

वर्तमान समय में नगरीय समाज में विवाह की आयु में परिवर्तन हो रहा है। लड़के-लड़की का विवाह देरी से सम्पन्न किया जाता है। शिक्षा के प्रसार, नगरीकरण एवं आधुनिकीकरण व बदलते मूल्यों के परिणामस्वरूप ऐसा संभव हो सका है। यद्यपि नगरीय समाज में भी निम्न सामाजिक आर्थिक सोपानों के लोग कम उम्र में विवाह करते हैं, लेकिन नगरीय मूल्य धीरे-धीरे उसमें परिवर्तन ला रहे हैं। गैर-कृषक व्यवसाय, शिक्षा प्रसार, विवाह संबंधी कानून का भय जिसके अन्तर्गत कम उम्र में विवाह पर प्रतिबंध हैं, आदि कारक अधिक उम्र में विवाह सम्पन्न किये जाने के प्रति उत्तरदायी प्रतीत होते हैं।

(2) जाति के महत्व में कमी-

नगरीय समाज में जाति-व्यवस्था का महत्व कम हो गया है, ऐसी बात नहीं है लेकिन जाति की भूमिका धीरे-धीरे गौण होती जा रही है। अंतर्जातीय तथा अंतधार्मिक विवाह को कानूनी मान्यता प्राप्त होने के पश्चात् इस प्रकार के विवाहों की संख्या में नगरीय समाज में निरंतर वृद्धि हो रही है। जाति के बंधन ढीले पड़ते जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त, नगरीय समाज में अर्न्तजातीय तथा अन्तर्धार्मिक विवाहों के अतिरिक्त अन्तर क्षेत्रीय (Inter Regional) विवाह भी सम्पन्न हो रहे हैं।

(3) परिवार की भूमिका में शिथिलता-

परंपरागत समाजों में विवाह निर्धारण में परिवार के वरिष्ठ पुरूष सदस्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है तथा विवाह में लड़का-लड़की की कोई भूमिका नहीं होती है। इसके विपरीत नगरीय समाज में विवाह में लड़के-लड़की की स्वीकृति व पसंद को महत्ता दी जाने लगी है। अनेक बार तो माता-पिता को तब ज्ञात होता है जब लड़का- लड़की विवाह करने का निश्चय कर लेते हैं।

(4) अन्तर्जातीय तथा अंतर्धार्मिक विवाहों का उदय-

नगरीय शिक्षित समाज में अंतर-जातीय एवं अंतर-धार्मिक विवाह सम्पन्न होने लगे हैं। कानून इस प्रकार के विवाहों को स्वीकृति एवं संरक्षण प्रदान करता है। यद्यपि वर्तमान में भी ऐसे विवाहों की संख्या नगण्य है तथापि ऐसे विवाह नगरीय समाज में अस्तित्व में आने लगे हैं।

(5) प्रेम-विवाह का उदय-

लड़का-लड़की स्वेच्छा से विवाह करने लग गये हैं। ऐसे विवाह को प्रेम विवाह की संज्ञा दी जाती है। अक्सर प्रेम-विवाह कानून द्वारा मान्य होते हैं, न्यायालय में पंजीकरण द्वारा इन्हें मान्यता प्राप्त है। कभी-कभी माता-पिता की स्वीकृति के बिना भी प्रेम-विवाह सम्पन्न हो जाते हैं। ऐसे विवाह में लड़का-लड़की का कानूनन निर्धारित न्यूनतम आयु प्राप्त होना आवश्यक है। न्यायालय के अतिरिक्त ऐसे विवाह आर्य समाज व धार्मिक स्थलों में भी सम्पन्न किये जाते हैं।

(6) प्रस्थिति प्रतिमानों में परिवर्तन-

परंपरागत ग्रामीण समाज में जाति, खानदान आदि को ऊँची प्रस्थिति के प्रतीक के रूप में माना जाता था परन्तु नगरीय समाज में शिक्षा एवं व्यावसायिक प्रस्थिति को महत्व दिया जाता है। अपने जीवन साथी के चयन में नगरीय पृष्ठभूमि वाले अधिकांश पुरुष, शिक्षित एवं कार्यशील लड़कियों से विवाह-सम्बन्ध स्थापित करना पसंद करते हैं। इस प्रकार की गैरपारंपरिकता प्रमुख रूप से नगरीय क्षेत्रों में ही देखने को मिलती है। नगरों में शिक्षित युवक-युवतियाँ जीवन साथी के चयन में व्यावसायिक सामंजस्य चाहते हैं। जैसे एक डॉक्टर लड़का डॉक्टर कन्या से ही विवाह करना पसंद करता है। बड़े-बड़े नगरों में तो लोग विवाह में नौकरी करने वाली लड़की को प्राथमिकता देते हैं।

(7) स्वभाव संबंधी सामंजस्य-

ग्रामीण समाज में विवाह तय करने में लड़के-लड़की की भूमिका नगण्य होती है। कम उम्र में विवाह होने के कारण ही एक दूसरे के स्वभाव को परख नहीं पाते। जबकि नगरीय समाज में शिक्षा के प्रसार एवं परिपक्व आयु में विवाह सम्पन्न होने के कारण लड़के-लड़की को विवाह से पूर्ण एक दूसरे को जानने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता है। पढ़े-लिखे माता-पिता उन्हें विवाह-पूर्व मिलने-जुलने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। लड़का-लड़की इस प्रकार विवाह पूर्व एक दूसरे के स्वभाव से कम से कम आंशिक रूप से परिचित अवश्य होते हैं। कभी-कभी स्वभाव में सामंजस्य न होने पर विवाह सम्पन्न नहीं हो पाते हैं।

(8) दहेज-

विवाह में दहेज की मात्रा में कोई अंतर देखने को नहीं मिलता है। शिक्षा एवं उच्च व्यवसाय की प्राप्ति के पश्चात् दहेज की मात्रा में कमी के बजाय वृद्धि हुई है। कभी-कभी किन्हीं समुदायों में यह भी देखने को मिलता है कि लड़के के पद के साथ दहेज की राशि निर्धारित होती है। विडम्बना इस बात की है कि लड़की की उच्च शिक्षा व व्यवसाय में रत होने के पश्चात् भी लड़की के माता-पिता को दहेज की परम्परा का निर्वाह करना पड़ता है।

(9) वैवाहिक सम्बन्धों की शिथिलता-

एक अन्य बात विवाह के संदर्भ में जो नगरीय समाज में देखने को मिलती है वह यह कि परंपरागत एवं ग्रामीण समाजों की अपेक्षा नगरीय समाज में वैवाहिक सम्बन्धों में शिथिलता देखने को मिलती है। परिणामस्वरूप विवाह- विच्छेद अधिक होने लगे हैं। तलाक सम्बन्धी परंपरागत नियम महत्वहीन हो गये हैं। वर्तमान कानून (न्यायालय) तलाक सम्बन्धी मामलों का निर्धारण करते हैं। विवाह कठोर रूप से एक विवाही होते हैं। विवाह के अवसर पर संस्कार-विधियों में सरलीकरण तथा नगरों में न्यायालय द्वारा सम्पन्न किये गये विवाह इस बात की ओर संकेत करते हैं कि विवाह में धार्मिक एवं आनुष्ठानिक पक्षों की महत्ता में कमी आयी है। परंपरागत रूढ़ियाँ टूट रही हैं। भारत में नगरीय युवक-युवतियों के विवाह सम्बन्धी दृष्टिकोण से इस बात की जानकारी होती है कि वे परंपरागत रीति-रिवाजों को छोड़ना चाहते हैं। लेकिन वे उन नैतिक दबावों एवं परंपरागत प्रतिबन्धों के कारण ऐसा नहीं कर पाते जिनका कि नगरों पर भी काफी हद तक नियंत्रण बना हुआ है। नगरों में भी व्यवस्थित विवाह, जाति के भीतर विवाह एवं दहेज की चाह यथावत् पायी जाती है। नववधू के दहेज न लाने पर अनेक प्रकार से उसे प्रताड़ना देना, दुल्हन को जलाये जाने की घटनाएँ इस बात के प्रमाण के रूप में हैं तथापि विवाह के कतिपय प्रतिमानों में बदलाव अवश्य आया है।

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